आज मनुष्य २१वीं सदी में कदम रख चुका है, जिसे लेकर नित ब्रह्माण्ड की चरम ऊंचाईयों को छू रहा है। हम मंगल चंद्रमा जैसे ग्रहों पर अपने कदम रख चुके हैं। नित नए वैज्ञानिक अविष्कार हो रहे हैं।
जहां एक तरफ इन सब घटनाओं से मानव समाज की प्रगति का एहसास होता है, वहीं दूसरी तरफ आज भी समाज में कुछ ऐसी पुरानी मान्यताओं का प्रचलन है, जिन्हें देखकर हम स्वयं की प्रगति पर प्रश्न चिन्ह् लगा रहे हैं।
अगर हम अपनी चेतना को जाग्रत रखते हुए तर्क की खोज करें तो सर्व विदित है कि सन्तान की उत्पत्ति के पीछे भी एक वैज्ञानिक पक्ष है। आज के भौतिकवादी युग में जब मानव के खान-पान का स्वरूप विकृत हो चुका है तो विभिन्न ऐसे कारण उत्पन्न हो जाते हैं, जिनकी वजह से संतानोत्पत्ति की क्षमता ह्रास होता जा रहा है। कई अन्य बीमारियां जैसे फैलोपियन ट्यूब्स का चोक होना भी भ्रूणीय विकास को रोक देता है।
कई बार हारमोन्स असन्तुलन एवं रसायनों के कारण स्पर्म निर्माण में बाधा आती है। इससे गुणसूत्रों का विकास नहीं हो पाता है और इसके कारण सन्तान उत्पन्न नहीं हो पाती है।
दूसरी बात यह कि पुत्र प्राप्ति एवं अन्य मनोकामना प्राप्ति के लिए भी इस प्रकार की मान्यताओं को माना जाता है।
आज के समय में किसी स्त्री की सिर्फ पुत्रियां हैं तो उसके पति द्वारा दूसरा विवाह सिर्फ पुत्र प्राप्ति के लिए कर लिया जाता है। जबकि यह सभी जानते हैं कि पुत्र का होना पुरुष के वाई क्रोमोसोम पर निर्भर करता है, न कि स्त्री पर। इस प्रकार इन पुरानी मान्यताओं की वजह से कई बार अकारण ही स्त्री जीवन बर्बाद हो जाता है।
यहां मेरा आशय किसी विशेष वर्ग की धार्मिक आस्था पर प्रहार करना नहीं है बल्कि मेरा आशय यह कि एक पैर तो हमारा विज्ञान रूपी विशालकाय जहाज पर है तो वहीं हमारा दूसरा पैर रुढिवादी परंपराओं और अंधविश्वास से भरी नाव पर। आखिर कब तक हम इन झूठी मान्यताओं, अंधविश्वास के सहारे जीते रहेंगे। जबकि सच हमारे सामने है