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कई कई जगह नारी को पुरुष से श्रेष्ठ बताने सफल प्रयास किया गया है. सर्ग ७ में मालूशाही के माध्यम से कही गयी ये बात...
तुमने प्रणय के पंथ को,
हे देवी ! परिमार्जित किया.
नारीत्व का गौरव बढ़ाया,
एश्वर्य को लज्जित किया.
नारी तुम्हीं तो पुरुष की,
कल्याण वेष्ठित मूर्ति हो.
बन अर्ध की अर्धांगिनी,
एकत्व की आपूर्ति हो.
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उपमेय तू , उपमान तू,
तू ही जगत की मूल है.
दासी समझ लेना तुझे,
यह पुरुष की अति भूल है.
पुस्तक की विशेषता ये भी है कि लेखक स्थान स्थान पर आंचलिक शब्दों, सूक्तियों एवं वस्तुओं का अर्थ, अभिप्राय एवं प्रासंगकिता देते हुए चलते हैं. उत्तराखंड के जीवन, त्यौहार एवं सामाजिक धारणाओं के विषय में कई जगह प्रसंग हैं. एक उद्धरण...
सजी गोमती सरयू दोनों,
नील भील विहँसे मतवाले.
उत्तरायणी झूम रही है,
कौवा काले, कौवा काले.
(कौवा काले त्यौहार केवल कुमाऊं में मनाया जाता है.)
स्वर्ण, रत्न, धन-धान्य, संपदा,
वैभव का है कोष विराट.
शौक सुनपति बना हुआ है,
पूर्ण दारमा* का सम्राट.
(*कुमाऊँ में प्रचलित लोक कथाओं के आधार पर सुनपति शौक का स्थान, पट्टी मल्ला दारमा माना जाता है. जो वर्तमान में जिला पिथौड़ागढ़ में स्थित है.)
पांचवे सर्ग में तो सम्पूर्ण 'राजुला का प्रकृत्यात्मक विरह' कुमांउनी छंद विन्यास 'जोड़/न्योली' के मीटर में है और इसकी भाषा कुमाँउनी है , पश्चात हिंदी में भावानुवाद (हिंदी में भावानुवाद भी गेय है.).कुछ एक छंद अविस्मरणीय बन पड़े हैं जिनका साहित्य में बिना पढ़े रह जाना मुझे एक पाठक के नज़रिए से बड़ा विचलित करता है.पुस्तक इसलिए सबसे अधिक होंट करती है क्यूंकि इसमें प्रेम. फलसफे , जीवन दर्शन एवं आध्यात्म की गज़ब की ब्लेंडिंग की गयी है. ये पुस्तक स्त्री मनोविज्ञान एवं स्त्री दृढ़ता को एक नया आयाम देने का अनुपम प्रयास है. और पोस्ट के लंबे हो जाने के डर के बावजूद इसे आप लोगों के साथ बांटने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ.इसको बिना कहानी का कांटेक्स जाने भी पसंद किया जा सकता है. कुछ फलसफे हैं... बस कुछ और नहीं. जो पुस्तक से यहाँ वहाँ से अपनी पसंद के अनुसार चुन लिए हैं:
इस अंधे जहरीले पथ में,
किसको समझाएं, सच क्या है?
अपने को ही सत्य समझना,
ये बूढ़े जग की द्विविधा है.
जब भी परिवर्तन के कंठों-
में, दृढ़ता के स्वर आते हैं,
तरुण रक्त को नास्तिक कहकर,
मुर्दे आस्तिक बन जाते हैं.
बंधे हुए जीवन क्रम में,
खोया है इतना मानव मन.
भूल चुका सौन्दर्य कला का,
जीवन से सम्बन्ध चिरंतन.
जिसके अन्दर है निस्सिमित,
स्वासों के प्रति मोह और गति.
दृष्टा का दृष्त्वयमान से,
एक्किकृत होने की सहमति.
या प्यासे अगणित कोशों का,
परम तृप्तिमय गुंजन व्यापक,
ताल बद्ध सम्पूर्ण सृष्टि के,
उदयगीत से प्रलय नृत्य तक.
यही कला अमृतमय होकर,
सुन्दरता की बांधे भूमिका,
उद्घोषित हो आदि गर्जना,
'ॐ' शब्द की बनी मात्रका.
मैं विरह की दीपिका हूँ, जल रही हूँ...
हूँ अकेली इस निशा में,
पर बना है दर्द प्रहरी,
हो गए है दिवस लम्बे,
तिमिर घिर घिर सांझ गहरी,
जो अतिथि थे सुखद क्षण के,
आज वो सब खो गए हैं,
आदि से स्वार्थी जगत की,
यही रूखी रीत ठहरी.
स्वयं पथ हूँ, पथिक भी हूँ, चल रही हूँ,
मैं विरह की दीपिका हूँ, जल रही हूँ...
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हुआ नाटक अन्त, फ़िर भी,
नाट्यशाला जी रही है,
दीर्घ पनघट की डगर में,
लौटने का क्रम नहीं है,
क्या किया मनुपुत्र तुमने,
चूमकर मटकी रसों की?
पी रहा इसको कि तू, या
ये तुझे ही पी रही हैं?
मैं सदा इस खोज मैं विह्वल रही हूँ,
मैं विरह की दीपिका हूँ, जल रही हूँ...
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श्वांत का वरदान देकर,
भरे मृत में प्राण मैंने,
तृषित अधरों को दिया है,
धीर बनकर त्राण मैंने,
सुमन का जब दिव्य सौरभ,
लूटने में विकल थे तुम,
अथक हाथों से किया था,
मूल का निर्माण मैंने,
कर्म की मैं प्रेरणा, संवल रही हूँ,
मैं विरह की दीपिका हूँ, जल रही हूँ...
तुम केवल नैनों के पथ से,
पहुंचे, सीमित है जहाँ रूप.
मैं पंचतत्व के मिश्रण से,
बन रही विश्व की छवि अनूप.
मैं दृष्टा हूँ, इसलिए मुझे,
क्षति से होता, निर्माण बोध.
तुम श्रोता हो, सुनकर करते,
अति क्रोध भरे मेरा विरोध.
हैं पूर्ण और पूर्णत्व एक,
वैराग और अनुराग एक,
पर बहुत दूर वह सीमा है,
अति गहरे में ऐसा विवेक.
हम नेति-नेति से भी आगे,
दृश्यों से लेकर दृष्टा तक.
हैं अनहद ध्वनि से जुड़े हुए,
निर्मित से लेकर सृष्टा तक.
प्रेम-कला की पावन अनुकृति,
बिन सुन्दरता जो अपूर्ण है,
विरह मधुर प्रतिदान प्रेम का,
प्रेम सत्य है, सत्य पूर्ण है.
पर हम विथकित रुग्न पथिक से,
जहाँ रुके पग वही सो गए.
रस माधुर्य मिलन के मृदु क्षण,
याद नहीं है, कहाँ खो गए?
प्रेम, तुष्टि, सौन्दर्य, सरलता,
कर लेंगे जब पूर्ण समन्वय,
विरह, द्वेष, भय उत्पीडन को,
कैसे मिल पायेगा आश्रय.
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अंततः
जुगल किशोर पेटशाली द्वारा रचित ये काव्य ग्रन्थ किसी छायावादी रचना की याद दिलाता है. इतने सधे हुए ढंग से काव्य रचना करना निश्चित ही भागीरथी प्रयास है. ग्रन्थ लिखने में की गयी मेहनत साफ़ दिखती है, चाहे वो मीटर (गेयता) साधने की बात हो या लिखने से पूर्व की गयी रिसर्च (पुस्तक पढ़ने के बाद इसका अनुमान स्वयं हो जाता है.).इन सभी विशेषताओं के बावजूद भी बिक्री और उपलब्धता के आधार पर इसे साहित्य के क्षेत्र में अंडर- पर्फोर्मर ही कहा जायेगा. दुःख और आश्चर्य साथ साथ होता है जब ऐसा साहित्य पाठकों के लिए उपलब्ध न हो पाए. कारण तो इसका पूर्व में पाठकों द्वारा नकार दिया जाना ही है. नकार दिया जाना शायद गलत हो. अनुपलब्धता सही. लेकिन अंततः मांग और पूर्ति !
राजुला मालूशाही : मध्य हिमालय की अमर प्रेम गाथा (पुरस्कृत )
टकशिला प्रकाशन , हार्डकवर, ISBN 8179650022
मूल्य : 200/-
इसे आप ऑनलाइन भी खरीद सकते हैं. (कोई आश्चर्य नहीं कि पुस्तक अभी आउट ऑव स्टॉक है!)