Author Topic: Let Us Know Fact About Our Culture - आएये पता करे अपनी संस्कृति के तथ्य  (Read 24722 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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GANGOTARI.

ऋगवेद में गंगा का वर्णन कहीं-कहीं ही मिलता है पर पुराणों में गंगा से संबंधित कहानियां अपने-आप आ गयी। कहा जाता है कि एक प्रफुल्लित सुंदरी युवती का जन्म ब्रह्मदेव के कमंडल से हुआ। इस खास जन्म के बारे में दो विचार हैं। एक की मान्यता है कि वामन रूप में राक्षस बलि से संसार को मुक्त कराने के बाद ब्रह्मदेव ने भगवान विष्णु का चरण धोया और इस जल को अपने कमंडल में भर लिया। दूसरे का संबंध भगवान शिव से है जिन्होंने संगीत के दुरूपयोग से पीड़ित राग-रागिनी का उद्धार किया। जब भगवान शिव ने नारद मुनि ब्रह्मदेव तथा भगवान विष्णु के समक्ष गाना गाया तो इस संगीत के प्रभाव से भगवान विष्णु का पसीना बहकर निकलने लगा जो ब्रह्मा ने उसे अपने कमंडल में भर लिया। इसी कमंडल के जल से गंगा का जन्म हुआ और वह ब्रह्मा के संरक्षण में स्वर्ग में रहने लगी।

ऐसी किंबदन्ती है कि पृथ्वी पर गंगा का अवतरण राजा भागीरथ के कठिन तप से हुआ, जो सूर्यवंशी राजा तथा भगवान राम के पूर्वज थे। मंदिर के बगल में एक भागीरथ शिला (एक पत्थर का टुकड़ा) है जहां भागीरथ ने भगवान शिव की आराधना की थी। कहा जाता है कि जब राजा सगर ने अपना 100वां अश्वमेघ यज्ञ किया (जिसमें यज्ञ करने वाले राजा द्वारा एक घोड़ा निर्बाध वापस आ जाता है तो वह सारा क्षेत्र यज्ञ करने वाले का हो जाता है) तो इन्द्रदेव ने अपना राज्य छिन जाने के भय से भयभीत होकर उस घोड़े को कपिल मुनि के आश्रम के पास छिपा दिया। राजा सगर के 60,000 पुत्रों ने घोड़े की खोज करते हुए तप में लीन कपिल मुनि को परेशान एवं अपमानित किया। क्षुब्ध होकर कपिल मुनि ने आग्नेय दृष्टि से तत्क्षण सभी को जलाकर भस्म कर दिया। क्षमा याचना किये जाने पर मुनि ने बताया कि राजा सगर के पुत्रों की आत्मा को तभी मुक्ति मिलेगी जब गंगाजल उनका स्पर्श करेगा। सगर के कई वंशजों द्वारा आराधना करने पर भी गंगा ने अवतरित होना अस्वीकार कर दिया।

अंत में राजा सगर के वंशज राजा भागीरथ ने देवताओं को प्रसन्न करने के लिये 5500 वर्षों तक घोर तप किया। उनकी भक्ति से खुश होकर देवी गंगा ने पृथ्वी पर आकर उनके शापित पूर्वजों की आत्मा को मुक्ति देना स्वीकार कर लिया। देवी गंगा के पृथ्वी पर अवतरण के वेग से भारी विनाश की संभावना थी और इसलिये भगवान शिव को राजी किया गया कि वे गंगा को अपनी जटाओं में बांध लें। (गंगोत्री का अर्थ होता है गंगा उतरी अर्थात गंगा नीचे उतर आई इसलिये यह शहर का नाम गंगोत्री पड़ा।

भागीरथ ने तब गंगा को उस जगह जाने का रास्ता बताया जहां उनके पूर्वजों की राख पड़ी थी और इस प्रकार उनकी आत्मा को मुक्ति मिली। परंतु एक और दुर्घटना के बाद ही यह हुआ। गंगा ने जाह्नु मुनि के आश्रम को पानी में डुबा दिया। मुनि क्रोध में पूरी गंगा को ही पी गये पर भागीरथ के आग्रह पर उन्होंने अपने कान से गंगा को बाहर निकाल दिया। इसलिये ही गंगा को जाह्नवी भी कहा जाता है।

बर्फीली नदी गंगोत्री के मुहाने पर, शिवलिंग चोटी के आधार स्थल पर गंगा पृथ्वी पर उतरी जहां से उसने 2,480 किलोमीटर गंगोत्री से बंगाल की खाड़ी तक की यात्रा शुरू की। इस विशाल नदी के उद्गम स्थल पर इसका नाम भागीरथी है जो उस महान तपस्वी भागीरथ के नाम पर है जिन के आग्रह पर गंगा स्वर्ग छोड़कर पृथ्वी पर आयी। देवप्रयाग में अलकनंदा से मिलने पर इसका नाम गंगा हो गया।

माना जाता है कि महाकाव्य महाभारत के नायक पांडवों ने कुरूक्षेत्र में अपने सगे संबंधियों की मृत्यु पर प्रायश्चित करने के लिये देव यज्ञ गंगोत्री में ही किया था।

गंगा को प्रायः शिव की जटाओं में रहने के कारण भी आदर पाती है।
एक दूसरी किंबदन्ती यह है कि गंगा मानव रूप में पृथ्वी पर अवतरित हुई और उन्होंने पांडवों के पूर्वज राजा शान्तनु से विवाह किया जहां उन्होंने सात बच्चों को जन्म देकर बिना कोई कारण बताये नदी में बहा दिया। राजा शांतनु के हस्तक्षेप करने पर आठवें पुत्र भीष्म को रहने दिया गया। पर तब गंगा उन्हें छोड़कर चली गयी। महाकाव्य महाभारत में भीष्म ने प्रमुख भूमिका निभायी।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Uttarkashi.

काशी शब्द का उद्भव कास शब्द से हुआ है, जिसका अर्थ होता है चमकना। काशी को शिव एवं पार्वती द्वारा सृजित ‘मूल भूमि’ माना जाता है जिस पर प्रारंभ में वे खड़े हुए थे। यही वह भूमि है, जो भागीरथी, वरूणा एवं असी नदियों के संगम पर स्थित है। वरूणा एवं असी के मिलन स्थल होने से इसे वाराणसी कहा जाता है इसी कारण काशी को तपोभूमि (तप की भूमि) कहा जाता है एक स्थल जिसके कंपन से भी ज्ञान तथा शिक्षा में गुणात्मक वृद्धि हो जाती है।
अनंत काल से ही इस जगह को पवित्र माना गया है। स्कंद पुराणानुसार यह पवित्र भूमि पांच कोस विस्तृत था तथा उतनी ही लंबा, जो लंबाई, चौड़ाई में 12 मील थी।

भारत में गुप्त काशी, गया काशी, दक्खिन काशी, शिव काशी जैसे कई अन्य काशी भी हैं, पर यह केवल पूर्व काशी (बनारस या वाराणसी) एवं उत्तरकाशी ही है जहां विश्वनाथ मंदिर अवस्थित है। माना जाता है कि कलयुग में जब संसार का पाप मानवता को परास्त करने की धमकी देगा तो भगवान शिव मानव कल्याण के लिये वाराणसी से हटकर उत्तरकाशी पहुंच जायेगें। यही कारण है कि उत्तरकाशी में वे सभी मंदिर एवं घाट स्थित है जो वाराणसी में स्थित है। इनमें विश्वनाथ मंदिर, अन्नपूर्णा मंदिर, भैरव मंदिर (भैरव को भगवान शिव का रक्षक माना जाता है और भगवान शिव की पूजा से पहले इसे प्रसन्न करना आवश्यक होता है), मणिकर्णिका घाट एवं केदारघाट आदि शामिल हैं।

उत्तरकाशी पौराणिक वैधता से ओत-प्रोत है। महाभारत के एक वर्णनानुसार महान मुनि जड़ भारथ ने उत्तरकाशी में तप किया था। यह भी कहा जाता है कि महाभारत के एक प्रणेता अर्जुन की मुठभेड़ शिकारी रूप में भगवान शिव से यहां हुआ था। महाभारत के उपायन पर्व में उत्तरकाशी के मूलवासियों जैसे किरातों, उत्तर कुरूओं, खासों, टंगनासों, कुनिनदासों एवं प्रतंगनासों का वर्णन है।

यह भी कहा जाता है कि उत्तरकाशी के चामला की चौड़ी में परशुराम ने तप किया था। भगवान विष्णु के 24वें अवतार परशुराम को अस्त्र का देवता एवं परशु धारण करने के कारण योद्धा संत के रूप में भी जाना जाता है। वे सात मुनियों में से एक हैं जो चिरंजीवी हैं।

कहा जाता है कि परशुराम ने अपने पिता जमदग्नि मुनि के आदेश पर अपनी माता रेणुका का सिर काट दिया था। उनकी आज्ञाकारिता से प्रसन्न होकर जमदग्नि मुनि ने उन्हें एक वरदान दिया। परशुराम ने अपनी माता के लिये पुनर्जीवन मांगा एवं वे जीवित हो गयीं। फिर भी वे मातृ हत्या के दोषी थे एवं पिता ने उन्हें उत्तरकाशी जाकर प्रायश्चित करने को कहा। तब से उत्तरकाशी उनकी तपोस्थली बना।

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chamba.

कहते हैं कि वर्तमान में चंबा अब जहां स्थित है, पहले वहां एक चौरा था जहां सिपाही तैनात होते थे और लोग बातचीत के लिए इकट्ठा होते थे। चंबा के इतिहास के बारे में ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है पर इसका टिहरी रियासत से करीब संबंध था, जिसका वह एक भाग रहा है। गढ़वाल राज्य की भूतपूर्व राजधानी पुरानी टिहरी से उसके सान्निध्य ने टिहरी के इतिहास के कुछ क्षणों में इस छोटे से शांत शहर की महत्त्वपूर्ण भूमिका सुनिश्चित की है।
वर्ष 1000 से 1803 से ही गढ़वाल के अन्य भागों की तरह चंबा भी पाल वंश के शासनाधीन था जो बाद में शाह वंश कहलाया। वर्ष 1803 के विनाशकारी भूकम्प का लाभ उठाते हुए गोरखे गढ़वाल की ओर अग्रसर हुए क्योंकि उस भूकम्प ने क्षेत्र की एक-तिहाई आबादी को नष्ट कर दिया था। उस समय यहां के राजा प्रद्युम्न शाह थे।

गोरखों की सेना गढ़वाल क्षेत्र में बढ़ते हुए देहरादून एवं ऋषिकेश से टिहरी जिले की ओर अग्रसर हुई, जहां चामुआ में उनका मुकाबला गढ़वाली सेना से हुआ।

उत्तरकाशी के कुछ इलाकों से कुछ लोगों को भर्ती कर प्रद्मुम्न शाह ने एक सेना का गठन किया था। गढ़वाली सैनिकों ने निर्भयता पूर्वक गोरखा सैनिकों का मुकाबला चामुआ में किया जिसमें गोरखों का सफाया हो गया। चामुआ नाम की जगह ही चामा बनी और अब इसे चंबा कहते हैं।

परन्तु इसके बाद गुड़बुड़ा में प्रद्मुम्न शाह मारे गए और गोरखों ने गढ़वाल पर कब्जा कर लिया। वर्ष 1815 में प्रद्मुम्न शाह के उत्तराधिकारी सुदर्शन शाह ने अंग्रेजों की सहायता से गोरखों से अपना राज्य वापस छीन लिया। अंग्रेजों ने मार्च 4, 1815 को रवांई एवं देहरादून को छोड़कर अलकनन्दा से पश्चिम का सारा क्षेत्र सुदर्शन शाह को सौंप दिया। उन्होंने उसके बाद चंबा से 30 किलोमीटर दूर टिहरी में अपनी राजधानी की स्थापना की क्योंकि उनकी राजधानी श्रीनगर की भूमि अंग्रेजी गढ़वाल के अधीन चली गयी थी।

स्वाधीनता से पहले, ऋषिकेश से पुरानी टिहरी तक एक मोटर पथ का निर्माण हुआ था जो तब राज्य की राजधानी थी। फलस्वरूप चंबा का महत्त्व बढा क्योंकि यह उस पथ के बीचों-बीच स्थित था।

भारत के स्वाधीन होने पर टिहरी रियासत का भारतीय संघ में विलय हो गया। टिहरी जिले की स्थापना होने पर चंबा उस जिले का एक भाग बना।

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DEVPRAYAG.

भारत और नेपाल के 108 सर्वाधिक दिव्य एवं धार्मिक स्थानों में से एक माना जाने वाला देवप्रयाग पौराणिकता की विरासत का धनी है एवं इस पवित्र स्थल से कई देवी-देवता संबद्ध है। प्रथम तो यह कि भारत की सर्वाधिक धार्मिक नदी गंगा का उद्बव यहीं भागीरथी नदी एवं अलतनंदा नदी के संगम पर हुआ है और यह तथ्य देवप्रयाग को वह पवित्रता प्रदान करता है, जिसका दावा कोई अन्य स्थान नहीं कर सकता। इसी कारण देवप्रयाग भागीरथी नदी के पांच संगमों में सबसे अधिक धार्मिक माना जाता है। स्कंद पुराण के केदारखंड में देवप्रयाग पर 11 अध्याय हैं।
कहा जाता है कि जब भागीरथ ने भागीरथी (गंगा) को पृथ्वी पर उतरने को राजी कर लिया तो 33 कोटि देवता भी गंगा के साथ स्वर्ग से उतरे। उन्होंने अपना आवास देवप्रयाग में बनाया जो गंगा की जन्म भूमि है।

यह भी कहा जाता है कि देवप्रयाग त्रिमूर्ति, भगवान ब्रह्मा, भगवान शिव तथा भगवान विष्णु से खासकर उनके वाराह, वामन, नरसिंह, परशुराम तथा राम के सत्युगी अवतारों में संबद्ध था।

माना जाता है कि ब्रह्मांड की रचना करने से पहले ब्रह्मांड ने 10,000 वर्षो तक भगवान विष्णु की आराधना कर उनसे सुदर्शन चक्र प्राप्त किया। इसीलिये देवप्रयाग को ब्रह्मतीर्थ एवं सुदर्शन क्षेत्र भी कहा जाता है। संगम के निकट ब्रह्मकुंड को वह स्थान माना जाता है जहां ब्रह्मा ने तप किया था। देव शर्मा नामक एक ब्राह्मण के 11,000 वर्षों तक तपस्या करने के बाद भगवान विष्णु यहां प्रकट हुए। उन्होंने देव शर्मा से कहा कि वे त्रेता युग में देवप्रयाग लौटेंगे तथा भगवान राम बनकर उन्होंने इसे पूरा किया। माना जाता है कि श्रीराम ने ही देव शर्मा के नाम पर इसे देवप्रयाग का नाम दिया। रावण के वध के पाप से त्राण पाने के लिये भगवान राम देवप्रयाग आये। देवप्रयाग को भगवान शिव का पसंदीदा स्थान माना जाता है क्योंकि गंगा यहीं उद्भवित होती है। देवप्रयाग के चार कोनों के बीच वे उपस्थित हैं। पूर्व में धानेश्वर मंदिर, दक्षिण में तांडेश्वर मंदिर, पश्चिम में तांतेश्वर मंदिर तथा उत्तर में बालेश्वर मंदिर तथा केंद्र में आदि विश्वेश्वर मंदिर है। कहा जाता है कि जो कोई भी इन पांचों मंदिरों में जाता है, वह पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त हो जाता है। ऐसा भी कहा जाता है कि एक शिवलिंग गंगा के जल के नीचे भी है, पर इसे कुछ प्रबुद्ध लोग ही देख सकते हैं।

भगवान विष्णु के पांच अवतारों का भी देवप्रयाग से संबंध है। जिस स्थान पर वे वाराह के रूप में प्रकट हुए उसे वाराह शिला कहते है और माना जाता है कि मात्र इसके स्पर्श से ही मुक्ति प्राप्त होती है। वह स्थान जहां राजा बलि ने इन्द्र की पूजा की थी एवं जहां वामन रूप में भगवान विष्णु प्रकट हुए थे, उसे वामन गुफा कहते हैं। नरसिंहाचल, देवप्रयाग के बहुत निकट है तथा नरसिंह के रूप में भगवान विष्णु इस पर्वत के शिखर पर रहते हैं। इस पर्वत का आधार स्थल परशुराम की तपोस्थली थी, जिन्होंने अपने पितृहन्ता राजा सहस्रबाहु को मारने से पहले यहां तप किया था। इसे वह स्थान भी माना जाता है जहां भगवान राम ने प्रायश्चित एवं तप किया था। इसके निकट एक अन्य जगह है शिव तीर्थ, वह स्थान जहां भगवान राम की बहन शांता ने श्रृंगी मुनि से विवाह करने के लिये तपस्या की थी। भगवान शिव के वरदान स्वरूप शांता एक जलाशय में परिवर्तित हो गई तथा आज भी श्रृंगी मुनि के आश्रम के पास दशरथांचल की चोटी से प्रवाहित होती है। श्रृंगी मुनि के यज्ञ के फलस्वरूप ही भगवान राम के पिता दशरथ को पुत्र प्राप्त हुए थे। भगवान राम के गुरू भी इस स्थान पर रहे थे जिसे पवित्र वशिष्ठ गुफा कहते हैं। कहा जाता है कि पुत्र प्राप्ति की इच्छा रखने वाले युगलों को एक महीने तक यहां आराधना करना चाहिये।। गंगा नदी के उत्तर एक पर्वत को राजा दशरथ की तपोस्थली माना जाता है।

देवप्रयाग जिस पहाड़ी पर अवस्थित है उसे गृद्धाचल कहते हैं। यह स्थान गिद्ध वंश के जटायु की तपोभूमि थी। पहाड़ी के आधार स्थल वह स्थान है जहां भगवाम राम ने एक सुंदर स्त्री किन्नर को मुक्त किया था, जो ब्रह्मा द्वारा शापित एक मकड़ी रूप में थी। इसी स्थान के निकट वह जगह भी है जहां उड़ीसा के राजा इन्द्रध्युम ने भगवान विष्णु की आराधना की थी। बाद में जगन्नाथ पुरी में मंदिर की स्थापना का श्रेय उसे ही जाता है।

माना जाता है कि मोक्ष के लिये देवप्रयाग के संगम में स्नान करना सर्वाधिक लाभदायक होता है। देवप्रयाग को पूर्वजों के पिंडदान के लिये भी अग्रणी माना जाता है।

 

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कीर्तिनगर

कई अन्य गढ़वाली शहरों की तरह कीर्तिनगर भी रंग-बिरंगी पौराणिकता से जुड़ा है। ऐसी दो कथाएं उस नाम से जुड़ी हैं जो एक छोटी नदी ढूढ़ेश्वर एवं अलकनंदा के संगम से संबंधित है। इस संगम या प्रयाग को ढूढ़प्रयाग कहते हैं।
एक प्राचीन किंवदन्ती के अनुसार जब पांडव इस क्षेत्र में थे तब उनके कुछ मवेशी सुदूर चले गये। पांडव भाइयों में से एक भीम को उन मवेशियों को वापस लाने का कार्य सौंपा गया। माना जाता है कि नीचे प्रवाहित नदियों के शोर के कारण पशुओं को आवाज लगाना असंभव हो गया अत: भीम ने अपनी गदा से घाटियों की गहराई बढ़ा दी ताकि वे शांत रूप से प्रवाहित हों। नदी की शोर शांत करने के बाद उन्होंने मवेशियों को हांक लगाया। इस प्रकार इसका नाम ढूढ़प्रयाग पड़ा। ढूढ़- खोज करना तथा प्रयाग यानि संगम– ढूढ़प्रयाग।

एक अन्य किंवदन्ती में कीर्तिनगर से 35 किलोमीटर दूर ढूढ़ेश्वर क्षेत्र में भगवान शिव के प्रायश्चित की कथा है। माना जाता है कि इस क्षेत्र में गुफाओं की प्रचुरता है जहां भगवान शिव ध्यानस्थ थे। असुरों ने उनका ध्यान भंग करने के लिये कई उत्पात मचाये तथा परम शक्तिशाली भगवान को मजबूर किया कि अपना प्रायश्चित पूर्ण करने वे अलकनंदा के किनारे ढूढ़ेश्वर से ढूढ़प्रयाग तक एक सुरंग का निर्माण करें, अन्ततोगत्वा उन्होंने इसे पूर्ण किया।

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मुनि की रेती


मुनि की रेती तथा आस-पास के क्षेत्र रामायण के नायक भगवान राम तथा उनके भाइयों के पौराणिक कथाओं से भरे हैं। वास्तव में, कई मंदिरों तथा ऐतिहासिक स्थलों का नाम राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न के नाम पर रखा गया है। यहां तक कि इस शहर का नाम भी इन्हीं पौराणिक कथाओं से जुड़ा है।

ऐसा कहा जाता है कि भगवान राम ने लंका में रावण को पराजित कर अयोध्या में कई वर्षो तक शासन किया और बाद में अपना राज्य अपने उत्तराधिकारियों को सौंप कर तपस्या के लिए उत्तराखंड की यात्रा की। प्राचीन शत्रुघ्न मंदिर के प्रमुख पुजारी गोपाल दत्त आचार्य के अनुसार जब भगवान राम इस क्षेत्र में आये तो उनके साथ उनके भाई तथा गुरु वशिष्ठ भी थे। गुरु वशिष्ठ के आदर भाव के लिए कई ऋषि-मुनि उनके पीछे चल पडे, चूंकि इस क्षेत्र की बालु (रेती) ने उनका स्वागत किया, तभी से यह मुनि की रेती कहलाने लगा।

शालीग्राम वैष्णव ने उत्तराखंड रहस्य के 13वें पृष्ट पर वर्णन किया है कि रैम्या मुनि ने मौन रहकर यहां गंगा के किनारे तपस्या की । उनके मौन तपस्या के कारण इसका नाम मौन की रेती तथा बाद में समय के साथ-साथ यह धीरे-धीरे मुनि की रेती कहलाने लगा।

आचार्य के अनुसार, इस शहर का वर्णन स्कन्द पुराण के केदार खण्ड में भी मिलता है।

 

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NARENDRA NAGAR.

कहा जाता है कि ऊधव मुनि ने उस जगह घोर तप किया जहां आज नरेन्द्र नगर स्थित है। उनके नाम के पीछे ही इसका नाम ऊधवस्थली रखा गया जिसका बाद में अपभ्रंश ओदाथली हो गया। इसी जगह भारतीय वैदिक ज्योतिष के संस्थापक पाराशर मुनि ने ग्रहों की गति पर विभिन्न प्रयोग किये। उनकी प्रयोगशाला का होना वहीं अनुमानित है जहां स्थानीय पॉलिटेक्निक स्थित है।

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टिहरी

पुरानी टिहरी के संस्थापक राजा सुदर्शन शाह ने अपनी राजधानी के लिए इस जगह का चयन गृहतुरता एवं धार्मिक कारणों से किया। पंवार वंश की पूर्व राजधानी श्रीनगर को स्कंद पुराण के केदार खंड में धनुष तीर्थ (तीर-धनुष के आकार का) कहा गया। स्कंद पुराण  में टिहरी को भी ऐसे ही वर्णित किया गया। यहां भागीरथी तथा भीलांगना ने शहर को अपना विशिष्ट आकृति दी, जहां भागीरथी धनुषाकार होकर नीचे गिरती है एवं भीलांगना उसमें एक तीर की तरह मिलती है। सुदर्शन शाह गांव के नाम से भी सम्भवत: आकर्षित हुए– जिसका मतलब है तीन अवगुणों पर विजय।

ऐसा कहा जाता है कि राजा सुदर्शन शाह जब अपनी नयी राजधानी के लिए उपयुक्त स्थल का सर्वेक्षण करने निकले तो उनका घोड़ा पुरानी टिहरी के सत्येश्वर महादेव मंदिर के समीप की जगह पर रूक गया। घोड़ा वहीं अड़ गया तथा आगे नहीं बढ़ा। छानबीन करने पर राजा को एक शिवलिंग मिला। उन्होंने तत्काल ही यहां अपनी राजधानी बनाने का निर्णय किया। फिर भी, नयी राजधानी की आधारशिला रखने का शुभ समारोह हो रहा था तो पंडितों में से एक ने भविष्यवाणी की कि यह नई शहर 200 वर्षों से अधिक नहीं रहेगा, जो सच साबित हुआ।

केदार खंड में एक प्राचीन शिव मंदिर– माना जाता है कि सतेश्वर महादेव मंदिर– का वर्णन किया गया जिसकी रचना ईश्वरी वरदान के कारण उस समय हुई जब हिंदू दर्शनानुसार अंतिम युग के अंत पर प्रलय काल आया था। विपरीतावस्था में निर्मित इस मंदिर का आकार बना, जब संपूर्ण संसार जल में डूबा था। विडंवना स्वरूप यह मंदिर स्वयं जल में डूब गया, जब पुरानी टिहरी टिहरी झील के बनने पर डूब गई।

माना जाता है कि अष्टावक्र मुनि ने वहां तपस्या की थी, जहां पुरानी टिहरी अवस्थित थी तथा शहर के डूबने तक उस पत्थर का धार्मिक महत्त्व था जिसपर बैठकर उन्होंने तप किया था।

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दुगड्डा

दुगड्डा सहित गढ़वाल क्षेत्र की एक समृद्ध परंपरा है तथा लोक कथा के अनुसार यह तपस्या के लिए ऋषियों एवं मुनियों की पसंद का स्थान रहा है। संपूर्ण गढ़वाल में कई सिद्धपीठ हैं जो तपस्था के स्थान के रुप में जाने जाते हैं। दुगड्डा से लगभग 30 किलोमीटर दूर कोटद्वार के निकट कवांश्रम के पास चरक आश्रम होने का वर्णन चरक संहिता में है। इस क्षेत्र के बारे में इसी प्रकार का प्रसंग स्कंद पुराण में भी मिलता है जो इस क्षेत्र की पुरानी सभ्यता को साख प्रदान करता है। फिर भी दुगड्डा के पुरावशेष स्थल होने का स्पष्ट एवं प्रत्यक्ष प्रमाण काफी नहीं हैं। फिर भी, दुगड्डा वासियों का विश्वास है कि शहर के ठीक बाहर दुर्गादेवी मंदिर में शिवलिंग का पौराणिक महत्व रहा है तथा यहां यह सदियों से अस्तित्व में है।

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कोटद्वार

कोटद्वार नाम का अर्थ होता है– कोट या पहाड़ी तथा द्वार अर्थात् पहाड़ियों का द्वार। प्रभावस्वरूप यह गढ़वाल की पहाड़ियों का प्रवेश द्वार है जो सदियों से रहा है। यह विकास का अग्रदूत भी है। आज यह हमारे उत्तराखंड का महत्वपूर्ण शहर है तथा राज्य में बड़ी मात्रा में वाणिज्य को नियंत्रित करता है। कई औद्योगिक इकाइयों के साथ इसका द्रुत औद्योगीकरण यहां हो रहा है, पर यहां एक गहरी परंपरा की जड़ों से प्रगतिशील उद्यमशीलता का भाव प्रमुख है। आगामी दिनों में उत्तराखंड में होने वाले सक्रिय परिवर्तनों में कोटद्वार की भूमिका महत्वपूर्ण साबित होगी।

 

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