सूचना मिलने की राह में हैं रोड़े बड़े:
यह सूचना का अधिकार नहीं चमत्कार है। अब बीडीओ साहब देखकर बैठने के लिए पूछते
हैं। इज्जत से बात करते हैं। गांव के आदमी को और क्या चाहिए? कमलेश कामत मैनही
पंचायत अमही प्रखंड मधुबनी के रहने वाले हैं। सूचना के अधिकार से उनका परिचय
अभी नया-नया है। वे समझ नहीं पा रहे हैं कि हाल में जब प्रखंड कार्यालय से
उन्होंने अपने पंचायत में होने वाले विकास संबंधी कार्यों में हो रहे व्यय का
ब्यौरा मांग तो क्यों पंचायत से लेकर ब्लॉक तक में उनकी इज्जत पहले से कई गुना
बढ़ गई है। *
पहले जो बीडीओ साहब उन्हें अपने आस-पास भी फटकने नहीं देते थे, आजकल कमलेश को
अपने दफ्तर में ना सिर्फ बिठाते हैं बल्कि चाय भी पूछते हैं। कमलेश के घर से
ब्लॉक ऑफीस की दूरी तीन घंटे की है। जिसमें लगभग डेढ़ घंटा-दो घंटे पैदल चलना
पड़ता है क्योंकि उस रास्ते में पानी लगने की वजह से सवारी नहीं मिलती। इतनी दूर
से ब्लॉक आने के बाद बाबू से लेकर साहब तक उसे दुत्कार देते थे तो आप समझ सकते
हैं, उसपर क्या बीतती होगी? कमलेश को कोई बड़ी जीत हासिल हुई है ऐसा नहीं है
लेकिन ब्लॉक के बाबू और अफसर से मिले प्यार के दो बोल ही उसके लिए अमृत के
बराबर है। वह इसी से खुश है। दूसरी कहानी है, बिहार के दरभंगा के एक सज्जन की।
जो एक प्रखंड विकास पदाधिकारी के खिलाफ सूचना के अधिकार कानून के अन्तर्गत कुछ
ऐसी जानकारी पा गए, जिससे प्रखंड में पैसों की गड़बड़ी का खुलासा हो रहा था। उस
व्यक्ति ने बातचीत में कहा कि- `बीडीओ साहब अपन गाड़ी लक हमर दुआर पर आइब गेला।
की कहू? फेर हम अपील में नई गेलऊ। अब अतेक बड अधिकारी घर आईब गेल त ओकर खिलाफ
की जाऊ?´
इन दो कहानियों में जो एक बात समान थी, वह यह कि इन दो कहानियों के मुख्य पात्र
इस बात से ही खुश हो गए कि सरकारी अधिकारी ने उन्हें थोड़ी तवज्जो दे दी। अब
इससे एक कदम आगे बढ़ते हैं, मतलब जिन्होंने इतने पर राजी होना स्वीकार नहीं
किया। अपनी कार्यवाही को अंजाम तक पहुंचाने का निर्णय लिया, उनका अंजाम अच्छा
नहीं हुआ।
अब सारण के रहने वाले विरेन्द्र कुमार को देख लीजिए। वे पांव से विकलांग हैं।
उनपर हत्या का मुकदमा चलाया जा रहा है, क्योंकि उन्होंने पंचायत शिक्षकों की
नियुक्ति में हुई अनियमितता पर सूचना मांगी थी। पुनपुन के कुणाल मोची और पिंकी
देवी ने अपने-अपने पंचायत में हो रही गड़बड़ियों के खिलाफ आवाज बुलन्द की तो उनपर
अशांति फैलाने का मुकदमा बहाल है। यह सूची बहुत लंबी है। रामबालक शर्मा पर एसपी
लखीसराय ने धारा 302 का मुकदमा लगाया है, युगलकिशोर प्रसाद को सूचना मांगने पर
सूचना के बदले बीडीओ नालंदा की प्रताड़ना मिली। इन कहानियों को बताने के पिछे
सीधी सी बात यह थी कि भले ही सूचना के अधिकार को आम आदमी के लिए बना कानून कह
कर प्रचारित किया जाए लेकिन यह कानून उन लोगों के लिए है जो प्रशासन की
प्रताड़ना सहने और उससे लड़ने का कुव्वत रखते हों। इसी वजह से सूचना का अधिकार
कानून का इस्तेमाल कर, सूचना निकालना मानों जंग लड़कर, जंग जीतने के बराबर है।
ऐसी ही एक जंग हाल में बक्सर के भाई शिवप्रकाश राय हाल में ही जीतकर आए हैं।
उन्होंने जिले के करीब 70 बैंकों से प्रधानमंत्री रोजगार योजना के अन्तर्गत
कृषि उपकरणों पर अनुदान संबंधी सूचना मांगी थी। बदले में जिलाधिकारी ने उनपर
झूठा मुकदमा चलाया। जिसकी पुष्टि एसपी, बक्सर की जांच रिपोर्ट से होती है।
जिसमें उन्होंने राय को बेकसूर पाया। जिसकी वजह से 29 दिन जेल की सजा काटने के
बाद वे बाइज्जत बरी कर दिए गए। शिवप्रकाश राय के मामले में बिहार सूचना आयोग की
पूर्ण पीठ ने बक्सर के जिलाधिकारी को 15,400 रुपए उन्हें यात्रा व्यय के एवज
में देने का आदेश दिया है। श्री राय कहते हैं, `सूचना आयोग से मिले न्याय की
वजह से मेरा हौंसला बढ़ गया है और मैं आगे भी समाजहित में सूचना के अधिकार को एक
अहिंसक हथियार बनाकर लड़ता रहूंगा।´
हो सकता है, सूचना का अधिकार को लेकर काम कर रहे कार्यकर्ता शिवप्रकाश राय की
जीत को आम आदमी की जीत कहकर प्रचारित करें लेकिन राय आम आदमी नहीं है। इस देश
का आम आदमी कमलेश कामत जैसा है, जो भावुक है। वह लड़ना-भिड़ना नहीं जानता। हर
चुनाव में राजनीतिक नेता उन्हें प्यार के दो बोल बोलकर, झूठे वादों के सहारे
सुनहरे सपने दिखाकर, जीतने के बाद पांच साल के लिए नर्क में छोड़ जाते हैं। ऐसा
आम आदमी शिवप्रकाश राय नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में सूचना का अधिकार आम आदमी
का कानून बने, आम आदमी के लिए इसे अपनाना सहज हो, इसकी राह अभी मुश्किल जान
पड़ती है।