Author Topic: Ramman, cultural festival of Uttarkahand-रम्माण सांस्कृतिक धरोहर  (Read 4337 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Dosto,

Ramman is a cultural festival celebrated in garhwal region of Uttarakhand. This festival is related great epics of Hindus Ramanaya'.

[justify]चमोली। प्रत्येक साल बैसाखी पर चमोली के पैनखंडा में विश्व धरोहर रम्माण का शुभ मुहुर्त निकाला जाता है। इस वर्ष यह कार्य अगले माह की १४ तारीख को किया जाएगा। पैनखंडा के ग्रामीणों ने रम्माण को विश्व धरोहर बनाने में अहम भूमिका निभाई है। फिर भी रम्माण के कलाकारों के लिए चुनौतियां कम नहीं हैं। इस विश्व धरोहर को संजोकर रखने के लिए अगली पीढ़ी की भागीदारी बहुत जरूरी है। जो अब धीरे-धीरे कम हो रही है। उत्तराखण्ड ने सदियों से अपनी लोक संस्कूति, लोक कलाओं और लोकगाथाओं को संजोकर रखा है। विश्व प्रसिद्ध नंदा राजजात हो या फिर देवीधुरा का बग्वाल नृत्य सभी यहां की लोक संस्कूति की झलक दिखलाते हैं। चमोली के पैनखंडा को यूनेस्को को विश्व धरोहर बनने में रम्माण ने लोक संस्कूति की अनूठी छटा पेश की है।
 
उत्तराखण्ड में रामायण-महाभारत की सैेकड़ों विधाएं मौजूद हैं जिनमें से कई विधाएं विलुप्त होने की कगार पर है मगर कई लोगों के अथक प्रयासों एवं दृढ़ निश्चय ने इनके संरक्षण और विकास के लिए अभूतपूर्व काम किया है और उत्तराखण्ड को पूरे विश्व पटल पर अपनी अलग पहचान दिलाई है, चाहे वह विश्व की सबसे लंबी पैदल यात्रा नंदा राजजात यात्रा हो या फिर चंपावत के देवीधुरा में प्रसिद्ध बग्वाल युद्ध में पत्थरों का भीषण संग्राम या गुप्तकाशी के जाख देवता के पश्वा का जलते मेगारो में घंटों तक हैरतअंगेज कर देना वाला नृत्य। पीढ़ी दर पीढ़ी यही चीजें श्रद्धालुओं को यहां की लोक संस्कूति से रू-ब-रू कराती हैं। साथ ही वर्षों पुरानी सांस्कृतिक विरासत को जीवित रखने का प्रयास भी करते हैं। ऐसी ही एक लोक संस्कृतिक है रम्माण।
 
माना जाता है कि रम्माण का इतिहास ५०० वर्षों से भी पुराना है। जब यहां हिन्दू धर्म का प्रभाव समाप्ति की ओर था तो आदि गुरु शंकराचार्य ने सनातन धर्म और सांस्कूतिक एकता के लिए पूरे देश में चार मठों की स्थापना की।
 
About Ramman

ज्योतिर्मठ (जोशीमठ )के आस-पास के इलाकों में हिन्दू धर्म के प्रति लोगों को पुनःजागृत करने के लिए अपने शिष्यों को हिन्दू देवी-देवताओं के मुखौटे पहनाकर रामायण महाभारत के कुछ अंशों को मुखौटा नृत्य के माध्यम से गांवों में प्रदर्शित किया गया, ताकि लोग हिंदू धर्म को पुनः अपना सकें। शंकराचार्य के शिष्यों ने कई सालों तक मुखौटे पहनकर इन गांवों में नृत्यों का आयोजन किया। ये मुखौटा नृत्य बाद में यहां के समाज का अभिन्न अंग बनकर रह गया और आज यह विश्व धरोहर बन चुका है। गांवों में रम्माण का आयोजन प्रतिवर्ष बैसाख माह में किया जाता है। पखवाड़े तक चलने वाली मुखौटा शैली एवं भल्ला परंपरा की यह लोक संस्कूति आज शोध का विषय बन गई है। पांच सौ वर्ष से चली आ रही इस सांस्कूतिक विरासत में राम लक्ष्मण सीता हनुमान के पात्रों द्वारा नृत्य २ौली में रामकथा की प्रस्तुति की जाती है जिसमें १८ मुखौटे १८ ताल १२ ढोल १२ दमाऊं आठ भंकोरे प्रयोग में लाये जाते हैं।
 
इसके अलावा राम जन्म वन गमन स्वर्ण मृग वध सीता हरण लंका दहन का मंचन ढोलों की थापों पर किया जाता है। बीच-बीच में पौराणिक पात्रों द्वारा दर्शकों का मनोरंजन किया जाता है जिसमें कुरू जोगी बव्यां-बव्यांण और माल के विशेष चरित्र होते हैं। जो दर्शकों को खूब हंसाते हुए लोट-पोट कर देते हैं। साथ ही जंगली जीवों के आक्रमण का मनमोहक चित्रण म्योर- मुरैण नृत्य नाटिका के माध्यम से भी होता है।
 
२००७ तक रम्माण सिर्फ पैनखंडा तक ही सीमित था लेकिन गांव के ही डॉ कुशल सिंह भंडारी की मेहनत का नतीजा था कि आज रम्माण को यह मुकाम हासिल है। कुशल भंडारी ने रम्माण को लिपिबद्ध कर इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया। उसके बाद इसे गढ़वाल विवि लोक कला निष्पादन केंद्र की सहायता से वर्ष २००८ में दिल्ली स्थित इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र तक पहुंचाया। इस संस्थान को रम्माण की विशेषता इतनी पसंद आयी कि कला केंद्र की पूरी टीम सलूड-डूंग्रा पहुंची और वे लोग इस आयोजन से इतने अभिभूत हुए कि ४० लोगों की एक टीम को दिल्ली बुलाया गया। इस टीम ने दिल्ली में भी अपनी शानदार प्रस्तुतियां दीं। बाद में इसे भारत सरकार ने यूनेस्को भेज दिया। दो अक्टूबर २००९ को यूनेस्को ने पैनखंडा में रम्माण को विश्व धरोहर घोषित किया।
 इसी साल आईसीएस के दो सदस्यीय दल में शामिल जापानी मूल के होसिनो हिरोसी तथा यूमिको ने ग्रामवासियों को प्रमाणपत्र सौंपे तो गांव वालों की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। इसके अलावा केन्द्रीय गढ़वाल विश्वद्यिालय के प्रोफेसर डीआर पुरोहित निदेशक लोक कला निष्पादन केन्द्र का भी रम्माण को विश्व धरोहर बनाने में अहम योगदान रहा। रम्माण संस्कूति के लोकगायक धूम सिंह बचन सिंह भंडारी एवं ढोल वादक पूरण दास गरीब दास पुष्करलाल हुकमदास इस अनमोल धरोहर को अगली पीढ़ी तक पहुंचाने का कार्य कर रहे हैं। हर वर्ष आयोजित होने वाला रम्माण का शुभ मुहूर्त १४ अप्रैल को बैसाखी पर निकाला जाता है। रम्माण मेला कभी ११ दिन तो कभी १३ दिन तक भी मनाया जाता है। अगले माह इसका विशाल आयोजन होगा, जिसकी तैयारी अभी से शुरू हो गई है। (Source - The sunday post)


M S Mehta


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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[justify]टीवी की चकाचौंध के इस दौर में भी उत्तराखंड के चमोली जिले में होने वाले रम्माण की चमक बरकरार है. मनोज रावत की रिपोर्ट
चमोली जिले के सलूड़ गांव में आधे से ज्यादा घरों की छतों पर आपको डिश एंटीना लगे दिख जाएंगे. ये इस बात की चुगली करते लगते हैं कि उत्तराखंड के इस सुदूर क्षेत्र में भी मनोरंजन का नाम बंद दरवाजों के पीछे टीवी देखना हो गया है. मगर अप्रैल के दूसरे पखवाड़े में यहां होने वाले एक उत्सव और उसमें जुटी भीड़ देखकर यह बात पूरी तरह से मानने का मन नहीं होता. रम्माण नाम के इस आयोजन को पिछले ही साल यूनेस्को ने अमूर्त कलाओं की श्रेणी में  ‘विश्व की सांस्कृतिक धरोहर’ घोषित किया है.
रम्माण के दौरान होने वाले मुखौटा नृत्य के कथानकों में पहले के पशुचारक समाज की पर्यावरणीय चिंताएं तथा सामाजिक सरोकार भी झलकते हैंदरअसल, जोशीमठ तहसील के कुछ गांवों में रामायण गायन, मंचन और मुखौटा नृत्यों की अनूठी लोक उत्सव परंपरा है. रम्माण शब्द रामायण का ही अपभ्रंश है जिसका गायन गढ़वाली भाषा में होता है. यह एक धार्मिक उत्सव है जिसका आयोजन जोशीमठ के सलूड़-डुंग्रा,डंुग्री-भरोसी व सेलंग गांवों में किया जाता है. सलूड़ में क्षेत्र की रक्षा करने वाले देवता-भूमि क्षेत्रपाल या भूमियाल की हर साल अप्रैल (वैशाख) के महीने पूजा होती है. यह पूजा नौ से लेकर तेरह दिनों तक चलती है. इस मौके पर गांव के लोग धियाणियों (ब्याही हुई बहन-बेटियों) तथा रिश्तेदारों को बुलाते हैं. इस पूजा कार्यक्रम के दूसरे दिन विसुखा के मेले के साथ हर दिन होने वाला मुखौटा नृत्य तथा अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रम शुरू हो जाते हैं.
मुखौटा नृत्यों के कथानकों में निरंकार (जलंकार) से पृथ्वी की उत्पत्ति जैसे गूढ़ विषय भी नृत्य और स्थानीय गायन से साधारण ढंग से समझाए जाते हैं. पौराणिक विषयों पर आधारित अन्य नृत्यों में ईश्वर के अवतार, गणेश-कालिका नृत्य, स्वर्ण-मृग नृत्य, नृसिंह नृत्य आदि होते हैं. हर दिन इन कार्यक्रमों में नयापन लाने के लिए स्थानीय दंत कथाओं और लोक कथाओं पर आधारित मुखौटा नृत्य भी होते हैं. इन नृत्यों में नारद का स्थानीय रुप बुढदेवा हास्य-प्रहसनों के द्वारा दर्शकों का खूब मनोरंजन करता है. सारे शरीर पर कंटीली घास चिपकाकर जब बुढदेवा दर्शकों की भीड़ के बीच घुसता है तो एक हलचल-सी पैदा हो जाती है.
मुखौटा नृत्य के कथानकों में पहले के पशुचारक समाज की पर्यावरणीय चिंताएं तथा सामाजिक सरोकार भी झलकते हैं. इन नृत्यों में 20-22 मुखौटे (पत्तर) प्रयोग में लाए जाते हैं. इनमें से सबसे बड़ा पत्तर नृसिंह का है जिसका वजन लगभग 20 किलो होता है. भूमियाल पूजा के आखिर में सारे दिन रम्माण का गायन और मंचन होता है. यानी राम-जन्म से लेकर राजतिलक तक की घटनाओं का. रम्माण शैली में पात्रों के बीच संवादों का आदान-प्रदान नहीं होता, बल्कि जागरी (रामायण गायन करने वाला) रामायण गायन करता है और पात्र इस पर नृत्य या अभिनय करते हैं.
गढ़वाल विश्वविद्यालय के ‘लोक-कला और संस्कृति निष्पादन केंद्र’ के विभागाध्यक्ष प्रो डीआर पुराहित बताते हैं, 'मुखौटा नत्य की परंपरा आदि शंकराचार्य के समय से शुरू हुई थी.' पुरोहित वर्ष 1990 से रम्माण में सम्मिलित हो रहे हैं. आगे बताते हुए वे कहते हैं कि पहले बदरीनाथ यात्रा शुरू होने से पहले चैत्र के महिने जोशीमठ के नृसिंह मंदिर में एक सप्ताह का मेला लगता था. इस मेले में यात्रियों के मनोरंजन के लिए मुखौटा नृत्य और रम्माण गायन होता था. जोशीमठ से शुरू होकर यह नृत्य आसपास के सारे गांवों में फैल गया. परंतु अब केवल तीन गांवों में ही मुखौटा नृत्य होते हैं. जोशीमठ में भी यह नृत्य नहीं होता.
सलूड़-डुंग्रा के निवासी डॉ कुशल सिंह भण्डारी बताते हैं कि ये धार्मिक आयोजन सदियों से होते आए हैं. उनके गांव में रम्माण आयोजन के 100 साल पुराने लिखित दस्तावेज उपलब्ध हैं. उनका कहना है कि उससे पहले गांव में कोई भी साक्षर नहीं था. वर्ष 2008 में इंदिरा गांधी  राष्ट्रीय कला केंद्र दिल्ली में रामकथा गायन-वाचन व मंचन सम्मेलन का आयोजन हुआ, इसमें सलूड़ की रम्माण को भी गायन और मंचन के लिए बुलावा आया. इस आयोजन से रम्माण राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय राम-कथा समीक्षकों के सामने आई. अमेरिकी रामकथा विद्वान पाॅल रिचर्मिन इस शैली से अभिभूत थीं. इदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र ने सलूड़ आकर मेले का अभिलेखीकरण किया. डॉ भण्डारी बताते हैं, 'रिचर्मिन की प्रेरणा से रम्माण के अभिलेखों को यूनेस्को भेजा गया. यूनेस्को ने रम्माण के पौराणिक, ऐतिहासिक, सामाजिक एवं पर्यावरणीय महत्व को देखते हुए इसे वर्ष 2009 में अमूर्त कलाओं की श्रेणी में विश्व सांस्कृतिक धरोहर घोषित किया.'
रम्माण में प्रयोग किए जाने वाले पत्तर भोज पत्र नामक पेड़ की लकड़ी से बनाए जाते हैं. डॉ भंडारी बताते हैं, 'पहले के पत्तर अधिक जीवंत थे लेकिन 2002-2003 में वे सारे चोरी हो गए. चोरों ने सलूड़-डुंग्रा के अलावा बड़गांव, लाता, सेलंग आदि गांवों के सारे पुराने मुखौटे गायब कर दिए.' सुखद बात यह है कि इसके बावजूद रम्माण के प्रति लोगों का उत्साह कम नहीं हुआ है. सलूड़ निवासी शरत सिंह रावत बताते हैं कि गांव की इस परपरा को वे पहले से ही दिल लगाकर निभाते थे अब अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिलने के बाद इससे जुड़ाव में और भी गौरव होता है. 
(source http://www.tehelkahindi.com)


 

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