Author Topic: Mangal Chaupaiyan From Ramcharit Manas - मंगल चौपाइयां (श्री रामचरित मानस से)  (Read 54740 times)

हेम पन्त

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मुझे ये पंक्तियां बहुत पसंद हैं..

जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखिय तिन तैसी.

hem

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उत्तम कार्य हेम जी ।  इन सुरुचिपूर्ण चौपाइयौं के लिये आपको साधुवाद और १ कर्मा सादर भेंट।
राजु जी यह सुंदर प्रसंग शुरू करने के लिए आपको भी बहुत साधुवाद.  तो प्रसंग आगे बढ़ाते हैं -   

किष्किन्धा काण्ड :-

नाथ जीव तव मायाँ मोहा | सो निस्तरइ तुम्हारेहिं छोहा || 

जे न मित्र दुःख होहिं दुखारी | तिन्हहि बिलोकत पातक भारी ||

उमा दारु जोषित की नाईं | सबहि नचावत रामु गोसाईं ||


ऊषर बरसई तृन नहिं जामा | जिमि हरिजन हियँ उपज न कामा ||

मंगल चौपाइयां

बचपन में, गांव में, हम श्री रामचरित मानस का खूब सस्वर पाठ करते थे।  कुछ चौपाइयां रह रह कर जुबान में आ जाती हैं।  कुछ प्रचलित चौपाइयौं को यहां लिखने का प्रयास करता हूं।  उम्मीद है आप सज्जन भी इसमें भाग अवश्य भागीदारी करेंगे।
 

Yes Rajda.  Those days were very glorious days of our life.  I still remember dat we had sleepless nights many times while reading "Shri Ram Charit Manas" in "AKHAND RAMAYAN".  Thanks.

I wil also write one of my fav choupayee:

PRAVASI NAGAR KEEJAI SAB KAAJAA
HRIDAY RAAKHI KOSHALPUR RAAJAA.

Lalit Mohan Pandey

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जोई िबिध नाथ होए िहत मोरा, करहु सुबेगी दास मम तोरा

I hope ki mai isko correct likh paya hu, if not please do correct me....

hem

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जोई िबिध नाथ होए िहत मोरा, करहु सुबेगी दास मम तोरा

I hope ki mai isko correct likh paya hu, if not please do correct me....
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यह चौपाई मेरी १-५-०८ की पोस्ट में सही-सही लिखी है.

hem

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किष्किन्धा काण्ड से ही कुछ अन्य चौपाइयां :- 

छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई | जस थोरेहुँ धन खल इतराई ||
भूमि परत भा ढाबर पानी | जनु जीवहि माया लपटानी ||
समिटि समिटि जल भरहिं तलावा | जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा ||
सरिता जल जलनिधि महुँ जाई | होइ अचल जिमि जिव हरि पाई  ||
सरिता सर निर्मल जल सोहा | संत हृदय जस गत मद मोहा ||


hem

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सुंदर काण्ड :
अब मोहिं भा भरोस हनुमंता | बिनु हरि कृपा मिलहिं नहीं संता ||
राम नाम बिनु गिरा न सोहा | देखु बिचारि त्यागि मद मोहा ||
राम बिमुख सम्पति प्रभुताई | जाइ रही पाई बिनु पाई ||
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं | बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं ||
नाथ भगति अति सुखदायनी | देहु कृपा करि अनपायनी ||
उमा राम सुभाउ जेहि जाना | ताहि भजनु तजि भाव न आना ||       
जहाँ सुमति तहँ सम्पति नाना | जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना |
उमा संत कइ इहइ बड़ाई | मंद करत जो करइ भलाई ||
तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला | ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला ||
कादर मन कहुँ एक अधारा | दैव दैव आलसी पुकारा ||
राम तेज बल बुधि बिपुलाई | सेष सहस सत सकहिं न गाई ||
क्रोधिहि सम कामिहि हरि कथा | ऊसर बीज बएँ फल जथा ||

hem

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लंका काण्ड से कुछ चौपाइयां :

सिव द्रोही मम भगत कहावा | सो नर सपनेहुँ मोहि न भावा ||

संकर बिमुख भगति चह मोरी | सो नारकी मूढ़ मति थोरी ||

जगदातमा प्रानपति रामा | तासु बिमुख किमि लह बिश्रामा ||

उमा राम की भृकुटि बिलासा | होइ बिस्व पुनि पावइ नासा |

पर उपदेस कुसल बहुतेरे | जे आचरहिं ते नर न घनेरे ||




पंकज सिंह महर

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जब राम चन्द्र जी वन में सीता जी की खोज कर रहे थे और सुग्रीव ने इनको देखा तो उन्हें लगा कि यह बालि के गुप्तचर हैं तो उन्होंने हनुमान जी को भेजा और हनुमान जी विप्र रुप में राम और लक्ष्मण जी के पास गये और पूछा-
"को तुम श्यामल गौर शरीरा, क्षत्रिय रुप धरहि बन बीरा,
कठिन भूमि कोमल पद गामी, कवन हेतु विचरत तुम स्वामी"

hem

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उत्तर काण्ड :
मोरें तुम्ह प्रभु गुर पितु माता | जाऊं कहाँ तजि पद जलजाता ||

बालक ग्यान बुद्धि बल हीना | राखहु सरन नाथ जन दीना ||

संत असंतन्हि कै अस करनी | जिमि कुठार चंदन आचरनी ||

खलन्ह हृदयँ अति ताप बिसेषी | जरहिं सदा पर सम्पति देखी ||

पर हित सरिस धर्म नहीं भाई | पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ||

भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी | बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी ||

पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता | सतसंगति संसृति कर अन्ता ||
             

 

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