Author Topic: Mangal Chaupaiyan From Ramcharit Manas - मंगल चौपाइयां (श्री रामचरित मानस से)  (Read 54622 times)

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राम नाम मनि दीप धरु जीह देहरीं द्वार |
तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर ||


( तुलसीदासजी कहते हैं, यदि तू भीतर और बाहर दोनों ओर उजाला चाहता है तो मुखरूपी द्वार की जीभरूपी देहरी पर राम-नाम रूपी मणि-दीपक को रख || )

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नामु राम को कलपतरु कलि कल्याण निवासु |
जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु ||


( कलियुग में राम का नाम कल्पतरु और कल्याण का निवास है, जिसके स्मरण से भाँग - सा तुलसी दास तुलसी जैसा हो गया || )

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संत कहहिं असि नीति प्रभु श्रुति पुरान मुनि गाव |
होइ न बिमल बिबेक उर  गुर सन किएँ दुराव ||



{( भारद्वाज मुनि याज्ञवल्क्यजी को संबोधित करते हुए कहते हैं ) -हे प्रभो ! संत लोग ऐसी नीति कहते हैं और वेद, पुराण तथा मुनिजन भी यही बतलाते हैं कि गुरु के साथ छिपाव रखने से ह्रदय में निर्मल ज्ञान नहीं होता || }

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तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलइ सहाइ |
आपुनु आवइ ताहि पहिं ताहि तहाँ लै जाइ ||


( तुलसीदासजी कहते हैं - जैसी होनी होती है वैसी परिस्थिति बन जाती है. या तो होनी स्वयं उसके पास आ जाती है या उसको होनी तक ले जाती है.)

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रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहि |
अजहुँ देत दुख रबि ससिहि सिर अवसेषित राहु  ||


( तेजस्वी शत्रु अकेला भी  हो तो  भी उसे छोटा नहीं समझना चाहिए | जिसका सिरमात्र बचा था , वह राहु आजतक सूर्य- चन्द्रमा को दुःख देता है ||)

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भरद्वाज  सुनु  जाहि जब होइ बिधाता  बाम |
धूरि मेरुसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम ||



[ {याज्ञवल्क्यजी कहते हैं} हे भारद्वाज ! सुनो, विधाता जब जिसके विपरीत होते हैं, तब उसके लिए धूल सुमेरुपर्वत के समान(भारी और कुचल डालने वाली), पिता यम के समान(कालरूप) और रस्सी सांप के समान (डसने वाली) हो जाती है.]

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सहज सुहृद गुर स्वामि सिख जो न करइ सिर मानि |
सो  पछ्ताइ  अघाइ उर   अवसि  होइ  हित हानि ||





(स्वाभाविक ही हित चाहने वाले गुरु और स्वामी की सीख को जो सिर चढ़ाकर नहीं मानता, वह हृदय में भरपेट पछताता है और उसके हित की हानि अवश्य होती है.)

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मातु पिता गुरु स्वामी सिख सिर धरि करहिं सुभायँ |
लहेउ  लाभु  तिन्ह जनम कर नतरु जनमु जग जायँ ||

(जो लोग माता, पिता, गुरु, स्वामी की शिक्षा को स्वाभाविक ही सिर चढा कर उसका पालन करते हैं, उन्होंने ही जन्म लेने का लाभ पाया है; नहीं तो जगत में जन्म व्यर्थ ही है |)

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सुनिअ सुधा देखिअहिं गरल सब करतूति कराल |
जहँ तहँ काक उलूक बक मानस सकृत मराल ||



( अमृत केवल सुनने में आता है और विष जहाँ तहाँ प्रत्यक्ष देखा जाता है , विधाता की सभी करतूतें भयंकर है | जहाँ तहाँ कौए, उल्लू और बगुले ही [दिखाई देते] हैं: हंस तो केवल मानसरोवर में ही हैं.)

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मुखिआ मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुं एक |
पालइ पोषइ सकल अँग तुलसी सहित बिबेक ||


{ तुलसीदासजी कहते हैं - (श्री राम जी ने कहा -)   मुखिया मुख के सामान होना चाहिए, जो खाने पीने को तो एक (अकेला) है, परन्तु विवेकपूर्ण सब अंगों का पालन पोषण करता है.}

 

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