Author Topic: Our Culture & Tradition - हमारे रीति-रिवाज एवं संस्कृति  (Read 63084 times)

Risky Pathak

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पासेणी:


उत्तराखंड-कुमाऊं में नवजात शिशु को पहली बार अन्न ग्रहण कराने को पासेणी कहते है| ये रीती अमूमन शिशु के जन्म के ६ महीने बाद ही मनाई जाती है| इससे पहले शिशु माँ के दूध पर ही आश्रित रहता है| इस दिन ब्राह्मण व अन्य अतिथियों को भोज कराया जाता है|

Risky Pathak

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व्रतबंध(जनेऊ) के पहले दिन को गृह्जाग कहते है|
जनेऊ संस्कार

इसे उपनयन या यज्ञोंपवित संस्कार भी कहा जाता है,कुमाऊँ में जनेऊ के लिए वर्तपान सब्द प्रचलित है और गढ़वाल मंडल में इसे जनेऊ ही कहा जाता है !

जहां यह संस्कार बड़े उत्साह से संपन्न होता है गढ़वाल के अधिकांस छेत्रों में इस संस्कार कि ओपचारिकता विवाह से पूर्व मंगल स्नान के साथ पूर्ण कर दी जाती है !

आधुनिक जीवन शैली तथा यज्ञोंपवित धारण करने के लिए सांस्कारिक बंधनों का पालन करने में असमर्थ रहने के कारण यज्ञोंपवित को नियमित धारण करने कि परम्परा केवल कुछ ही लोगों को सिमित रह गयी है !


पंकज सिंह महर

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ज्योतिपर्व दीपावली को मनाने का उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल में निराला ही अंदाज है। यहां दीपावली का उत्सव धनतेरस से शुरू होता है और एकादशी को विराम लेता है। इसीलिए इस त्योहार को इगास-बग्वाल के रूप में मनाया जाता है। भैलो परंपरा दीपावली (बड़ी बग्वाल) का मुख्य आकर्षण है। दीपावली के दिन भैलो (बेलो) खेलने की परंपरा पहाड़ में सदियों पुरानी है, जिसे सांस्कृतिक ह्रास के इस दौर में भी यत्र-तत्र देखा जा सकता है। बेलो पेड़ की छाल से तैयार की गई रस्सी को कहते हंै, जिसमें निश्चित अंतराल पर चीड़ की लकडि़यां (छिल्ले) फंसाई जाती हैं। फिर सभी लोग गांव के किसी ऊंचे एवं सुरक्षित स्थान पर एकत्र होते हैं, जहां पांच से सात की संख्या में तैयार बेलो में फंसी लकडि़यों के दोनों छोरों पर आग लगा दी जाती है। इसके उपरांत ग्रामीण बेलो के दोनों छोर पकड़कर उसे अपने सिर के ऊपर से घुमाते हुए नृत्य करते हैं, जिसे भैलो खेलना कहा जाता है। ऐसा करने के पीछे धारणा यह है कि मां लक्ष्मी सभी के आरिष्टों का निवारण करें। आचार्य डा.संतोष खंडूड़ी बताते हैं कि गांव की खुशहाली और सुख-समृद्धि के लिए बेलो को गांव के चारों ओर भी घुमाया जाता है। कई गांवों में भीमल के छिल्लों को जलाकर ग्रामीण सामूहिक नृत्य करते हैं। यह भी भैलो का ही एक रूप है। इसके अलावा दीपावली पर उरख्याली (ओखली), गंज्याली (धान कूटने का पारंपरिक यंत्र), धारा-मंगरों, धार, क्षेत्रपाल, ग्राम्य एवं स्थान देवता की पूजा भी होती है। इससे पहले धनतेरस के दिन गाय को अन्न का पहला ग्रास (गो ग्रास) देकर उसकी पूजा होती है और फिर घर के सभी लोग गऊ पूड़ी का भोजन करते हैं। जबकि, छोटी बग्वाल (नरक चतुर्दशी) को घर-आंगन की साफ-सफाई कर चौक (द्वार) की पूजा होती है और उस पर शुभ-लाभ अथवा स्वास्तिक अंकित किया जाता है। दीपावली का अगला दिन पड़वा गोव‌र्द्धन पूजा के नाम है। इस दिन प्रकृति के संरक्षण के निमित्त गो, वृक्ष, पर्वत व नदी की पूजा की जाती है। कहते हैं कि पड़वा को निद्रा त्यागकर बिना मुख धोए मीठा ग्रहण करने से सालभर घर-परिवार में मिठास घुली रहती है। बग्वाल के तीसरे दिन पड़ने वाला भैयादूज का पर्व भाई-बहन के स्नेह का प्रतीक है। भाई इस दिन बहन के घर जाता है और बहन उसका टीका कर उसे मिष्ठान खिलाती है। कहते हैं कि इस दिन है जब यमलोक की भी द्वार बंद रहते हैं।

Devbhoomi,Uttarakhand

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अतिथि सत्कार

स्थानीय लोग अतिथि के प्रति बड़ी श्रधा रखते हैं,समय-समय पर पंहुंचने वाले अतिथि की यथावत सेवा एवं सत्कार किया जाता है उसके आदर सत्कार में किसी भी प्रकार की कमी नहीं राखी जाती है

घर पर आये हुए अतिथि को भोजन किये बिना जाने नहीं दिया जाता है अतिथि देवोभव की भावना उत्तराखंड में पांडवकालीन संसकिरती की धरोहर है !

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संस्कृति व परंपराएं समाज की पहचान: इंदु

लोक संस्कृति, साहित्य, संगीत के पंरपरागत स्वरूप को बनाए रखने व विकसित करने की मंशा से आयोजित गोलू महोत्सव-2009 का समापन लोक गीत, नृत्य की सतरंगी छटा बिखेरते हुए हुआ। तीन दिनों तक चितई चौघाणी गौरिया मंदिर परिसर में चले इस आयोजन में वयोवृद्ध लोक कलाकारों की प्रस्तुतियां देखने-सुनने योग्य थी।

समापन से पूर्व गोलू महोत्सव स्मारिका-2009 अशीक का विमोचन प्रदेश के मुख्य सचिव इंदु कुमार पांडे ने किया। अपने संबोधन में मुख्य सचिव ने लोक संस्कृति के संरक्षण, संवर्धन व विकास के लिए प्रयास किए जाने की बात कही। उन्होंने कहा कि शासन का सांस्कृतिक विभाग इन गतिविधियों को निरंतर विकसित करने की दिशा में कार्य कर रहा है।

 अपनी संस्कृति, विरासत व परंपरा को कायम रखने की पक्षधरता करते हुए मुख्य सचिव ने कहा कि इस समाज की संस्कृति, परंपराएं जीवित रहती हैं, वह समाज कभी मिट नहीं सकता। इसलिए भारतीय संस्कृति में विविध रंगों, रसों की प्रचुरता है, जिसके कारण भारतीयता पूरे विश्व में अपनी अनूठी संस्कृति के लिए जानी जाती है।

उन्होंने इस परंपरा को आगे बढ़ाने में कार्य कर रहे श्री गोलू महोत्सव के संयोजक जुगल किशोर पेटशाली की प्रयासों की सराहना की। इस अवसर पर जुगल किशोर पेटशाली ने सभी अतिथियों का आभार जताया। विशेष रूप से मुख्य सचिव इंदु कुमार पांडे का आभार जताते हुए कहा कि उनका यहां आना निश्चित ही इस महोत्सव की गौरव को बढ़ाने वाला है।

समापन दिवस में रीठागाड़ के वयोवृद्ध अलगोजा वादक लाल सिंह व त्रिलोक सिंह की जुगलबंदी में अलगोजा की धुनों ने सभी को मोहित कर दिया। देव राम रीठागाड़ी व गोविन्द सिंह रीठागाड़ी की सांस्कृतिक प्रस्तुतियां अपने आप में अनूठी रही।

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मेंहमानों का पैर धोना

देहरादून जिले के उत्तरार्द्ध के निवासियों को जौनसौरी भी कहते हैं। पिछले लगभग 30 वर्ष तक उनके बीच एक विशेष प्रथा थी। जनजातीय समुदाय के लोग अपने मेंहमानों का सम्मान उनके पैर धोकर और पैरों की मालिश कर किया करते थे।

देहरादून की यमुना घाटी के नागथाट गांव के एक वरिष्ठ नागरिक को आज भी इसका स्मरण हैः ''हां यह परंपरा थी। मेहमान आते तो न केवल उनके बल्कि परिवार के अन्य सदस्यों के पैर भी गर्म पानी में धोए जाते।''

अब चूंकि परिवार के सदस्य अपने पैरों की तेल मालिश करते इसलिए मेहमानों के पैरों की भी मालिश की जाती इस वरिष्ठ नागरिकों के अनुसार पैर धोने और मालिश करने का मकसद सभी का सत्कार और सभी को राहत देना था। इसके पीछे तर्क यह होता है परिवार के सदस्य खातिर करके थक जाते होंगे और मेहमान पैदल यात्रा से।

पिछले तीन दशकों में रीति दम तोड़ने लगी है। इस गांव की कुछ महिलाएं मानती हैं कि बाहर के लोग इस रीति के कारण जौनसौरी की आलोचना किया करते। इन दिनों मेहमानों को हाथ-पैर धोने के लिए सिर्फ गर्म पानी दिया जाता है। अब पैरों की मालिश नहीं की जाती। परिवार के सदस्यों के पैर की मालिश भी नहीं की जाती, कहती हैं नागथाट की एक महिला किसान।

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नामकर्म या नामकरण

संतान उत्पन्न होने के ११वें दिन बालक का नाम रखा जाता है । सूतिकागृह को गोमूत्र व पंचगण्य से प्रात: स्नान के अनन्तर शुद्ध किया जाता है । पश्चात् हवन व अन्य कर्मों से सूतिका की अस्पृश्यता दूर की जाती है ।

 नक्षत्रानुसार नाम स्थिर करके एक वस्र में लिखकर प्रतिष्ठा उस वस्र से वेष्ठित शंख से बालक के कान में पिता नाम का उच्चारण करता है । सूर्यावलोकन भी आज ही होता है । ब्राह्मणों और बान्धवादिकों को भोज कराके तिलक भेंट देकर नामकर्म का विधान पर्ण होता है ।

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अक्षराम्भ

बालक की पाँच वर्ष की अवस्था प्रारंभ होने पर शुभ मुहुर्त देखकर अक्षरारंभ-कर्म होता है । पहले पूजन वगैरह होता है । अब ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है ।

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दीक्षा

वैदिक मंत्रों की दीक्षा लेकर वेद के उपासना कांड में शास्रीय विधि से प्रवृत करने का यह प्राचीन संक्कार है । पर अब यह विलुप्त हो चुका है ।
 कुछ इने गिने लोग सूर्यग्रहनादि में किसी योग्य पंडित से मंत्र-दीक्षा लेकर गुरु बनाते हैं । स्रियाँ जप करती हैं । यही इस संस्कार का कपोता विशेष है ।

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                              मरणओप्रांत मृतक-कर्म की रीतियाँ
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वृद्धावस्था प्राप्त हो जाने पर पुत्रवान कुटुम्बी, आस्तिक धनी काशीवास कर लेते थे, अथवा अन्यत्र कहीं गंगा-तट पर निवास करके ईश्वर-भजन करते थै । पर अब लोग पुत्रादि के समीप रहना आवश्यक समझते हैं । मृत्यु के समय गीता और श्रीमद्भागवतादि का पाठ सुनना, रामनाम का जप करना स्वर्गदायक समझा जाता है । गोदान और दश-दान कराके, होश रहते-रहते मृतक को चारपाई से उठाकर जमीन में लिटा दिया जाता है । प्राण रहते गंगा जल ड़ाला जाता है । प्राण निकल जाने पर मुख-नेत्र-छिद्रादि में सुवर्ण के कण ड़ाले जाते हैं ।

 फिर स्नान कराकर चंदन व यज्ञोपवीत पहनाये जाते हैं । शहर व गाँव के मित्र, बांधव तथा पड़ोसी उसे श्मशान ले जाने के लिए मृतक के घर पर एकत्र होते हैं । मृतक के ज्येष्ठ पुत्र, उसके अभाव में कनिष्ठ पुत्र, भाई-भतीजे या बांधव को मृतक का दाह तथा अन्य संस्कार करने पड़ते हैं । जौ के आटे से पिंडदान करना होता है । नूतन वस्र के गिलाफ (खोल) में प्रेत को रखते हैं, तब रथी में वस्र बिछाकर उस प्रेस को रख ऊपर से शाल, दुशाले या अन्य वस्र ड़ाले जाते हैं ।

 मार्ग में पुन: पिंड़दान होता है । घाट पर पहुँचकर प्रेत को स्नान कराकर चिता में रखते हैं । श्मशान-घाट ज्यादातर दो नदियों के संगम पर होते हैं । पुत्रादि कर्मकर्ता अग्नि देते हैं । कपाल-क्रिया करके उसी समय भ कर देते हैं । देश की तरह तीसरे दिन चिता नहीं बुझाते ।

 उसी दिन बुझाकर जल से शुद्ध कर देते हैं । कपूतविशेष (कपोत यानि कबूतक के तुल्य सिर पर बाँधना होता है । इस 'छोपा' कहते हैं । मुर्दा फूँकनेवाले सब लोगों को स्नान करना पड़ता है । पहले कपड़े भी धोते थे । अब शहर में कपड़े कोई नहीं धोता । हाँ, देहातों में कोई धोते हैं । गोसूत्र के छींटे देकर सबकी शुद्धि होती है ।

 देहात में बारहवें दिन मुर्दा फूँकनेवालों का 'कठोतार' के नाम से भोजन कराया जाता या सीधा दिया जाता है । नगर में उसी समय मिठाई, चाय या फल खिला देते हैं । कर्मकर्ता को आगे करके घर को लौटते हैं । मार्ग में एक काँटेदार शाखा को पत्थर से दबाकर सब लोग उस पर पैर रखते हैं । श्मशान से लौटकर अग्नि छूते हैं, खटाई खाते हैं ।

 

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