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  • Uttarayani - उत्तरायणी कौतिक(मकर संक्रान्ति): January 14, 2014

Author Topic: Uttarayani घुघुतिया उत्तरायणी (मकर संक्रान्ति) उत्तराखण्ड का सबसे बड़ा पर्व  (Read 128678 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Krishna Nayal 
"उतरायानी"..
 
 आई उतारयानी हिटो बागेश्वर.
 म्यर रंगील पहाड़, म्यर सपनो घर..
 
 दोस्तों य त्याहार साथ जुडी एक कहानी छु.
 जब चंद बंश राज करछी बात बहुत पुराणी छु..
 
 राजा कल्याण चंदक कोई ओलाद नी छी.
 तब बग्नाथ्ज्युक मंदिर में करी वील फरियाद छी..
 
 निर्भय चंद नामक संतान उनर गोद में खेली.
 यस अपार महिमा जब बघ्नाथ्जुक चली..
 
 निर्भय चंदहै इजा प्यारल घुघती कुछी.
 वीक गोलामा घुन्घरुक माला लटकुछी..
 
 जब कभे घुघूती जिद करछी.
 वीक इज आवाज लगेबे काव बुलुछी..
 
 मंत्री लोगॉल जब घुघूती हत्या रचे.
 तब कावेल (कौवा) शोर माचवे घुघूती जान बचे..
 
 दोस्तों उदिनबे यो चलन चले.
 नानतिनाक गोलम माला लटके..
 
 मकरसंकारती यो त्यार मनुनी.
 सरयो में जबे गंग नेऊनि..
 
 बागेश्वर जबे गंग नैउनि.
 बागेश्वर बागनाथ ज्यूक दर्शन कर ऊनि

Hisalu

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Uttraini Kauthik Aego O Badbaajyu.... Thar Tharaan Poos Lhe Go O Badbajyu

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Bhishma Kukreti मकरणि या मकर संक्रांति और गेंद का मेला
 
                    भीष्म कुकरेती
 
 जम्बुद्वीप या भारत में, मकर संक्रांति का त्यौहार लगभग छह हजार साल पुराना त्यौहार है .ऐतिहासिक तथ्यों से पता चलता है कि हजारों वर्स पहले लैटिन अमेरिका में माया समाज द्वारा भी मकर संम्क्रान्ति का त्यौहार मनाया जाता था .पूस खतम हो माघ शुरू होता है इसीलिए इसे माघी भी कहते हैं
 
 इसे तमिल में पोंगल या कहीं पाला क्यालू कहते हैं, गुजराती में उत्तरायणि, गढवाली में मक्रैण या उत्तरैण कहते हैं तो इससे पहले वाले दिन को पंजाबी में लोहड़ी कहते हैं
 
 इस दिन सूर्य कर्क रेखा से मकर रेखा कि ओर आने लगता है , उत्तरा  खंड में दिन बड़े व रातें छोटी होने लगती है
 
 गढवाल में मकर संक्रांति का बहुत महत्व है
 
 गंगासलाण याने लंगूर, ढांगू   , डबरालस्युं , उदयपुर , अजमेर में मकरसंक्रांति का कुछ अधिक ही महत्व है
 
 सेख या पूस के माहांत के दिन इस क्षेत्र में दोपहर से पहले कई गाँव वाले मिलकर एक स्थान पर हिंगोड़ खेलते है हिंगोड़ होकी जैसा खेल है और बांस कि कोकी स्टिक होती है गेंद कपड़े कि होती है . स्थान पर मेला अपने आप रच जाता है क्योंकि सैकड़ो लोग इसमें भाग लेते हैं . शाम को हथ  गिंदी (चमड़े की ) का क्षेत्रीय प्रतियोगिता होती है और यह हथ गिंदी रात तक चलता है हथ गिंदी कुछ कुछ रग्बी जैसा होता है हर पट्टी में दसेक जगह ऐसे मेले सेख के दिन होते थे
 
 सेख की रात को लोग स्वाळ पक्वड़ बनाते है और मकर संक्रांति की शुरुवात हो जाती है
 
 मकर संक्रांति की सुबह भी स्वाळ पक्व ड़ बनाये जाते हैं (जिन्हीने रात नहीं बनाये हों ) . दिन में खिचडी बनाई जाती है व तिल गुड भी खाया जाता है इस दिन स्नान करणा लाजमी आवश्यक शर्त है
 
 जिनको गंगा स्नान के लिए जाना हो वे सुविधानुसार देव प्रयाग, ब्यास चट्टी , महादेव चट्टी, , बंदर भेळ , गूलार्गाद फूल चट्टी, ऋषिकेश या हरिद्वार जाते हैं इन जगहों पर स्नान किया जाता है और मेलों का आनन्द भी लिया जाता है
 
 गंगा सलाण में संक्रांति के दिन कटघर, थलनदी , देविखेत व डाडामंडी में हथ गिंदी की प्रतियोगिता होती है व मेला लगता है .कटघर में ढागु व उदयपुर वालों के मध्य, थल नदी में उदयपुर व अजमेर पट्टी वालों के मध्य, देविखेत में डबरालस्युं के दो भागों के मध्य व डाडामंडी में लंगूर पट्टी के दो भागों के मध्य हथगिंदी की प्र्तिउओगिता होती है
 
 गेंद के मेले में धार्मिक भावना भी सम्पूर्ण रूप से निहित है . सभी जगहों पर देवी व भैरव कि पूजा होती है
 
 गेंद चमड़े कि बनाई जाती है जिस पर पकड़ने हेतु कंगडे बने होते हैं. गेंद शिल्पकार ही बना सकते हैं
 
 दोपहर तक गाँव से अपने अपने औजियों, मंग्लेरों , खिलाडियों व दर्शकों के साथ तोलिओं में गेंद मेले के स्थान पर पहुँच जाते है
 
 देवी, भैरव, देव पूजन के साथ गेंद का मेला शुरू होता है . प्रतियोगिता का सरल नियम है कि गेंद को अपने गधेरे कि ओर स्वतंत्र रूप से ल़े जाना . जो गेंद को स्वतंत्र रूप से अपने गधेरे में ल़े जाय वही पट्टी जीतती है
 
 गेंद पर दसियों सैक्दाक लोग पिलच पद्दते हैं और गेंद लोगों के बीच ही दबी रहती है . एक एक इंच सरकने में घंटो लग जाते हैं
 
 अधिकतर यह देखा जाता है कि देर रात तक भी कोई जीत नही पता है (जीतने वाले को बहुत इनाम मिलता था ) और यदि निर्णय नही हुआ तो गेंद को मिटटी में दबा दिया जाता है
 
 इसी दौरान मेले में रौनक भी बढती रहती है . दास/औजी ढोल दमौं बजाते है पांडव शैली में , हैं लोग पांडव , कैंतुरा, नरसिंह (सभी वीर रस के नाच होते हैं ) नाचते हैं, मंगल़ेर मांगल लगाते हैं
 
 बादी ढुलकी गहराते हैं और ताल  में बादण नाचती हैं , लोग झूमते हैं इनाम देते रहते हैं
 
 कहीं पुछेर या बाक्की बाक बोलते हैं , कहीं छाया पूजन भी होता रहता है, कहीं रखवाळी भी होती रहती है
 
 मिठाई , खिलोनों कि खरीदारी भी होती रहती है पुराने ज़माने में तो जलेबी मिठायियीं कि राणी बनी रहती थी
 
 बकरे कटते थे और शराब का प्रचलन तो चालीस साल पहले भी था अब तो ......
 
 गेंद के मेलों में बादी-बादण के गीत तो प्रसिद्ध थे ही .मटियाली कालेगे के प्रधानाध्यापक श्री पीताम्बर दत्त देवरानी व श्री शिवा नन्द नौटियाल द्वारा संकलित एक लोक गीत जो गेंद के मेलों अधिक प्रचलित था :
 
 चरखी टूटी जाली गोविंदी ना बैठ चरखी मा
 
 चरखी मा त्यारो जिठाणो गोविंदी ना बैठ चरखी मा , ना बैठ चरखी मा
 
 पाणि च गरम गोविंदी ना बैठ चरखी मा
 
 त्वेकू नि च शरम गोविंदी ना बैठ चरखी मा
 
 मरे जालो मैर गोविंदी ना बैठ चरखी मा
 
 मरण कि च डौर गोविंदी ना बैठ चरखी मा
 
 ताल की कुखडी गोविंदी ना बैठ चरखी मा
 
 तेरी दिखेली मुखडी गोविंदी ना बैठ चरखी मा
 
 खेली जाला तास गोविंदी ना बैठ चरखी मा
 
 शरील च उदास गोविंदी ना बैठ चरखी मा गोविंदी ना बैठ चरखी मा
 
 इस तरह गेंद के मेलों में उत्साह, उमंग एक दुसरे से मिलना सभी कुछ होता है
 
 Copyright @ Bhishma Kukreti, bckukreti@gmail.com

Ajay Pandey

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बागेश्वर के उत्तरायनी मेले में इस बार मेरा पहाड़ फोरम पार्टनर है क्या में अगले साल बागेश्वर के उत्तरायनी मेले में आने की सोच रहा हूँ अभी मेरा बोर्ड है तो नहीं आ पाऊंगा मेरा पहाड़ फोरम के सदस्यों से मेरा यही कहना है की अगर आप बागेश्वर के उत्तरायनी मेले में जा रहे हैं तो कार्यक्रम अच्छे से हो यही मेरी प्रार्थना है कृपया आप बागेश्वर उत्तरायनी की फोटो जरुर फोरम में दीजियेगा और यह भी बताइयेगा की बागेश्वर की उत्तरायनी का कार्यक्रम कैसा हुआ मुझे बहुत ख़ुशी होगी अगले साल में जरुर आऊंगा अगले साल आप लोगों से भी बागेश्वर की उत्तरायनी में मुलाकात होगी यदि संयोग रहा तो
धन्यवाद और नमस्कार

Hisalu

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Kaale Kawaa Kaaa Le.... Kaaa Le......
Ghughuta Mawa Khaa Le... Khaa Le...

Le Kawa Pawe.... Meeke De Bhali Bhali Jawein.....

Le Kawaa Poooriii.... Mee ke De Thooli Thooli Kudi.....

Le Kawaaa Dhaaal..... Mee Ke De Sunouk Thaal.....

Le Kawa Talwaaar... Mee Ke Bane De Hosiyaar.....

Le Kawaa Lagad.. Mee ke de bhai benok dagad...

Le kawaa Ghugut.. Me ke di ja sunuk mukut....

Le kawaaa Bad.. Meeke de sunuk ghwadd.....


Le Kawa kheer... meeke de sunuk janjeer...

Le kawa haluuuu.... Mee ke dija sunuk bhalu....

Le kawa Daal... Mee ke dija sunuk dhaal....

Le kawa huduk.... Mee ke deeja sunuk jhumuk...

Le kawa Anaar... Mee ke deeja sunuk haar....

Le kawa puri.. Meke dija sunuk chhuri....

Risky Pathak

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Uttarayni Parv of 1921 in Bageshwar will be embarked as a important day in the history of Uttarakhand. On this day people from various parts of kumaun gathered at Bageshwar's Bagad groud to end up evil practise of Kuli Begaar.

To read about kuli begar click below link
http://www.merapahadforum.com/uttarakhand-history-and-peoples-movement/kuli-begar-movement-1921/

Risky Pathak

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उत्तराखंड में मकर संक्रांति से एक दिन पहले मसांत मनाई जाती है। आज के रात भोजन में बेडुवे की रोटी बनायी जाती है । सौर क्षेत्र में घुघूत भी मासांत की संध्या को ही बनाएं जाते है । रात्रि को जागरण होता है जिसमे लोकगीत एवं लोक नृत्य किया जाता है।

Gourav Pandey

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Devbhoomi,Uttarakhand

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