Author Topic: Nanda Devi Fair (Saato-Aatho) Saupati- सातो आठो (सौपाती) माँ नंदा देवी मेला  (Read 14876 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Dosto,


  ईष्ट देवी नंदा की आराधना समूचे उत्तराखंड में किया जाता है! नंदा देवी की   पूजा अलग-२ तरह से की जाती है चाहे १२ सालो में आने वाला नंदा देवी का राज   जात! नंदा देवी का राज जात विश्व के सबसे कठिन धार्मिक यात्रा है जो हर १२   साल में मनाया जाता है जहाँ पर लोग कुमाऊं एव गढ़वाल क्षेत्र से भाग लेते   है और नंदा देवी पर्वत तक पूजा करने जाते है!
 
  इसके आलावा उत्तराखंड में जगह माँ नंदा के मेले लगते रहते है अलग-२ जगह पर!   नंदा देवी के कुछ मेले हर तीसरे साल लगते है जैसे सौपती भी कहते है! सातो   और आठो भी नंदा देवी के मेले संभंधित है!
 
  इस टोपिक में हम नंदा देवी के सौपती मेले जुड़े सूचना दंगे!
 
  एम् एस मेहता

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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समूचे पर्वतीय क्षेत्र में   हिमालय की पुत्री नंदा का बड़ा सम्मान है । उत्तराखंड में भी नंदादेवी के   अनेकानेक मंदिर हैं । यहाँ की अनेक नदियाँ, पर्वत श्रंखलायें, पहाड़ और नगर   नंदा के नाम पर है । नंदादेवी, नंदाकोट, नंदाभनार, नंदाघूँघट, नंदाघुँटी,   नंदाकिनी और नंदप्रयाग जैसे अनेक पर्वत चोटियाँ, नदियाँ तथा स्थल नंदा को   प्राप्त धार्मिक महत्व को दर्शाते हैं । नंदा के सम्मान में कुमाऊँ और   गढ़वाल में अनेक स्थानों पर मेले लगते हैं । भारत के सर्वोच्य शिखरों में   भी नंदादेवी की शिखर श्रंखला अग्रणीय है लेकिन कुमाऊँ और गढ़वाल वासियों के   लिए नंदादेवी शिखर केवल पहाड़ न होकर एक जीवन्त रिश्ता है । इस पर्वत की   वासी देवी नंदा को क्षेत्र के लोग बहिन-बेटी मानते आये हैं । शायद ही किसी   पहाड़ से किसी देश के वासियों का इतना जीवन्त रिश्ता हो जितना नंदादेवी से   इस क्षेत्र के लोगों का है ।
         
      कुमाऊँ मंड़ल के अतिरिक्त भी नंदादेवी समूचे गढ़वाल और हिमालय के अन्य   भागों में जन सामान्य की लोकप्रिय देवी हैं । नंदा की उपासना प्राचीन काल   से ही किये जाने के प्रमाण धार्मिक ग्रंथों, उपनिषद और पुराणों में मिलते   हैं । रुप मंडन में पार्वती को गौरी के छ: रुपों में एक बताया गया है ।   भगवती की ६ अंगभूता देवियों में नंदा भी एक है । नंदा को नवदुर्गाओं में से   भी एक बताया गया है । भविष्य पुराण में जिन दुर्गाओं का उल्लेख है उनमें   महालक्ष्मी, नंदा, क्षेमकरी, शिवदूती, महाटूँडा, भ्रामरी, चंद्रमंडला,   रेवती और हरसिद्धी हैं । शिवपुराण में वर्णित नंदा तीर्थ वास्तव में   कूर्माचल ही है । शक्ति के रुप में नंदा ही सारे हिमालय में पूजित हैं ।
         
      नंदा के इस शक्ति रुप की पूजा गढ़वाल में करुली, कसोली, नरोना, हिंडोली,   तल्ली दसोली, सिमली, तल्ली धूरी, नौटी, चांदपुर, गैड़लोहवा आदि स्थानों में   होती है । गढ़वाल में राज जात यात्रा का आयोजन भी नंदा के सम्मान में होता   है ।
कुमाऊँ में अल्मोड़ा,   रणचूला, डंगोली, बदियाकोट, सोराग, कर्मी, पौथी, चिल्ठा, सरमूल आदि में नंदा   के मंदिर हैं ।अनेक स्थानों पर नंदा के सम्मान में मेलों के रुप में   समारोह आयोजित होते हैं । नंदाष्टमी को कोट की माई का मेला और नैतीताल में   नंदादेवी मेला अपनी सम्पन्न लोक विरासत के कारण कुछ अलग ही छटा लिये होते   हैं परन्तु अल्मोड़ा नगर के मध्य में स्थित ऐतिहासिकता नंदादेवी मंदिर में   प्रतिवर्ष भाद्र मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को लगने वाले मेले की रौनक ही   कुछ अलग है ।
         
      अल्मोड़ा में नंदादेवी के मेले का इतिहास यद्यपि अधिक ज्ञात नहीं है तथापि   माना जाता है कि राजा बाज बहादुर चंद (सन् १६३८-७८) ही नंदा की प्रतिमा को   गढ़वाल से उठाकर अल्मोड़ा लाये थे । इस विग्रह को वर्तमान में कचहरी स्थित   मल्ला महल में स्थापित किया गया । बाद में कुमाऊँ के तत्कालीन कमिश्नर   ट्रेल ने नंदा की प्रतिमा को वर्तमान से दीप चंदेश्वर मंदिर में स्थापित   करवाया था ।
         
      अल्मोड़ा शहर सोलहवीं शती के छटे दशक के आसपास चंद राजाओं की राजधानी के   रुप में विकसित किया गया था । यह मेला चंद वंश की राज परम्पराओं से सम्बन्ध   रखता है तथा लोक जगत के विविध पक्षों से जुड़ने में भी हिस्सेदारी करता है ।
         
      पंचमी तिथि से प्रारम्भ मेले के अवसर पर दो भव्य देवी प्रतिमायें बनायी   जाती हैं । पंचमी की रात्रि से ही जागर भी प्रारंभ होती है । यह प्रतिमायें   कदली स्तम्भ से निर्मित की जाती हैं । नंदा की प्रतिमा का स्वरुप   उत्तराखंड की सबसे ऊँची चोटी नंदादेवी के सद्वश बनाया जाता है । स्कंद   पुराण के मानस खंड में बताया गया है कि नंदा पर्वत के शीर्ष पर नंदादेवी का   वास है । कुछ लोग यह भी मानते हैं कि नंदादेवी प्रतिमाओं का निर्माण कहीं न   कहीं तंत्र जैसी जटिल प्रक्रियाओं से सम्बन्ध रखता है । भगवती नंदा की   पूजा तारा शक्ति के रुप में षोडशोपचार, पूजन, यज्ञ और बलिदान से की जाती है   । सम्भवत: यह मातृ-शक्ति के प्रति आभार प्रदर्शन है जिसकी कृपा से राजा   बाज बहादुर चंद को युद्ध में विजयी होने का गौरव प्राप्त हुआ । षष्ठी के   दिन गोधूली बेला में केले के पोड़ों का चयन विशिष्ट प्रक्रिया और विधि-विधान   के साथ किया जाता है ।
         
      षष्ठी के दिन पुजारी गोधूली के समय चन्दन, अक्षत, पूजन का सामान तथा लाल   एवं श्वेत वस्र लेकर केले के झुरमुटों के पास जाता है । धूप-दीप जलाकर        पूजन के बाद अक्षत मुट्ठी में लेकर कदली स्तम्भ की और फेंके जाते हैं   । जो स्तम्भ पहले हिलता है उससे नन्दा बनायी जाती है । जो दूसरा हिलता है   उससे सुनन्दा तथा तीसरे से देवी शक्तियों के हाथ पैर बनाये जाते हैं । कुछ   विद्धान मानते हैं कि युगल नन्दा प्रतिमायें नील सरस्वती एवं अनिरुद्ध   सरस्वती की हैं । पूजन के अवसर पर नन्दा का आह्मवान 'महिषासुर मर्दिनी' के   रुप में किया जाता है । सप्तमी के दिन झुंड से स्तम्भों को काटकर लाया जाता   है । इसी दिन कदली स्तम्भों की पहले चंदवंशीय कुँवर या उनके प्रतिनिधि   पूजन करते है । उसके बाद मंदिर के अन्दर प्रतिमाओं का निर्माण होता है ।   प्रतिमा निर्माण मध्य रात्रि से पूर्व तक पूरा हो जाता है । मध्य रात्रि   में इन प्रतिमाओं की प्राण प्रतिष्ठा व तत्सम्बन्धी पूजा सम्पन्न होती है ।
         
      मुख्य मेला अष्टमी को प्रारंभ होता है । इस दिन ब्रह्ममुहूर्त से ही   मांगलिक परिधानों में सजी संवरी महिलायें भगवती पूजन के लिए मंदिर में आना   प्रारंभ कर देती हैं । दिन भर भगवती पूजन और बलिदान चलते रहते हैं । अष्टमी   की रात्रि को परम्परागत चली आ रही मुख्य पूजा चंदवंशीय प्रतिनिधियों   द्वारा सम्पन्न कर बलिदान किये जाते हैं । मेले के अन्तिम दिन परम्परागत   पूजन के बाद भैंसे की भी बलि दी जाती है । अन्त में डोला उठता है जिसमें   दोनों देवी विग्रह रखे जाते हैं । नगर भ्रमण के समय पुराने महल ड्योढ़ी   पोखर से भी महिलायें डोले का पूजन करती हैं । अन्त में नगर के समीप स्थित   एक कुँड में देवी प्रतिमाओं का विसर्जन किया जाता है ।
         
      मेले के अवसर पर कुमाऊँ की लोक गाथाओं को लय देकर गाने वाले गायक 'जगरिये'   मंदिर में आकर नंदा की गाथा का गायन करते हैं । मेला तीन दिन या अधिक भी   चलता है । इस दौरान लोक गायकों और लोक नर्तको की अनगिनत टोलियाँ नंदा देवी   मंदिर प्राँगन और बाजार में आसन जमा लेती हैं । झोड़े, छपेली, छोलिया जैसे   नृत्य हुड़के की थाप पर सम्मोहन की सीमा तक ले जाते हैं । कहा जाता है कि   कुमाऊँ की संस्कृति को समझने के लिए नंदादेवी मेला देखना जरुरी है । मेले   का एक अन्य आकर्षण परम्परागत गायकी में प्रश्नोत्तर करने वाले गायक हैं,   जिन्हें बैरिये कहते हैं । वे काफी सँख्या में इस मेले में अपनी कला का   प्रदर्शन करते हैं । अब मेले में सरकारी स्टॉल भी लगने लगे हैं ।


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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We are putting some Videos of Nanda Devti (Saupati) which our Member Harish JI has uploaded.


Sheopaati Part 3 of 12


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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नंदा देवी मेले महिलाये भगनौल और अन्य गाने भी गाते है !

बिरुड भी नंदा देवी के सौपाती में बनाये जाते है जो की सोया बीन और अन्य आनाज को भिगो कर बनाया जाता है जिसे पूजा के बाद बाटा जाता है!

 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Nandashtami

Nanda Ashtami is is one of the tribal festivals of Uttarakhand. This festival is celebrated in mid-September in honour of the  Goddess Nanda Devi, whose abode is on the twenty five thousand foot high peak of the same name in Uttaranchal. In the festival, it is mandatory to have garland of flowers brought from the bugyal or the high altitude alpine meadows

विनोद सिंह गढ़िया

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जैसा कि हम जानते हैं कि सम्पूर्ण उत्तराखंड में माँ भगवती नंदा की पूजा बड़े धूम-धाम एवं पूरे हर्षोलाश के साथ मनाया जाता है। माँ नंदा की पूजा तो वर्ष भर विभिन्न नवरात्रियों में होती रहती हैं, परन्तु भाद्रपद मास ( २० अगस्त से २० सितम्बर के मध्य ) की सप्तमी एवं अष्टमी को होने वाली पूजा का खास महत्व है इसी पूजा को हम सौपाती और  आठों के नाम से पुकारते हैं ।
यही सौपाती और आठूं मेरे गाँव पोथिंग (कपकोट) बागेश्वर माँ नंदा भगवती के मंदिर में होती है, जिसके बारे में मैं आपको बताना चाहूँगा | पोथिंग गाँव में हर वर्ष माँ भगवती की पूजा होती है, जिसे हम सौपाती और आठों के नाम से जानते हैं ।

सौपाती : सौपाती में हमारे गाँव में माँ नंदा की पूजा प्रतिपदा के लेकर सप्तमी तक होती है। सौपाती में इस गाँव में माँ नंदा की मूर्ति का निर्माण पाती (एक प्रकार का पौधा, जिसे काफी पवित्र माना जाता है) और पयां से किया जाता है। सौपाती कपकोट शेत्र में हर तीसरे वर्ष होता है, कपकोट शेत्र में माँ नंदा के मंदिर विभिन्न जगहों में है परन्तु जब पोथिंग में सौपाती होती हैं अर्थात पोथिंग में सप्तमी को माँ की पूजा संपन्न हो जाती है अगले दिन अष्टमी को इन इलाकों में माँ की पूजा होती है । जब पोथिंग में आठौं का पर्व होता है तब इन इलाकों में माँ की पूजा नहीं होती है।

आठौं : पोथिंग में आठौं हर तीसरे वर्ष होता है, जिसे यहाँ काफी धूम-धाम से मनाया जाता है । आठौं की तैयारियां हरेले से प्रारंभ हो जाती हैं , हरेले के दिन यहाँ कपकोट के उत्तरोड़ा गाँव से केले का वृक्ष लाया जाता है, जिसे दूध केला बोलते हैं। इस केले के वृक्ष को पोथिंग गाँव में एक खास जगह में लगाया जाता है, जिसमें लगभग एक माह तक (आठौं तक ) प्रतिदिन गाय का दूध डाला जाता है । जिसे माँ की पूजा के समय सप्तमी को बड़े धूम-धाम से आमंत्रित कर अगले दिन अष्टमी को माँ नंदा की प्रतिमा बनाने में किया जाता है।

आठौं एक ख़ास तरह का एक पर्व होता है, जिसमें विभिन्न गॉवों से लोग आकर माता के दर्शन करते हैं। आठौं में प्रतिपदा से लेकर अष्टमी तक माँ की पूजा होती है। रात भर माँ का जागरण होता है, विभिन्न प्रकार के माँ के जागर गाये जाते हैं | लोग यहाँ आकर झोड़े-चाचरी गाकर आनंद लेते हैं ।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि उत्तराखंड में सौपाती और आठौं बड़े धूम-धाम से मनाया जाने वाला माँ नंदा भगवती की पूजा है, जिसका हमारे राज्य में खास महत्व है।


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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IN DETAILS ABOUT AATHO
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‘‘आठूं’’ , ‘‘अष्टमी’’ या ‘‘अठ्वाली’’ शब्दों का मूल संस्कृत के ‘‘अष्टम’’ तथा
‘‘अष्टमी’’ शब्द है। यहाँ आठूँ का तात्पर्य भादौ के महीने में पड़ने वाली ‘‘अष्टमी’’ से है।
आठूँ कुमाऊँ में प्रचलित पर्व विशेष है, जिमसें गमरा - मैंसर ;गौर महेश्वरद्ध के गीत गाये जाते
हैं। गीतों का गायन पंचमी से ही प्रारम्भ हो जाता है। कुमाऊँ में श्रावण शुक्ल अमुत्तफाभरण भादौ
की सप्तमी तथा अष्टमी के दिन स्त्रिायाँ पार्वती पूजन करती हैं। इसे दूर्वाष्टमी भी कहा जाता
है। पंचमी को कलूँ ;बिरूड़द्ध भिगोये जाते हैं। दूसरे दिन स्नानोपरान्त शु( जल से बिरूड़
धेये जाते हैं। नये दूब धगे ;डोरद्ध पहने जाते हैं। अगले दिन गौरा का आगमन होता है। उसे
बिरूड़ चढ़ाये जाते हैं। कुँवारी कन्याएँ सौं ;सवाँद्ध के पौधें से गमरा बनाती हैं, पिफर डलिया
में रख कर उसे सिर पर धरण करके बाजों-गाजों केसाथ लाया जाा है। आँगन में गमरा के
जन्म से लेकर ससुराल जाने तक के गीत गाये जाते हैं, गौरा को भी नाचने को कहा जाता है।
नाचि बौ खेलि बौ लौलि गमारा,
ध्ैं, तेरो कसो नाच।
काँ रे उपजी लौलि गमारा,
काँ रे भयो उज्यालो।
बलू बोट उपजि लौली,
खेता पात उल्यालो................. ।
महिलाएँ उसे बिरूड़ चढ़ाती हैं। तदुपरान्त घर के भीतर लिपे-पुते पवित्रा स्थान पर उसे
प्रतिष्ठित किया जाता है। ब्राह्यण स्तोत्रा पाठ करता है। आबालवृ( सबके हषोल्लास में गमरा
;गौराद्ध का यह आगमन दर्शन योग्य होता है। इस अवसर पर ‘हिरन चित्तल’ का भी आयोजन
किया जाता है। उसी दिन सांयकाल से स्त्राी-पुरूषों के खेल लगते हैं। दूसरे दिन ‘‘मैंसर’’
;महेश्वरद्ध आते हैं। चूख ;बड़ा नीबूद्ध के दानों से मैंसर की मानवाकृति बनाई जाती है और
उसे भी गमरा की डलिया में प्रतिस्तापित किया जाता है। दस-बारह दिन तक हर्ष,उल्लास,
आनन्द, नृत्य और गीतों की खूब चहल-पहल रहती है। अन्तिम दिन ‘‘तेरी सेवा पूरी भै केदार’’
कहते हुए गमरा - मैंसर को किसी मन्दिर में रख दिया जाता है। पफौल पफटकने के उपरान्त
सभी लोग उदाय भाव से अपने घरों को चले जाते हैं और यह उत्सव समाप्त हो जाता है।
गौरा-महेश्वर की यह उद्भावना लोक मानस के उस सरल सहज सौहार्दपूर्ण आह्लद
की ओर इंगित करती है, जो समस्त अभावों को झेलते हुए भी प्रतिवर्ष उत्कंठित होकर चिर
नवीन रूप धरण करके सामने आता है। प्रस्तुत गीतों में प्रबन्धत्मकता है, अतएव गौरा-
महेश्वर गाथा लोक गाथाओं के धर्मिक स्वरूप के अन्तर्गत ही मानी जानी चाहिए। यह गाथा
कुमाऊँ के जनजीवन के रंगों से आविल है। दुधरर्््ष जीवन संघर्षो में जीता हुआ लोक मानस
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अभावों की विकरालता से कंपित नहीं हुआ, अपितु उसकी गूँज सहस्त्रा गुने वेग से हिमालय
के उपकण्ठों को आन्दोलित सी करती है और उन्मुत्तफ समीकरण उस अनुगूँज की मध्ुरिमा से
झूम उठता है।
प्रस्तुत गाथा कुमाऊँ के सोर सीरा कुमूँ क्षेत्रा में अध्कि प्रचलित है। इसमें गौरा और
महेश्वर अलौकिक चरित्रा न होकर कुमाऊँ के सामान्य नारी और पुरूष के रूप में चित्रित है,
जो अभाव पीड़ित कठोर जीवन व्यतीत करते हैं। सम्पूर्ण कथानक में दोनों चरित्रों के माध्यम
से कुमाऊँ के लोक जीवन की विशद और व्यापक झाँकी लोक मानस द्वारा प्रतिष्ठित हुई है।
यहाँ शिव पार्वती का वह रूप तिरोहित हो गया है जो अपने अध्विास में पुरूष और प्रकृति
के रूप में संपूर्ण सृष्टि का नियमन कर रहा होता है। गहन-वन प्रान्तरों की सुरम्य उपत्यकाओं
में भीषणता एवं मनोहरता का जैसा मंजुल समन्वय दीख पड़ता है वैसे ही औरा और महेश्वर
की कथा निष्ठुर नियति के निर्मम अटðहास के साथ ही मध्ुर उल्लास की सहज अभिव्यक्ति
के रूप में परिलक्षित होती है।
आठूँ में गाये जाने वाले गीतों में गेय तत्व की प्रधनता है। कुमाउँनी लोक गीतों की यह
महत्वपूर्ण विशेषता है कि गायन के साथ नृत्य भी अभिन्न रूप से प्रायः उसके साथ संयुक्त
रहता है। इन गीतों में प्रयुत्तफ लय, नृत्य के आधर पर निर्मित हुई है। इसलिए लय में दु्रत तथा
विलंबित आदि रूप प्राप्त होते हैं। आवृत्ति प्रयोग द्वारा सरसता, कमनीयता तथा लालित्य उत्पन्न
करना लोक मानवस की प्रमुख प्रवृत्ति रही है। प्रस्तुत गाथा में तुकान्त तािा अतुकान्त दोनों प्रकार
के छन्द प्रयुत्तफ होते हैं। 14, 16 तथा 22 वर्णो के मुत्तफक वर्णिक छन्द संगीतात्मक और
नृत्यानुकूल हैं। कहीं-कहीं मात्रिक लय सान्य की स्थिति भी परिलक्षित होती है।

(Information provided by Hem Raj Bisht Pithoragarh, Navoday Kala Kendra)

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THUL KHEL
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भादौं के महीने कृष्ण जन्माष्टमी के पश्चात जो गीत गाये जाते हैं उन्हें ‘खेल’ कहा
जाता है। गीतों के गाने को ‘‘खेल लगना’’ कहते हैं। ‘‘खेल’’ के इन्हीं प्रकारों के एक भेद
को ‘‘ठुलखेल’’ कहते हैं। ‘‘ठुल’’ शब्द का अर्थ है- ‘‘बड़ा’’। ‘‘ठुलखेल’’ से तात्पर्य हुआ-

‘‘बड़ा खेल’’ यह केवल पुरूषेां द्वारा लगाया और गाया जाता है, स्त्रिायाँ इसमें भाग नहीं लेती
क्योंकि कुछ लोगों की मान्यतानुसार वह उनकी प्रवृत्ति के अनुकूल नहीं होता । स्त्राी की अपेक्षा
पुरूष को बड़ा मानकर ही केवल पुरूषों द्वारा गाये या लगाये जाने के कारण इसे ‘‘ठुलखेल’’
नाम से अभिहित किया गया होगा।
 
के कारण इस संबंध् में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है।
नृत्य विधन की दृष्टि से सम्पूर्ण प्रबन्ध् को 4 भागों में बाँटा जा सकता है। ;पद्ध पफर्कु-
यह नृत्य भी प्रारम्भिक अवस्था है, जिसके बाद कथारम्भ की स्थिति आती है। कथा का अध्
िकांश वर्णनात्मक भाग इसी नृत्य शैली में गाया जाता है। पफर्कु से तात्पर्य है, दूसरी लय से
लौटकर पुनः पहली लय को पकड़ना। ;पपद्ध ढुस्को - ‘ढुस्को’- ढोसुक शब्द से बना है।
जिसका अर्थ है समतल से कुछ ऊँचा भाग। चली आती हुई सम्यक् लय में नृत्यात्मक स्थितियों
की भिन्न गति को ढुस्को सूचित करता है। ढुस्को रस पेशनल प्रसंगों में गाया जाता है। ढुस्को
में 10,8 =18 वर्णो के छन्दों का सर्वाध्कि प्रयोग होता है। ;पपपद्धध्ुमारी-यह प्रबन्ध् गायन की
तृतीय स्थिति है। इस गायन में नृत्य में गति और त्वरा की वृ(ि हो जाती है। यु(, उत्साह, क्रोध्
, कटु वार्तालाप तथा वीरतापूर्ण प्रसंगों में ‘‘ध्ुमारी’’ गायी जाती है। इसमें वीर रसानुकूल ओज
तथा प्रवाह रहता है। इसमें प्रयुत्तफ छन्द की लाय संस्कृत वृत्त ‘‘इन्द्रवज्रा’’ से साम्य रखती है।
इसमें मुख्यतः 5,6 =11 वर्झाो के छन्दों का प्रयोग होता है। ;पअद्धचालि- प्रबन्ध् की गायन
शैली का यह चौथा चरण है, सर्वाध्कि त्वरा एवं गतिपूर्ण तथा नृत्य की दृष्टि से अत्यन्त कठिन
है। चालि में गायकों का पद क्रम संचालन अत्यध्कि तीव्र रहता है। चालि में त्वरित संकुचन-
प्रवर्त्तन की गति रहती है। चालि

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 ‘‘ठुलखेल’’ से तात्पर्य हुआ-
‘‘बड़ा खेल’’ यह केवल पुरूषेां द्वारा लगाया और गाया जाता है, स्त्रिायाँ इसमें भाग नहीं लेती
क्योंकि कुछ लोगों की मान्यतानुसार वह उनकी प्रवृत्ति के अनुकूल नहीं होता । स्त्राी की अपेक्षा
पुरूष को बड़ा मानकर ही केवल पुरूषों द्वारा गाये या लगाये जाने के कारण इसे ‘‘ठुलखेल’’
नाम से अभिहित किया गया होगा।

 

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