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आपके अनुसार विकास की दृष्टि से उत्तराखंड ने १०० % मैं से कितना विकास किया है ?

below 25 %
46 (69.7%)
50 %
11 (16.7%)
75 %
5 (7.6%)
100 %
2 (3%)
Can't say
2 (3%)

Total Members Voted: 62

Voting closes: February 07, 2106, 11:58:15 AM

Author Topic: 9 November - उत्तराखंड स्थापना दिवस: आएये उत्तराखंड के विकास का भी आकलन करे  (Read 108893 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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आठ वर्ष गुजर गए, नहीं बढ़े चार कदमNov 09, 12:40 am

देहरादून। आम जनता की भावना व खास लोगों के तर्क के बीच का फासला मिटे तो स्थायी राजधानी के अहम विषय का नतीजा निकले। इंतजार की घड़ियां हैं कि खत्म होने का नाम नहीं ले रही हैं। आठ वर्ष से आयोग स्थायी राजधानी के लिए आदर्श स्थल की तलाश करता रहा। अब कहीं जाकर रिपोर्ट सरकार को सौंपी गई है। सरकार रिपोर्ट का अध्ययन कर रही है और जन अपेक्षाएं हिचकोले खा रही हैं। सबसे अधिक जनाधार रखने वाली भाजपा व कांग्रेस का मौनव्रत रिपोर्ट के सार्वजनिक होने पर टूटेगा। गैरसैंण को राजधानी बनाने के लिए उक्रांद जनता से राजनीतिक ताकत मांग रहा है। सपा की संतुष्टि देहरादून में है तो बसपा राजधानी की बुनियाद पर राजनीतिक लाभ का विकल्प अपनाए है। सुविधा व जनभावना की जंग में स्थाई राजधानी का विषय यक्ष प्रश्न बन गया है।

उत्तारांचल को उत्ताराखंड बनाने की लड़ाई राजनीतिक दलों ने जनभावनाओं के आधार पर लड़ी। अब वही राजनीतिक दल जनभावनाओं के ज्वार के सामने बचते फिर रहे हैं। आठ वर्ष का लंबा अरसा बीत गया है, परंतु स्थायी राजधानी तय करने में कोई तत्परता नहीं दिखाई दी। चुनावी समारोहों में ही स्थायी राजधानी का जिन्न राजनीतिक दलों के घोषणापत्र में दिखाई देता है। सरकार बनी नहीं कि यह मुद्दा राजनीतिक दलों के क्षत्रपों की महत्वाकांक्षा में उलझ जाता है। राज्य गठन के समय देहरादून को अस्थायी राजधानी इस उम्मीद से बनाया गया था कि जल्द ही राज्य की निर्वाचित सरकारें स्थायी राजधानी पर किसी फैसले पर पहुंच जाएंगी। 11 जनवरी 2001 को राज्य की अंतरिम भाजपा सरकार ने इसके लिए एक सदस्यीय आयोग का गठन कर दिया। डेढ़ महीने बाद ही आयोग को स्थगित कर दिया गया। कांग्रेस की पहली निर्वाचित सरकार ने आयोग को पुनर्जीवित किया। इसके बाद आयोग का कार्यकाल बढ़ाने का जो सिलसिला शुरू हुआ, उसने थमने का नाम ही नहीं लिया। वर्ष 2008 तक आयोग का कार्यकाल 11 बार बढ़ाया गया। लाखों रुपये आयोग पर खर्च किए गए। आखिरकार इसी साल 17 अगस्त को न्यायमूर्ति वीरेंद्र दीक्षित ने रिपोर्ट सरकार को सौंप ही दी। आयोग की रिपोर्ट में स्थायी राजधानी के लिए चार स्थलों गैरसैंण, रामनगर, देहरादून व आईडीपीएल के संबंध में विभिन्न आधारों पर संस्तुति की गई है। कुल मिलाकर आयोग भी किसी निष्कर्ष पर पहुंचने में सफल नहीं रहा। यह जरूर हुआ कि आयोग की आड़ में राजनीतिक दलों के लिए रटा-रटाया बयान सृजित हो गया। रिपोर्ट मिलने के बाद सरकार कितने समय तक इसका अध्ययन करेगी, यह भी स्पष्ट नहीं है। दरअसल सारा मामला राजनीतिक जोखिम लेने का है। किसे नाराज करें और किसे खुश। यह गुत्थी राजनीतिक दलों से सुलझ नहीं रही है। नए परिसीमन के बाद तो राजनीतिक दलों की पेशानी पर और बल पड़ गए हैं। इसकी एक बानगी यह भी है कि आयोग की रिपोर्ट पर दोनों बड़े दल भाजपा व कांग्रेस ने चुप्पी साध ली है। स्थायी राजधानी को लेकर इन दलों की सोच आयोग की रिपोर्ट में कैद होकर रह गई है। उक्रांद की मुहिम गैरसैंण को लेकर ही है। सीपीआई भी उक्रांद के नक्शे कदम पर चल रही है, परंतु उसकी राज्य में राजनीतिक सेहत काफी खराब है। जनभावनाओं व अपेक्षाओं को आधार पर देखें तो राज्य आंदोलन के समय ही स्थायी राजधानी गैरसैंण बनाने की पैरवी तेज हो गई थी। गैरसैंण के नाम पर आंदोलन ने गति भी पकड़ी। आंदोलन की आग से अस्तित्व में आए उत्ताराखंड में अब फिजा बदल गई है। राजनीतिक महत्वाकांक्षा ने जनभावनाओं को दरकिनार कर दिया है। व्यवहारिक पहलुओं की पैरवी करने वाले खास लोग तर्को की कसौटी में मुद्दे को कस रहे हैं। स्थायी राजधानी के लिए किन संसाधनों का होना आवश्यक है, उस पर मंथन किया जा रहा है। जहां सुविधाएं मौजूद हैं, उस स्थान तो तरजीह दी जाए अथवा तरजीह वाले स्थान पर सुविधाएं जुटाई जाएं। इस पहेली को हल करने वालों के तर्क अपनी सुविधा को केंद्र में रखकर हैं। स्थायी राजधानी के मुद्दे पर यदि सभी सही हैं तो गलत कौन है। हरिद्वार व ऊधमसिंहनगर की अपनी जरूरतें हैं तो शेष पर्वतीय 11 जिलों की भी पीड़ा है। भौगोलिक स्थिति की चुनौती से पार पाना है तो जनता के बीच यह संदेश भी देना है कि राज्य गठन के लिए दी गई कुर्बानी व्यर्थ नहीं गई है। स्थाई राजधानी की गेंद सरकार के पाले में है। दूरदर्शिता के साथ सरकार को इस मामले में फैसला करना है। आयोग की रिपोर्ट तो प्राथमिक स्तर पर तथ्यों को जुटाने तक सीमित है। अन्य मामलों में विचार सरकार को ही करना है। स्थायी राजधानी के सुलगते मुद्दे पर सभी राजनीतिक दलों को साझा पहल करनी होगी। यह संकल्प भी लेना होगा कि इस विषय को वोट की राजनीति की भेंट न चढ़ाया जाए। यदि सभी राजनीतिक दल एक मंच पर आकर स्थायी राजधानी के संबंध में निर्णय करते हैं तो इससे राजनीतिक दलों के परिपक्व होने का भी संदेश जाएगा। उत्ताराखंड की स्थायी राजधानी को कहां बनाना है, इस पर निर्णय सामने आ जाना चाहिए। जनता को अधिक समय तक इस मसले पर लटकाया जाना कमजोर राजनीतिक संकल्पशक्ति का परिचायक ही होगा। यह भी हो सकता है कि राजनीतिक दल जिस स्थल पर सहमति बनाएं, उसके लिए जनता को तैयार करने भी जिम्मेदारी लें। स्थायी राजधानी को केवल चुनावी हथकंडा बनाने से राज्य को नुकसान ही होगा। जनता को विकास चाहिए और खाली हाथों को काम। स्थायी राजधानी के मूल में भी यही सोच है, लिहाजा जनता की सोच पर राजनीतिक दल खरा उतरने की कोशिश करें। यदि ढुलमुल राजनीति जारी रही तो फिर से सड़कों पर उतरना जनता की मजबूरी बन जाएगी।


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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CONDITION SAME BUT NAUCHAMI HAS CHANGED : RECALL THE NAUCHAMI
« Reply #61 on: November 09, 2008, 12:22:10 PM »

CONDITION SAME BUT NAUCHAMI HAS CHANGED : RECALL THE NAUCHAMI


हो हो...हा ..............

उत्तराखण्ड मी  पहलु  राजा  tharpey gei,
 भा जा पा  सा  बंशी  स्वामी
स्वामी  अरियुन  का दरवारियुं  द्वि  साल   तक राज   
राज क्या करे, ठाठ  करे
पूजा पाठ  करे, चार को आठ  करे
उत्तराखंड  के उतन्दंड करे 
उत्तरांचल नाम  धरे
आपुन गालों पर फूल माला पैरेनी   
और निचिंत हो के सो जानी   
हे हे.. हो हो...हा ..............

द्वि हजार द्वि मा  पैलो  चुनाव को संख बजे,  रणसिघा गरजे
प्रजा  ने  स्वामी सा  और भगत  सिह और भगत सा  तै सिउन  रों  दी
और बार का  चंद्रवंशियो  ते , राजगद्दी   सौप  देई
बाहर का  चंद्रवंशियो  ते , राजगद्दी   सौप  देई
जनता  स्वप्नु देखनी  छ
होनी  हुन्तियाली  का  स्वप्ना ,
भली भाल्यार  का स्वप्न्या
रोज़गार  का सुप्न्या
आज विकास  का सुप्न्या
रंगीला  सुप्न्या
पिंगला  सुप्न्या,
सुपन्या ही सुप्न्या
हे हे.. हो हो...हा ..............

हां तो  भाई बहिनों 
भारकान  चंद्रवंश  को पहिलो  रजा  banein  - नौछमी नारायणा
नौछमी नारायणा द्वारिकाधीश  कृषण  की अनवार  हवे  परे  ,
नौछमी नारायणा राजनीती की  पैनी  धार  हवे  परे ,
नौछमी नारायणा चार बीसी  बसंत  की  बहार  हवे  परे ,
नौछमी नारायणा जवानी  को  हुलार  हवे  परे ,
उद्मातो , धन्मातो , जोबंमातो , रूप  को  रसिया , फूलों  को  हौसिया
नौछमी नारायणा

कोरस

कलजुगी  औतारी  रे , नौछमी नारैना, उत्तराखंड  मुरारी  रे ,नौछमी नारैना-2
छल  बलि  नारैना  रे  , नौछमी नारैना, तीले  धारू  बोला  रे, नौछमी नारैना -2

गुलेरा  की गारी  नरैना, गुलेरा की गारी -3
राज विरोधी  रे  सदा  नि, पर  राज  गद्दी  प्यारी
राज गद्दी प्यारी रे, नौछमी नारैना -२

[CHORUS]

सुन तोलैयी तोल  नरैना, सुन तोलैयी तोल-3
खाजा  बुखाना  सी  बातिनी  तिन , लाल बातियुं  का डोला
लाल बातियुं  का डोला, नौछमी नारैना -2


भुजी   काटी  तरकारी  नरैना , भुजी  काटी  तरकारी  -3
द्वि हातून  लुतौन्दी  नारैना, खाजानु  सरकारी
खाजानु  सरकारी रे , नौछमी नैरैना . 2
[CHORUS]

 हिसारा की गौन्दी  नारैना, हिसारा की गौन्दी -3
बियोग्राफी लिक्वारू  नारैना  तू  बैतरण  तारोंदी
बैतरण  तारोंदी , नौछमी नैरैना -2
[CHORUS]
गोर्खियों  की गोरख्यानी  नारैना, गोर्खियों  की गोरख्यानी-3
कख  लमदाली  स्य  उत्तराखंड, स्य बुधियाँ की  सयानी
बुधियाँ की  सयानी , नौछमी नारैना  -2
[CHORUS]

छम  छम छाम्म , चम्म्लेई
विरोध्युं  लडोनी ,चम्म्लेई
दरवारियो  हसोन्दी , चम्म्लेई
अफ्सरू  पुल्योंदी , चम्म्लेई
प्रजा बैल्मोडी , चम्म्लेई
राजनीती  की बासुरी   नारैना पड़ पड़ी बजौन्दी
नारैना पड़ पड़ी बजौन्दी , नौछमी नारैना  -2
[CHORUS]

छम  छम छाम्म , चम्म्लेई
देनी  देहरादून ,  चम्म्लेई
दरवार  लग्यु  छा ,  चम्म्लेई
नकली राजधानी ,  चम्म्लेई
अरवारयु  की मौज ,  चम्म्लेई
अरवारयु  की मौज,  नरैना, चक्डेतु  की फौज
चक्डेतु  की फौज रे नौछमी नरैना 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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आज उत्तराखंड दिवस पर काफ़ी बधाई संदेश आ रहे है पर किसे दे हम बधाई ?
दोस्तों,

मेरी वेदना यह है उत्तराखंड राज्य से स्थापना दिवस पर .

सबसे पहले मे तहे दिल से उत्तराखंड के अमर शहीदों की शहादत को नमन करता हूँ!  आज उत्तराखंड पूरा ८ साल हो हो गया है ! यहाँ टाईम्स ऑफ़ इंडिया एव हिन्दुस्तान टाईम्स एव अन्य समाचार पत्रों पर उत्तराखंड सरकार की उपलब्धियों का बेयोरा पूरा पेज पर भरा है ! जिसे यह प्रतीत होता है की उत्तराखंड भारत वर्ष का सबसे विकसित राज्य है, और जहाँ किसी भी चीज का आभाव नही है !

लेकिन चौकाने वाली बात जो लोग उत्तराखंड राज्य से संघर्ष में मारे गए उनके बारे मे कोई बियोरा नही! लगभग ५० से ज्यादे लोगो ने उत्तराखंड राज्य के संघर्ष के दौरान अपनी प्राणों की आहुति दी, उनका क्या, उनके परिवारों का क्या :

मेरा सीधा प्रशन :

      1)    क्या हुवा उत्तराखंड के शहीदों के राजधानी के विषय पर ? क्या कही विकास है ?

      २)   क्यो खा रहे है उत्तराखंड के आन्दोलन कारी दर दर की ठोकरे रोज़गार की तलाश में ? क्या कही विकास है
      ३)   क्यो हो रहे है हजारो गाव उत्तराखंड के विस्थापित ? क्या कही विकास है

      ४)   क्यो है उत्तराखंड का नव जवान मजबूर रोज़गार की तलाश में अन्य राज्यों में जाने को ? क्या कही विकास है

      ५.   क्या हुवा उत्तराखंड के पर्यटन को, क्यो नही खोजे गए उत्तराखंड के नये -२ हजारो पर्यटन स्थल ?
क्या कही विकास है

     ६.    क्या १०८ से पूरा हो गया उत्तराखंड का स्वस्थ्य के मुद्दे ? क्या कही विकास है

    ७.)    हमारा उर्जा परदेश.. हजारो गाव जहाँ अभी बिजली नही पहुची ? क्या कही विकास है

    ८)     क्या हुवा परीशीमन पर? क्या कही विकास है

हजारो एसे प्रशन ? 

क्या इन आठ सालो में असली मे हमारा विकास हुवा है ?

सरकार तो नही - जनता जरुर जानती है पर वह भी गूगी है ?

      ५.   उत्तराखंड राज्य के आठ साल होने को है और अभी भी लोगो को मीलो पैदल चलना पड़ता है ?
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Risky Pathak

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8 Salo Ke Bhi Palayan ki samsyaa jas ki tas hai. Me kaise keh du ki mera uttarakhand pragati pe hai? :(

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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पौड़ी के आंदोलनकारियों ने किया गोपेश्वर में प्रदर्शनNov 10, 12:41 am

गोपेश्वर (चमोली)। स्थाई राजधानी आंदोलन पर अनशनकारियों को समर्थन देते पौड़ी से आए कार्यकर्ताओं ने बस स्टैंड में प्रदर्शन किया। कार्यकताओं ने कहा कि सोमवार से पौड़ी में भी अनशन शुरू किया जाएगा।

स्थाई राजधानी को लेकर आमरण अनशन रविवार को 22वें दिन में प्रवेश कर चुका है। बीते दो दिनों ने महेशानंद जोशी व मथुरा प्रसाद आमरण अनशन पर बैठे हैं। रविवार को काबीना मंत्री अजय टम्टा ने अनशन स्थल पर पहुंचकर आंदोलनकारियों को आश्वासन दिया कि वे इस मुद्दे में जल्द सीएम से वार्ता करेंगे। आंदोलनकारियों ने काबीना मंत्री से कहा कि जब तक दीक्षित आयोग की रिपोर्ट सार्वजनिक कर स्थाई राजधानी गैरसैंण नहीं बनाई जाएगी तब तक उनका आंदोलन जारी रहेगा। अनशन स्थल पर पौड़ी से आए कार्यकर्ताओं ने आंदोलन को समर्थन देते हुए पौड़ी में भी अनशन करने की बात कही। इसके बाद कार्यकर्ताओं ने बस स्टैंड पर जोरदार प्रदर्शन किया गया। प्रदर्शन के बाद आयोजित सभा में वक्ताओं ने कहा कि स्थाई राज्य का आंदोलन पृथक राज्य आंदोलन की तर्ज पर चलाया जाएगा। अनशनकारियों के समर्थन में भाकपा नेता आनंद सिंह राणा, ज्ञानेंद्र खंतवाल, विनोद जोशी, अनिल सैलानी, सुरेंद्र भंडारी के अलावा पौड़ी से आए नारायण दत्त रतूड़ी, आनंद राम, राजेश कंडारी, धीरेंद्र सिंह कंडारी, महिपाल बिष्ट आदि लोगों ने धरना दिया।


हुक्का बू

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कस विकास?
इन आठ सालों में उत्तराखण्ड ने खोया ही खोया है, पाया कुछ भी नहीं।

खीमसिंह रावत

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९ नवम्वर २००० को बना उत्तराखंड राज्य ने अपनी ८वी वर्षगाठ बनाई है अब ९वाँ साल लग गया है/
इन ८ सालों मे २ बार चुनाव हुए / राज्य बनने से जहाँ तक पलायन रोकने की बात है वह सम्भव नही है/ क्योंकि जो राज्य आजादी के समय मे ही बन गए थे वहां आज भी पलायन हो रहा है/ हम पहले रोजगार चाहते है फ़िर उससे अच्छा रोजगार चाहते है/ मैं एक नौकरी पेशे वाला हूँ अपनी महीने के वेतन से अपने परिवार के विकास के लिए पूरी जिंदगी लग जाती है/

विकास हो रहा है उसकी गति धीमी कह सकते हैं इसकी चाल भी इसे ही रहेगी / राजनीति से जुड़े लोग भालीभाती जानते है कि चुनाव लड़ने है समस्या नही होगी तो वोट के लिए मुद्दा नही होगा /
 

हुक्का बू

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पगली गिछा कि,
      कतुक दिन भटी देखन रयूं, एक्के रट लगा राखी तुम लोगन ने कि विकास नी भै-विकास नी भै।
उत्तराखण्ड राज्य को निर्माण क्वे तुमार विकास लिजी थोड़ी ह्वै रोछ, जैका विकासा क लिजी ह्वै रो, उनोर विकास हुने रो...चुप रो तुम लोग-



चुप रो छोरो, हल्ला नी करो,
मंत्री दिदा सिणो च,
उत्तराखण्ड को विकास घोषणा में हुनो च.......!
चुप रो छोरो!

पंकज सिंह महर

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उत्तराखंड आज आठ साल का हो गया है। इन आठ सालों में तीन सरकारें तथा चार मुखिया राज्य को अपनी सेवाएं दे चुके हैं। हर वर्षगांठ में एक आंकलन सबके जेहन में उठता है कि साल दर साल उत्तराखंड ने क्या पाया और क्या खोया। भारत देश की एक इकाई बनने का गौरव हासिल करने के बाद उत्तराखंड ने बहुत कुछ पाया है। जब अलग राज्य की मांग पर आंदोलन हुआ तो उस वक्त कई राजनीतिक पंडित कहते थे कि उत्तराखंड के पास अपने कोई संसाधन नहीं हैं। ऐसे में यह राज्य केंद्र की बैसाखी पर ही चलने को विवश होगा। उत्तराखंड ने बहुत कम समय में इस मिथक को तोड़ डाला है। जहां तक केंद्र पर निर्भरता का सवाल है, बड़े-बड़े राज्य भी कई बार इससे बच नहीं पाते तो बेहद छोटे और नए बने इस उत्तराखंड की बिसात ही क्या है। इसके बावजूद उत्तराखंड ने अपने संसाधनों को मजबूती दी है। जल विद्युत उत्पादन में राज्य आत्मनिर्भर ही नहीं, बल्कि दूसरों को देने की स्थिति में तक पहुंच गया। अन्य संसाधनों को भी राज्य ने अपने हित में उपयोग करने में काफी हद तक सफलता पाई है। पर्वतीय राज्य होने के कारण खाद्यान्न के मामले में केंद्र पर निर्भरता अभी बनी हुई है। इसके बावजूद उत्तराखंड साल दर साल हर क्षेत्र में अपने को खुद के पैरों में खड़ा करने का जो प्रयास कर रहा है, निश्चित रूप से राज्य के कदम जल्दी ही लक्ष्य को प्राप्त कर लेंगे। एक कमी जरूरत खटकती है। वर्तमान में छोटे राज्यों में राजनीतिक अस्थिरता हमेशा सिर पर मंडराती रहती है। उत्तराखंड भी इससे अछूता नहीं है। पहली अंतरिम सरकार से लेकर वर्तमान भाजपा सरकार तक अनिश्चितता के बादल अक्सर मंडराने लगते हैं। यह छोटे राज्यों की नियति हो सकती है पर उम्मीद की जानी चाहिए कि वक्त के साथ उत्तराखंड इस राजनीतिक संकट पर भी विजय हासिल करने की स्थिति में होगा। कहा जा सकता है कि उत्तराखंड के अनिश्चित भविष्य की बात करने वाले पंडितों को झुठलाते हुए निश्चित रूप से राज्य एक सुनहरे भविष्य की ओर बढ़ रहा है।
 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Satta ke hukumraano ki Vikas ko Koi Chinta hi nahi..

Maje karo maje karo.. Tumari Kismat mai hai./


उत्तराखंड आज आठ साल का हो गया है। इन आठ सालों में तीन सरकारें तथा चार मुखिया राज्य को अपनी सेवाएं दे चुके हैं। हर वर्षगांठ में एक आंकलन सबके जेहन में उठता है कि साल दर साल उत्तराखंड ने क्या पाया और क्या खोया। भारत देश की एक इकाई बनने का गौरव हासिल करने के बाद उत्तराखंड ने बहुत कुछ पाया है। जब अलग राज्य की मांग पर आंदोलन हुआ तो उस वक्त कई राजनीतिक पंडित कहते थे कि उत्तराखंड के पास अपने कोई संसाधन नहीं हैं। ऐसे में यह राज्य केंद्र की बैसाखी पर ही चलने को विवश होगा। उत्तराखंड ने बहुत कम समय में इस मिथक को तोड़ डाला है। जहां तक केंद्र पर निर्भरता का सवाल है, बड़े-बड़े राज्य भी कई बार इससे बच नहीं पाते तो बेहद छोटे और नए बने इस उत्तराखंड की बिसात ही क्या है। इसके बावजूद उत्तराखंड ने अपने संसाधनों को मजबूती दी है। जल विद्युत उत्पादन में राज्य आत्मनिर्भर ही नहीं, बल्कि दूसरों को देने की स्थिति में तक पहुंच गया। अन्य संसाधनों को भी राज्य ने अपने हित में उपयोग करने में काफी हद तक सफलता पाई है। पर्वतीय राज्य होने के कारण खाद्यान्न के मामले में केंद्र पर निर्भरता अभी बनी हुई है। इसके बावजूद उत्तराखंड साल दर साल हर क्षेत्र में अपने को खुद के पैरों में खड़ा करने का जो प्रयास कर रहा है, निश्चित रूप से राज्य के कदम जल्दी ही लक्ष्य को प्राप्त कर लेंगे। एक कमी जरूरत खटकती है। वर्तमान में छोटे राज्यों में राजनीतिक अस्थिरता हमेशा सिर पर मंडराती रहती है। उत्तराखंड भी इससे अछूता नहीं है। पहली अंतरिम सरकार से लेकर वर्तमान भाजपा सरकार तक अनिश्चितता के बादल अक्सर मंडराने लगते हैं। यह छोटे राज्यों की नियति हो सकती है पर उम्मीद की जानी चाहिए कि वक्त के साथ उत्तराखंड इस राजनीतिक संकट पर भी विजय हासिल करने की स्थिति में होगा। कहा जा सकता है कि उत्तराखंड के अनिश्चित भविष्य की बात करने वाले पंडितों को झुठलाते हुए निश्चित रूप से राज्य एक सुनहरे भविष्य की ओर बढ़ रहा है।
 


 

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