Author Topic: Speciality of Various Fairs in Uttarakhand-उत्तराखंड के कुछ मेलो की खास विशेषता  (Read 11519 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Dosto,

उत्तराखंड राज्य भारत मुकुट है राज्य जहाँ पग -२ देवी देवताओ के मंदिर है, इसीलिए यह राज्य देवभूमि के नाम में भी प्रसिद्ध है! यहाँ की संस्कर्ती भी देश के अन्य राज्यों से कुछ भिन्न है विशेष कर संस्कर्ती में देवी देवताओ के जुड़ी आस्थाए ज्यादे है!

साल भर राज्य के विभिन्न हिस्सों में कुछ-२ मेले लगते रहते है जिनके विशेषताए कुछ और है! हम इस थ्रेड में उत्तराखंड राज्य के विभिन्न जगहों में लगने वाले कुछ मेलो की विशेषताए यहाँ पर लिखेंगे!

उम्मीद है आप लोग भी इस थ्रेड में अपने क्षेत्र से जुडी कुछ मेलो की विशेषताए यहाँ पर देंगे!

आपका अनुज,

एम् एस मेहता

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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खगोती का मेला - पौड़ी गढ़वाल (उत्तराखंड) (Khagoti Fair Uttarakhad)
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यह मेला उत्तराखंड के पौड़ी जनपद में मनाया जाता है ! मान्यता है यह मेला महाभारत काल में हुआ था ! धर्मराज युधिष्टर को अपने पिता के श्राद्ध के लिए गैडे की खगोली (खल) की आवश्यकता हुयी! अर्जुन गैडे की खोज में वहां आया था तो देखा गैंडो का एक झुण्ड तालाब के निकट एक नाग दम्पति की देखरेख में विश्राम कर रहा था! अर्जुन ने गैडे को मारना चाहा तो नाग दम्पति ने इसका विरोध किया! दोनों में युद्ध होता है!  अंत में अर्जुन गैडे को मारने में सफल हुवा! उसी परम्परा निर्वाह के लिए उत्सव आयोजित किया जाता है !

विशेषता
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इस उत्सव में पांच युवुक, पांडवो का, एक नाग और युवती नागमती का अभिनय करती है! युवती के प्रतीक के रूप में कददू रखा जाता है! उसे प्रहार करने का अभिनय करते है और युवती बचने का !

यह सब निर्त्य करते हुए लोक वाध्यो की धुन पर निर्त्य प्रस्तुत करते है और गाव मध्य स्थित देवी मंदिर में आते है ! यहाँ पर गाव के अन्य लोग भी रात भर निर्त्य करते है !

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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मोष्टामाणू का मेला - जनपद पिथौरागढ़ (Mosta Maanu Fair Pithorgarh Distt)
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पिथौरागढ़ जनपद मुख्यालय के चतुर्दिक फैले ग्रामीण क्षेत्रों में तीन प्रसिद्ध मेलों का प्रतिवर्ष आयोजन किया जाता है । भाद्रपद की गणेश चतुर्थी को ध्वज नामक पहाड़ की चोटी पर देवी मेला लगता है । इसके दूसरे दिन हरियाली तृतीया को किरात वेश में रहने वाले भूमि के स्वामी केदार नाम से पूजित शिव के मंदिर स्थल केदार में मेला लगता है । थल केदार जनपद मुख्यालय से ११ कि.मी. दक्षिण पूर्व में नौ हजार फुट की ऊँचाई पर स्थित है । तीसरे दिन ॠषि पंचमी को पिथौरागढ़ से ६ कि.मी. की दूरी पर लगभग छ: हजार फुट की ऊँचाई पर इस जिले का प्रसिद्ध और दर्शनीय मेला सम्पन्न होता है । यह मेला मौष्टामाणू का मेला कहलाता है ।

Background of Fair
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मोष्टामाणू का मंदिर पिथौरागढ़ नगर के पास पश्चिम-उत्तर दिशा में एक ऊँची चोटी पर स्थित है । मोष्टामाणू शब्द का अर्थ है - मोष्टादेवता का मंडप । लोक जगत में विश्वास है कि मोष्टादेवता जल वृष्टि करते हैं । वे इन्द्र के पुत्र हैं । मोष्टा की माता का नाम कालिका है । वे भूलोक में मोष्टा देवता के ही साथ निवास करती हैं । इन्द्र ने पृथ्वी लोक में उसे भोग प्राप्त करने हेतु अपना उत्तराधिकारी बनाया । दंत कथाओं में कहा जाता है कि इस देवता के साथ चौंसठ योगिनी, बावन वीर, आठ सहस्र मशान रहते हैं । 'भुँटनी बयाल' नामक आँधी तूफान उसके बस में हैं । मोष्टा देवता के रुष्ट हो जाने पर वे सर्वनाश कर देते हैं । वह बाइस प्रकार के वज्रों से सज्जित है । माता कालिका और भाई असुर देवता के सहयोग से वह नाना प्रकार से असंभव कार्यों को सम्पादित करता है । मोष्टा और असुर दोनों के सामने बलिदान नहीं होता परन्तु उनके सेवकों के लिए भैंसे और बकरे का बलिदान किया जाता है ।

मोष्टा को नागदेवता माना जाता है । उनकी आकृति मोष्टा या निंगाल की चटाई की तरह मानी गयी है । उन्हें विषों से युक्त नाग माना जाता है । इसलिए जो लोग नागपंचमी को नागदेवता की पूजा नहीं कर पाते वे मेले के दिन यहाँ आकर उनका पूजन सम्पन्न कर लेते हैं ।


SPECIALITY OF FAIR
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मेले के अवसर पर मोष्टा देवता का रथ निकलता है । इसे जमान कहते हैं । लोग इसके दर्शन के लिए दूर-दूर से आते हैं ।

इस मेले का व्यापारिक स्वरुप भी है । स्थानीय फल फूल के अतिरिक्त किंरगाल की टोकरियाँ, चटाइयाँ, कृषियंत्रों काष्ठ बर्तनों तथा तरह-तरह की वस्तुओं की खरीद फरोख्त होती है ।

मेले के अवसर पर लोक गायक ओर नर्तक भी पहुँचते हैं । हुड़के की थाप पर नृत्यों की महफिलें सजती हैं, गायन होता है । शाम होते-होते मेले का समापन होता है । वर्तमान में सरकारी विभाग भी अपने-अपने कार्यक्रमों का प्रचार-प्रसार के लिए मेले का उपयोग करते है



Source :http://tdil.mit.gov.in/coilnet/ignca/utrn0017.htm
 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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नौडा का मेला  (Gairsain) -लाठी का पाषण युद्ध से प्रसिद्ध
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इसका आयोजन उत्तराखंड के गैरसेन के पास नारायण गंगा के तट पर जेष्ट मॉस के प्रथम सोमवार को किया जाता है ! इसमें दूर -२ के गावो के लोग अपने-२ डोल, नगाड़े और वाहनों के साथ एक साथ एकत्रित होकर खूब नाचते है !

विशेषता
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उल्लेखनीय है इस मेले को लठमार मेला भी कहते है ! क्योकि इसमें खेतीवाल और पिंडवाल  संप्रदाय के लोगो के बीच में पाषाण युद्ध की भी परम्परा है! कहा जाता है की जिसमे दोनों डालो के लोग जख्मी होते और कभी-२ कोई मिर्त्यु को भी जाता था! लेकिन इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता है !

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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UTTARAKAND FAMOUS FAIR - STONE PELTING FAIR- DEVI DHURA (LOHAGAHT)
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बगवाल : देवीधुरा मेला

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BACKGROUND
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देवीधुरा में वाराही देवी मंदिर के प्रांगण में प्रतिवर्ष रक्षावन्धन के अवसर पर श्रावणी पूर्णिमा को पत्थरों की वर्षा का एक विशाल मेला जुटता है । मेले को ऐतिहासिकता कितनी प्राचीन है इस विषय में मत-मतान्तर हैं । लेकिन आम सहमति है कि नह बलि की परम्परा के अवशेष के रुप में ही बगवाल का आयोजन होता है ।

लोक मान्यता है कि किसी समय देवीधुरा के सघन बन में बावन हजार वीर और चौंसठ योगनियों के आतंक से मुक्ति देकर स्थानीय जन से प्रतिफल के रुप में नर बलि की मांग की, जिसके लिए निश्चित किया गया कि पत्थरों की मार से एक व्यक्ति के खून के बराबर निकले रक्त से देवी को तृप्त किया जायेगा, पत्थरों की मार प्रतिवर्ष श्रावणी पूर्णिमा को आयोजित की जाएगी । इस प्रथा को आज भी निभाया जाता है । लोक विश्वास है कि क्रम से महर और फव्यार्ल जातियों द्वारा चंद शासन तक यहाँ श्रावणी पूर्णिमा को प्रतिवर्ष नर बलि दी जाती थी ।

इतिहासकारों का मानना है कि महाभारत में पर्वतीय क्षेत्रों में निवास कर रही एक ऐसी जाति का उल्लेख है जो अश्म युद्धमें प्रवीण थी तथा जिसने पाण्डवों की ओर से महाभारत के युद्ध में भाग लिया था । ऐसी स्थिति में पत्थरों के युद्ध की परम्परा का समय काफी प्राचीन ठहरता है । कुछ इतिहासकार इसे आठवीं-नवीं शती ई. से प्रारम्भ मानते हैं । कुछ खास जाति से भी इसे सम्बिन्धित करते हैं ।

HISTORY
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बगवाल को इस परम्परा को वर्तमान में महर और फव्यार्ल जाति के लोग ही अधिक सजीव करते हैं । इनकी टोलियाँ ढोल, नगाड़ो के साथ किंरगाल की बनी हुई छतरी जिसे छन्तोली कहते हैं, सहित अपने-अपने गाँवों से भारी उल्लास के साथ देवी मंदिर के प्रांगण में पहुँचती हैं । सिर पर कपड़ा बाँध हाथों में लट्ठ तथा फूलों से सजा फर्रा-छन्तोली लेकर मंदिर के सामने परिक्रमा करते हैं । इसमें बच्चे, बूढ़े, जवान सभी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं । बगवाल खेलने वाले द्यौके कहे जाते हैं । वे पहले दिन से सात्विक आचार व्यवहार रखते हैं । देवी की पूजा का दायित्व विभिन्न जातियों का है । फुलारा कोट के फुलारा मंदिर में पुष्पों की व्यवस्था करते हैं । मनटांडे और ढ़ोलीगाँव के ब्राह्मण श्रावण की एकादशी के अतिरिक्त सभी पर्वों? पर पूजन करवा सकते हैं । भैंसिरगाँव के गढ़वाल राजपूत बलि के भैंसों पर पहला प्रहार करते हैं ।

SPECAILITY
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बगवाल का एक निश्चित विधान है । मेले के पूजन अर्चन के कार्यक्रम यद्यपि आषाढि कौतिक के रुप में एक माह तक लगभग चलते हैं लेकिन विशेष रुप से श्रावण माह की शुक्लपक्ष की एकादशी से प्रारम्भ होकर भाद्रपद कष्णपक्ष की द्वितीया तिथि तक परम्परागत पूजन होता है । बगवाल के लिए सांगी पूजन एक विशिष्ट प्रक्रिया के साथ सम्पन्न किया जाता है जिसे परम्परागत रुप से पूर्व से ही सम्बन्धित चारों खाम (ग्रामवासियों का समूह) गढ़वाल चम्याल, वालिक तथा लमगडिया के द्वारा सम्पन्न किया जाता है । मंदिर में रखा देवी विग्रह एक सन्दुक में बन्द रहता है । उसी के समक्ष पूजन सम्पन्न होता है । यही का भार लमगड़िया खाम के प्रमुख को सौंपा जाता है । जिनके पूर्वजों ने पूर्व में रोहिलों के हाथ से देवी विग्रह को बचाने में अपूर्व वीरता दिखाई थी । इस बीच अठ्वार का पूजन होता है । जिसमें सात बकरे और एक भैंस का बलिदान दिया जाता है ।

पूर्णिमा को भक्तजनों की जयजयकार के बीच डोला देवी मंदिर के प्रांगण में रखा जाता है । चारों खाम के मुखिया पूजन सम्पन्न करवाते है । गढ़वाल प्रमुख श्री गुरु पद से पूजन प्रारम्भ करते है । चारों खामों के प्रधान आत्मीयता, प्रतिद्वेंदिता, शौर्य के साथ बगवाल के लिए तैयार होते हैं ।

द्यीकों के अपने-अपने घरों से महिलाये आरती उतार, आशीर्वचन और तिलक चंदन लगाकर हाथ में पत्थर देकर ढोल-नगाड़ों के साथ बगवाल के लिए भेजती हैं । इन सबका मार्ग पूर्व में ही निर्धारित होता है । मैदान में पहँचने का स्थान व दिशा हर खाम की अलग होती है । उत्तर की ओर से लमगड़ीया, दक्षिण की ओर से चम्याल, पश्चिम की ओर से वालिक और पूर्व की ओर से गहड़वाल मैदान में आते हैं । दोपहर तक चारों खाम देवी के मंदिर के उत्तरी द्वार से प्रवेश करती हुई परिक्रमा करके मंदिर के दक्षिण-पश्चिम द्वार से बाहर निकलती है । फिर वे देवी के मंदिर और बाजार के बीच के खुले मैदान में दो दलों में विभक्त होकर अपना स्थान घेरने लगते हैं ।

दोपहर में जब मैदान के चारों ओर भीड़ का समुद्र उमड़ पड़ता है तब मंदिर का पुजारी बगवाल प्रारम्भ होने की घोषणा शुरु करता है । इसके साथ ही खामों के प्रमुख की अगुवाई में पत्थरों की वर्षा दोनों ओर से प्रारम्भ होती है । ढ़ोल का स्वर ऊँचा होता जाता है, छन्तोली से रक्षा करते हुए दूसरे दल पर पत्थर फेंके जाते हैं । धीरे-धीरे बगवाली एक दूसरे पर प्रहार करते मैदान के बीचों बीच बने ओड़ (सीमा रेखा) तक पहुँचने का प्रयास करते हैं । फर्रों? की मजबूत रक्षा दीवार बनायी जाती है । जिसकी आड़ से वे प्रतिद्वन्दी दल पर पत्थरों की वर्षा करते हैं । पुजारी को जब अंत:करण से विश्वास हो जाता है कि एक मानव के रक्त के बराबर खून बह गया होगा तब वह ताँबें के छत्र और चँबर के साथ मैदान में आकर बगवाल सम्पन्न होने की घोषणा करता है ।

बगवाल का समापन शंखनाद से होता है । तब एक दूसरे के प्रति आत्मीयता दर्शित कर द्यौके धीरे-धीरे खोलीखाण दूबाचौड़ मैदान से बिदा होते हैं । मंदिर में अर्चन चलता है ।

कहा जाता है कि पहले जो बगवाल आयोजित होती थी उसमें फर का प्रयोग नहीं किया जाता था, परन्तु सन् १९४५ के बाद फर का प्रयोग किया जाने लगा । बगवाल में आज भी निशाना बनाकर पत्थर मारना निषेध है ।

रात्रि में मंदिर जागरण होता है । श्रावणी पूर्णिमा के दूसरे दिन बक्से में रखे देवी विग्रह की डोले के रुप में शोभा यात्रा भी सम्पन्न होती है । कई लोग देवी को बकरे के अतिरिक्त अठ्वार-सात बकरे तथा एक भैंस की बलि भी अर्पित करते हैं ।

वैसे देवीधुरा का वैसर्गिक सौन्दर्य भी मोहित करने वाला है, इसीलिए भी बगवाल को देखने दूर-दूर से सैलानी देवीधुरा पहँचते हैं ।


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                                 झंडा मेला देहरादून Uttarakhand

यह इस क्षेत्र के सबसे लोकप्रिय मेलो में से एक है जो हिन्दू, सिख और मुस्लिम संस्कृति को प्रदर्शित करता है और स्पष्ट रूप से बहुसंख्यक प्रकृति का प्रतीक है। वार्षिक झण्डा मेला गुरू रामराय जो दून घाटी में सातवें सिख गुरू हर राय के सबसे बडे़ बेटे के आने से शुरू हुआ है। यह चैत्र माह की पंचमी से (होली से 5 दिन बाद) शुरू होता है, यह गुरू रामराय का जन्मदिन है। यह सम्वत् 1733 (1676 ई0) की चैत्र वदी की पंचमी को दून में उनके आगमन से है।.

प्रत्येक वर्ष देहरादून में श्री गुरू रामराय दरबार के आँगन में पवित्र मूर्ति को उठाया जाता है, जहाँ गुरू ने अपना डेरा स्थापित किया था। भक्तों का बहुत बडा समूह पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिलो, उत्तराखण्ड तथा हिमाचल प्रदेश से लोग इस विशेष अवसर पर हिस्सा लेने आते है। भिन्न-भिन्न आयु के बच्चे, औरते तथा पुरूषो के समूह इस मेले में हिस्सा लेते है, उसे संगत कहते है, एकादशी को गुरू रामराय दरबार का महन्त रायवाला हरियाणा में यमुना किनारे (45 किलोमीटर दूर) संगत को आमन्त्रित और स्वागत करने जाता है।

पवित्र मूर्ति (झण्डा जी) की पूजा की जाती है। और सुबह को नीचे उतारा जाता है। उसके पुराने वस्त्र स्कार्फ, रूमाल हटाये जाते है। मूर्ति (मास्ट) को दूध, दही और गंगा के पवित्र पानी में स्नान कराया जाता है और सजाया जाता है। मूर्ति को फिर से नये वस्त्रों स्कार्फ, रूमालों से ढका जाता है। मजबूत रस्सी में बाँध कर मूर्ति को ऊपर उठाते है। झण्डा उठाने की रस्म कुछ घण्टों तक की जाती है।

झण्डा का ऊपर उठाना आकर्षक और स्मरणीय है। महन्‍त इस रंगपूर्ण और पवित्र सजे हुऐ झण्डे को दोपहर बाद उठाता है। दरबार साहिब के सामने सरोवर (तालाब) में गोता लगाने के बाद हजारों भक्त घण्टों झण्डा साहिब के दर्शन के लिये इकट्ठा होने लगते है।

भिन्न-भिन्न क्षेत्रों और समुदायों से इस अवसर पर लोग आमन्त्रित होते है। भिन्न-भिन्न समाज के लोग दरबार साहिब में सेवा करते है। दरबार साहिब में लोगों के खाने और सोने का प्रबन्ध किया जाता है। भोजन बनाया जाता है और भिन्न-भिन्न समुदायों की रसोइयो (लंगर) का प्रबन्ध किया जाता है। लंगर के समय संगत की जाती है। महन्‍त विशेष प्रार्थना करता है। और पवित्र प्रसाद बाँटता है।

 दरबार साहिब का महन्त शहर के चारों ओर जलूस का नेतृत्व करता है। जिसमें हजारो भक्त उस पवित्र परिक्रमा में सम्मिलित होते है जो सप्तमी को होती है। संगत अष्टमी के दिन उनकी प्रसन्नता के लिये प्रसाद तैयार करती है। नवमी के दिन संगत का समापन किया जाता है।

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Mele ka mahtw

झण्डा मेला जो दरवार साहिब में लगता है मुगलकाल के वैभव को प्रतिविम्बित करता है और 15-20 दिन तक चलता है। यह स्थानीय जनता को बडी संख्या में आकर्षित करता है। इस स्थान पर दुकाने, नुमायश, झुले और सभी प्रकार के मनोरंजन का आयोजन होते है। मेले में गहरें विश्वास के साथ भक्तो के द्धारा भिन्न-भिन्न स्थानों पर पूजा की जाती है।

टपकेश्‍वर मेलाः टोम नदी के पूर्वी तट पर स्थित यह ऐतिहासित स्थल इस क्षेत्र में लगने वाले सबसे प्रसिद्ध मेलों में से एक का गवाह है। दंतकथा के अनुसार यह द्रोणाचार्य का निवास हुआ करता था।

पांडवों और कौरवों के गुरु बनने से पहले द्रोणाचार्य काफी गरीब थे। वे इतने गरीब थे कि अपने पुत्र के लिए दूध की व्यवस्था भी नहीं कर पाते थे और जब उनका पुत्र दूध की जिद करता तो वे उसे भगवान शिव की उपासना करने की सलाह देते।

बच्चे की गंभीर तपस्या से खुश होकर भगवान शिव ने उन्हें वरदान दिया और अश्‍वस्‍थामा को शिवलिंग से बूंद-बूंद दूध मिलने लगा। चूकि अश्‍वस्‍थामा ने शिव की उपासना तपकेश्‍वर के रूप में की थी, इसलिए यह जगह तपकेश्‍वर के नाम से जाना जाता है। प्रत्येक साल शिवरात्रि के अवसर पर यहां पर एक बड़े मेले का आयोजन किया जाता है जिसमें बड़ी संख्या में लोग दूर-दराज से आते हैं।

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                                महासू देवता का मेला

इस मेले का आयोजन चकाराता त्‍यूनी रोड से लगभग 120 किलोमीटर की दूरी पर हनोल में प्रत्येक साल अगस्त में होता है।
 इस अवसर पर शहर में भगवान महासू का जुलूस निकाला जाता है। जौनसारी जनजाति के इस स्थानीय मेले में टिहरी, उत्तरकाशी और सहारनपुर जिलों के भी सैंकड़ों श्रद्धालु आते हैं।

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GINDI MELA =  PAURI GARWAL DISTT
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BACKGROUND
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Gindi Mela is a major fair held in the southern part of Pauri Garhwal District in Uttaranchal. This fair is celebrated during the auspicious festival of Makara Sankranti. It is a major event, attracting people from far and near to the villages where this fair is celebrated.


SPECAILITY
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The Gindi fair is synonymous with bravery, joy and competitive spirits. The word ‘gindi’ means ‘ball’ in the local language. As the name suggests, this fair is marked by a ball game. The game involves teams from two different villages. The main aim in this game is to capture the ball. The team that succeeds to get the ball over its side is declared the winner. The winning team takes home the ball, amidst celebrations and dances.

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माण का मेला
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यह मेला उत्तराखंड के पाली पछाउ  क्षेत्र में मनाया जाता है! इसकी तिथि अषाड़ के बारवे महीने को निश्चित होती है ! यह मेला १० दिनों तक चलता है ! यह मछली मारने का उत्सव होता है ! इसमें खीना (वनस्पति विशेष) को कूटकर को नशीला पदार्थ बनाया जाता है! जिसको पानी में डाल कर उसके प्रभाव से मछालिया मर जाती है और बेहोश हो जाती है और उन्हें आसानी से पकड़ लिया जाता है !

विशेषता

 इसके लिए एक माह पूर्व में ही तैयारी हो जाती है! उत्तराखंड के जौनपुर क्षेत्र में भी इसी प्रकार का त्यौहार को मनाया जाता है ! पाली पछाउ के गेवाड़ व वैराठ घाटी क्षेत्र में बड़े उल्लास के साथ ये त्योहार मनाते है ! इसमें सभी गावो के लोग इक्कठा होकर नदी के एक विशाल क्षेत्र को घेर कर उसमे जाल डाल कर, कुछ हाथो से, कुछ दुबुकी लगाकार मछली को आतंकित करते है ! जिसमे हो बहदवास होकर इधर उधर भागने लगती है और आसानी से लोग उसे पकड़ लेते है ! इसे दौहौ के नाम से जाना जाता है !

 

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