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Kumauni Holi - कुमाऊंनी होली: एक सांस्कृतिक विरासत

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पंकज सिंह महर:
साथियों,
       जैसा कि आप लोग अवगत ही हैं कि होली एक मस्ती से भरा त्यौहार है और दुनिया में सभी जगह होली बड़ी ही धूमधाम से मनाई जाती है। लेकिन कुमाऊंनी होली का एक अलग ही रंग है, पूरे विश्व में इस होली की अलग पहचान है, मुख्य रूप से इस होली के दो अंग हैं १- बैठकी होली २- खडी होली.  बैठकी होली बैठकर शाष्त्रीय धुनों पर गाये जाने वाली होली को कहा जाता है, जिसमें होल्यार रंग से सरोबार होकर होली गाते हैं यह होली बसंत पंचमी से शुरु हो जाती है। इसी प्रकार से खड़ी होली होली के दिनों में खड़े होकर गायी जाती है।
      बैठकी होली महिलाओं के द्वारा भी की जाती है। आइये इस अनमोल और मस्ती भरी विरासत पर अपने विचार दें।




Kumaoni Holi Song

पंकज सिंह महर:
उत्तराखण्ड के कुमाऊं मंडल में होली की नियत तिथि से काफी पहले (बसंत पंचमी से) ही होली की मस्ती और रंग छाने लगते हैं. इस रंग में सिर्फ अबीर गुलाल का टीका ही नहीं होता बल्कि बैठकी होली और खड़ी होली गायन की शास्त्रीय परंपरा भी शामिल होती है. बरसाने की होली के बाद अपनी सांस्कृतिक विशेषता के लिए कुमाऊंनी होली को याद किया जाता है. फूलों के रंगों और संगीत की तानों का ये अनोखा संगम देखने लायक होता है. शाम ढलते ही कुमाऊं के घर घर में बैठक होली की सुरीली महफिलें जमने लगती है. बैठक होली घर की बैठक में राग रागनियों के इर्द गिर्द हारमोनियम तबले पर गाई जाती है.

“.....रंग डारी दियो हो अलबेलिन में...
......गए रामाचंद्रन रंग लेने को गए....
......गए लछमन रंग लेने को गए......
......रंग डारी दियो हो सीतादेहिमें....
......रंग डारी दियो हो बहुरानिन में....”
यहां की बैठ होली में नजीर जैसे मशहूर उर्दू शायरों का कलाम भी प्रमुखता से देखने को मिलता है.
“....जब फागुन रंग झमकते हों....
.....तब देख बहारें होली की.....
.....घुंघरू के तार खनकते हों....
.....तब देख बहारें होली की......”

बैठकी होली में जब रंग छाने लगता है तो बारी बारी से हर कोई छोड़ी गई तान उठाता है और अगर साथ में भांग का रस भी छाया तो ये सिलसिला कभी कभी आधी रात तक तो कभी सुबह की पहली किरण फूटने तक चलता रहता है. होली की ये रिवायत महज़ महफिल नहीं है बल्कि एक संस्कार भी है. ये भी कम दिलचस्प नहीं कि जब होली की ये बैठकें खत्म होती हैं-

आर्शीवाद के साथ. और आखिर में गायी जाती है ये ठुमरी…..
“मुबारक हो मंजरी फूलों भरी......ऐसी होली खेले जनाब अली..... ”
 

बैठकी होली की पुरूष महफिलों में जहां ठुमरी और खमाज गाये जाते हैं वहीं अलग से महिलाओं की महफिलें भी जमती हैं. इनमें उनका नृत्य संगीत तो होता ही है, वे स्वांग भी रचती हैं और हास्य की फुहारों, हंसी के ठहाकों और सुर लहरियों के साथ संस्कृति की इस विशिष्टता में नए रोचक और दिलकश रंग भरे जाते हैं.

इनके ज्यादातर गीत देवर भाभी के हंसी मज़ाक से जुड़े रहते हैं जैसे... फागुन में बुढवा देवर लागे.......

होली गाने की ये परंपरा सिर्फ कुमाऊं अंचल में ही देखने को मिलती है. इसकी शुरूआत यहां कब और कैसे हुई इसका कोई ऐतिहासिक या लिखित लेखाजोखा नहीं है. कुमाऊं के प्रसिद्द जनकवि गिरीश गिर्दा ने बैठ होली के सामाजिक शास्त्रीय संदर्भों और इस पर इस्लामी संस्कृति और उर्दू के असर के बारे में गहराई से अध्ययन किया है. वो कहते हैं कि “यहां की होली में अवध से लेकर दरभंगा तक की छाप है. राजे-रजवाड़ों का संदर्भ देखें तो जो राजकुमारियां यहां ब्याह कर आईं वे अपने साथ वहां के रीति रिवाज भी साथ लाईं. ये परंपरा वहां भले ही खत्म हो गई हो लेकिन यहां आज भी कायम हैं. यहां की बैठकी होली में तो आज़ादी के आंदोलन से लेकर उत्तराखंड आंदोलन तक के संदर्भ भरे पड़े हैं .”

पंकज सिंह महर:
होली

फाल्गुन सुदी ११ को चीर-बंधन किया जाता है। कहीं-कहीं ८ अष्टमी कोचीर बाँधते हैं। कई लोग आमलकी ११ का व्रत करते हैं। इसी दिन भद्रा-रहित काल में देवी-देवताओं में रंग डालकर पुन: अपने कपड़ों में रंग छिड़कते हैं, और गुलाल डालते हैं। छरड़ी पर्यन्त नित्य ही रंग और गुलाल की धूम रहती है। गाना, बजाना, वेश्या-नृत्य दावत आदि समारोह से होते हैं। गाँव में खड़ी होलियाँ गाई जाती हैं। नकल व प्रहसन भी होते हैं। अश्लील होलियों तथा अनर्गल बकवाद की भी कमी नहीं रहती। कुमाऊँ में यह त्यौहार ६-७ दिन तक बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है। सतराली, पाटिया, गंगोली, चम्पावत, द्वाराहाट आदि की होलियाँ प्रसिद्ध हैं। गाँवों में भी प्राय: सर्वत्र बैठकें होती हैं। मिठाई व गुड़ बाँटा जाता है। चरस व भांग की तथा शहरों में कुछ-कुछ मदिरा की धूम रहती है। फाल्गुन सदी १५ को होलिका दहन होता है। दूसरे दिन प्रतिपदा का छरड़ी मनाई जाती है। घर-घर में घूमकर होलिका मनाकर सायंकाल को रंग के कपड़े बदलते हैं। धन भी एकत्र करते हैं, जिसका देहातों में भंड़ारा होता है। 

पंकज सिंह महर:




Kumaoni Holi

The uniqueness of the Kumaoni Holi lies in its being a musical affair, whichever may be its form, be it the Baithki Holi, the Khari Holi or the Mahila Holi. The Baithki Holi and Khari Holi are unique in that the songs on which they are based have touch of melody, fun and spiritualism. These songs are essentially based on classical ragas. No wonder then the Baithki Holi is also known as Nirvan Ki Holi.

The Baithki Holi begins from the premises of temples, where Holiyars (the professional singers of Holi songs) as also the people gather to sing songs to the accompaniment of classical music.

Kumaonis are very particular about the time when the songs based on ragas should be sung. For instance, at noon the songs based on Peelu, Bhimpalasi and Sarang ragas are sung while evening is reserved for the songs based on the ragas like Kalyan, Shyamkalyan and Yaman etc.

The Khari Holi is mostly celebrated in the rural areas of Kumaon. The songs of the Khari Holi are sung by the people, who sporting traditional white churidar payajama and kurta, dance in groups to the tune of ethnic musical instruments.

from:euttaranchal

हलिया:
यो ल्हियो महाराज..

बलमा घर आये कौन दिना. सजना घर आये कौन दिना...
मेरे बलम के तीन शहर हैं
मेरे बलम के तीन शहर हैं
दिल्ली, आगरा और पटना.. बलमा घर आये कौन दिना. बलमा घर आये कौन दिना .. सजना घर आये कौन दिना।

मेरे बलम की तीन रानियां - २
मेरे बलम की तीन रानियां
पूनम, रेखा और सलमा  बलमा घर आये कौन दिना. बलमा घर आये कौन दिना .. सजना घर आये कौन दिना।



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