Author Topic: Superstition In Uttarakhand Culture - उत्तराखंड के समाज मे फैले अंधविश्वास  (Read 32967 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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I used to listen in childhood.

If you have lit fire and smoking is coming towards you whichever direction you are going, it means "you generally piss in public place or road, street etc".


हलिया

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अंधविश्वास ने ली किशोर की जान Jun 22, 

 ऋषिकेश, जागरण कार्यालय: इलाज के नाम पर अंधविश्वास आज भी समाज में गहरी पैठ जमाए है। ऋषिकेश के श्यामपुर क्षेत्र में सर्पदंश के शिकार किशोर की जिंदगी के कीमती पांच घंटे झाड़-फूंक ने गंवा दिए। अंत में विज्ञान के दरवाजे पर पहुंचा तो तब जिंदगी को सांसे नसीब नहीं हो पाई।

मामला श्यामपुर न्याय पंचायत के रूषा फार्म गुमानीवाला क्षेत्र का है। मूल रूप से उत्तरकाशी निवासी कुंदन लाल का बारह वर्षीय पुत्र मुरारी लाल अपने दादा गैंणू लाल के साथ यहां रहता था। दादा गैंणू लाल बढ़ई का काम करता है। मंगलवार देर रात्रि करीब नौ बजे अचानक लाइट चले जाने के बाद मुरारी लाल घर के बाहर आंगन में आकर सो गया। इसी बीच आसपास झाड़ियों से निकल आए एक सांप ने उसे डंस लिया। सर्पदंश के बाद मुरारी लाल की तबियत बिगड़ने लगी तो परिजन उसे अस्पताल पहुंचाने के बजाए गांव में ही एक झाड़-फूंक करने वाले के पास ले गए। रात्रि करीब दस बजे से शुरू हुआ झाड़-फूंक का कार्यक्रम लगातार चलता रहा, मगर मुरारी लाल की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ। सुबह तीन बजे तक भी मुरारी लाल पर झाड़-फूंक का कोई असर नहीं हुआ तो परिजनों ने उसे ऋषिकेश राजकीय चिकित्सालय पहुंचाया। चिकित्सालय पहुंचे किशोर की हालत बेहद खराब थी। आनन-फानन में किशोर का इलाज शुरू किया गया, मगर कुछ ही देर में उसने दम तोड़ दिया। मुरारी लाल के माता-पिता उत्तरकाशी में रहते हैं, जबकि मुरारी लाल यहां पढ़ने के लिए अपने दादा के साथ रहता था। हादसे के बाद किशोर के घर में कोहराम मचा हुआ है। लोगों का कहना है कि झाड़-फूंक के चक्कर में न पड़कर मुरारी को समय पर चिकित्सालय पहुंचा दिया जाता तो उसकी जान बच सकती थी।




Devbhoomi,Uttarakhand

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भूत भगाना है तो बनवाओ मंदिर
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आस्था या अंध विश्वास

नहीं बंद करा पाए छात्राओं का झूमना

विद्यालय की सुरक्षा दीवार तुड़वाई

कालाढूंगी: कोटाबाग विकासखंड के राजकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय डोला में आज जो कुछ भी हुआ, वह कंप्यूटर युग के लोगों की समझ से परे था। एक पखवाड़े के अंदर दूसरी बार विद्यालय की छात्राएं झूमने लगीं थीं और उन्हें शांत कराने के लिए चिकित्सकों की बजाय डंगरिए और जगरिए को बुलाया गया था। जागर की धुन पर छात्राएं बदहवास होकर झूम रहीं थीं। डंगरिए भभूत यानी राख लगाकर उन्हें शांत करने का प्रयास कर रहे थे। बावजूद इसके छात्राओं का झूमना बंद नहीं हो रहा था। छात्रों के शांत नहीं होने पर इन्होंने विधायक निधि से बनी सुरक्षा दीवार तुड़वा दी। इसके बाद डंगरिए यह कहने लगे कि जबतक शिक्षा विभाग विद्यालय में मंदिर नहीं बनाएगा, तबतक भूतों का प्रकोप कम नहीं होगा। इसके लिए उन्होंने तीन माह का समय दिया। हालांकि कुछ ग्रामीणों ने इसका विरोध भी किया।

दरअसल, राजकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय डोला में पांच छात्राएं एक बार फिर झूमने लगीं थीं। इस पर विद्यालय प्रशासन व कुछ ग्रामीणों ने बेतालघाट से प्रसिद्ध जगरिया सदीराम को बुलाया। उनके साथ ही दो डंगरिए नंदन सिंह बंगारी व दान सिंह भी आए। इसके बाद शुरू हुआ भूत-भगाने का सिलसिला। जागर की धुन पर छात्राएं बदहवास होकर नाच रहीं थीं और डंगरिए उन्हें भभूत लगा रहे थे। छात्राओं के फिर भी शांत नहीं होने पर इन लोगों ने 1.5 लाख रूपये की लागत से बनी विद्यालय की सुरक्षा दीवार को मुख्य मोटर मार्ग की ओर से तुड़वा दिया। साथ ही पांचों बालिकाओं को भभूत लगाते हुए तीन माह के अंदर विद्यालय परिसर में 150 वर्ग फीट में मंदिर बनाने का फरमान सुनाया। डंगरियों ने बताया कि शिक्षा विभाग के तीन माह में मंदिर नहीं बनाने पर मामला जस का तस हो जाएगा। शाम तक हालत में सुधार नहीं होने पर अभिभावक बालिकाओं को अपने साथ ले गए। यहां बता दें कि इससे पूर्व 30 जुलाई को भी छात्राओं के झूमने का मामला प्रकाश में आया था।

http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_6244127.html

Devbhoomi,Uttarakhand

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आज मनुष्य २१वीं सदी में कदम रख चुका है, जिसे लेकर नित ब्रह्माण्ड की चरम ऊंचाईयों को छू रहा है। हम मंगल चंद्रमा जैसे ग्रहों पर अपने कदम रख चुके हैं। नित नए वैज्ञानिक अविष्कार हो रहे हैं।

जहां एक तरफ इन सब घटनाओं से मानव समाज की प्रगति का एहसास होता है, वहीं दूसरी तरफ आज भी समाज में कुछ ऐसी पुरानी मान्यताओं का प्रचलन है, जिन्हें देखकर हम स्वयं की प्रगति पर प्रश्न चिन्ह् लगा रहे हैं।

अगर हम अपनी चेतना को जाग्रत रखते हुए तर्क की खोज करें तो सर्व विदित है कि सन्तान की उत्पत्ति के पीछे भी एक वैज्ञानिक पक्ष है। आज के भौतिकवादी युग में जब मानव के खान-पान का स्वरूप विकृत हो चुका है तो विभिन्न ऐसे कारण उत्पन्न हो जाते हैं, जिनकी वजह से संतानोत्पत्ति की क्षमता ह्रास होता जा रहा है। कई अन्य बीमारि‍यां जैसे फैलोपि‍यन ट्यूब्‍स का चोक होना भी भ्रूणीय विकास को रोक देता है।

 कई बार हारमोन्स असन्तुलन एवं रसायनों के कारण स्पर्म निर्माण में बाधा आती है। इससे गुणसूत्रों का विकास नहीं हो पाता है और इसके कारण सन्तान उत्पन्न नहीं हो पाती है।
दूसरी बात यह कि पुत्र प्राप्ति एवं अन्य मनोकामना प्राप्ति के लिए भी इस प्रकार की मान्यताओं को माना जाता है।

 आज के समय में किसी स्त्री की सिर्फ पुत्रियां हैं तो उसके पति द्वारा दूसरा विवाह सिर्फ पुत्र प्राप्ति के लिए कर लिया जाता है। जबकि यह सभी जानते हैं कि पुत्र का होना पुरुष के वाई क्रोमोसोम पर निर्भर करता है, न कि स्त्री पर। इस प्रकार इन पुरानी मान्यताओं की वजह से कई बार अकारण ही स्त्री जीवन बर्बाद हो जाता है।

 यहां मेरा आशय किसी विशेष वर्ग की धार्मिक आस्था पर प्रहार करना नहीं है बल्कि मेरा आशय यह कि एक पैर तो हमारा विज्ञान रूपी विशालकाय जहाज पर है तो वहीं हमारा दूसरा पैर रुढिवादी परंपराओं और अंधविश्वास से भरी नाव पर। आखिर कब तक हम इन झूठी मान्यताओं, अंधविश्वास के सहारे जीते रहेंगे। जबकि सच हमारे सामने है

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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संध्या के समय भी घर में झाड़ू लगाना - अशुभ माना जाता है !

और दिवाली के दिन तो शाम को झाड़ू नहीं लगाया जाता है!


Devbhoomi,Uttarakhand

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कहते हैं कि जब सुबह उठते ही घर के नज्दीग कोआ काऊ-काऊ नकारता है तो कहतें हैं आज घर में कोई महिमान आने वाला है !

विनोद सिंह गढ़िया

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यहां गोशाला में जन्म लेते हैं
« Reply #106 on: December 10, 2011, 05:05:42 AM »
यहां गोशाला में जन्म लेते हैं शिशु

वैज्ञानिक युग से इतर यहां रूढि़वादी परंपरा का जबर्दस्त बोलबाला है। परंपरा भी ऐसी कि देखने व सुनने वाला भी अवाक रह जाए। दकियानूसी की मार भी समाज की अबला ही सहती हैं। अल्मोड़ा के दुर्गम गांव में महिला स्वास्थ्य केंद्र या हाईटेक अस्पताल में नहीं बल्कि गोशाला में शिशु को जन्म देती है। गांव की दाई घास काटने वाली दराती से नाल काटती है। जच्चा-बच्चा को उपचार मिलता है गोमूत्र व गोबर की मिश्रित गंध के साथ गाय-बछड़ों की प्राणवायु से। विशेष परिस्थितियों में महिलाओं को कुछ दिन गुफाओं तक में बिताने पड़ते हैं। यह अजीबो-गरीब व्यवस्था में मौजूदा तंत्र पर बड़ा सवाल है।

यह परंपरा चंपावत, अल्मोड़ा व नैनीताल जिले की सीमा स्थित दुर्गम फुलाराकोट ग्राम पंचायत की। यहां के सुदूर गांव स्यूड़ा में 21वीं सदी की नहीं बल्कि आदम युग की झलक साफ देखने को मिलती है। दरअसल, आजादी के बाद से अब तक इस क्षेत्र के विकास की जहमत उठाई ही नहीं गई। नतीजतन तमाम सरकारें बदलीं, व्यवस्थाएं बदलीं मगर इस गांव की तस्वीर व तकदीर में कोई बदलाव नहीं आया। बात जब महिला सशक्तिकरण की हो तो यहां हालात बिल्कुल उलट हैं। महिलाओं का सम्मान कम नहीं है, मगर विषम भौगोलिक हालात वाले इस गांव में सदियों से रूढि़वादी परंपरा की शिकार भी नारी ही बनती है। मिसाल के तौर पर प्रसव पीड़ा के वक्त महिला को गोशाला में पहुंचा दिया जाता है। इसके पीछे मान्यता है कि ऐसा न करने पर ईष्टदेव नाराज हो जाएंगे। दूसरी ओर गोशाला में शिशु को जन्म के पीछे पुरातन चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद की मान्यता भी है। माना जाता है कि गोमाता की छत्रछाया में जन्म लेने वाला शिशु संक्रमण एवं रोगमुक्त होगा। यही नहीं गोमूत्र एवं गोबर की मिश्रित गंध को उपचार का सशक्त माध्यम माना जाता है। इन सबके के बीच अंधविश्वास एवं रूढि़वादी परंपरा का बोलबाला ऐसा कि प्रसूता को पुष्टाहार के बजाय उसे सालभर तक नमक-रोटी एवं पानी से ही गुजारा करना पड़ता है। शिशु के टीकाकरण को धता बता उसे भभूति से टीका लगाकर भगवान भरोसे छोड़ दिया जाता है। इसे संयोग ही कहा जाएगा कि इस परंपरा के बीच शिशु जन्म लेते भी हैं और स्वस्थ जीवन भी जीते हैं। इसके विपरीत समस्या से उपजी अटपटी व्यवस्था सरकारों के थोथे दावे एवं मौजूदा तंत्र पर बड़ा सवाल भी है।

श्रोत : दैनिक जागरण
 

Bhishma Kukreti

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Dear Vinod Gadiya jee
I am surprised about the phrase ' Andh Vishwash' for the story you mentioned here.
There is no doubt among bilogists and chemical scientists about the capability and characteristics of Gau Mutra and Gau Gobar.
 i did work in aFood Processing factory in Baroda district and there in Polution Control part, Gau Gobar is mixed with water for killing harmful bacterias and protecting benefecial bacterias. Therefore , there is no harm if child delivery is performed in Gaushala as there is antibacterial atmoshphere
Our forefathers were not FOOLISH as your perception states . The basic reasons for delivering new born child in Gaushala had worthy meaning.
Now, Nal Katna: you may cut nal by any sharp knife/Dathadi/Daranti provided the person has experience and the knife etc is sharp
For your kind information, there is least difference between a Dyar ke Janani and nurse as far as cutting the Nal is concerned provided Dyar ki Janani has experiences .
i dont mean villagers should not opt for new avaialbility of technologies and techniques but i mean that we should not always descard our forefathers without knowledge of subject
Yours sincerely
Bhishm Kukreti
bckukreti@gmail.com 

विनोद सिंह गढ़िया

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भीष्म जी मैं आपकी बातों से पूर्णतया सहमत हूँ, लेकिन मेरा इस लेख को "समाज में फैले अंध-विश्वास" टॉपिक में डालने का मुख्य उद्देश्य यहाँ के लोगों की धारणा से हैं। यहाँ लोगों ने गौ-माता की महत्ता को नहीं जाना है और न ही विज्ञान को वरन उनका प्रसव-पीड़िता को गौशाला में रखने का  मुख्य उद्देश्य अपने ईष्ट देव को  नाराज न करना है। पहाड़ों में जब कोई महिला मासिक धर्म से गुजर रही हो या उसका प्रसव हुआ हो तो उसे अछूत माना जाता है। यहाँ तक कि जब महिला गर्भवती हो तो उसे भोजन बनाने की भी मनाही होती है।
इस परम्परा को लोगों को अपनानी है तो उन्हें अपने ईष्ट देवों की नाराजगी को न मानकर विज्ञान और गौ की उपयोगिता को जानना  पड़ेगा।

धन्यवाद
विनोद सिंह गड़िया

Bhishma Kukreti

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Dear Vinod Jee
Thanks for quick response and not taking my words otherwise
Most of the problems cited by you are not related to Isht devta but with the facilities available in villages
If medical facilities are available,  the people take the new techniques today or tommorrow
Regrads
Bhishm

 

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