Author Topic: Biggest Cloudburst incident in Kedarnath Uttarakhand-सबसे बड़ी आपदा उत्तराखंड में  (Read 22358 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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 श्रीनगर की बर्बादी का जिम्मेदार कौन ?
 
 
 श्रीनगर की तबाही के लिए क्या जीवीके कम्पनी जिम्मेदार नहीं ? आप इसे यों समझ सकते हैं कि शनिवार दिनांक 15-06-2013 को धारी देवी के मंदिर से तुरत फुरत में मूर्ति हटाने की जरुरत क्यों पडी ?
 
 क्या यह कम्पनी को पहले से मालूम था कि इस बार अगर मूर्ति नहीं हटाया गया तो वे  बरसात के बाद में इसे नहीं हटा पायेंगे, जबकि मूर्ति को अपलिफ्ट किये गए मंदिर पर स्थापित किये जाने का कार्यक्रम दिनांक 19-07-2013 का प्रस्तावित था, आखिर जल्दी की वजह क्या थी ?
 
 अगर श्रीनगर में अलकनन्दा पर जीवीके का बाँध नहीं होता और बाँध की वजह से लगभग १० किलोमीटर लंबी झील नहीं बनती और इस भारी बरसात में बाँध के गेट एकदम से नहीं खोले गए होते तो क्या श्रीनगर में क्या बाढ का आना संभव था ?
 
 सरकार माने या माने पर श्रीनगर की इस बरबादी में परियोजना निर्मात्री कम्पनी जीवीके प्रबंधन का भी पूरा पूरा हाथ है, और अब "कॉर्पोरेट सोसिअल रेस्पोसिबिलिटी" के तहत उसे  अपने कृत्य से श्रीनगर में मची तबाही की भरपाई को भी तैयार रहना चाहिए !

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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 उत्तराखंड: डायनामाइट से हुआ तबाही का इंतज़ाम?      रंगनाथ सिंह
बीबीसी हिन्दी डॉटकॉम के लिए
       मंगलवार, 25 जून, 2013 को 15:09 IST तक के समाचार         प्रकृति के नियमों की अनदेखी करके बसाए गए गाँव और नगर ही आपदा के शिकार हुए हैं.
   उत्तराखंड के कच्चे पहाड़ों में रहने वाले लोग परंपरागत तरीक़ों से अपने जंगलों, बुग्यालों और पहाड़ों को बचाने की कोशिश करते रहे हैं. दूसरी तरफ सड़कें, बाँध आदि के निर्माण के लिए विस्फोटकों का बेरोकटोक इस्तेमाल किया जा रहा है.
पर्यावरणविद, भू-वैज्ञानिक और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने कहा है कि पहले से ही कच्चे इन पहाड़ों में विकास के रोड रोलर ने क्लिक करें  विभीषिका की भूमिका तैयार कर दी थी.
  संबंधित समाचार    दस्तावेजों के अनुसार गढ़वाल के जोशीमठ ब्लॉक में ही पिछले कुछ बरसों में हज़ारों किलो विस्फोटकों का इस्तेमाल करके पहाड़ों का पेट खोदा गया है.
सरकार और प्रशासन कहता है कि बड़े बाँधों, बड़ी पनबिजली परियोजनाओं और सड़क निर्माण के लिए विस्फोटकों का इस्तेमाल ज़रुरी है.
सरकार की ओर से मुहैया करवाए गए आँकड़ों के मुताबिक जोशीमठ ब्लॉक में पहाड़ कटाव के लिए साल 2006 से 2011 के बीच कुल 20,632 किलोग्राम विस्फोटक और 1,71,235 डेटोनेटरों का प्रयोग किया गया है.
   जोशीमठ में प्रयोग किया गया विस्फोटक एवं डेटोनेटर 
वर्षविस्फोटकडेटोनेटर
अप्रैल 2006 - मार्च 20076805 किग्रा20101
अप्रैल 2007 - मार्च 20084498 किग्रा18358
अप्रैल 2008 - मार्च 2009911 किग्रा4659
अप्रैल 2009 - मार्च 20107123 किग्रा36840
अप्रैल 2010 - मार्च 20111295 किग्रा91277
    जोशीमठ-गोपेश्वर के पहाड़ काफी संवेदनशील माने जाते हैं. बड़े पैमाने पर विस्फोटकों के प्रयोग से पहले से ही कच्चा हिमालय पहाड़ और भी कमजोर हो जाता है.
  लोक निर्माण विभाग से प्राप्त दस्तावेज.
   वरिष्ठ भू-वैज्ञानिक एवं जवाहरलाल नेहरू सेंटर फॉर एडवांस सांइटिफिक रिसर्च में मानद प्रोफेसर क्लिक करें  डॉ. खड्ग सिंह वल्दिया के अनुसार “इन विस्फोटों के कारण धरती में छोटे-छोटे भूकंप (माइक्रो अर्थक्वेक) आते हैं. जब बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ, ट्रकें, बसें जाती हैं तब भी माइक्रो भूकंप आते हैं.
धरती की पुरानी दरारें इन माइक्रो भूकंपों से हिल जाती हैं. प्रतिदिन लाखों की संख्या में उठने वाले ये माइक्रो भूकंप पहाड़ों को कमजोर करते जाते हैं.”
उत्तराखंड में आई आपदा में व्यापक स्तर पर जान-माल का नुकसान होने की एक बड़ी वजह भू-स्खलन रही है.
विस्फोटकों का व्यापक प्रयोग इन भू-स्खलनों में हुई बढ़ोत्तरी का एक बड़ा कारण है.
विस्फोटकों का सर्वाधिक प्रयोग दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों में सड़कें बनाने के लिए किया जाता है. साल 2000 में उत्तराखंड के अलग राज्य बनने के बाद राज्य में सड़क निर्माण में अत्यधिक तेजी आई है.
  विस्फोटकों से पहाड़ी ढालें भंगुर हो जाती है जिससे भू-स्खलन बढ़ा है.
   केंद्रीय विश्वविद्यालय, गढ़वाल में आपदा प्रबंधन शोध अधिकारी डॉ. एसपी सती कहते हैं कि “साल 2000 में उत्तराखंड में सिर्फ 8 हजार किमी रोड थी. आज यहाँ 23-24 हज़ार किमी सड़कों का निर्माण हो चुका है.”
ऐसा नहीं है कि विस्फोटकों का प्रयोग केवल इसी इलाके में किया जा रहा है.
आरटीआई कार्यकर्ता गुरुविंदर सिंह चढ्ढा को सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त दस्तावेजों के अनुसार दूसरे क्षेत्रों में भी विस्फोटक का प्रयोग किया जा रहा है.
हल्द्वानी, रामनगर, रानीखेत, टनकपुर इलाकों में भी पिछले पाँच सालों में तीन हज़ार किलोग्राम से ज़्यादा विस्फोटक और छब्बीस हज़ार से ज़्यादा डेटोनेटरों का प्रयोग किया जा चुका है.
अभी तो इस आपदा में स्थानीय लोगों को जो नुकसान हुआ है उसी का पूरा आकलन नही हो सका है. पर्यावरण को हुए नुकसान के आकलन में शायद वर्षों लग जाएँ.
सूचना के अधिकार के तहत जब लोक निर्माण विभाग के कई प्रखण्डों से जब यह पूछा गया कि इन विस्फोटकों से पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ता है तो इनमें से ज़्यादातर विभागों के खण्डीय सूचना अधिकारियों ने अपने जवाब में यह कहा गया कि 'इससे पर्यावरण को कोई क्षति नहीं पहुँचाई गई है या पहुँची है.'
हालाँकि गोपेश्वर के खण्डीय लोक सूचना अधिकारी ने अपने जवाब में कहा कि "पर्यावरण की क्षति को मापने का मानक खण्ड में उपलब्ध नहीं है."
 बाँध और बिजली की चाह से उपजी त्रासदी  सड़कों के अंधाधुंध निर्माण से पर्यावरण को खतरा पहुँचा है.
   क्लिक करें  पर्यावरणविद राज्य में बड़े बाँधों और बड़ी पनबिजली परियोजनाओं पर सवाल उठाते रहे हैं.
  आपदा से सबसे ज़्यादा प्रभावित क्षेत्र में ही सबसे ज़्यादा बिजली परियोजनाएँ प्रस्तावित हैं.
   दस्तावेजों के अनुसार उत्तराखंड में इस समय कुल 12 बिजली परियोजनाएँ चालू हैं जिनकी कुल उत्पादन क्षमता 508 मेगावाट के करीब अनुमानित है. इसके अलावा नौ बिजली परियोजनाएँ निर्माणाधीन हैं और अन्य 30 परियोजनाएँ प्रक्रिया में हैं.
ये सभी परियोजनाएँ पिछले दो दशकों के भीतर की है.
डॉ. एसपी सती बताते हैं कि केदारनाथ को छोड़ दिया जाए तो है तो निचले क्षेत्रों में आपदा का आकार जो बहुत विराट हुआ उसका बड़ा कारण पनबिजली परियोजनाओं से निकली गाद या मलबा था.
डॉ सती के अनुसार केवल श्रीनगर बाँध से पाँच लाख घनमीटर मलबा सीधे नदी में डाला गया है. इसके लिए किसी तरह के सुरक्षा कवच का प्रयोग नहीं किया गया. यह सारा मलबा नदी के पानी के साथ बहकर निचले इलाके में चला गया.
डॉ. सती का अनुमान है कि उत्तराखंड में विभिन्न नदियों पर करीब 70 नए बाँध निर्माणाधीन हैं.
उल्लेखनीय है कि आरटीआई से मिले दस्तावेजों के अनुसार उत्तराखंड सरकार द्वारा निर्मित, निर्माणाधीन एवं अनुमोदित 51 जलविद्युत परियोजनाओं में से सबसे ज़्यादा 31 परियोजनाओं उत्तराखंड में आई विभीषिका में सबसे ज़्यादा प्रभावित गढ़वाल मण्डल के चमोली, उत्तरकाशी, टिहरी, रुद्रप्रयाग एवं पौड़ी इलाके में हैं.
   गढ़वाल मण्डल की पनबिजली परियोजनाएँ 
स्थानकार्यरतनिर्माणाधीनप्रक्रिया में
चमोली6-7
उत्तरकाशी1210
टिहरी314
रुद्रप्रयाग-21
पौड़ी-1-
    डॉ. सती के अनुसार यदि एक बाँध से दो लाख घनमीटर मलबा निकले तो भी सत्तर बाँधों से एक करोड़ चालीस लाख घनमीटर मलबा निकलेगा. यह मलबा उत्तराखंड के लिए विभीषिका का कारण बनता जा रहा है.
उत्तराखंड में मलबे की बढ़ोत्तरी के दूसरा सबसे बड़ा कारण सड़कों का अंधाधुंध निर्माण है.
डॉ. सती ने हमें बताया कि उत्तर प्रदेश से अलग होने के बाद पिछले एक दशक में उत्तराखंड में पन्द्रह-सोलह हजार किमी सड़कों का निर्माण हुआ है.
डॉ. सती कहते हैं कि “पहाड़ में एक किमी सड़क बनाने में 20-25 हजार घनमीटर मलबा एकत्रित होता है. आप इससे अंदाजा लगा सकते हैं कि 15-16 हजार किमी सड़क बनाने में कितना मलबा इकट्ठा हुआ होगा. ये सारा का सारा मलबा ढालों में डाल दिया जाता है जो नालों के माध्यम से नदियों में जाता है”
"नदी का विस्तार बारिश से कहीं ज़्यादा इस अतिरिक्त मलबे से हुआ जो विशुद्ध तौर पर मानवजनित था."
उत्तराखंड आंदोलन से जुड़े रहे शमशेर सिंह बिष्ट कहते हैं “मैदानी क्षेत्रों के तरीके से ही पहाड़ी क्षेत्रों में सड़के बनाएँगे तो कुछ देर के लिए तो सड़कें बन जाएगी लेकिन बाद में यही सड़क आप के लिए समस्या पैदा करेगी.”
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उत्तराखंड: बाढ़ में केदारनाथ मंदिर कैसे बचा
      डॉ खड्ग सिंह वल्दिया
मानद प्रोफेसर, जेएनसीएएसआर
       मंगलवार, 25 जून, 2013 को 09:03 IST तक के समाचार         नदियों के फ्लड वे में बने गाँव और नगर बाढ़ में बह गए.
   आख़िर उत्तराखंड में इतनी सारी बस्तियाँ, पुल और सड़कें देखते ही देखते क्यों उफनती हुई नदियों और टूटते हुए पहाड़ों के वेग में बह गईं?
जिस क्षेत्र में भूस्खलन और बादल फटने जैसी घटनाएँ होती रही हैं, वहाँ इस बार इतनी भीषण तबाही क्यों हुई?
  संबंधित समाचार    उत्तराखंड की त्रासद घटनाएँ मूलतः प्राकृतिक थीं. अति-वृष्टि, भूस्खलन और बाढ़ का होना प्राकृतिक है. लेकिन इनसे होने वाला क्लिक करें  जान-माल का नुकसान मानव-निर्मित हैं.
अंधाधुंध निर्माण की अनुमति देने के लिए सरकार ज़िम्मेदार है. वो अपनी आलोचना करने वाले विशेषज्ञों की बात नहीं सुनती. यहाँ तक कि जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के वैज्ञानिकों की भी अच्छी-अच्छी राय पर सरकार अमल नहीं कर रही है.
वैज्ञानिक नज़रिए से समझने की कोशिश करें तो अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इस बार नदियाँ इतनी कुपित क्यों हुईं.
नदी घाटी काफी चौड़ी होती है. बाढ़ग्रस्त नदी के रास्ते को फ्लड वे (वाहिका) कहते हैं. यदि नदी में सौ साल में एक बार भी बाढ़ आई हो तो उसके उस मार्ग को भी फ्लड वे माना जाता है. इस रास्ते में कभी भी बाढ़ आ सकती है.
लेकिन क्लिक करें  इस छूटी हुई ज़मीन पर निर्माण कर दिया जाए तो ख़तरा हमेशा बना रहता है.
 नदियों का पथ  नदियों के फ्लड वे में बने गाँव और नगर बाढ़ में बह गए.
   केदारनाथ से निकलने वाली मंदाकिनी नदी के दो फ्लड वे हैं. कई दशकों से मंदाकिनी सिर्फ पूर्वी वाहिका में बह रही थी. लोगों को लगा कि अब मंदाकिनी बस एक धारा में बहती रहेगी. जब मंदाकिनी में बाढ़ आई तो वह अपनी पुराने पथ यानी पश्चिमी वाहिका में भी बढ़ी. जिससे उसके रास्ते में बनाए गए सभी निर्माण बह गए.
क्लिक करें  केदारनाथ मंदिर इस लिए बच गया क्योंकि ये मंदाकिनी की पूर्वी और पश्चिमी पथ के बीच की जगह में बहुत साल पहले ग्लेशियर द्वारा छोड़ी गई एक भारी चट्टान के आगे बना था.
नदी के फ्लड वे के बीच मलबे से बने स्थान को वेदिका या टैरेस कहते हैं. पहाड़ी ढाल से आने वाले नाले मलबा लाते हैं. हजारों साल से ये नाले ऐसा करते रहे हैं.
पुराने गाँव ढालों पर बने होते थे. पहले के किसान वेदिकाओं में घर नहीं बनाते थे. वे इस क्षेत्र पर सिर्फ खेती करते थे. लेकिन अब इस वेदिका क्षेत्र में नगर, गाँव, संस्थान, होटल इत्यादि बना दिए गए हैं.
यदि आप नदी के स्वाभाविक, प्राकृतिक पथ पर निर्माण करेंगे तो नदी के रास्ते में हुए इस अतिक्रमण को हटाने के बाढ़ अपना काम करेगी ही. यदि हम नदी के फ्लड वे के किनारे सड़कें बनाएँगे तो वे बहेंगे ही.
 विनाशकारी मॉडल  पहाडं में सड़कें बनाने के ग़लत तरीके विनाश को दावत दे रहे हैं.
   मैं इस क्षेत्र में होने वाली सड़कों के नुकसान के बारे में भी बात करना चाहता हूँ.
पर्यटकों के लिए, तीर्थ करने के लिए या फिर इन क्षेत्रों में पहुँचने के लिए क्लिक करें  सड़कों का जाल बिछाया जा रहा है. ये सड़कें ऐसे क्षेत्र में बनाई जा रही हैं जहां दरारें होने के कारण भू-स्खलन होते रहते हैं.
इंजीनियरों को चाहिए था कि वे ऊपर की तरफ़ से चट्टानों को काटकर सड़कें बनाते. चट्टानें काटकर सड़कें बनाना आसान नहीं होता. यह काफी महँगा भी होता है. भू-स्खलन के मलबे को काटकर सड़कें बनाना आसान और सस्ता होता है. इसलिए तीर्थ स्थानों को जाने वाली सड़कें इन्हीं मलबों पर बनी हैं.
ये मलबे अंदर से पहले से ही कच्चे थे. ये राख, कंकड़-पत्थर, मिट्टी, बालू इत्यादि से बने होते हैं. ये अंदर से ठोस नहीं होते. काटने के कारण ये मलबे और ज्यादा अस्थिर हो गए हैं.
इसके अलावा यह भी दुर्भाग्य की बात है कि इंजीनियरों ने इन सड़कों को बनाते समय बरसात के पानी की निकासी के लिए समुचित उपाय नहीं किया. उन्हें नालियों का जाल बिछाना चाहिए था और जो नालियाँ पहले से बनी हुई हैं उन्हें साफ रखना चाहिए. लेकिन ऐसा नहीं होता.
हिमालय अध्ययन के अपने पैंतालिस साल के अनुभव में मैंने आज तक भू-स्खलन के क्षेत्रों में नालियाँ बनते या पहले के अच्छे इंजीनियरों की बनाई नालियों की सफाई होते नहीं देखा है. नालियों के अभाव में बरसात का पानी धरती के अंदर जाकर मलबों को कमजोर करता है. मलबों के कमजोर होने से बार-बार भू-स्खलन होते रहते हैं.
इन क्षेत्रों में जल निकास के लिए रपट्टा (काज़ वे) या कलवर्ट (छोटे-छोटे छेद) बनाए जाते हैं. मलबे के कारण ये कलवर्ट बंद हो जाते हैं. नाले का पानी निकल नहीं पाता. इंजीनियरों को कलवर्ट की जगह पुल बनने चाहिए जिससे बरसात का पानी अपने मलबे के साथ स्वत्रंता के साथ बह सके.
 हिमालयी क्रोध  भू-वैज्ञानिकों के अनुसार नया पर्वत होने के हिमालय अभी भी बढ़ रहा है.
   पर्यटकों के कारण दुर्गम इलाकों में होटल इत्यादि बना लिए गए हैं. ये सभी निर्माण समतल भूमि पर बने होते है जो मलबों से बनी होती है. नाले से आए मलबे पर मकानों का गिरना तय था.
हिमालय और आल्प्स जैसे बड़े-बड़े पहाड़ भूगर्भीय हलचलों (टैक्टोनिक मूवमेंट) से बनते हैं. हिमालय एक अपेक्षाकृत नया पहाड़ है और अभी भी उसकी ऊँचाई बढ़ने की प्रक्रिया में है.
हिमालय अपने वर्तमान वृहद् स्वरूप में करीब दो करोड़ वर्ष पहले बना है. भू-विज्ञान की दृष्टि से किसी पहाड़ के बनने के लिए यह समय बहुत कम है. हिमालय अब भी उभर रहा है, उठ रहा है यानी अब भी वो हरकतें जारी हैं जिनके कारण हिमालय का जन्म हुआ था.
हिमालय के इस क्षेत्र को ग्रेट हिमालयन रेंज या वृहद् हिमालय कहते हैं. संस्कृत में इसे हिमाद्रि कहते हैं यानी सदा हिमाच्छादित रहने वाली पर्वत श्रेणियाँ. इस क्षेत्र में हजारों-लाखों सालों से ऐसी घटनाएँ हो रही हैं. प्राकृतिक आपदाएँ कम या अधिक परिमाण में इस क्षेत्र में आती ही रही हैं.
केदारनाथ, चौखम्बा या बद्रीनाथ, त्रिशूल, नन्दादेवी, पंचचूली इत्यादि श्रेणियाँ इसी वृहद् हिमालय की श्रेणियाँ हैं. इन श्रेणियों के निचले भाग में, करीब-करीब तलहटी में कई लम्बी-लम्बी झुकी हुई दरारें हैं. जिन दरारों का झुकाव 45 डिग्री से कम होता है उन्हें झुकी हुई दरार कहा जाता है.
 कमज़ोर चट्टानें  कमजोर चट्टानें बाढ़ में सबसे पहले बहती हैं और भारी नुकसान करती हैं.
   वैज्ञानिक इन दरारों को थ्रस्ट कहते हैं. इनमें से सबसे मुख्य दरार को भू-वैज्ञानिक मेन सेंट्रल थ्रस्ट कहते हैं. इन श्रेणियों की तलहटी में इन दरारों के समानांतर और उससे जुड़ी हुई ढेर सारी थ्रस्ट हैं.
इन दरारों में पहले भी कई बार बड़े पैमाने पर हरकतें हुईं थी. धरती सरकी थी, खिसकी थी, फिसली थीं, आगे बढ़ी थी, विस्थापित हुई थी. परिणामस्वरूप इस पट्टी की सारी चट्टानें कटी-फटी, टूटी-फूटी, जीर्ण-शीर्ण, चूर्ण-विचूर्ण हो गईं हैं. दूसरों शब्दों में कहें तो ये चट्टानें बेहद कमजोर हो गई हैं.
इसीलिए बारिश के छोटे-छोटे वार से भी ये चट्टाने टूटने लगती हैं, बहने लगती हैं. और यदि भारी बारिश हो जाए तो बरसात का पानी उसका बहुत सा हिस्सा बहा ले जाता है. कभी-कभी तो यह चट्टानों के आधार को ही बहा ले जाता है.
भारी जल बहाव में इन चट्टानों का बहुत बड़ा अंश धरती के भीतर समा जाता है और धरती के भीतर जाकर भीतरघात करता है. धरती को अंदर से नुकसान पहुँचाता है.
इसके अलावा इन दरारों के हलचल का एक और खास कारण है. भारतीय प्रायद्वीप उत्तर की ओर साढ़े पांच सेंटीमीटर प्रति वर्ष की रफ्तार से सरक रहा है यानी हिमालय को दबा रहा है. धरती द्वारा दबाए जाने पर हिमालय की दरारों और भ्रंशों में हरकतें होना स्वाभाविक है.
(रंगनाथ सिंह से बातचीत पर आधारित)
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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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शिखर धवन से भी प्रेरणा नहीं ली महेंद्र सिंह धोनी ने

अल्मोड़ा। जिला क्रिकेट एसोसिएशन की यहां हुई बैठक में वक्ताओं ने कहा कि उत्तराखंड से कोई नाता नहीं होने के बावजूद भारतीय टीम के उभरते बल्लेबाज क्रिकेट खिलाड़ी शिखर धवन ने अपना गोल्डन बैट उत्तराखंड के आपदा पीड़ितों को समर्पित कर दिया लेकिन उत्तराखंड के रहने वाले भारतीय टीम के कप्तान महेंद्र सिंह धोनी ने आपदा पीड़ितों को आज तक कोई सहायता तो दूर संवेदना के दो शब्द तक नहीं बोले हैं। उन्होंने कहा कि धोनी के इस रवैये से उत्तराखंड के क्रिकेट प्रेमियों और अन्य लोगों में भारी निराशा है।
वक्ताओं ने कहा कि इस समय पूरे विश्व के लोग उत्तराखंड के आपदा पीड़ितों को सहायता पहुंचाने के लिए तत्पर हैं। जिससे जो बन पड़ रहा है वह उनके लिए राहत भेज रहा है। बीते दिनों इंग्लैंड में हुई चैंपियंस ट्राफी में शानदार प्रदर्शन करने पर मिले गोल्डन बैट को भारतीय टीम के खिलाड़ी शिखर धवन ने उत्तराखंड के आपदा पीड़ितों को समर्पित करने की घोषणा की। जबकि शिखर धवन का उत्तराखंड से सीधा कोई ताल्लुक तक नहीं है। भारतीय खिलाड़ी हरभजन सिंह भी 10 लाख दे चुके हैं।
क्रिकेट एसोसिएशन के जिलाध्यक्ष गिरीश धवन ने कहा कि भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान महेंद्र सिंह धोनी के पिता पान सिंह धोनी की जन्म भूमि जैंती का ल्वाली गांव है और महेंद्र सिंह धोनी का ससुराल भी उत्तराखंड में ही है लेकिन उन्होंने आज तक आपदा पीड़ितों के लिए सहायता तो दूर दो शब्द संवेेदना के तक नहीं बोले हैं। जबकि धोनी इतने सक्षम हैं कि वह खुद एक गांव को गोद ले सकते हैं। इस विपदा की घड़ी में उनके अब तक आगे नहीं आने से लोगों में बेहद निराशा है। (amar ujala)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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 रामबाड़ा में सैकडों शव! प्रशासन मीडिया को रामबाड़ा नहीं जाने दे रहा है ??
 
 केदारघाटी के रामबाड़ा क्षेत्र में मीडिया के प्रवेश पर सरकार ने अघोषित पाबंदी लगा दी है। सूत्रों के मुताबिक रामबाड़ा से केदारनाथ तक भारी संख्या में शव होने के मददेनजर यह कदम उठाया गया है, हालाकि शासन और जिला प्रशासन इसकी पुष्टि नहीं कर रहा है।
 
 शुक्रवार को रुद्रप्रयाग जिले में मीडिया को रामबाड़ा क्षेत्र में प्रवेश करने से रोक दिया गया। सूत्रों का कहना है कि इस क्षेत्र में काफी संख्या में आपदा में मौत के शिकार लोगों के शव पडे़ हैं। इनकी संख्या सैकड़ों में बताई जा रही है। सूत्रों के मुताबिक मीडिया तक इसकी कुछ तस्वीरें पहुंचने के बाद यह कदम उठाया गया। उधर, शासन और जिला प्रशासन ने किसी तरह के प्रतिबंध से इन्कार किया है। पुलिस महानिदेशक सत्यव्रत बंसल, अपर सचिव मुख्यमंत्री व आपदा प्रबंधन का कार्य देख रहे अपर सचिव अमित नेगी और डीएम रुद्रप्रयाग दिलीप जावलकर ने रामबाड़ा जाने पर किसी तरह का प्रतिबंध लगाए जाने से इन्कार किया है।
 dehradun-jagranरामबाड़ा में सैकडों शव! प्रशासन मीडिया को रामबाड़ा नहीं जाने दे रहा है ?? केदारघाटी के रामबाड़ा क्षेत्र में मीडिया के प्रवेश पर सरकार ने अघोषित पाबंदी लगा दी है। सूत्रों के मुताबिक रामबाड़ा से केदारनाथ तक भारी संख्या में शव होने के मददेनजर यह कदम उठाया गया है, हालाकि शासन और जिला प्रशासन इसकी पुष्टि नहीं कर रहा है। शुक्रवार को रुद्रप्रयाग जिले में मीडिया को रामबाड़ा क्षेत्र में प्रवेश करने से रोक दिया गया। सूत्रों का कहना है कि इस क्षेत्र में काफी संख्या में आपदा में मौत के शिकार लोगों के शव पडे़ हैं। इनकी संख्या सैकड़ों में बताई जा रही है। सूत्रों के मुताबिक मीडिया तक इसकी कुछ तस्वीरें पहुंचने के बाद यह कदम उठाया गया। उधर, शासन और जिला प्रशासन ने किसी तरह के प्रतिबंध से इन्कार किया है। पुलिस महानिदेशक सत्यव्रत बंसल, अपर सचिव मुख्यमंत्री व आपदा प्रबंधन का कार्य देख रहे अपर सचिव अमित नेगी और डीएम रुद्रप्रयाग दिलीप जावलकर ने रामबाड़ा जाने पर किसी तरह का प्रतिबंध लगाए जाने से इन्कार किया है। dehradun-jagran height=299Like ·  · Share · 6054 · 45 minutes ago ·

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Mahi Singh Mehta उत्तराखंड में राहत के नाम पर मजाक, गावों में भेजे गए फटे-पुराने कपड़े
 त्तराखंड की आपदा को एक पखवाड़ा गुज़र जाने के बाद राहत अभियान की बदहाली हदों को पार कर रही है. जगह-जगह लोग शिकायत कर रहे हैं कि उन तक कोई मदद नहीं पहुंच पा रही.
 
 परिजनों को तलाश रहे लोग सही खबर के लिए भटक रहे हैं. सबसे खराब हालत है यूपी की ओर से चलाए जा रहे राहत अभियान की.
 
 अपनों की तलाश में उत्तराखंड आई उत्तर प्रदेश से आई एक महिला का ग़ुस्सा ऐसा फूटा कि ऋषिकेश के राहत शिविर में मौजूद चंद वर्दीवालों की बोलती बंद हो गई. यूपी से आए ये लोग कई दिन से भटक रहे हैं, लेकिन यूपी के राहत शिविर में बदइंतजामी का हाल देखकर इनका सब्र जवाब दे गया है.
 
 गुप्तकाशी इलाके के पीड़ित ग्रामीणों तक जब राहत के नाम पर फटे पुराने कपड़े पहुंचे तो उनके भीतर का आक्रोश बाहर आ गया. तोलंगा गांव के लोगों ने उन कपड़ों को फेंक दिया और सवाल उठाए कि ऐसी मदद का भला क्या मतलब है.
 
 जहां सैलाब ने गांव के गांव तबाह कर दिए हैं, वहां लोगों को रोटी-कपड़ा मकान हर चीज की जरुरत है लेकिन मदद के नाम पर कूड़ा-कबाड़ा कबूल करना उन्हें मंज़ूर नहीं. आपदा के बाद राहत सामग्री का बंटवारा और उसकी बर्बादी को लेकर भारी गड़बड़ियां सामने आ रही हैं. कुदरत की मार से टूट चुके लोगों का धीरज आखिर क्यों ना टूटे.
 
 
  /aajtak.intoday.

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उत्तराखंड त्रासदी में इस गांव की नई पीढ़ी खत्म!

गुप्तकाशी। उत्तराखंड की तबाही का सरकारी आकलन होना अभी बाकी है। लाशों की गिनती अभी बाकी है। लापता लोगों की तादाद पता करना बाकी है। लेकिन पीड़ित जानते हैं कि इस तबाही का नुकसान क्या हुआ। इस तबाही ने क्या खत्म कर दिया। चारधाम यात्रा या सैर-सपाटे के लिए उत्तराखंड गए लोगों को बाहर निकाल जाने के बाद अब IBN7 प्रभावित गांवों का दुख-दर्द जानने में जुटा है। गुप्तकाशी से 20 किलोमीटर दूर एक गांव में 24 लोगों की मौत हुई है, जिनमें से 20 मासूम बच्चे थे। 12 से 16 साल के इन मासूमों की मौत से एक पूरी पीढ़ी खत्म हो गई।
दरअसल गुप्तकाशी से फाटा इलाके के बड़ासू गांव करीब 20 किलोमीटर दूर है। बड़ासू गांव में जिन 24 लोगों की मौत हुई है, उनमें से 20 स्कूल जाने वाले बच्चे थे, वो छुट्टियों की वजह से अपने घर के बड़ों की मदद के लिए पैसा कमाने के लिए रामबाड़ा गए हुए थे। लेकिन 16 जून की रात ने सब तबाह कर दिया। उत्तराखंड सरकार अब तक ना जाने कितने ऐसे गावों को भूले हुए हैं।उत्तराखंड त्रासदी में इस गांव की नई पीढ़ी खत्म! height=420 बड़ासू गुप्तकाशी के उन गावों में से एक है जो अब भी सरकारी मदद का इंतजार कर रहे हैं। सिर्फ कुछ दिन पहले तक इस गांव में बड़ी चहल-पहल रहती थी। स्कूल जाने वाले बच्चे दिन भर हुड़दंग करते, पैसा कमाने में घरवालों की मदद करते। लेकिन अब सन्नाटा पसरा है। गांव के जिन बच्चों की उत्तराखंड त्रासदी के दौरान मौत हुई उनमें से ज्यादातर 12 से 16 साल के थे।http://khabar.ibnlive.in.com/news/102418/1

Rajen

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श्री चारु तिवारी एक टेलिविजन चैनल  (NDTV  prime-time) पर पहाड़ के सरोकारों के बारे में बोलते हुये:



http://www.ndtv.com/video/player/prime-time/video-story/281407?fb_action_ids=586141014740766&fb_action_types=og.recommends&fb_source=other_multiline&action_object_map=%7B%22586141014740766%22%3A149750305221495%7D&action_type_map=%7B%22586141014740766%22%3A%22og.recommends%22%7D&action_ref_map=%5B%5D

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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वैज्ञानिको ने 02 अगस्त 2004 में ही बता दिया केदार घाटी में महा तबाही का अंदेशा! दैनिक जागरण का यह न्यूज़ क्लिप देखिये 02 अगस्त 2004 का जिसमे लिखा है "बम की तरह फटेगा केदारघाटी'! ऐसे कई रिपोर्टो को राज्य सरकार ने नजरंदाज किया। हत्यारे है ये लोग हजारो निर्दोष लोगो के जिन्दगी का।



एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Rajendra Joshi उधर उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में लोग खाद्यान्न की कमी के चलते भुखमरी के कगार पर हैं .......लोगों के पास अब दो दिन का राशन भी नहीं है बचा ..इधर प्रदेश सरकार ...आपदा राहत के पैसे से प्रादेशिक समाचार चेनलों को न्यूज़ डायरी के नाम से 8 से 10 लाख रुपये प्रति सप्ताह की दर से बाँट रही है ..जिसमे मुख्यमंत्री व सरकार की गिरती छवि को चमकाया जा रहा है ..आपको पता भी नहीं चलेगा कि ये समाचार है या विज्ञापन ............ आपदा के पैसे से भरे जा रहे है अखबारवालों व प्रादेशिक न्यूज़ चेनलों की तिजोरियां .............इस वक़्त आपदा राहत की जरुरत उत्तराखंड के पहाड़ों में फंसें उन लोगों को है ना कि इन लोगों को जिनके पेट पहले से ही भरे हुए हैं .........मुख्यमंत्री जी अपनी छवि सुधारनी है तो पहाड़ के तरफ जाओ न कि टीवी चेनलों पर अपना खुद का गुणगान करके ........वहां जाकर सुधरेगी छवि ...........क्यों है ना सही बात ..............पूरी खबर के लिए लाग ओन करिए ......................www. devbhoomimedia .com

 

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