Author Topic: Kumauni Holi - कुमाऊंनी होली: एक सांस्कृतिक विरासत  (Read 238454 times)

पंकज सिंह महर

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A few line of this Holi :

   Jogo Aayo yo shahro
   Beech Vyapari ……..

झुकि आयो शहर में ब्यौपारी, झुकि आयो शहर में ब्यौपारी
इस ब्यौपारी को भूख बहुत है,पुरियां पकाय दे नथवाली.
झुकि आयो शहर में ब्यौपारी
इस ब्यौपारी को प्यास बहुत है,पनिया पिलाय दे नथवाली.
झुकि आयो शहर में ब्यौपारी
इस ब्यौपारी को नींद बहुत है,पलेंग बिछाय दे नथवाली.
झुकि आयो शहर में ब्यौपारी

पंकज सिंह महर

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कुमाऊं में होली का अनूठा अंदाज देखते ही बनता है। पौष के माह से आरंभ होने वाली होली में चीर बांधने से लेकर उसके दहन तक का खास आकर्षण है। एकादशी के दिन गांव के किसी सार्वजनिक स्थल या देवस्थल में चीर की स्थापना की जाती है। एकादशी को भद्रादि रहित शुभमुहूर्त में गांव के किसी देवस्थल या सार्वजनिक स्थान पर लोग एकत्रित होते हैं। बांस या चीड़ का लंबा ध्वजस्तंभ लिया जाता है। इसके ऊपरी सिरे पर गोलकार में एक लकड़ी बांधी जाती है। इसे चीर कहा जाता है। इसकी विधिवत पूजा होती है। गांव के लोग इसकी पूजा के लिये पुष्प, धूप-बाती के साथ ही अबीर-गुलाल से रंजित कपड़ा भी लाते हैं। जिसे चीर पर बांधा जाता है। भक्ति से संबंधित होली गायन भी होता है। इसके बाद से रंगभरी होली की शुरूआत हो जाती है। जानकारों का कहना है कि इसके बाद विधिवत तीन या चार दिन तक घर-घर में चीर को घुमाया जाता है। इसी के साथ प्रत्येक घर में होली का गायन भी होता है। होली गायन के बाद गुड़ वितरित किया जाता है। शिक्षाविद् प्रो. डीडी शर्मा बताते हैं कि चीर दहन की भी अनूठी परंपरा आज भी गांवों में नजर आती है। पूर्णिमा तक खड़ी होली के रंगभरे गीतों व नृत्यों का आनंद लेते हुये पौर्णमासी की समाप्ति तक तथा प्रतिपदा के प्रारंभकाल में मुहूर्त विशेष अनुष्ठान के साथ चीर दहन किया जाता है। पर्वतीय सांस्कृति उत्थान मंच के अध्यक्ष चन्द्रशेखर तिवारी का कहना है कि हिरण्यकश्यप नामक राक्षस ने भक्त प्रहलाद को मारने के लिये अपनी बहिन होलिका की गोद में बैठाया। इसमें होलिका जल गयी, तभी से होलिका दहन की परंपरा शुरू हुयी।
 

खीमसिंह रावत

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            होली
देवर  संग भाभी खेले, जीजा के संग साली /
कांव कांव कौआ बोले,  होली है भई होली //
     कान्हा संग राधा खेले, ग्वालो के संग ग्वालिन /
     श्याम श्याम मीरा बोली,  होली है भई होली //
जोगी संग जोगन खेले, खप्पर के संग काली /
जय माता दी भक्त बोले,  होली है भई होली //
      शिव के संग गौरा खेले, गणों के संग नंदी /
       डम डम डम डमरू बोले,  होली है भई होली //
राम संग सीता खेले, तारा के संग बाली  /
राम राम बजरंगी बोले,  होली है भई होली // 
      फूलों संग तितली खेले, बगिया के संग माली  /
       कूं हूँ कूं हूँ कोयल बोले,  होली है भई होली //
सागर संग नदियाँ खेले, नालों के संग नाली /
झरझर झर झरना बोले,  होली है भई होली //

पंकज सिंह महर

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तुम सुख सो है अपने महल में हम कैसो खेलें

कुमाऊं में प्राचीन काल से ही होली गायन का विशेष महत्व रहा है। पौष मास के पहले सप्ताह से जहां विभिन्न देवी देवी देवताओं की स्तुति के साथ बैठकी होली शुरू होती है, वहीं फाल्गुनी एकादशी के बाद रंगभरी खड़ी होली शुरू होती है। पहले जहां होली महोत्सव के इन दो-तीन महीनों में लोग अलग-अलग प्रहरों में शास्त्रीय रागों पर आधारित होलियां गाकर खूब आनन्द उठाते थे, वहीं अब होली छरड़ी के आधे दिन तक ही सिमट कर रह गया है। महिलाओं ने घरों में होली आयोजन कर पर्व को जीवंत रखने का प्रयास तो किया है लेकिन पुरुष वर्ग इससे दूर रहना ही अधिक पसंद करता है। दूरदराज क्षेत्रों के ग्रामीण अंचलों को छोड़ दिया जाय तो शहरों में होली सिर्फ आधे दिन में सिमटने लगी है। होली के मौके पर गाए जाने होली फाग आयो नवल बसन्त सखी ऋतुराज कहायो, जैसे होली गीतों के स्थान पर अब तुम सुख सो है अपने महल में हम कैसो खेलें होली ऐसे होली गीतों का प्रचलन बढ़ने लगा है। कुमाऊं में अनेक रागों में बैठकी होली विविध वाद्य यंत्रों ढोल, तबला, हारमोनियम, मंजीरे व चिमटे आदि के साथ गाने की परंपरा है, जिसमें गणेश, राम, कृष्ण व शिव सहित कई देवी-देवताओं की स्तुतियां की जाती हैं। बसन्त पंचमी के आते ही चारों ओर मौसम सुहावना होने के साथ ही होली गायकी में श्रंृगार बढ़ने लगता है। आयो नवल बसन्त सखी ऋतुराज कहायो, पुष्प कली सब फूलन लागी फूल ही फूल सुहायो राधे नन्द कुंवर समझाय रही होरी खेलो फागुन ऋतु आई रही जैसी कई होलियां गांव के प्रत्येक घर में जाकर गाई जाती हैं। शिवरात्रि तक बैठकी होली के बाद रंगों के फाल्गुन मास की रंगभरी एकादशी से पूर्णमासी तक सिद्धि के दाता विघA विनाशन जल कैसे भरूं जमुना गहरी, आदि खड़ी होलियों का दौर शुरू होता है। रंगभरी एकादशी के बाद छरड़ी तक गांवों में घर-घर में खड़ी होली गाई जाती है। इस दौरान रंग भरे श्र्वेत कपड़े पहनने का प्रचलन है। कपड़ों में एकादशी के दिन शुभ मुहूर्त पर रंग डाला जाता है।

 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Mahar Da,

yah holi kahan par likhi hai jo ki bahut famous hai.


कैसे आऊं रे सांवरिया तेरी बृज नगरी,
इत गोकुल, उत मथुरा नगरी,
बीच बहे जमुना गहरी, कैसे आऊं?
कैसे आऊं रे सांवरिया...............।

धीरे चलूं, पायल मोरी बाजे,
कूद पड़ूं तो डूबूं सगरी, कैसे आऊं।
कैसे आऊं रे सांवरिया...............।

भर पिचकारी मेरे मुख पर डारी,
भीज गई रंग से चुनरी, कैसे आऊं।
कैसे आऊं रे सांवरिया...............।

केसर कींच मग्यो आंगन में,
रपट पड़ी राधे गवरी, कैसे आऊं।
कैसे आऊं रे सांवरिया...............।

मोर सखी मजा बाल कृष्णा छवि,
चिरंजी रहे सुन्दर जोरी, कैसे आऊं,
कैसे आऊं रे सांवरिया...............।

हेम पन्त

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लेखक - क्रांति भट्ट (गोपेश्वर से), "हिन्दुस्तान" से साभार उद्धृत

कभी पहाङ की फिजाओं में हर्बल रंग बिखरते थे. होली में होलियर फागुन में मदमस्त गाते हाथों में पदम अर्थात पैंया, आङू की टहनियां लिये गांव की हर चौपाल पर जाते थे. उस टहनी पर हर घर से रंगबिरंगी टुकङियां बांधी जाती थी और घर पर बने प्राकृतिक रंगों से होली खेली जाती थी. अब नही दिखते किरमोङे की जङों से निकाला गया खूबसूरत रंग कहीं नही दिखता हल्दी और सुहागा के मिश्रण से बना रंग और नही दिखता है जंगल में उगने वाली वनस्पति रवींण से बने रंग.

80 वर्षीय बुजुर्ग जीत सिंह कहते हैं - पहले लोग किरमोङे की जङों को लाते उन्हें सुखाते और ओखली में कूट कर उसमें तिब्बत से मंगाआ गया सुहागा का मिश्रण करते थे. 70 वर्षीय़ बुजुर्ग महिला पार्वती देवी कहती हैं कि गांव की चौपाल पर या घरों के छज्जों पर रंगों से भरी बाल्टियां होती थीं. बांस से बनी पिचकारी से सबसे पहले गांव के पधान जी सब पर रंग फेंकते थे और फिर सब लोग होली खेलना शुरु करते थे.

अब पहाङ में भी पहाङ की प्रकृति के अनुसार वह रंग नही दिखते जो कभी थे. अब यहां पर भी कीचङ, पैन्ट आदि से ही होली खेली जाती है, जिससे पुरानी पीढी के लोग आहत हैं.

पंकज सिंह महर

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http://www.youtube.com/watch?v=e4wOOW1XA8Q

गिर्दा की नजरे से होली

Rajen

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अपनी होली की कुछ झलकियाँ यहाँ दिखाना चाहता था लेकिन ब्यस्त होने की वजह से पोस्ट नहीं कर पाया.  अब महर ने टोपिक में नई चीज डाली है तो मेरा भी मन कर रहा है की अपनी झलकियाँ दाल ही दूं, देर से ही सही |


Rajen

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