कविता में होली: ‘रही यह एक ठिठोली’
लेखक : नैनीताल समाचार ::अंक: 16 || 15 मार्च से 31 मार्च 2016:: वर्ष :: 39:
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हरीश चन्द्र पाण्डे
होली की उत्सकथा प्रह्लाद, हिरण्यकश्यप और होलिका से मानी जाती रही है और इसका उत्सवधर्मी स्वरूप ब्रजमण्डल से आ रही तरंगों से अपनी खुराक लेता रहा है। इसकी उत्सवधर्मिता में अपनी माटी की गंध लिये, गायन या व्यवहार के कुछ अपने स्थानीय संस्करण देखे जा सकते हैं। होली गीतों के रचयिताओं ने इसे काल व धर्म के दायरों के पार कराया। वह त्रेता के अवध में खेली गई तो उसी अवध में वाजिद अली शाह द्वारा अभिनीत भी की गई. नजीर अकबराबादी ने होली को कुछ यूँ देखा-
गुलजार खिले हों परियों के
और मजलिस की तैयारी हो
कपड़ों पर रंग के छीटों से
खुश रंग अलग गुलकारी हो
मुँह लाल गुलाबी आँखें हों और
हाथों में पिचकारी हो
इस रंग भरी पिचकारी को
अंगिया पर तक कर मारा हो
सीनों से रंग ढुलकते हों,
तब देख बहारें होली की।
होली पर बहुत पहले से बहुत कुछ कहा-लिखा जा रहा है। अनाम लोक रचनाएं भी हैं। और शायद इसकी लोकप्रियता का कारण भी यही है कि इसमें लोक रंगत के विभिन्न शेड्स देखने को मिलते हैं। अगर इसके समावेशी रूप को सामाजिक दृष्टि से देखें तो यह समाज में वर्ण, जाति व वर्गगत रुतबों के कारण आए बिखरावों का एक सांस्कृतिक समाहार-प्रयास था। समय के साथ होली का रूप ही नहीं बदला है वरन होली-भावना भी बदल गई है। अबीर-गुलाल की होली अब कैमिकल युक्त रंगों और कीचड़ तक पहुँच गई है। पिछले बैर-भाव मिटा देने वाली उत्सव भावना को अब बदला लेने के उत्तम अवसर के रूप में देखा जाने लगा है। यह सब अचानक नहीं हुआ। दर असल यह हमारे सामाजिक और राजनैतिक व्यवहारों के क्षरण का प्रतिबिम्बन है। समाज द्वारा आयोजित उत्सवों की जगह बाजार प्रायोजित उत्सव ले रहे हैं।
कविता में भी होली का स्थान धीरे-धीरे कम होता हुआ अब लगभग बंद-सा हो गया है। अपने जीवन के तमाम विकट अनुभवों व जटिल जीवन संग्राम के चलते निराला ने व्यवस्था के ढाँचों पर प्रहार किया तो राग-अनुराग की अन्यतम रचनाएं भी दीं। उनकी कविताओं में ‘सरोज स्मृति’, ‘तोड़ती पत्थर’ जैसी रचनाएं हैं तो ‘जूही की कली’ और ‘बाँधो न नाव इस ठाँव बंधु’ जैसी भी। भला होली उनसे कैसे छूट सकती थी ? होली पर उनकी कई रचनाएं हैं-
‘फूटे हैं आमों में बौर भौंर बन-बन टूटे हैं… आंखें हुई हैं गुलाल, गेरू के ढेले कूटे हैं’ या ‘खेलूंगी कभी न होली, उससे जो न हमजोली’
या फिर यह प्रसिद्ध गीत-
‘नयनों के डोरे लाल गुलाल भरे,
खेली होली
जागी रात सेज प्रिय पति-संग
रति सनेहदृरंग घोली
दीपित दीप प्रकाश,
कंज छवि मंजु-मंजु हंस खोली
पत्नी मुख चुम्बन-रोली
मधु ऋतु रात,
मधुर अधरों की पी मधु सुध-बुध खो ली
खुले अपलक, मुद गए पलक-दल,
श्रम सुख की हद हो ली
बनी रति की छवि भोली
बीती रात सुखद बातों में
प्रात पवन प्रिय डोली
उठा कोमल बल मुख लट पट,
दीप बुझा हंस बोली-
रही यह एक टिठोली
आगे भी कई कवियों ने होली केंद्रित कविताएं, गीत लिखे। हरिवंश राय बच्चन लिख रहे थे-
तुम अपने रंग में रंग लो तो होली है
देखी है मैंने बहुत दिनों तक,
दुनिया की रंगीनी
किंतु रही कोरी की कोरी,
मेरी चादर झीनी
कवि केदार नाथ अग्रवाल होली को वसंत और कविता से जोड़ते हुए कहते हैं-
मैं भी फूलों की होली में
खेल रहा हूँ जी भर होली
रंगों को आकार मिला है
मेरी कविता की कलियों में
रंग बिरंगी चमक रही है
ललित कला की चूनर चोली
वहीं शमशेर बहादुर सिंह कविता ‘होली रू रंग और दिशाएं’ में अपनी विशिष्ट शैली में एक ‘एब्सट्रेक्ट पेण्टिग’ (बकौल शमशेर) रच रहे थे-
जंगले जालियांँ स्तम्भ
धूप के संगमर्मर के
ठोस तम के कंटीले तार हैं
गुलाब, धूप केसर, आरसी बाहें
गुलाल, धूल में फैली सुबहें
मुखरू सूर्य के टुकड़े
सघन घन में खुलेदृ से
या ढके मौन अथवा प्रखर किरणों से
कवियों ने ही नहीं, कथाकार- उपन्यासकार फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ ने भी होली पर कविता लिखी-
साजन होली आई है सुख से हँसना
जी भर गाना-मस्ती से,
मन को बहलाना
पर्व हो गया आज-साजन होली आई है
इसी बहाने क्षण भर गा लें
दुखमय जीवन को बहला लें
ले मस्ती की आग
हम देखते हैं कि होली-कविताएं रागों से होते हुए धीरे-धीरे दुःखमय जीवन को बहलाने की एक तदर्थ कार्रवाई तक पहुँच गई। ऐसा नहीं कि होली पर कविताएं बाद में बिल्कुल नहीं लिखी गईं पर यह कम से कमतर होता गया. इधर व्यंग्य के व्यावसायिक विशेषांकों के इतर वह नगण्य ही है। इसका कारण शायद सामूहिकता को जन्म देने वाली परिवार संस्था का लोप होते जाना और हमारी सामाजिक-धार्मिक बहुलता के ताने-बाने का बिखरना भी है जिसने एक ओर मनुष्य विरोधी कार्यों के लिए तो आदमी को एकत्र करना आसान कर दिया है पर हृदय और बुद्धि को चैनलों पर प्रसारित विकृत उत्सवों के भरोसे छोड़ दिया है। वर्ना कौन नहीं चाहेगा व्यस्त, आपाधापी और संत्रास भरे जीवन में कुछ गुलाल-पल हों, नया रस संचारित हो, कुछ गाएं-गुनगुनाएं।
सच तो यह है कि उत्सवों को कविता नहीं, लोक मानस रचता है। कवि निलय उपाध्याय के शब्दों में भोजपुरी फाग को संदर्भित करते कहा जाए तो-
भोजपुर का यह फाग
स्वरलिपि के दीवारों में नहीं अटने वाला
दो योजन पर पानी
चार योजन पर बानी में बदलता जाता
अपनी सीमाओं को हर बार तोड़ता
लोकरंग का यह बासंती हास
इसे इसके कवियों से अधिक उसके लोगों ने रचा है……