Author Topic: Burninig Issues of Uttarakhand Hills- पहाड़ के विकास ज्वलन्तशील मुद्दे  (Read 33049 times)

विनोद सिंह गढ़िया

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हिमालय की पुकार


लेखक : सुधींद्र भदौरिया

इन सब हालात पर दुनिया भर में विकल्पों की तलाश, सरकारी पहल और योजनाओं पर बहस होती है। पिछले एक दशक में रियो से शुरू करके डरबन तक सालाना जलवायु वार्ताएं हुर्इं, इस मकसद से कि मानवता को कैसे बचाया जाए। इन सभी बहसों में दक्षिण एशिया की सरकारों के प्रतिनिधियों ने भी हिस्सा लिया। डरबन सम्मेलन में भारत और चीन की ओर सारे राष्ट्र आशा भरी निगाहों से देखते रहे। डरबन म
ें हिमालय क्षेत्र के भविष्य के बारे में काफी गहन चिंताएं उभर कर सामने आईं। इसके संपूर्ण अध्ययन के लिए सिमोड नाम की संस्था को जिम्मेदारी भी दी गई।

हिमालय की छत्रछाया में विश्व की महान सभ्यताओं का जन्म और विकास हुआ। सागरमाथा (माउंट एवरेस्ट) के नेतृत्व में अन्नपूर्णा, दामोदर, गंगापूर्णा, धौलागिरी के हिमशिखर लाखों साल से यहां का विकास और विनाश देखते रहे हैं। अफगानिस्तान से लेकर भारत के पूर्वी छोर तक फैली हुई यह पर्वतमाला घोर संकट में है। इसी पर्वतमाला की छांव में सिंधु घाटी सभ्यता से लेकर मोहनजोदड़ो की सभ्यताओं का भी जन्म हुआ। इसकी बर्फीली चट्टानों ने पूरे दक्षिण एशिया के लोगों की, साइबेरियाई बर्फीले थपेड़ों से ही रक्षा नहीं की, बल्कि हविंड तक फैले हुए वनवासियों, कृषकों और समाज के अन्य समूहों को फलने-फूलने का भी अवसर प्रदान किया। यहां बौद्ध धर्म का जन्म हुआ, जिसने बामियान से लेकर कंपूचिया तक और नीचे के छोर में श्रीलंका तक को अपने प्रभाव में लिया। यहां से देखें तो काशी और गंगा तट पर संत कबीर ने ज्ञान, दर्शन और साहित्य को नई वाणी दी। वहीं चंपारण में महात्मा गांधी ने पूरी सभ्यता को नए जीवन दर्शन, शांति और विकास की नई अवधारणाओं से परिचित कराया।

विडंबना है कि धरती के जिस हिस्से पर यह सब संभव हो पाया, आज उस पर पर्यावरण संकट गहराया हुआ है। इस संकट का अहसास तो है, पर इससे उबरने के लिए क्या प्रयास हो रहे हैं? एक समय डॉ. राममनोहर लोहिया ने हिमालय और देश की नदियों को बचाने की वकालत की और देश के लोगों में एक नई चेतना विकसित करने का कार्य किया। लेकिन उनके निधन के बाद इस समस्या पर राजनीतिक दलों और सत्ता-प्रतिष्ठान में बैठे लोगों ने सोचना और बोलना बंद कर दिया। अलबत्ता देश के कुछ नागरिक, कुछ सामाजिक संगठन इस पर बोलते और लिखते हैं, मगर कॉरपोरेट से संचालित मीडिया की उदासीनता के कारण उनकी बात कभी सत्ता के गलियारों तक पहुंच ही नहीं पाती। हिमालय ग्लेशियर एक मीटर प्रतिवर्ष घट रहे हैं। यह नागोया विश्वविद्यालय के कोजी फूजिता द्वारा खींची गई तस्वीरों से पता चलता है। उन्होंने लगातार बीस वर्षों तक, 1970 से लेकर 1990 तक इस बात को प्रमाणित करके दिखाया। जब एडमंड हिलेरी और तेनजिंग नोरगे सागरमाथा पर विजय पाने को बढ़े तो उस समय एकरंगी नजारा था। चारों ओर सफेद रंग ओढ़े हुए बर्फीले पहाड़ थे, पर आज जो लोग वहां के आधार-शिविर में काम करते हैं उनका मानना है कि यहां काफी परिवर्तन आया है। पर्वतारोही शिविर के पास मटमैला ग्लेशियर है। जहां का दृश्य सदियों तक सौंदर्य का प्रतीक बना रहा, अब धीरे-धीरे वह सब बदल रहा है। एवरेस्ट के पहले का शिविर बर्फ की बिछी हुई चादर जैसा हुआ करता था, देखते-देखते कुछ दशकों में बदल गया।

अब यहां नालानुमा मैली पिघलती बदशक्ल हुई बर्फ दिखाई देती है। पहले यहां सपाट बर्फीली चादर पर चलना आसान था, मगर बदलते परिदृश्य ने इसकी सूरत ही बदल डाली है। चलने के लिए अब कांटायुक्त छड़ी का सहारा लेना पड़ता है। पहले ऊंचाई वाले बर्फीले पहाड़ों पर ही इसकी आवश्यकता होती थी। यह बात आमतौर पर सभी पर्वतारोही महसूस करते हैं। उनका कहना है कि पहले खूम्बू बर्फीला झरना, जो कि नेपाल का सबसे बड़ा बर्फीला झरना भी कहा जा सकता है और सोलह किलोमीटर लंबी हिमानी का यह विशेष दृश्य हुआ करता था- नीलापन लिए उस बर्फीले दृश्य की जगह पिघलाव के कारण काले भूरे रंग वाले पत्थर दिखने लगे हैं। इसकी ऊपरी सतह पर पहले बर्फ ही बर्फ दिखाई देती थी, मगर वहां भी काले रंग में नई आकृति के पत्थर दिखाई देते हैं।

निचली सतह पर अन्य ग्लेशियर भी इसका शिकार होते जा रहे हैं। बाइर्स नामक व्यक्ति जो इसका काफी अध्ययन कर चुके हैं, उनका मानना है कि स्थिति काफी नाजुक और चिंताजनक है, क्योंकि यहां का भूदृश्य बदल रहा है। यहां कई प्राकृतिक विपदाएं महसूस की जाती हैं और निचले इलाकों में रहने वाले जन प्रभावित हो रहे हैं। एडमंड हिलेरी ने लूकला नामक छोटे-से कस्बे में एक हवाई पट्टी तैयार की थी। इसके पास इजमा नामक एक ताल है, जहां भू-परिवर्तन और बर्फ पिघलाव के कारण बाढ़ जैसे हालात बनने लगे हैं। इससे इजम ताल को खतरा है और ऊपरी सतह से आए हुए बिखरे पत्थर इसका प्रमाण हैं। हिमानी पिघलाव और उनके खिसकाव की वजह से एशिया की इन नदियों के जीवन को भी खतरा पैदा हो रहा है। गंगा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र हिमानी पिघलाव पर अपने साठ से अस्सी प्रतिशत पानी के लिए निर्भर रहती हैं। यहां का जन-मानस बखूबी इसे देख सकता है, महसूस करता है, क्योंकि यह बदलाव इनके जीवन को प्रभावित कर रहा है।

यह बात इन्हें किसी वैज्ञानिक से जानने की जरूरत नहीं है। जहां-जहां बर्फ हुआ करती थी, अब वनस्पति दिखाई देती है। पेड़ उखड़ने लगे हैं और सबके लिए चिंता की घड़ी है। अब यहां बेमौसमी बरसात और बर्फ का गिरना नई तरह की समस्याएं पैदा कर रहे हैं, क्योंकि जहां फरवरी के महीने में तापमान पहले शून्य से तेईस-चौबीस डिग्री सेल्शियस नीचे होता था, अब इसी महीने में शून्य से सत्रह-अठारह डिग्री सेल्सियस नीचे रहता है। अफगानिस्तान के हिंदुकुश से लेकर कैलाश मानसरोवर होते हुए नेफा के भारतीय अंतिम छोर तक लगभग पंद्रह हजार हिमानी फैली हुई हैं, पर भूमंडलीय गर्मी के कारण इनका पिघलाव नेपाल के ही नहीं, पूरे दक्षिण एशिया के लोगों के लिए बहुत चिंता की बात है। हाल में पाकिस्तान, अफगानिस्तान, भारत, सिक्किम, भूटान होते हुए म्यांमार तक बाढ़ और भूकम्प, इंसानी बिरादरी में घबराहट पैदा करने के लिए काफी हैं।

नेपाल की भूमंडलीय गर्मी और औसतन दुनिया से दूनी होती गर्मी के कारण पाकिस्तान, भारत, बांग्लादेश में हर साल बाढ़ से जान-माल के नुकसान के अलावा अरबों रुपए की संपत्ति भी बर्बाद होती है। नेपाल के दक्षिण में बिहार का कोसी का इलाका हर वर्ष दर्द और बर्बादी का नया इतिहास लिखता है। इससे हजारों गांव और कई जिले डूबते हैं और सारे राहत-कार्य ऊंट के मुंह मंह जीरा साबित होते हैं। दो वर्ष पहले जब कोसी का बांध टूटा तो बिहार में हाहाकार मच गया था। बिहार से सटे हुए नेपाल के कोसी के असर वाले इलाकों के बारे में भी यही बात कही जा सकती है। इसका वहां की खेती-बाड़ी पर गहरा असर पड़ा है। एक फसल नष्ट हुई तो दूसरी फसल बोई नहीं जा सकी। बाग-बगीचे भी बर्बाद हो गए। ऐसे में आम आदमी राहत पर आश्रित होने के लिए मजबूर हो जाता है। दूसरी तरफ नई-नई किस्म की महामारी भी साथ आती है। हैजा, मलेरिया और तरह-तरह के दिमागी ज्वर जनता को लीलने के लिए तैयार रहते हैं। स्वच्छ पानी मिलना भी दूभर हो जाता है।

बिहार में एक तरफ भूमंडलीय गर्मी के कारण यह इलाका हर साल या तो बाढ़ या फिर सूखे की चपेट में रहता है। अगर यह कहा जाए कि बिहार के लोग बाढ़ और सूखे के बीच झूलते रहते हैं, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। बिहार के मैदानी इलाके से बढ़कर जब हम बंगाल और बांग्लादेश की ओर बढ़ते हैं तो जनजीवन अलग किस्म की मार सहता है। बंगाल और उड़ीसा के तट चक्रवात और बांग्लादेश के तटीय इलाके समुद्री चपेट और महाचक्रवात के दायरे में हैं। यहां सागरद्वीप, जो सुंदरवन के इलाके में है, का जलस्तर औसतन 3.14 मिलीमीटर हर वर्ष ऊपर उठ रहा है। बांग्लादेश की बीस प्रतिशत भूमि कुछ दशकों में डूब सकती है, ऐसा कुछ समुद्र-वैज्ञानिक मानते हैं। इसके कारण बांग्लादेश से वहां के प्रभावित बेसहारा लोग भारत में शरणार्थी के तौर पर आते हैं और साधनयुक्त दूसरे इलाकों में बसने निकल जाते हैं। यहां के मछुआरे कहते हैं कि मछली व्यापार और कृषि दोनों ही नष्ट हो रहे हैं।

हिमालय की चोटियों से अब बर्फ घट रहे हैंपाकिस्तान में आई बाढ़ और भूकम्प से हुई बर्बादी बांग्लादेशी चक्रवात से भी भयानक है। पिछले वर्ष पाकिस्तान में आई बाढ़ से सोलह सौ से ज्यादा लोगों की मृत्यु हुई थी और सवा लाख से अधिक लोगों पर आपदा की आर्थिक मार पड़ी। यह भारत और हैती की सुनामी से प्रभावित लोगों से दुगुनी तादाद है। विशेषज्ञ मानते हैं कि अगर सुकूर बराज की क्षति हुई तो यह बाढ़ की आंधी सिंध, रवाइबर, परवतूनका, पंजाब के कई इलाकों को बर्बाद करने के लिए काफी होगी। स्वात घाटी के छह लाख से अधिक लोग फौज और तालिबान के बीच युद्ध के कारण दयनीय स्थिति में हैं। दूसरी ओर, जापान की सुनामी के कारण वहां के आणविक बिजली उत्पादन केंद्र बर्बाद हुए और इससे उन इलाकों को घेरे में लेना पड़ा ताकि और अधिक तबाही को रोका जा सके। कुछ वर्ष पहले छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक चीन ने स्वीकार किया था कि अपने एटमी कचरे को वह तिब्बत में दफनाता है। इससे वहां के पक्षी और बाकी जीव-जंतु प्रभावित हो रहे हैं।

इन सब हालात पर दुनिया भर में विकल्पों की तलाश, सरकारी पहल और योजनाओं पर बहस होती है। पिछले एक दशक में रियो से शुरू करके डरबन तक सालाना जलवायु वार्ताएं हुर्इं, इस मकसद से कि मानवता को कैसे बचाया जाए। इन सभी बहसों में दक्षिण एशिया की सरकारों के प्रतिनिधियों ने भी हिस्सा लिया। डरबन सम्मेलन में भारत और चीन की ओर सारे राष्ट्र आशा भरी निगाहों से देखते रहे। डरबन में हिमालय क्षेत्र के भविष्य के बारे में काफी गहन चिंताएं उभर कर सामने आईं। इसके संपूर्ण अध्ययन के लिए सिमोड नाम की संस्था को जिम्मेदारी भी दी गई। पर जितनी बड़ी यह समस्या है उसके अनुपात में न तो पर्याप्त साधन उपलब्ध हैं और न ही सरकारो ने कोई वैकल्पिक नीति बनाई गई है । ‘चिपको आंदोलन’ से वैकल्पिक सोच के कुछ सूत्र मिल सकते हैं। हिमालय बचाओ का नारा भारत में पहली बार डॉ राममनोहर लोहिया ने पचास के दशक के अंत में दिया था। इस पर पूरे दक्षिण एशिया में जिस तरह बहस और पहल होनी चाहिए थी, नहीं हुई। डरबन में बनी सहमति नाकाफी है। जरूरत वैकल्पिक नीतिगत सोच और विकास के नए रास्तों को तलाशने की है ।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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चन्द्रशेखर करगेती
पहाड़ों की पीड़ा
 Source:  नई दुनिया
 
 पर्यावरण संरक्षण के मकसद से ज्यादातर पहाड़ी इलाकों में बाहरी लोगों के जमीन-जायदाद खरीदने पर कानूनन पाबंदी है, लेकिन ज्यादा से ज्यादा राजस्व कमाने के चक्कर में इन पहाड़ी राज्यों की सरकारों के लिए इस कानून का कोई मतलब नहीं रह गया है और कई कंस्ट्रक्शन कंपनियां पहाड़ों में अपना कारोबार फैला चुकी हैं। जिन इलाकों में दो मंजिल से ज्यादा ऊंची इमारतें बनाने पर रोक थी, वहां अब बहुमंजिला आवासीय और व्यावसायिक इमारतें खड़ी हो गई हैं। बड़ी इमारतें बनाने और सड़कें चौड़ी करने के लिए जमीन को समतल बनाने के लिए विस्फोटकों के जरिए पहाड़ों की अंधाधुंध कटाई-छंटाई से पहाड़ इतने कमजोर हो गए हैं कि थोड़ी सी बारिश होने पर वे धंसने लगते हैं और पहाड़ों का जनजीवन कई-कई दिनों के लिए गड़बड़ा जाता है।
 
 हिमालय की गोद में दुनिया की कई महान सभ्यताओं का जन्म और विकास हुआ है। कॉकेशश से लेकर भारत के पूर्वी छोर से भी आगे म्यांमार में अराका नियोमा तक सगरमाथा यानी माउंट एवरेस्ट की अगुवाई में फैली हुई विभिन्न पर्वतमालाएं हजारों-लाखों वर्षों के दौरान विभिन्न सभ्यताओं के उत्थान और पतन की गवाह रही हैं। इन्हीं पर्वतमालाओं के तले सिंधु घाटी की सभ्यता से लेकर मोहनजोदड़ो की सभ्यता का जन्म हुआ। इन्हीं पर्वत श्रृंखलाओं की बर्फीली चट्टानों ने साइबेरिया की बर्फीली हवाओं के थपेड़ों से समूचे दक्षिण एशिया के बाशिंदों की रक्षा की। इतना ही नहीं, इस इलाके में दूर-दूर तक फैले हुए किसानों, वनवासियों और अन्य समूहों को फलने-फूलने में भी भरपूर मदद की। इसी इलाके से जैन धर्म-दर्शन के विकास की प्रक्रिया आगे बढ़ी और यहीं करुणा पर आधारित बौद्ध धर्म का जन्म हुआ, जिसने अफगानिस्तान के बामियान से लेकर कंपूचिया तक तथा नीचे की ओर श्रीलंका तक को अपने प्रभाव क्षेत्र में समेटा। इसी नगाधिराज हिमालय से निकली पावन नदियों के किनारे बैठकर तुलसी ने रामचरित जैसे महाकाव्य की रचना और कबीर ने लोक से जुड़े ज्ञान और दर्शन की गंगा बहाई।
 
 यहीं से गुरु नानक, रैदास और अन्य भक्त कवियों और सूफी-संतों ने समूची मानवता को उदात्त जीवन-मूल्यों से अनुप्राणित किया। इसी हिमालय की छांव में बिहार के चंपारण और उत्तराखंड के कौसानी से महात्मा गांधी ने समूचे विश्व को शांति, अहिंसा और भाईचारे की भावना पर आधारित जीवन दर्शन और विकास की नई अवधारणा से रूबरू कराया। विडंबना यह है कि जिन पर्वतमालाओं की गोद में यह सब संभव हो पाया, आज वही पर्वतमालाएं मनुष्य की खुदगर्जी और सर्वग्रासी विकास की विनाशकारी अवधारणा की शिकार होकर पर्यावरण के गंभीर खतरे से जूझ रही हैं। इस खतरे से न सिर्फ इन पहाड़ों का बल्कि इनके गर्भ में पलने वाले प्राकृतिक ऊर्जा और जैव संपदा के असीम स्रोतों और इन पहाड़ों से निकलने वाली नदियों का अस्तित्व भी संकट में पड़ गया है। दरअसल, भारतीय उपमहाद्वीप की विशिष्ट पारिस्थितिकी की कुंजी हिमालय का भूगोल है। लेकिन हिमालय की पर्वतमालाओं के बारे में पिछले दो-ढाई सौ बरसों में हमारे अज्ञान का लगातार विस्तार हुआ है।
 
 इनको जितना और जैसा बर्बाद अंग्रेजों ने दो सौ सालों में नहीं किया था उससे कई गुना ज्यादा इनका नाश हमने पिछले साठ-पैंसठ सालों में कर दिया है। इनकी भयावह बर्बादी को ही मौसम चक्र में बदलाव की वजह बताया जा रहा है, जिससे गर्मी के मौसम में बहुत ज्यादा गर्मी, सर्दी के मौसम में लगातार बहुत ज्यादा सर्दी बेमौसम बारिश होती रहती है। पहाड़ी इलाकों में पर्यटन को बढ़ावा देना राजस्व के अलावा स्थानीय लोगों के रोजगार की दृष्टि से जरूरी माना जा सकता है लेकिन इस मकसद की आड़ में पहाड़ी राज्यों की सरकारें होटल-मोटल, पिकनिक स्थल, शॉपिंग मॉल आदि विकसित करने, बिजली, खनन और दूसरी विकास परियोजनाओं और सड़कों के विस्तार के नाम पर निजी कंपनियों को मनमाने तरीके से पहाड़ों और पेड़ों को काटने की धड़ल्ले से अनुमति दे रही हैं। उत्तराखंड में अल्मोड़ा, नैनीताल, मसूरी, रानीखेत, जागेश्वर, बागेश्वर, कौसानी, ऋषिकेश आदि हो या हिमाचल प्रदेश में शिमला, कुल्लू-मनाली, धर्मशाला, डलहौजी, कसौली आदि या पश्चिम बंगाल में दार्जीलिंग और पूर्वोत्तर में शिलांग, बोमडीला, गंगटोक हो, सबकी एक जैसी दर्दनाक कहानी है।
 
  डैम प्रोजेक्ट और कंट्रक्शन से संकट में हिमालयये सभी इलाके कई विशिष्ट कारणों से सैलानियों के आकर्षण के केंद्र हैं, इसलिए कई निजी कंपनियों ने यहां व्यावसायिक गतिविधियां शुरू कर दी हैं। हालांकि स्थानीय बाशिंदे और स्वयंसेवी संगठन इन इलाकों में पहाड़ों और वनों की कटाई के खिलाफ आवाज उठाते रहे हैं, लेकिन सरकारी सरपरस्ती हासिल होने के कारण ये गतिविधियां निर्बाध रूप से चलती रहती हैं। पर्यावरण संरक्षण के मकसद से ज्यादातर पहाड़ी इलाकों में बाहरी लोगों के जमीन-जायदाद खरीदने पर कानूनन पाबंदी है, लेकिन ज्यादा से ज्यादा राजस्व कमाने के चक्कर में इन पहाड़ी राज्यों की सरकारों के लिए इस कानून का कोई मतलब नहीं रह गया है और कई कंस्ट्रक्शन कंपनियां पहाड़ों में अपना कारोबार फैला चुकी हैं। जिन इलाकों में दो मंजिल से ज्यादा ऊंची इमारतें बनाने पर रोक थी, वहां अब बहुमंजिला आवासीय और व्यावसायिक इमारतें खड़ी हो गई हैं।
 
 बड़ी इमारतें बनाने और सड़कें चौड़ी करने के लिए जमीन को समतल बनाने के लिए विस्फोटकों के जरिए पहाड़ों की अंधाधुंध कटाई-छंटाई से पहाड़ इतने कमजोर हो गए हैं कि थोड़ी सी बारिश होने पर वे धंसने लगते हैं और पहाड़ों का जनजीवन कई-कई दिनों के लिए गड़बड़ा जाता है। पहाड़ी इलाकों में भवन निर्माण का कारोबार फैलने के साथ ही सीमेंट, बिजली आदि का उत्पादन करने वाली कंपनियों ने भी इन इलाकों में प्रवेश कर लिया है। पर्यावरण संबंधी कानूनों के तहत पहाड़ी और वनीय इलाकों में कोई भी औद्योगिक या विकास परियोजना शुरू करने के लिए स्थानीय पंचायतों की अनुमति जरूरी होती है, लेकिन राज्य सरकारें जमीन अधिग्रहण संबंधी अपने विशेषाधिकारों का इस्तेमाल करते हुए विकास के नाम पर कंपनियों के साथ खड़ी नजर आती हैं। इसके खिलाफ जन-प्रतिरोध का किसी सरकार पर कोई असर नहीं होता देख अब लोगों ने अदालतों की शरण लेनी शुरू कर दी है।
 
 कुछ महीने पहले हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए मनाली से लेकर रोहतांग तक के इलाके में किसी भी तरह के निर्माण कार्य पर रोक लगा दी थी और हाल में उसने कुल्लू-मनाली के आसपास व्यास नदी के किनारे शहरी नियोजन की भी एक सीमारेखा तय करने का आदेश दिया है। हाईकोर्ट ने राज्य सरकार के संबंधित महकमों से इस इलाके में व्यावसायिक गतिविधियों और विकास परियोजनाओं के चलते पर्यावरण को होने वाले नुकसान का ब्यौरा भी पेश करने को कहा है। यह सच है कि सरकारों की मनमानी पर अदालतें ही अंकुश लगा सकती हैं लेकिन सिर्फ अदालतों के भरोसे ही सब कुछ छोड़कर निश्चिंत नहीं हुआ जा सकता। पहाड़ों और पर्यावरण को बचाने के लिए जरूरत है एक व्यापक लोक चेतना अभियान की, जिसका सपना साठ के दशक में डॉ. राममनोहर लोहिया ने हिमालय बचाओ का नारा देते हुए देखा था

विनोद सिंह गढ़िया

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चन्द्रशेखर करगेती

खतरे में है भारत का मुकुट......



लेखक : अनिल प्रकाश जोशी

हमें हिमालय को लेकर सचेत हो जाना चाहिए, क्योंकि उसके वजूद पर खतरा मंडरा रहा है। अब तक हमने उसका दोहन ही किया है। अगर यह सिलसिला अब भी नहीं रुका तो इसे भारी नुकसान पहुंच सकता है और हमें लेने के देने पड़ सकते हैं । नौ राज्यों में फैले हिमालय का विस्तार देश की 17 प्रतिशत जमीन पर है। इसके 67 प्रतिशत भूभाग में जंगल हैं । देश के जल बैंक के नाम से सम्मानित हिमालय देश के 65 प्रतिशत लोगों के लिए पानी की आपूर्ति करता है और यह इनकी रोजी-रोटी से भी जुड़ा है । अपनी विशेष भौगोलिक संरचना के कारण इसे देश का मुकुट कहा गया है। इसकी स्थिति ऐसी है कि यह वाकई हमारे देश की सीमा का रक्षक है। हमारे सांस्कृतिक जीवन का यह एक अभिन्न अंग है, इसलिए लोकगीतों से लेकर राष्ट्रगान तक में इसे खास महत्व मिला है। पर दुर्भाग्य है कि मनुष्य ने इसमें सिर्फ अपना निजी फायदा ही देखा ।

ठीक है कि हिमालय के पास हमारे लिए बहुत कुछ है पर हमने सिर्फ उससे लिया, उसे दिया कुछ नहीं । अगर हमने उसके संरक्षण पर थोड़ा भी ध्यान दिया होता तो आज यह नौबत न आती । हिमालय की क्षमताएं असीमित हैं । बर्फ के पहाड़ के रूप में यहां 30 महान चोटियां 7000 मीटर की ऊंचाई तक फैली हुई हैं । बर्फ का यह भूभाग हिमालय की 22.4 प्रतिशत भूमि में है । देश के 1.3 प्रतिशत वन हिमालय में हैं और इसमें भी देश के अच्छे वनों का 46 प्रतिशत भाग भी इसी में है । यहां लगभग 1.3 भूमि परती है जो कि देश का लगभग 17.6 प्रतिशत है। यहां लगभग 74 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी में बसते है जब कि मैदानी क्षेत्र में यह संख्या 324 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी है । हिमालय में देश की 3.8 प्रतिशत जनसंख्या रहती है । खेती पर नजर डालें तो यहां मात्र 13.6 प्रतिशत भूमि पर खेती होती है जबकि मैदानों में यह प्रतिशत पचास है । खेती में बिजली की खपत लगभग 0.4 प्रतिशत है जब कि मैदानों की कुल बिजली खपत का 23 प्रतिशत खेती में उपयोग होता है । खेती के लिए ऋण यहां गिने-चुने लोग ही ले पाते हैं, जबकि मैदानों में उनकी तुलना में काफी लोग यह सुविधा उठाते हैं ।

सच तो यह है कि यहां के संसाधनों का उपयोग देश के दूसरे हिस्से के लोग ज्यादा करते हैं। यह भी कैसी विडंबना है कि एक तरफ तो हिमालय देश के 65 फीसदी लोगों को पानी उपलब्ध कराता है लेकिन दूसरी तरफ हिमालय के दायरे में रहने वाले लोगों के 1.4 हिस्से को ही पानी की सुविधा प्राप्त है । यहां बन रहे बांधों का लाभ भी यहां के लोग नहीं ले पाते। यहां आज भी 60 प्रतिशत से अधिक लोग मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित है। आज भी यहां ईंधन से लेकर पानी तक के लिए निवासियों को जूझना पड़ता है। इसलिए यहां से पलायन बढ़ता जा रहा है । वहां मिट्टी, पानी और जंगल पर गहराते संकट के कारण गांव के गांव खाली हो गए हैं। हिमालय की नैसर्गिक क्षमताओं पर गत दशकों के दोहन का प्रतिकूल असर पड़ा है । यह प्रक्रिया ब्रिटिश काल में ही शुरू हो गई थी। यहां के वनों का दोहन टिम्बर के नाम पर बड़े स्तर पर किया गया जो किसी ना किसी रूप में आज भी जारी है । बांधों की छेड़छाड़ जोरों पर है । नदी का महत्व बांध के अलावा नहीं समझा गया और हिमालय में इनकी बाढ़ सी आ गई है । इनसे वर्तमान व भविष्य में होने वाले पारिस्थितिक विनाश का कोई आकलन करने की सरकारों में हिम्मत ही नहीं । आज ऊर्जा की आवश्यकता पूरी करने के नाम पर हम हिमालय का सर्वनाश करने पर तुले हैं ।

हिमालय को लेकर बड़े स्तर पर कोई चिंता कभी नहीं जताई गई । फिर हिमालय के मुद्दों पर पहल हमेशा हिमालय में ही क्यों होती है? क्या हिमालय के संरक्षण का दायित्व यहीं के लोगों तक ही सीमित है ? गंगा, यमुना और ब्रह्मपुत्र जैसी बड़ी नदियों ने अपने उद्गम में तो बड़े चमत्कार नहीं किए पर देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ जरूर बने। हरित क्रांति व श्वेत क्रांति इन नदियों के बलबूते पर ही फली -फूली हैं । हिमालय की चिंता स्थानीय लोगों से ज्यादा उन्हें भी होनी चाहिए, जो इससे सीधे आर्थिक व पारिस्थितिक लाभ लेते हैं। देश की राजधानी दिल्ली कभी यमुना के प्रताप पर जीती रही है जो हिमालय की देन है । इस नदी के वर्तमान हाल पर में रोने वाले चंद सामाजिक संगठन ही हैं। बाकी किसी को कोई फिक्र नहीं है । ऐसा ही हाल गंगा का है जिसके संरक्षण के लिए शोरशराबा तो खूब हुआ है, पर हालात वही के वही हैं । आखिर क्यों हिमालय के मुद्दों पर स्थानीय लोगों के साथ-साथ पूरा देश खड़ा नहीं होता ? जबकि हिमालय से लाभ पूरा देश उठाता है ।

जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं में हवा-पानी ही है, जिसे नकारना हमारे लिए बहुत महंगा पड़ सकता है। हिमालय की वर्तमान हालत को सुधारा नहीं गया तो गंगा-यमुना का घटता पानी और वनों के बिगड़ते हालात हम सब को ले डूबेंगे। हिमालय की रक्षा का दायित्व सामूहिक है। पहाड़ों से लेकर समुद्र तक हम सब हिमालय के ऋणी हैं। आने वाली पीढ़ी के लिए घर-गाड़ी व संपत्ति न भी छोड़ें तो काम चल जाएगा मगर हिमालय से प्राप्त उत्पादों के बिना जीवन ही खतरे में पड़ जाएगा। इसलिए हिमालय को जीवित रखने में हम जुट जाएं तो कम से कम आने वाली पीढ़ी के प्राणों की रक्षा तो कर ही सकते हैं । आज जीवनदायी हिमालय संकट में है और इसकी छटपटाहट साफ दिख रही है ।

देश में राष्ट्रीय स्तर पर हिमालय के हालात पर मंथन करने की आवश्यकता है । क्योंकि इस विराट हिमालय की रक्षा टुकड़ों में नहीं की जा सकती, बल्कि इसके लिए एक राष्ट्रीय संकल्प की आवश्यकता है। इसके लिए तो आम आदमी की भागीदारी जरूरी है। जिस तरह से हिमालय ने अपने उपकारों से किसी को वंचित नहीं रखा और सबके पेट-पानी का खयाल रखा वैसे ही वह हम सबसे अपने ऋण से मुक्त होने का मौका अपनी रक्षा के रूप में मांग रहा है । हिमालय के ऋण से तो कभी मुक्त नहीं हो सकते पर हिमालय को बचाकर हम निश्चित ही नागरिक के रूप में अपने कर्त्तव्य का निर्वाह कर सकते हैं। आश्चर्य है जो लोग हिमालय में देवी-देवताओं का वास मानते हैं, वे भी इसकी हालत पर चिंतित नहीं हैं ।

आखिर कब उनकी नींद टूटेगी ?

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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हिमालय प्रहरी : ऋषिबल्लभ सुन्दरियाल  (हिमालय बचाओ-हिमालय बसाओ आन्दोलन के प्रणेता)by चन्द्रशेखर करगेती on Saturday, September 8, 2012 at 6:26pm ·साठ के दशक में देश और देश से बाहर हिमालय के सवाल तेजी के साथ उठाने लगे l  विकास के नये मॉडल और विश्व भर में विकास की होड़ से प्राकृतिक संसाधनों और अपनी सीमाओं के खतरे सबकी समझ में आने लगे l भरत-चीन जो आपस में भाई-भाई का नारा लगा रहे थे उनके लिये भी हिमालय और हिमालय के रास्ते अपनी सीमाओं पर खतरा लगने लगे l इसका परिणाम यह हुआ कि चीन ने 1962 में भारत पर हमला बोल दिया l ऐसे समय में हिमालय को बचाने की बात होने लगी l यह न केवल सामरिक दृष्टि से देश के लिये जरूरी था बल्कि यहाँ के प्रकृतिक धरोहरों पर स्थानीय लोगो की आर्थिकी को मजबूत करने का दर्शन भी था l इससे गाँव में लोगो के रहने से सीमा पार के खतरों को समझा जा सकता था l
 
हिमालय का सवाल भारत में ही नहीं पूरी दुनियां के हिमालयी क्षेत्रों ने उठाई l इस आंदोलन में दलाई लामा से लेकर और देशो के महत्वपूर्ण लोग भी शामिल हुए थे l समाजवादी चिन्तक राममनोहर लोहिया ने हिमालय बचाओ मुहिम का नेतृत्व किया l ऋषीबल्लभ सुन्दरियाल इस आन्दोलन से जुड़े l उन्होंने हिमालय बचाने के साथ हिमालय बचाने की बात कही l उनका मानना था कि हिमालय की हिफाजत तभी हो सकेगी जब हिमालय के लोग वहाँ रहेंगे l
 
दरअसल सीमाओं की सुरक्षा का सवाल सबसे पहले तब उठा जब चीन ने भारत की उत्तरी सीमा पर आक्रमण कर दिया l चीन के इस आक्रमण का घोर विरोध हुआ l देश की एकता और अखंडता के के लिये देश में नयी चेतना का संचार भी हुआ l जहाँ सरकार ने अपनी तरह से सीमाओं के नियोजन के बारे में सोचा वहीं सीमाओं से लगी आबादी में नई चेतना जागी l चीन के आक्रमण के बाद सीमावर्ती क्षेत्रों में भय और दहशत का माहौल था l ऐसे समय में सीमाओं पर रहने वाले लोगो के मनोबल को बनाये रखने, देश की सुरक्षा, स्वाभिमान और अस्तित्व को बचाने का सकंट भी था l इसी उद्देश्य से हिमालय बचाओ के प्रति एक अभियान की शुरुआत हुई l
 
इसकी अगुवाई समाजवादी चिन्तक राममनोहर लोहिया ने की l उनके इस अभियान से कई लोग जुडते गये l हिमालय बचाओ आन्दोलन से ऋषीबल्लभ जब जुड़े तों उन्होंने फिर इसे मनोयोग से आगे बढ़ाना शुरू किया l जैसा कि उनका स्वभाव और काम करने की शैली थी उन्होंने इसे लोगो तक पहुंचाने के लिये दिल्ली में एक सम्मलेन की योजना बनाई l ऋषीबल्लभ सुन्दरियाल जी और उनके साथी इस काम में जुट गये l दिल्ली के कोने-कोने में लोगो से संपर्क किया गया, सम्मलेन को सफल बनाने और लोगो को जोड़ने के लिये वित्तीय साधन भी जुटाये गये l नई दिल्ली के लोधी कॉलोनी में 24-फरवरी-1963 को यह ऐतिहासिक सम्मलेन हुआ l सम्मलेन की अध्यक्षता के लिये ऋषीबल्लभ सुन्दरियाल जी ने कर्मभूमि साप्ताहिक के संपादक भैरवदत्त धूलिया से आग्रह किया, धूलिया जी ने इस सम्मलेन में आने की अपनी सहमति दे दी l
 
इस सम्मलेन में मुख्य अतिथी के रूप में उन्होंने समाजवादी चिन्तक राममनोहर लोहिया को भी आमंत्रित किया जो पहले से ही हिमालय के सवालों को उठा रहे थे l अन्य विशिष्ट लोगो में सांसद प्रकाश वीर शास्त्री और बलराज मधोक शामिल हुए l अपने उदघाटन भाषण में राममनोहर लोहिया ने हिमालय को बसाने की जरुरत और इस आन्दोलन की प्रासंगिकता पर प्रकाश डाला l उन्होंने हिमालय के उन तमाम संदर्भो को भी उठाया जो आज भी वैसे ही है l लोहिया ने हिमालयी क्षेत्रों के लिये अलग से नीतियां और विकास की अलग तरह की सोच की बात कही l उन्होंने कहा कि हिमालय सिर्फ एक टुकड़ा नहीं हैं, बल्कि देश की धरोहर है इस धरोहर को बचाने के लिये हिमालय को हर तरह से सुरक्षा प्रदान करनी होगी l
 
इस सम्मलेन की अध्यक्षता करते हुए उस समय के जाने माने पत्रकार और कर्मभूमि के संपादक भैरव धूलिया ने कहा कि हिमालय की हिफाजत के लिये हिमालय के लोगो के जीविकोपार्जन के साधन जुटाने चाहिये l इस सम्मलेन में यह बात भी उभर कर आयी कि हिमालय का अस्तित्व तभी है जब हिमालय को बचाने के लिये वहाँ के लोग गाँवों में रहेंगे l पलायन को रोकने की बात इस सम्मलेन में प्रमुखता से उठायी गयी l सबका मानना था कि हिमालयी क्षेत्र के लोगो को वहाँ बसाया जाये तों भविष्य में सीमाओं की सुरक्षा हो सकेगी l यह व्यावहारिक दृष्टि से भी जन जन की भावना थी l हिमालय बचाओ आन्दोलन से प्रेरित होकर कमला नगर,तिकोना पार्क,बारह टूटी,सदर बाजार और रामलीला मैदान में इस तरह के सम्मलेन आयोजित हुए l इसके अलावा गढवाल के कांसखेत, पाबो कुमाऊं के चौबटिया में भी हिमालय बचाओ के लिये सम्मलेन आयोजित किये गये l
 
हिमालय बसाओ आन्दोलन के लिये आयोजित इस सम्मेलनों के बारे में 10-नवम्बर-1973  में “उतिष्ठ” साप्ताहिक पत्र में कुमारी वैजयन्ती नेगी, जो दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्रा थी ने अपने विचार व्यक्त किये “ इस सम्मलेन का उद्देश्य था कि पहाड़ों को उजडने से बचाया जाये l” पहाड़ों की बिगड़ती हुई हालत, पहाड़ों से लोगो का पलायन होना,बोरिया बिस्तर बांध कर मैदानों का रास्ता नापना जैसे कुछ ऐसे कारणों से पर्वतीय लोगो में ऐसी अविश्वास की भावना फ़ैली है कि पहाड़ में कुछ नहीं रखा है l हिमालय बसाओ सम्मलेन का उद्देश्य यह था कि प्रवासी लोग अपने घरों को जाकर वहाँ उनत्ति का मार्ग प्रशस्त करें l
 
इस सम्मेलनों में सभी को इस बात का खेद था कि जो कोई भी व्यक्ति शिक्षित होने लगता है वह पहाड़ में नहीं रहना चाहता l ऐसे कौनसे कारण है कि पहाड़ उजडते जा रहे हैं ? उन कारणों को ढूँढ कर निकालना और इसके समाधान की और बढ़ना भी इसके सम्मलेन का दूरगामी महत्व था l उस समय जिन सवालों से टकराने और उनके हल खोजने की बात हो रही थी, वस्तुत: वह आज के पलायन के दैत्याकार आकार को बढ़ने से रोकने की समझ थी l
 
हिमालय बचाने का जो आन्दोलन 60 के दशक से अपने प्रारम्भिक दौर में शुरू हुआ उसे मजबूती से आगे बढाने के लिये हिमालय बसाने का दर्शन सामने आया l यह विचार ऋषीबल्लभ सुन्दरियाल का था l उनका स्पष्ट मानना ठ कि हिमालय बचाने के नारे को तभी मूर्त रूप दिया जा सकता है, जब हम हिमालय पर स्थित गाँवों को खाली होने से रोकेंगे l उन्हें इस बात का आभास था कि प्रगति और विकास के नाम पर भविष्य में जो सबसे बड़ा हमला होगा, वह प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर जगहों पर होगा l
 
इसलिये हिमालय बसाओ आन्दोलन को हमें एक बड़े विचार के रूप में लेना चाहिए l पहाडो की जो हालत उस पर साठ के दशक में ही गंभीरता से सोचा जाता तों शायद आज हिमालय को दरकने और उस पर शोषणकारी तत्वों के  काबिज होने से बचा जा सकता था l अब तों सरकारें भी हिमालय का अपने मुनाफे के लिये दोहन कर रही हैं l ऋषीबल्लभ सुन्दरियाल जी का हिमालय बसाओ आन्दोलन अब और प्रासंगिक हो गया है l हिमालय के अस्तित्व पर मंडरा रहे आसन्न को देखते हुए जन सहभागिता से अब एक और नये आंदोलन  “हिमालय बसाओं-हिमालय बचाओ” की महती जरुरत आन पड़ी है, जिसे वक्त रहते समझ लेना हिमालयवासियों के लिये जरूरी है, अगर जीवनदायी हिमालय का अस्तित्व बचाना है l
 
(आभार: विनोद सुन्दरियाल  लेखक, हिमालय प्रहरी: ऋषीबल्लभ सुन्दरियाल स्मारिका)           

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चन्द्रशेखर करगेती
पंचेश्वर बाँध: झेलनी ही होगी एक और बड़े विस्थापन की त्रासदी
 लेखक : रोहित जोशी
 
 कुछ समय पूर्व ‘नैनीताल समाचार’ ने उत्तराखण्ड की नदियों पर प्रस्तावित छोटे-बड़े बाँधों को काले धब्बे से दर्शा कर एक नक्शा प्रकाशित किया था। सैकड़ों बाँधों से लगभग पूरा नक्शा ही काला हो गया था। बाँधों से उभरी यह कालिख प्रतीकात्मक रूप में तथाकथित ऊर्जा प्रदेश के भविष्य को भी रेखांकित करती है।
 
 वर्तमान में उत्तराखण्ड में सबसे बड़ा बाँध टिहरी बाँध है। बाँध निर्माण के पिछले चार वर्षों से इस पर बनी जलविद्युत परियोजना के जो परिणाम आ रहे हैं, उससे उत्तराखण्ड सरकार की ऊर्जा नीति सवालों के घेरे में आ गई है। दावा था कि टिहरी बाँध 2,400 मेगावाट विद्युत का उत्पादन करेगा। लेकिन पिछले चार सालों से टिहरी जल विद्युत परियोजना सिर्फ 1,000 मेगावाट विद्युत का उत्पादन ही कर पा रही है। सैकड़ों गाँवों, हजारों लोगों के विस्थापन के साथ उत्तराखंड की एक महत्वपूर्ण नागर सभ्यता को झील में डुबो देने वाले इस बाँध का औचित्य क्या है, यह समझ नहीं आ रहा है। बाँध से पूरे उत्तराखण्ड के विकास की उम्मींदें लगाए लोग विद्युत के इतने कम उत्पादन को देख हतप्रभ हैं। सवाल यह भी उठ रहा है कि टिहरी बाँध के नाकाम हो जाने के बाद अब भी बांधों के लिए लालायित हो रही नौकरशाही व नेतृत्व के कौन से हित हैं जो अब पंचेश्वर बांध के लिए मंसूबे बांधे बैठे हैं।
 
 नेपाल-उत्तराखण्ड के बीच बहने वाली काली नदी पर टिहरी से तीन गुना बड़े पंचेश्वर बाँध (पंचेश्वर बहुउद्देश्यीय परियोजना) पर सरकारी तौर पर सहमति नजर आ रही है। भारत-नेपाल का 230 किमी. का सीमांकन करती महाकाली नदी पर पंचेश्वर में बनने वाले इस बांध के प्रस्ताव ‘भारत-नेपाल महाकाली संधि’ पर 12 फरवरी 1996 को दोनों देशों के हस्ताक्षर हो चुके हैं। नवम्बर 1999 में काठमांडू में एक संयुक्त परियोजना प्राधिकरण (जेपीओ) गठित की गई। इसके द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट को नेपाल में उस समय विपक्षी दल नेकपा (एमाले) ने संसद में पास नहीं होने दिया था। यह जेपीओ भी 2002 में रद्द कर दिया गया। 2004 में दोबारा बनाए जेपीओ की पहली मीटिंग इसी वर्ष दिसम्बर में हुई। लेकिन 2005 में प्रस्तावित इसकी दूसरी मीटिंग नेपाल में आई राजनीतिक अस्थिरता के चलते टल गई। इसके बाद नेपाल में हुए चुनावों में सी0पी0एन0 (माओवादी) को अच्छी बढ़त मिली और पुष्पकमल दहल ‘प्रचण्ड’ प्रधानमंत्री बने। प्रधानमंत्री बनने के एक दिन पूर्व एक साक्षात्कार में बड़े बांधों के प्रति प्रचंड ने नकारात्मक रवैया दिखाया था।
 
 इससे कयास लगाए जा रहे थे कि नेपाल की माओवादी सरकार पंचेवर बांध को खारिज कर देगी। लेकिन बतौर प्रधानमंत्री प्रचण्ड की टिहरी बांध यात्रा से फिर पंचेवर का जिन्न सिर उठाने लगा। प्रचंड के बड़े बांधों के विरोध में कुछ न कहने से भी इस आशंका को बल मिला। टीवी चैनलों में उन्हें बांध भ्रमण के बाद गदगद देखा गया। प़त्रकारों द्वारा पंचेश्वर बांध के निर्माण की बात पूछे जाने पर उन्होंने सकारात्मक संकेत ही दिए। प्रचण्ड का यह रवैया उनकी पार्टी का आज का स्टैंड बन गया है। नेकपा (माओवादी) के प्रवक्ता दीनानाथ शर्मा से दूरभाष पर हुई बातचीत से इस बात की पुष्टि हुई। उन्होंने कहा कि ‘‘हम इस बाँध के पूर्णतया समर्थन में हैं। पार्टी विकास के विरोध में नहीं हो सकती। लेकिन इस बात का पूरा खयाल रखा जाएगा कि बाँध से प्रभावित होने वाले क्षेत्र की जनता के पुनर्वास और मुआवजे की पूरी व्यवस्था हो और उनके हकों के साथ खिलवाड़ न हो।’’ नेकपा (माओवादी) कुछ समय पहले तक यह मानती आई है कि ‘भारत-नेपाल महाकाली संधि’ भारत और नेपाली जनता की संधि न होकर नेपाल की राजशाही द्वारा भारत और अमेरिका के दबाव में की गई संधि थी। लेकिन यहां उनका रुख कुछ बदला है और इससे पंचेश्वर बाँध निर्माण पर पुनर्विचार की संभावनओं पर विराम लगता दिख रहा है।
 
 पंचेश्वर बाँध 315 मी. ऊँचा विश्व में दूसरा सबसे बड़ा बाँध होगा। इस बाँध की क्षमता 6,480 मेगावाट आंकी जा रही है। इस परियोजना पर दो चरणों में काम होना है। पहले 315 मीटर ऊँचा बाँध पंचेश्वर में महाकाली और सरयू नदी के संगम से 2 किमी नीचे बनना है। दूसरे चरण में 145 मीटर ऊंचाई वाला बाँध इससे नीचे महाकाली की अग्रगामी शारदा नदी पर पूर्णागिरी में। बाँध की इस बहुउद्देश्यीय परियोजना में भारत और नेपाल का 134 वर्ग किमी क्षेत्र डूब जाना है। इसमें भी 120 वर्ग किमी का क्षेत्र उत्तराखण्ड का है। सिर्फ 14 वर्ग किमी का क्षेत्र नेपाल का डूबेगा। दोनों ही ओर महाकाली और सहायक नदियों की उपजाऊ तलहटी में बसे प्रमुखतः कृषि पर जीवनयापन करने वाले 115 गांवों के 11,361 परिवार प्रभावित होंगे। ‘टिहरी विस्थापन’ से उबर भी न पाए उत्तराखण्ड के लोगों को एक और बड़े विस्थापन से जूझने की तैयारी करनी है। नेपाल ने अपने प्रभावित क्षेत्र के गांवों के पुनर्वास का एक नक्शा भी तैयार कर लिया है। भारत की ओर से क्षेत्रीय लोगों को ऐसे किसी भी नक्शे की जानकारी नहीं है।
 
 विस्थापन से पुनर्वास के अतिरिक्त मध्य हिमालयी क्षेत्र में बनने वाले इस बृहद बांध से कई समस्याएं हैं। भूगर्भवेत्ताओं का मानना है कि ‘पंचेश्वर’ भूगर्भीय हलचलों की दृष्टि से ’जोन 4’ में है। बांध में रोके जाने वाले पानी से यहां तकरीबन 80 से 90 करोड़ घन लीटर का दबाव पड़ेगा। यह दबाव पहाड़ों के भीतर संवेदनशील स्थिति में अवस्थित चट्टानों को धंसाने का काम कर सकता है। इसके कारण बड़े भूकम्पों की आशंका है। विगत 15 वर्षों में मध्य हिमालय के ‘सीसमिक 4 जोन’ में रिएक्टर पैमाने पर 5 अंकों की तीव्रता से ऊपर वाले दस भूकम्प दर्ज हुए हैं। इनमें से पांच भूकम्पों का केन्द्र पंचेश्वर से 10 किमी की दूरी के अंदर ही रहा है। भूकम्पीय खतरों के अतिरिक्त पर्यावरणीय दृष्टि से भी यह बांध मध्य हिमालय के इको सिस्टम पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा। इस बांध से नदियों के किनारे बसे 134 वर्ग किमी के क्षेत्र में आने वाले चौड़ी पत्ती के कई जंगल अपनी जैव विविधता के साथ डूब जाएंगे। इसके अलावा बांध विशेषज्ञों का मानना है कि बड़े बांधों की उम्र लम्बी नहीं है। इसीलिये इन पर किए जा रहे बड़े निवेशों का कोई भविष्य नहीं है। पंचेश्वर बांध के लिए बनाई गई रिपोर्ट में इसकी उम्र 100 वर्ष आंकी गई है। लेकिन कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि यह बांध केवल 25 से 30 वर्षों में ही नदी के साथ बहकर आने वाले गाद के चलते बेकाम हो जाएगा। ऐसी स्थिति में केवल 25 से 30 वर्षों की एक योजना के लिए सैकड़ों वर्षों से नदियों के किनारे बसे हिमालयी समाज को विस्थापित कर दिया जाना जायज नहीं ठहराया जा सकता।
 
 बाँध से उत्तराखण्ड के लिए सबसे महत्वाकांक्षी मानी जा रही व वर्तमान रेल बजट में सर्वेक्षण के लिए संस्तुत हुई टनकपुर-बागेश्वर रेल लाइन खटाई में पड़ जाएगी। इस रेल लाइन से पूरे कुमाऊँ क्षेत्र में नई आर्थिक लहर पैदा होने की उम्मीद की जा रही थी। बांध से इस रेल लाइन का भविष्य अंधकारमय हो जाएगा। टनकपुर से जौलजीवी रेल लाइन के सर्वेक्षण को इस रेल बजट में हरी झण्डी मिली है। यह रेल लाईन महाकाली नदी के किनारे ही बननी है। इसे भारत-नेपाल के सीमावर्ती गांवों के साथ भारत के लिए सामरिक महत्व का भी माना जा रहा था। विदित हो पड़ोसी देश चीन सीमावर्ती तिब्बत के पठारों पर रेल दौड़ा रहा है।
 
 पंचेश्वर बहुउद्देश्यीय परियोजना मुख्यतः विद्युत उत्पादन के अतिरिक्त, सिंचाई, पेयजल और बिहार व उत्तर प्रदेश में आने वाली बाढ़ पर नियंत्रण के उद्देश्य के लिए बनाई गई है। उत्तराखण्ड का एक बड़ा क्षेत्रफल इस परियोजना के तहत डूब जाना है और एक बड़ी आबादी इससे प्रभावित भी होनी है। ऐसे में परियोजना से कितना फायदा उत्तराखण्ड को मिलेगा यह एक महत्वपूर्ण मसला है। जैसा कि अब तक तय है परियोजना से उत्पादित होने वाली विद्युत का 12 प्रतिशत हिस्सा उत्तराखण्ड को मिलना है। टिहरी बांध में निर्धारित 2,400 मेगावाट से सिर्फ 1,000 मेगावाट ही विद्युत उत्पादन हो पा रहा है। ऐसे में पंचेश्वर से भी तकरीबन 2,000 मेगावाट के करीब की उम्मींद की ही जा सकती है। तो यहाँ उत्तराखण्ड को मिलने वाली 12 प्रतिशत बिजली क्या यहां डूबने वाले 120 वर्ग किमी और होने वाली विस्थापन की त्रासदी की सही कीमत है ? यह बड़ा प्रश्न है।
 इस सब के बीच दोनों ही देशों की नौकरशाही और नेतृत्व के इस परियोजना के प्रति अति उत्साह को भी परखने की भी जरूरत है। दरअसल इस परियोजना में तकरीबन 22 हजार करोड़ रुपये खर्च होने हैं।
 
 पूंजी के इस बड़े खेल में दोनों देशों के परियोजना में विशेष रुचि रखने वालों के हितों को समझा जा सकता है। नेकपा (माओवादी) द्वारा बांध को समर्थन के बाद अब नेपाल की ओर से इस बांध के व्यापक विरोध की उम्मीद नहीं की जा सकती। भारत में भी इसका विरोध करने वाले आंदोलनकारियों में इससे पहले टिहरी बांध के विरोध में शामिल भूगर्भवेत्ता, पर्यावरणविद, संस्कृतिकर्मियों, सामाजिक संगठनों के अतिरिक्त यहां की क्षेत्रीय जनता है। एक व्यापक प्रतिरोध के बावजूद भी जिस तरह टिहरी बांध को बनने से नहीं रोका जा सका, उस तरह ही पंचेश्वर बांध को बनने से रोका जाना असम्भव तो नहीं पर कठिन बहुत है।

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चन्द्रशेखर करगेती
ऊर्जा की राष्ट्रीय हवस और शिकार होता आम जन
 लेखक : रोहित जोशी
 "...हमारे देश में नीतियों के स्तर पर यह कितना त्रासद है कि हमारा 'राष्ट्रहित' जनता के हित से मेल नहीं खाता जब्कि कॉरपोरेट के हित 'राष्ट्रहितों' से एकदम मिलते हैं। ऐसा लगता है जैसे  कॉरपोरेट हित ही 'राष्ट्रहित' है और इसके लिए जनहितों की कुरबानी एक व्यवस्थागत् सत्य। इसलिए नदियों के जलागम में बसे समाजों की ओर से जबरदस्त प्रतिरोध का दमन करते हुए सरकारें देश भर की नदियों को बांध-बांध कर बांध परियोजनाऐं बनाती जा रही हैं ।"
 
 चलिए हम आंख मूंदकर मान लेते हैं कि अबके उत्तरकाशी में और पिछले कुछ सालों से पूरे उत्तराखंड में लगातार प्राकृतिक आपदाओं ने जिस तरह जानलेवा होकर कहर बरपाया है, इनमें प्रदेश में जल विद्युत परियोजनाओं के लिए बेतहाशा बनाई जा रही झीलों का कोई योगदान नहीं है। लेकिन जिस गति से पूरे प्रदेश में जलविद्युत परियोजनाएं और इनके लिए झीलें बनाई जा रही हैं इसी गति से प्राकृतिक आपदाएं भी साल दर साल खतरनाक होती जा रही हैं। ऐसे में इनके प्रभाव से हम कब तक आंखें मूंदे रह पाऐंगे?
 
 पिछले दिनों उत्तरकाशी से ऊपर के इलाके में बादल फटने से भागीरथी और असीगंगा का जलस्तर पांच मीटर बढ़ गया और इससे पूरे उत्तरकाशी में भयंकर तबाही हुई। इसमें 300 से अधिक घर तबाह हो गए, 31 लोग मारे गए। 7 मोटरपुल ध्वस्त हो गए। ज्योश्याड़ा का महत्वपूर्ण झूला पुल भी टूट गया। 30 किमी की मुख्य सड़क पूरी तरह टूट गई। बाजार, पुलिस स्टेशन, फारेस्ट का फायर स्टेशन सब तबाह हो गया। मनेरी भाली परियोजना के फेज 2 में नदी के साथ बह कर आई लकडि़यों का झुण्ड भर गया जिससे परियोजना भी ठप पड़ गई। इसके बाद तो पूरे प्रदेश की सारी परियोजनाओं को एक दिन के लिए बंद कर देना पड़ा था।
 
 पहाड़ में अब ये कोई नई बात नहीं रही। पिछले सालों में पूरे प्रदेश में बादल फटने की घटनाओं और इससे हुई तबाही में इस कदर बढ़ोत्तरी हुई है कि बरसात का मौसम पहाड़ों में दहशत का मौसम लगने लगा है। पूरे प्रदेश में ऐसा कोई जिला नहीं बच रहा है जहां इस मौसम में कोई बड़ी तबाही ना आई हो।
 
 बादल फटना और भूस्खलन आदि बेशक अप्राकृतिक नहीं हैं। लेकिन जिस तरह पिछले समय में इन प्राकृतिक आपदाओं में बढ़ोत्तरी हुई है यह सिर्फ प्राकृतिक नहीं है। दुर्लभ मानी जाने वाली बादल फटने की घटनाऐं, तबाही के वीभत्स मंजर के साथ इतनी आम हो चलीं हैं कि इसकी वजहों की पड़ताल की ही जानी चाहिए। बेशक मानावीय दखल ने ही इन प्राकृतिक आपदाओं को बढ़ाया है। कई हजार सालों से सिर्फ बहते रहने की अभ्यस्त हिमालयी नदियों को जगह-जगह जबरन रोक कर जलविद्युत परियोजनाओं के लिए जब झीलें बना दी गई हों तो यहां के भूगोल और मौसम की ओर से कुछ प्रतिक्रियाएं तो स्वाभाविक ही हैं। तो हम ये क्यों ना मान पाएं कि प्रदेश भर में बादल फटने की बढ़ी घटनाओं और इनसे हुई तबाही के पीछे इन जलविद्युत परियोजनाओं का भी बड़ा हाथ है।
 
 बरसात और बरसात के बढ़कर ‘बादल फट’ जाने की स्थिति पैदा हो जाने को समझना राॅकेट साइंस की तरह जटिल नहीं है। हम बहुत शुरूआती कक्षाओं में विज्ञान की किताबों से इसे समझ सकते हैं। पानी के वाष्पन से बादल बनता है और फिर ये बादल बरस जाता है। यही बरसात है। और पहाड़ों में बादलों का भारी मात्रा में एक जगह जमा हो कर एक निश्चित इलाके में बेतहाशा बरसना बादल का फटना है। चंद मिनटों में ही 2 सेंटीमीटर से ज्यादा बारिश हो जाती है। बादल फटने की घटना पृथ्वी से तकरीबन 15 किमी की ऊंचाई पर होती है। भारी नमी से लदी हवा पहाडि़यों से टकराती है इससे बादल एक क्षेत्र विशेष में घिरकर भारी मात्रा में बरस जाते हैं। यही बादल का फटना है। क्या पहाड़ में अप्रत्याशित रूप से बादल फटने की बढ़ी घटनाओं में पिछले समय में जलविद्युत परियोजनाओं के लिए बनाई कई कृत्रिम झीलों से हुए वाष्पन और इससे पर्यावरण में आई कृत्रिम नमी का कोई योगदान नहीं समझ आता?
 
 पिछले महीने, मैं उत्तरकाशी और टिहरी जिलों में घूम रहा था। ‘न्यू टिहरी शहर’, एक सांस्कृतिक, ऐतिहासिक शहर ‘टिहरी’ को डुबोकर तैयार की गई कंक्रीट की घिच-पिच। न्यू टिहरी में जाकर समझ आता है कि- एक शहर सिर्फ इमारतों का जखीरा भर नहीं होता, ‘कुछ और’ होता है जो उसे जिंदादिल शहर बनाता है। टिहरी झील ने इस ‘कुछ और’ को डुबो दिया है। और पुरानी टिहरी का जो कुछ बच रहा है वे न्यू टिहरी की बचकानी इमारतों के भीतर कसमसाता हुआ दम तोड़ रहा है। एक ग्रामीण कस्बाई शहर या गांव को उठाकर दूसरी जगह रख देना किसी मैट्रोपोलिटन शहर में एक फ्लैट या अपार्टमैंट से दूसरे में शिफ्ट कर जाने सरीखी सामान्य घटना नहीं है। शहर/गांव को उठाने की कोशिश में उसकी चासनी वहीं निथर जाती है और नई जगह रसहीन लोथड़ा ही पहुंच पाता है। न्यू टिहरी ऐसा ही सूखा शहर है।
 
 न्यू टिहरी में बरसात बहुत है। पुराने लोग बताते हैं कि जब टिहरी शहर था, वहां झील नहीं थी, तो इस झील के बगल की पहाड़ी में, जहां अब न्यू टिहरी शहर बना दिया गया है, बरसात बहुत कम होती थी। लेकिन 40 किमी की झील के बनने के बाद वहां इससे हुए वाष्पन से बादल बनता है और बहुत बरसात होती है। इस घटना को स्थानीय बोलचाल में ‘लोकल मानसून’ का उठना कहते हैं। यूं ही ढेर सारी प्राकृतिक झीलों वाले जिले नैनीताल में भी इसी तरह ‘लोकल मानसून’ से बारिश बहुत होती है। बेशक झीलों का पहाड़ों में बरसात को लेकर अपना रोल है। प्राकृतिक झीलों का तो अपना व्यवहार है, जो अक्सर संतुलित रहता है। लेकिन कृतिम झीलों के साथ प्रकृति अपना व्यवहार संतुलित नहीं बना पा रही है। इसका प्रतिफल बादल फटने और बादल फटने से हुए भूस्खलनों के रूप में दिखता है जिससे हर साल भीषण तबाही हो रही है। हिमालय दुनिया के सबसे ताजा पहाड़ों में है जिसकी चट्टानें अभी मजबूत नहीं हैं। एक तो यह वजह है और दूसरी वजह, जलविद्युत परियोजनाओं के लिए टनल निर्माण में पहाड़ों को विस्फोटकों के प्रयोग से जिस तरह खोखला और कमजोर कर दिया गया है, इन दो वजहों से ना सिर्फ बादल फटने बल्कि सामान्य बरसात में भी भूस्खलन त्रासदी बन रहा है।
 
 टिहरी जैसे दानवाकार बांध के साथ ही पूरे प्रदेश की 17 नदियों में तकरीबन 558 बांध प्रस्तावित हैं। इनमें से कुछ बन भी चुके हैं और कुछ निर्माणाधीन हैं। ये बांध अक्सर बड़े बांधों के निर्धारित मानक में ही आते हैं। इन बांधों के लिए पहाड़ों को खोखला कर 1500 किमी की सुरंगें बनाई जाएंगी। इन सुरंगों को बनाने में विस्फोटकों का प्रयोग होगा और इससे पहाड़ जितने कमजोर होंगे, सो अलग।
 
 जिस उत्तरकाशी में आज बादल फटने से भागीरथी उफान में आ गई है यहां मनेरी भाली बांध परियोजना (फेज-1 और फेज-2) की दो झीलें हैं (एक तो बिल्कुल शहर में और दूसरी इसी नदी में शहर से कुछ ऊपर)। इसी नदी के सहारे आप तकरीबन 25-30 किमी नीचे उतरें तो चिन्यालीसौड़ में ‘विकास की महान प्रतीक’, 40 किमी लम्बी ‘टिहरी झील’ भी शुरू हो जाती है। स्थानीय लोगों के अनुसार पिछले समय में इस पूरे इलाके में बरसात काफी बढ़ी है। और ऐसे ही अनुभव हर उस इलाके के हैं जहां विद्युत परियोजनाओं के लिए कृत्रिम झीलें बनाई गई हैं।
 
 चलिए हम एक बार फिर आंख मूंद लेते हैं, और मानने की कोशिश करते हैं कि अब तक जो प्राकृतिक आपदाऐं हुई हैं ये अपने सहज स्वरूप में ही हुई हैं और इसमें ‘मानवीय हस्तक्षेप’ का कोई हाथ नहीं है। लेकिन तो भी क्या भविष्य में बनने वाली 558 जल विद्युत परियोजनाओं की झीलें, हमारी उपरोक्त आशंकाओं पर हमें सोचने को मजबूर नहीं करती हैं? और यदि इस आशंका पर सोचना होगा तो स्वाभाविक ही इस बात पर भी सोचना होगा कि इन खतरनाक परियोजनाओं के लिए लालायित सरकारों और बांध बनाने वाली कंपनियों के वे कौन से हित हैं जो पहाड़ी समाज को इन तबाहियों मंे धकेलने को प्रेरित कर रहे हैं। 
 
 पिछले दौर में पर्यावरण को लेकर वैश्विक स्तर पर चिंताएं बढ़ी हैं और अंतराष्ट्रीय संगठनों के विविध सम्मेलनों में पर्यावरणीय चिंताएं ही केंद्र में रही हैं। इन सम्मेलनों में मुख्य फोकस अलग-अलग देशों द्वारा  CO2  और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने को लेकर दबाव बनाने का रहा है। खासकर कम औद्यौगीकृत और विकासशील, तीसरी दुनिया के देशों पर यह दबाव ज्यादा है। क्योंकि ये देश इन गैसों का उत्सर्जन अपने औद्यौगिक विकासरत् होने के चलते अधिक करते हैं। इन्हीं देशों के क्रम में भारत भी है। भारत सबसे अधिक CO2 उत्सर्जित करने वाले देशों में पांचवे स्थान पर है और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में यह स्थान सातवां है।
 
 जल विद्युत परियोजनाओं के बारे में माना जाता है कि इसमें कार्बन का उत्सर्जन कम होता है और प्राकृतिक जलचक्र के चलते पानी की बरबादी किए बगैर ही इससे विद्युत ऊर्जा उपलब्ध हो जाती है। वहीं कोयले या अन्य ईधनों से प्राप्त ऊर्जा में मूल प्राकृतिक संसाधन बरबाद हो जाता है और कार्बन का उत्सर्जन भी अधिक होता है। इस कारण विश्व भर में पर्यावरणविद् ऊर्जा प्राप्त करने की सारी ही तकनीकों में से हाइड्रो पावर की वकालत करते हैं। यही कारण है कि भारत भी अन्तराष्ट्रीय स्तर पर  CO2 और ग्रीन हाउस गैसें उत्सर्जित करने के मामले अपनी साख सुधारने के लिए हाइड्रो पावर की ओर खासा ध्यान दे रहा है। पिछले समय में ऊर्जा आपूर्ति की कमी ही भारत की विकासदर को तेजी से बढ़ाने के लिए सबसे बढ़ी रूकावट रही है। एक अनुमान के अनुसार पिछले दो दशकों में भारत की ऊर्जा जरूरत 350 प्रतिशत बढ़ी है। इसका मतलब यह है कि भारत को अपनी ऊर्जा उत्पादन की वर्तमान क्षमता से तीन गुना अधिक ऊर्जा की आवश्यकता है। सवाल यह है कि यह कहां से पूरी होगी? जब्कि यह आवश्यकता यहीं पर स्थिर नहीं है बल्कि लगातार बढ़ती जा रही है।
 
 खैर! अंतर्राष्ट्रीय दबाव में भारत का फोकस अभी कार्बन का उत्सर्जन कम कर अधिकतम ऊर्जा प्राप्त कर लेने में है और इसके लिए हाइड्रो पावर परियोजनाएं ही मुफीद हैं। यही राष्ट्रहित में है। हमारे देश में नीतियों के स्तर पर यह कितना त्रासद है कि हमारा ‘राष्ट्रहित‘ जनता के हित से मेल नहीं खाता जब्कि  कॉरपोरट के हित ‘राष्ट्रहितों’ से एकदम मिलते हैं। ऐसा लगता है जैसे  कॉरपोरट हित ही राष्ट्रहित है और इसके लिए जनहितों की कुरबानी एक व्यवस्थागत् सत्य। इसलिए नदियों के जलागम में बसे समाजों की ओर से जबरदस्त प्रतिरोध का दमन करते हुए सरकारें देश भर की नदियों को बांध-बांध कर बांध परियोजनाऐं बनाती जा रही हैं। कार्बन के उत्सर्जन मामले में यह हाइड्रोपावर परियोजनाएं चाहे पर्यावरण पक्षधर दिखती हों लेकिन अनुभव और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हुए कई सर्वेक्षण बताते हैं कि इन बांध परियोजनाओं ने किस तरह से मानवीय त्रासदियों को तो जन्म दिया ही है साथ ही प्रकृति के साथ भी बड़ी छेड़छाड़ की है। इससे मानव सभ्यता के इतिहास में अहम रही कई नदियों के जलागम, पर्यावरण और जैवविविधताओं पर भी गहरा असर पड़ा है। इन नदियों के किनारे बसा इन्हीं पर निर्भर समाज भी अपने पूरे अस्तित्व के साथ संकट में घिर गया है। वल्र्ड कमिशन ऑफ डैम्स (डब्लु सी डी) की एक रिपोर्ट कहती है कि बांध जरूर कुछ ‘‘वास्तविक लाभ’’ तो देते हैं लेकिन समग्रता में इन बांधों के नकारात्मक प्रभाव ज्यादा हैं जो कि नदी के स्वास्थ, प्रकृति, पर्यावरण और लोगों के जीवन को बुरी प्रभावित करते हैं। इसी से प्रभावित करोड़ों लोगों की पीड़ा और तबाही के प्रतिरोध में बांधों के खिलाफ दुनिया भर में आंदोलन उभरे हैं। भारत में भी यह प्रतिरोध भारी है। खासकर पूरे हिमालय में जम्मू कश्मीर से लेकर उत्तरपूर्व तक जनता इन बांधों के खिलाफ आंदोलित है। सरकारी दमन चक्र, प्रतिरोध की तीक्ष्णता के आधार पर अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग तीव्रता से दमन चलाए हुए है। फिर भी अपने अस्तित्वसंकट से जूझ रही जनता का आंदोलन अनवरत् जारी है।
 
 सरकार द्वारा भारत में बांध परियोजनाओं को महत्ता देने की उपरोक्त वजह के अलावा पावर प्रोजेक्टों का बेहिसाब मुनाफा वह दूसरी महत्वपूर्ण वजह है जिसके लिए पहाड़ी/प्रभावित समाज की अनदेखी कर सरकारें और बांध बनाने वाली कंपनियां बांधों को लेकर इतनी लालायित हैं। विद्युत ऊर्जा की मांग असीम है और पूर्ति सीमित। मांग और पूर्ति के सिद्धांत के अनुसार विद्युत ऊर्जा की मांग अधिक और पूर्ति कम होने के चलते इसका मूल्य अधिक है। और यह स्थिति स्थाई भी है। ऐसा कभी नहीं होने जा रहा कि विद्युत ऊर्जा की पूर्ति ज्यादा हो जाए और मांग कम रहे। यानि विद्युत उत्पादन उद्योग में निवेश बाजार की स्थितियों के अनुरूप बिना किसी जोखिम के मुनाफे का सौदा है। यही वजह है कि कंपनियां इसमें निवेश को लालायित हैं और दलाल सरकारें उन्हें भरपूर मदद पहुंचा रही हैं।
 
 भारत में शुरूआती दौर में बनी बांध परियोजनाओं का उद्देश्य सिर्फ विद्युत उत्पादन नहीं था। यह बहुउद्देश्यीय नदी घाटी परियोजनाएं थी। जिनका मकसद नदी के समग्र जलागम को, बाढ़ से बचाव, सिंचाई, मत्स्य पालन और जल पर्यटन आदि के लिए विकसित करना हुआ करता था। विद्युत उत्पादन इसका महज एक हिस्सा था। लेकिन पिछली शताब्दी के आखिरी दशक में उदारीकरण के बाद से जिस तरह सभी क्षेत्रों में जनकल्याण की जगह मुनाफाखोरी ने ले ली है उसी तरह बांध परियोजनाएं भी इसकी ही भेंट चढ़ गई हैं। विद्युत उत्पादन ही बांध परियोजनाओं का एक मात्र मकसद हो गया है। बिना सरोकारों और सिर्फ मुनाफाखोरी के लिए बन रही इन परियोजनाओं का एक दूसरा संकट पर्यावरण संबंधी मानकों की अंदेखी कर काम की गुणवत्ता और सावधानियों के प्रति लापरवाही बरतना भी है। जिसके चलते कम जोखिम वाली मझोले और छोटे आकार की बांध परियोजनाएं भी खतरनाक हो गई हैं। क्योंकि सरकार और विपक्ष दोनों की ही ओर से इन परियोजनाओं को जैसा प्रश्रय मिला हुआ है उससे इस संदर्भ में किसी भी जांच और कार्यवाही का कोई सवाल ही नहीं उठता। रही बात कॉरपोरट  मीडिया की तो उसका चरित्र किससे छुपा है? इन कंपनियों के विज्ञापनों की बाढ़/आस में उसकी जुबान पहले से ही बंद है। लेकिन इधर हिमाचल हाईकोर्ट के, जेपी ग्रुप (जेपी एसोसिएट्स) के खिलाफ 100 करोड़ के हर्जाने के, लिए गए एक फैसले का संदर्भ इन कंपनियों की मुनाफा बटोरने के लालच की हद और धूर्तता को समझने के लिए लिया जा सकता है।
 
 जेपी एसोसिएट्स, भारत की सीमेंट, हाइड्रो पावर और थर्मल पावर उत्पादन के क्षेत्र में प्रतिनिधि निजी कंपनी है। अलग-अलग परियोजनाओं में, हाइड्रो पावर में 1700 मेगावाट और थर्मल पावर में 5120 मेगावाट के लिए इसके द्वारा निर्माण कार्य कराया जा रहा है। साथ ही देश में सीमेंट उत्पादन में इसका चौथा स्थान है। हिमालयी राज्यों में भी जेपी के कई प्रोजेक्ट काम कर रहे हैं। हिमाचल हाईकोर्ट का यह फैसला एक जनहित याचिका के संदर्भ में आया है जिसमें याचिकाकर्ता द्वारा कंपनी पर उसके सोलन स्थित सीमेंट प्लांट में पर्यावरण नियमों के उल्लंघन का आरोप लगाया गया था। कंपनी ने इस प्लांट के लिए पर्यावरण संबंधी कोई भी क्लियरेंस यह कहते हुए नहीं लिया था कि इस प्लांट में 100 करोड़ से कम निवेश है जबकि क्लियरेंस की जरूरत 100 करोड़ से ऊपर के निवेश में पड़ती है। बकायदा इस संदर्भ में जेपी की ओर से एक फर्जी शपथपत्र भी दायर किया गया था जिसमें प्लांट में 100 करोड़ से कम का निवेश होने की बात कही गई थी। लेकिन याचिकाकर्ताओं की ओर से कोर्ट के सामने यह साबित कर दिया कि यह प्लांट 100 करोड़ का नहीं जबकि 400 करोड़ का है। इसी पर फैसला देते हुए हिमांचल प्रदेश हाईकोर्ट की ग्रीन बैंच ने जेपी को फर्जी शपथपत्र के लिए फटकार लगाते हुए उस पर 100 करोड़ का हर्जाना भरने का आदेश दिया। साथ ही कोर्ट ने सोलन में ही स्थित जेपी के थर्मल पावर प्लांट को अगले तीन महीनों में बंद कर देने के आदेश दिए हैं क्योंकि ये प्लांट भी बिना किसी मान्य पर्यावरणीय क्लीयरेंस के ही बनाया गया है। निजी कंपनियों के लिए इस तरह की धोखेबाजी करना आम बात है। पर अफसोस की बात तो ये है कि लोकतंत्र के महत्वपूर्ण स्तंभ न्यायपालिका और जनता के साथ स्पष्ट धोखा करने के बावजूद भी बाजार में इससे जेपी की साख पर कोई फर्क भी नहीं पड़ने वाला। चाहे न्यायालय ने इस सब के लिए जेपी को 100 करोड़ का हर्जाना भरने की सजा सुना दी हो। लेकिन क्या इस धोखेबाजी की भरपाई महज इस सजा से हो सकती है?
 
 इस फैसले में कोर्ट ने यह भी कहा है कि इतनी बड़ी अनियमितता बिना प्रशासनिक अधिकारियों की मिली भगत् के संभव नहीं हो सकती। कोर्ट ने इसकी जांच के लिए एक विशिष्ट जांच दल (एसआईटी) भी बिठाया है। देश भर में बांध परियोजनाएं ऐसी ही धोखेबाज कंपनियों के हाथों में हैं जो शासन और प्रशासन के लोगों को खरीद कर बिना किसी सामाजिक और पर्यावरणीय सरोकारों के प्राकृतिक संसाधनों को सिर्फ अपने मुनाफे के लिए बुरी तरह लूट रही हैं। पर्यावरणीय नुकसानों के साथ ही इसकी कीमत स्थानीय जनता को अपने पूरे सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अस्थित्व को दाव पर लगाकर चुकानी पड़ रही है।
 
 अब सवाल यह उठता है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर CO2 और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के दबावों और अपने विकास के लिए आवश्यक ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने की समस्या से भारत कैसे उबरे? इसके दो जवाब हैं, पहला कि वैश्विक स्तर पर ऊर्जा के कम उपभोग की ओर कोई बहस करने को तैयार नहीं है। जब्कि हमें यह समझना चाहिए कि प्रकृति के पास सीमित संसाधन हैं, जिनका संभल कर उपयोग करना होगा। पूंजीकेंद्रित अर्थव्यवस्थाओं में मुनाफा कमाने की होड़ के चलते लगातार ऊर्जा जरूरतें बढ़ रही हैं और इसके लिए दुनियाभर की सरकारें और औद्यौगिक घराने आंखमूंद कर हाथ पांव मार रहे हैं। इसकी चोट वर्तमान में प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न क्षेत्रों पर पड़ रही है जहां कि अक्सर आदिवासी या तथाकथित पिछड़ा समाज, प्रकृति से साम्य बना कर बसा हुआ है। विकास की पूंजीकेंद्रित समझदारी उसे तबाह करते हुए अपनी जरूरतें पूरी कर लेना चाहती हैं। ऐसे में भारत को, किसी भी कीमत पर ऊर्जा हासिल कर लेने की वैश्विक होड़ में शामिल हुए बगैर, मानवकेंद्रित रवैया अपनाते हुए अपनी ऊर्जा जरूरतों को सीमित करने की ओर बढ़ना होगा। दरअसल पूरे विश्व को यही करने की जरूरत है।
 
 दूसरा जवाब यह है कि ऊर्जा जरूरतों को सीमित कर देने के बाद जिस ऊर्जा की जरूरत हमें है, उसे जुटा लेना भारत जैसे प्राकृतिक संसाधनों से सम्पन्न देश के लिए मुश्किल नहीं होगा। वर्तमान परिदृश्य में हाइड्रो पावर के अलावा पर्यावरण सम्मत कोई विकल्प नजर नहीं आता (इसकी वजह यह भी है कि निहित स्वार्थों के चलते ऊर्जा के कई सुलभ, पर्यावरणपक्षीय और कम खतरनाक स्रोतों के क्षेत्र में कोई भी शोध/अध्ययन नही ंके बराबर हो रहे हैं)। ऐसे में यदि हमें हाइड्रोपावर से ही ऊर्जा जुटानी होगी तो, जरूरत है कि हाइड्रो पावर परियोजनाओं को अधिकतम् जनपक्षीय और पर्यावरणसम्मत् बनाया जाय। इस क्षेत्र को निजी कंपनीयों को मुनाफा कमाने के लिए खुली छूट के तौर पर नहीं दिया जा सकता। यह जरूर तय करना होगा कि हाइड्रो पावर उत्पादन में नदियों के किनारे बसा स्थानीय समाज, पहाड़ों का भूगोल और पर्यावरण तबाह ना हो जा रहा हो। इसके साथ प्राकृतिक संसाधनों पर पहला हक उस समाज का ही होना चाहिए जिसने कि इस भूगोल को उसकी सम-विषम परिस्थितियों के साथ, अपने जीने के लिए चुना है। ऐसे में पहाड़ों में किसी भी किस्म की जल विद्युत परियोजनाओं में पहाड़ी समाज की भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। डब्लु सी डी की रिपोर्ट भी यही कहती है। बांधों के निर्माण के लिए बड़ी सामाजिक कीमत ना चुकानी पड़े इसके लिए डब्लूसीडी की रिपोर्ट में कुछ निर्देश दिए हैं जो कि बांध निर्माण संबंधी निर्णयों को कुछ विशिष्ठजनों द्वारा लिए जाने के बजाय प्रभावित जनता के साथ भागीदारी का रवैया बनाने की वकालत करती है। इसी तरह के कुछ प्रयोग, बड़ी और गैरजनपक्षीय बांध परियोजनाओं का विरोध कर रहे आंदोलनकारियों ने उत्तराखंड में करने की कोशिश की है।
 
 यहां जनभागीदारी से छोटी जल विद्युत परियोजनाएं बनाने के क्षेत्र में काम किया जा रहा है। इन आंदोलनकारियों ने इन परियोजनाओं के लिए एक बजट मॉडल भी विकसित किया है। जिसके अनुसार 1 मेगावाट की जल विद्युत परियोजना की लागत 4 करोड़ रूपये होगी। इस धन को आसपास के गांवों के 200 लोगों की सहकारी समिति बनाकर बैंक लोन आदि तरीकों से जुटाया जाएगा। इस सहकारी समिति के 200 सदस्य ही इस परियोजना के शेयरधारक होंगे। बजट के अनुसार 1 मेगावाट की विद्युत इकाई से यदि सिर्फ 800 किलोवाट विद्युत का उत्पादन भी होता है तो वर्तमान बिजली के रेट 3.90 रूपया प्रति यूनिट के हिसाब से एक घण्टे में 3120.00 रूपये, 24 घण्टे में 74,880.00 रूपये और एक माह में 22,46,400.00 रूपये की इन्कम होगी। इसी तरह यह आंकडा, सालाना 2,69,56,800.00 रूपये हो जाएगा। ढाई करोड़ से ऊपर की इस सालाना कमाई से इन गांवों की आर्थिकी सुदृढ़ हो सकती है। ये गांव स्वावलम्बी बन सकते हैं। बजट के अनुसार लोन की 4 लाख प्रतिमाह की किस्तों को भरने के अलावा, परियोजना के 10 से 15 लोगों के स्टाफ की 3.25 लाख प्रति माह तन्ख्वाह, मेंटेनेंस के 2.50 लाख के साथ ही 200 शेयर धारकों को 5000 से 8000 रूपया प्रतिमाह शुद्ध लाभ भी होगा। एक बार हाइड्रो पावर परियोजनाओं का निर्माण कार्य पूरा हो जाय तो उसके बाद इससे ऊर्जा प्राप्त कर लेना बेहद सस्ता होता है। नदियों में बहता पानी इसके लिए सहज प्राप्य कच्चा माल होता है। पहाड़ी गांवों में यदि इस तरह की परियोजनाएं जनसहभागिता से स्थापित हो जाएं तो यह विकास का स्थाई/टिकाऊ तरीका हो सकता है।
 
 लेकिन इस तरह की परियोजनाओं को प्रोत्साहित करने के कोई भी प्रयास ‘ऊर्जा प्रदेश’ की सरकार नहीं कर रही है। उसके सपनों में तबाही फैलाते बड़े डैम हैं और मध्य एशिया के देशों के ‘पैट्रो डॉलर’ की तर्ज पर इन डैमों से बरसता ‘हाइड्रो डॉलर’। उलटा सरकारें इन परियोजनाओं को हतोत्साहित करने में तुली हुई हैं। दो साल पहले उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के सीमांत गांव रस्यूना में सरयू नदी में इसी तरह की एक मेगावाट की एक परियोजना के लिए शोध करने गए, गांधीवादी, आजादी बचाओ आदोलन से जुड़े इंजीनियर और एक कार्यकर्ता को पुलिस ने माओवादी बताकर गिरफ्तार कर लिया। मार-पीट/पूछताछ के बाद कुछ प्रबुद्ध बुद्धिजीवियों की पहल पर उन्हें छोड़ा गया। यह उदाहरण है कि किस तरह कॉरपोरट के फायदे के इतर वैकल्पिक मॉडलों पर काम कर रहे लोग दमन का सीधा शिकार हो रहे हैं। इस तरह के वैकल्पिक मॉडल खड़े हो जाना सरकार और मुनाफाखोर निजी कंपनियों को मंजूर नहीं हैं।



एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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चन्द्रशेखर करगेती
बल्ली भाई : एक कवि एक योद्धा
 लेखक : गोपाल प्रधान
 
 अस्सी का दशक हिन्दी में नए किस्म के कवियों की फ़ौज की आमद के लिये जाना जाएगा जिनकी कविताएँ छपने से पहले ही लोगों की जुबान पर चढ़ गईं । बल्ली सिंह चीमा इसी फ़ौज के उम्दा सिपाही हैं । बल्ली भाई के साथ ही इनमें थे अदम गोंडवी, रामकुमार कृषक, गोरख पांडे और अनेकानेक ऐसे कवि जिनकी कविता के लिये रामविलास जी ने जो बात नागार्जुन के लिये कही वही बात हम कह सकते हैं कि इनकी कविताओं में लोकप्रियता और कला का मुश्किल संतुलन सहज ही सधा हुआ है । देखा तो बल्ली भाई को बहुत बाद में लेकिन एक पतली सी किताब ‘खामोशी के खिलाफ़’ के जरिये पहला परिचय बेहद पहले करीब 1980 में ही हो गया था ।
 
 इन कवियों में क्या है जो साझा है, इसकी तलाश करते हुए हमें राजनीतिक संदर्भ देखने होंगे क्योंकि तकरीबन ये सभी कवि राजनीतिक हैं और किसी न किसी तरह से वामपंथ की क्रांतिकारी धारा से जुड़े हुए हैं । आपातकाल के बाद जो नया राजनीतिक वातावरण बना उसकी एक सच्चासई अगर जनता पार्टी की सरकार का बनना है तो दूसरी और ज्यादा प्रासंगिक सचाई प्रतिरोध की ऐसी ताकतों के खामोश संघर्षों की छिपी हुई खबरों का सामने आना है जो सतह पर नहीं तैर रही थीं । ये ताकतें देश भर में फैले हुए नक्सलवादी कार्यकर्ता थे जिन्हें पुलिस ने फ़र्जी मुठभेड़ों और गैर कानूनी नजरबंदी में यंत्रणा देकर मार डाला था । आपातकाल के बाद बने वातावरण में इस आंदोलन की उपस्थिति एक जीवंत प्रसंग की तरह रही और उसी दौर में इस तीसरी धारा का हस्तक्षेप भारत के राजनीतिक पटल पर क्रमश: बढ़ता गया । भाकपा (माले) से जुड़े हुए जन संगठनों का उदय हुआ और बिहार के क्रांतिकारी किसान आंदोलन में इसे ठोस अभिव्यक्ति मिली । यही वातावरण इन कवियों के उभार और उनकी कविता की लोकप्रियता को समझने की कुंजी है ।
 
 वह दौर ऐसा था कि सहज ही कुछ प्रतीक नई अर्थवत्ता के साथ उभर आये । उदाहरण के लिये भगतसिंह शुरू से ही क्रांति के प्रतीक रहे थे लेकिन उस समय एक ही साथ गोंडा, बनारस, इलाहाबाद और उत्तर प्रदेश के छोटे-छोटे कस्बों तक में उनका शहादत दिवस मनाया जाने लगा । उस दौर में कांग्रेसी सत्ता के विरुद्ध लड़ रही ताकतों ने भगतसिंह के प्रतीक में एक नया अर्थ भरा और उनके बहाने आज़ादी की लड़ाई की इकहरी तस्वीर को चुनौती दी । यह तस्वीर शासकों की सुविधा के लिये निर्मित की गई थी । भगतसिंह गांधी की समझौतावादी नीति, जिसका मुखौटा अहिंसा थी, के विरुद्ध क्रांतिकारी धारा के रहनुमा के बतौर पेश किए गये । उसी दौर में गुरुशरण सिंह का नाटक ‘इंकलाब जिंदाबाद’ लोकप्रिय हुआ जिसका मुख्य प्रतिपाद्य आज़ादी की लड़ाई का यही द्वन्द था । बल्ली सिंह चीमा की मशहूर गज़ल के एक शेर ‘बो रहे हैं अब बंदूकें लोग मेरे गाँव के’ में बंदूकें बोने वाले गाँव के लोगों की तस्वीर के पीछे उनके अपने समय में सशस्त्र संघर्ष करने वाले किसान तो हैं ही, भगतसिंह की बचपन की वह कथा भी है जिसमें पिता से वे बताते हैं कि खेत में बंदूक बो रहा हूँ । इसी समझ को स्वर देते हुए वह एक शेर में कहते हैं:
 
 ‘हम नहीं गांधी के बंदर ये बता देंगे तुम्हें,
 हर युवा को भगतसिंह, शेखर बनाना है हमें।’
 
 किसान आंदोलनों की आँच के कारण स्वाभाविक था कि इन कवियों की कविताओं में ग्रामीण माहौल और मजदूर-किसान उपस्थित हों । लेकिन इनके गाँव मैथिलीशरण गुप्त के ‘अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है, क्यों न इसे सबका जी चाहे’ के आदर्शीकरण से पूरी तरह अलग और सामंती बंधनों के नीचे कराहते और उसे बदलने की कोशिश करते हुए चित्रित हैं। ये गाँव उनके तईं एक वैपरीत्य रचने में सहायक हैं सुख के द्वीपों के बरक्स दुख के सागर:
 
 ‘सवेरा उनके घर फैला हुआ है,
 अँधेरा मेरे घर ठहरा हुआ है।’
 
 गाँव के किसान इन बंधनों को चुपचाप बर्दाश्त करने की बजाय उसके विरुद्ध विद्रोह करते हुए दिखाये गये हैं । एक गज़ल के शेर तो प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’ का मानो पुनर्पाठ करते हैं:
 
 ‘अब भी होरी लुट रहा है अब भी धनिया है उदास,
 अब भी गोबर बेबसी से छट्पटाएँ गाँव में।’
 
 गाँव के लोगों के सामंती उत्पीड़न में गुलामी के समय से कोई खास फ़र्क नहीं आया है। इसे भी चिन्हित करने के लिए वह इसी उपन्यास का सहारा लेते हैं:
 
 ‘अब भी पंडित रात में सिलिया चमारन को छलें,
 दिन में ऊँची जातियों के गीत गाएं गाँव में ।’
 
 यह चित्रण स्वाभाविक रूप से सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए संघर्षरत दलित जातियों के लिये हालात बदलने की प्रेरणा बन जाता है ।
 
 इन सभी कवियों ने गज़ल को नए ढाँचे में ढालकर अपनी बात कही है। हिन्दील कविता की परम्पलरा से परिचित लोग जानते हैं कि गज़ल का प्रतिरोध के लिये उपयोग कोई नई बात नहीं है । दुष्यंत कुमार ने बहुत पहले इस विधा का सृजनात्मक उपयोग मारक व्यंग्य के साथ राजनीतिक संदेश देने के लिये किया था । एक जगह वह दुष्यंत के मुहावरे का उपयोग करते हुए भी उनसे आगे जाने का संकेत करते हैं:
 
 ‘इस जमीं से दूर कितना आसमाँ है,
 फेंककर पत्थर मुझे ये देखना है।’
 
 बल्ली सिंह चीमा ने इस परम्पेरा को आगे बढ़ाते हुए सहज खड़ी बोली में ऐसी सफलता के साथ गेय गज़लें लिखीं कि वे लोगों की जुबान पर न सिर्फ़ चढ़ गईं, बल्कि अनेकशः उनका नारों की तरह इस्तेमाल भी किया गया । कविता की लोकप्रियता का प्रमाण अगर स्मृति में उसका बैठ जाना है तो बल्ली भाई की गज़लें इसका प्रतिमान हैं ।
 
 उन्होंने अपने अन्य सहधर्मियों के साथ जो गज़लें और गीत लिखे उनके जरिय आपातकाल के बाद का समूचा राजनीतिक इतिहास अपनी गतिमयता के साथ समझा जा सकता है । मसलन उनके इस शेर को पढ़ते ही गोरख के गीत ‘बोलो ये पंजा किसका है’ की याद आ जाती है:
 
 ‘तुम तो कहते थे हैं उनके कर कमल,
 देख लो वो हाथ खंजर हो गया।’
 
 व्यंग्य की एक मिसाल उनकी ये पंक्तियाँ हैं जिनमें वह दमन की सरकारी भाषा का मज़ाक उड़ाते हैं:
 
 ‘रोटी माँग रहे लोगों से किसको खतरा होता है,
 यार सुना है लाठी चारज हलका हलका होता है।’
 
 लेकिन अन्य कवियों के मुकाबले बल्ली सिंह चीमा की कविताओं में व्यंग्य से अधिक आक्रोश दर्ज़ हुआ है । जैसी सहज दृढ़ता बल्ली भाई के भीतर मिलने पर नजर आती है वैसी ही सहज दृढ़ता उनकी कविताओं के भीतर समा गई है । आसानी से लेकिन मजबूती से उनकी कविता बड़ी बात कह जाती है:
 
 ‘तेलंगाना जी उठेगा देश के हर गाँव में,
 अब गुरिल्ले ही बनेंगे लोग मेरे गाँव के ।’
 
 (लेखक मंच से आभार)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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चन्द्रशेखर करगेती अपनी पंचायत का लेखा-जोखा मांगें
 
 स्वराज, लोक स्वराज या गांधी का हिंद स्वराज आख़िर क्या है ? गांधी जी का सपना था कि देश का विकास पंचायती राज संस्था के ज़रिए हो. पंचायती राज को इतना मज़बूत बनाया जाए कि लोग ख़ुद अपना विकास कर सकें. आगे चलकर स्थानीय शासन को ब़ढावा देने के नाम पर त्रिस्तरीय पंचायती व्यवस्था लागू भी की गई. ज़िला स्तर पर ज़िला परिषद, खंड स्तर पर एक इकाई और सबसे नीचे के स्तर पर ग्राम पंचायत की अवधारणा लागू हो गई. इसके साथ ग्रामसभा नामक भी एक संस्था बनाई गई. ग्रामसभा एक स्थायी संस्था के रूप में काम करती है, जिसमें पंचायत के सभी वयस्क मतदाता शामिल होते हैं. एक पंचायत में विकास कार्यों के लिए प्रति वर्ष लाखों रुपये आते हैं. इसके अलावा विभिन्न प्रकार की सरकारी योजनाएं भी आती हैं. ग्रामसभा की संकल्पना इसलिए की गई थी, ताकि पंचायत के किसी भी विकास कार्य में गांव के लोगों की सीधी भागीदारी हो, विकास कार्य की कोई भी रूपरेखा उनकी सहमति से बने, लेकिन हुआ ठीक इसका उल्टा.
 
 आज देश की किसी भी पंचायत में ग्रामसभा की हालत ठीक नहीं है. ग्रामसभा की बैठक महज़ खानापूर्ति के लिए की जाती है. किसी भी विकास योजना में ग्रामीणों से न तो कोई सलाह ली जाती है और न ग्रामसभा की बैठक में उस पर चर्चा की जाती है. पंचायती राज व्यवस्था के असफल होने के पीछे सबसे बड़ी वजह भी यही है, लेकिन सूचना अधिकार क़ानून आने से अब सरपंच अपनी मर्जी नहीं चला सकते. बशर्ते, आप सरपंच और पंचायत से सवाल पूछना शुरू करें.
 
 ज़रूरत स़िर्फ इस बात की है कि एक ज़िम्मेदार नागरिक होने के नाते अगर आपको लगता है कि सरपंच और अन्य अधिकारी मिलकर इन पैसों और योजनाओं में घोटाले कर रहे हैं, तो आप केवल सूचना अधिकार क़ानून के तहत एक आवेदन डाल दें. आप अपने आवेदन में किसी एक खास वर्ष में आपकी पंचायत के लिए कितने रुपये आवंटित हुए, किस कार्य के लिए आवंटन हुआ, वह कार्य किस एजेंसी द्वारा कराया गया, कितना भुगतान हुआ आदि जानकारियां और भुगतान की रसीद की मांग कर सकते हैं. इसके अलावा आप कराए गए कार्यों का निरीक्षण करने की भी मांग कर सकते हैं.
 
 इसके साथ ही आप केंद्र और राज्य सरकार द्वारा चलाई जा रही विभिन्न योजनाओं के बारे में भी सवाल पूछ सकते हैं. मसलन, इंदिरा आवास योजना के तहत आपके गांव में किन-किन लोगों को आवास आवंटित हुए. ज़ाहिर है, जब आप उक्त सवाल पूछेंगे, तो भ्रष्ट सरपंचों एवं अधिकारियों पर एक तरह का दबाव बनेगा. यह काम आप चाहें तो कई लोगों के साथ मिलकर भी कर सकते हैं. जैसे अलग-अलग मामलों या किसी एक ही मामले में कई लोग मिलकर आवेदन डालें. इसका असर यह होता है कि चाहकर भी कोई दबंग सरपंच या अधिकारी आप पर दबाव नहीं डाल पाएगा या आपको धमकी नहीं दे पाएगा.
 
 (आभार: चौथी दुनिया) — with Aranya Ranjan and 5 others.
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    एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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    चन्द्रशेखर करगेती
    आपदा से घिरे पर्वतीय गांवों का दर्द......
     
     पहाड़ में जब बारिश आती है तो वह कहर बनकर बरसती है। इसका एक बड़ा कारण है पेड़ों का अंधाधुंध कटान और जलविद्युत परियोजनाएं तथा निर्माण कार्यों में विस्फोटकों एवं मशीनों का अंधाधुंध प्रयोग जिसने पहाड़ों को जर्जर कर दिया है। आज पूरे उत्तराखण्ड में लगभग ३५० से अधिक गांव ऐसे हैं, जो विस्थापन की बाट जोह रहे हैं, क्योंकि यहां कभी भी पहाड़ टूटकर धंस सकते हैं। ऊपर का मलवा मौत बनकर गांव को कब्रगाह बना सकता है । यह क्षेत्र मध्य हिमालय का है । उन तमाम लोगों के गांव संवेदनशील घोषित किए गए, जहां ऐसी आपदा से खतरा है । प्राकृतिक और मानवकृत आपदाओं के द्वार पर खड़े नागरिकों के सामने पहाड़ जैसी समस्याएं हैं।
     
     इस वर्ष में अब तक हुई घटनाओं और पिछले वर्ष हुए भीषण विनाश और अतिवृष्टि व भूस्खलन की तबाही का जिक्र आते ही सबका मन कांप जाता है । इससे न केवल लोग बेघर हो जाते हैं, बल्कि कुछ को अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है । सीढ़ीदार खेत मलवे में बदल जाते हैं । भूस्खलन और बादल फटने की घटनाओं से हर वर्ष लाखों की जानमाल का नुकसान होता है । इस वर्ष भी कुछ ऐसा ही बहुत कुछ हो चुका है और होना बाकी है । आपदा प्रबंधन विभाग सरकारी आंकड़े इकट्ठे करता है तथा सौ एक गांवों को संवेदनशील घोषित किया जाता है जो बाद में बढ़ती जाती है। यह सिलसिला वर्ष-प्रतिवर्ष चलता रहता है। केदार घाटी हो, गौंडार रांसी व हर्सिल हो या मुनस्यारी या धारचुला ।
     
     उत्तराखंड ही नहीं, बल्कि कश्मीर से लेकर सिक्किम तक इस तरह की प्राकृतिक आपदाओं की आंखों देखी दर्दनाक कहानी आए दिन सुनने को मिलती रहती है । इस वर्ष भी मानसून की वर्षा से लोग कांप उठे। तीन सौ से भी ज्यादा गांव के हजारों लोग पुनर्विस्थापन की बाट जोहते-जोहते थक गए, लेकिन वे जाएं भी तो कहां जाएं। पूरे पहाड़ में जमीन खिसक रही है । अनियोजित और अवैज्ञानिक विकास थोपने की बात कही जा रही है । पुनर्विस्थापन की नीति नहीं है । पुनर्विस्थापन नीति पूरे हिमालयी क्षेत्र के लिए तैयार होनी है, लेकिन हर जगह की परिस्थितियां अलग-अलग हैं । जलविद्युत परियोजनाओं से कोई इनकार नही करता, लेकिन सुरंग बांधों और निजी कंपनियों के मुनाफे से त्रस्त लोग अपने लिए रहने लायक जमीन भी तलाश नहीं कर पा रहे हैं । इसका एक जीता जागता उदाहरण है चाई गांव जो जलविद्युत परियोजनाओं के कारण धंस रहा है । लोग आवाज उठाते हैं तो उसका असर व्यवस्था पर नहीं होता । चुनावी रणनीतियों में व्यस्त राजनैतिक दलों के एजेंडे में ये गांव कतई नहीं है, जो तबाही से पहले एक बड़ी आपदा के मुहाने पर खड़े हैं ।
     
     सवाल है कि आखिर कहां विस्थापित होंगे ये सब और इतनी जमीन कहां हैं ? इसके लिए कोई नीति भी नहीं है । यह सब गायब है और अनियंत्रित मौसम के दबावों के दंश झेलते तमाम पर्वतीय गांव एक अघोषित आतंक से त्रस्त हैं । बरसात-आंधी उनकी नींदें उड़ा देती है । हिमालयी राज्यों की यह समस्या नारों, गोष्ठियों और आंकड़ेबाजियों में उलझकर रह जाती है । राजनीतिक हस्तक्षेप मात्र इतना होता है कि राज्य सरकार केंद्र से आपदा प्रबंधन के लिए राशि मांगती है और केंद्र सरकार जो देती हैं उसे राज्य सरकारें आधे से भी कम बताती हैं । हालांकि सच्चाई यही है कि आपदा प्रबंधन के लिए आया हुआ पैसा आपदा प्रबंधन के लिए अब तक खर्च नहीं हो पाया है । पिछली बार उत्तराखंड में सरकार ने 21 हजार करोड़ रुपये की मांग की थी जबकि केंद्र ने 500 करोड़ रुपये ही दिया। इसके बावजूद भी राज्य सरकार इस राशि को खर्च नहीं कर सकी। सवाल इस बार के मानसून का भी है जिसकी जनित समस्यांये मुंह बाये खड़ी है। मुख्यमंत्री ने उत्तरकाशी आपदा पर केन्द्र से 900 करोड़ रुपये मांगे और मिला केवल 150 करोड़ ? 
     
     सन् 1962 के बाद से ही आपदा प्रबधंन का कोई बंदोबस्त भी नहीं हो पाया है । मानसून में इन गांवों का क्या होगा यह हिमालयी राज्यों के लिए यह सवाल हर बार खड़ा होता है ? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि हमारे हुक्मरान और नौकरशाही दिल दहलाने वाली आपदाओं से भी कोई सीख लेने अथवा सार्थक प्रयास का फिलहाल अभाव ही है । क्या पहाड़ को खोखला कर दिया जाएगा ? वास्तविक स्थितियां और जमीनी स्तर पर उसके लिए किए जा रहे प्रयासों की सच्चाई बार-बार असफलता के मुहाने पर खड़ी हो जाती है ।
     
     सच्चाई से दूर घबराए हुए लोगों पर मौसम की बदलती परिस्थितियों के बाद पूरा हिमालयी क्षेत्र चिंताग्रस्त दिख रहा है। यह बातें भी उठ रही हैं कि आपदा प्रबंधन के लिए मांगे गए करोड़ों रुपये तो मांग लिए गए, लेकिन पुनर्विस्थापन की नीति अभी तक बनी ही नहीं । पिछली व इस बार की भयावह परिस्थिति से गुजरे उत्तरकाशी और रुद्रप्रयाग तथा बागेश्वर, चमोली के तीन दर्जन से अधिक गांव आज भी घरों से बाहर रहते हैं । यह जीवन से जुड़ा हुआ सवाल है और प्रकृति के साथ छेड़छाड़ का घृणित खेल जारी है ।
     
     इससे बड़ी बात क्या हो सकती है कि अब तक कोई हिमालयी नीति नहीं बनी है ! हिमालय की स्थितियां कई दृष्टियों से अलग-अलग होते हुए भी आपदा के दर्द को सामूहिक रूप से भोगने को मजबूर हैं । इसके लिए एक ठोस रणनीति की जरूरत है । अगर ये नही हुआ तो राहत का ग्राफ गिरता जाएगा और तबाहियों का ग्राफ बढ़ता जाएगा । पहाड़ में बड़े बांधों की परिकल्पना जहां नए शहरों को स्थापित करने में सहायक है, वहीं यह विस्थापन का दंश भी देता है ।
     
     आखिर यह कैसा विकास है, जो गांवों को सुरक्षित नहीं कर पा रहा है ? एयरकंडीशन में बैठकर जो नीतियां बनती हैं उनसे केवल और केवल असंतुलन की खाई ही गहरी होती है । विशेषज्ञों की राय भी इन गांवों को आपदा से बचा नहीं पा रही है, क्योंकि व्यवस्था और आस्था के बीच बिगड़ता मौसम का मिजाज जो खड़ा हो गया है । पर्यावरण में भीषण बदलाव को अगर जल्द महसूस नहीं किया गया और सही दिशा में जमीनी कार्य शुरू नहीं हुआ तो निश्चित रूप से इन आपदाओं को रोका नहीं जा सकेगा। कोसी, अलकनंदा, भागीरथी, भिलंगना, गंगा-यमुना,सरयू, काली, धोलीगंगा, महाकाली,झेलम, चिनाव आदि सभी नदियों को अविरल बहते रहने की दिशा में सार्थक प्रयास किए जाने जरूरी हैं । अगर इन नदियों के अतिरिक्त भी अन्य नदियों का अवैज्ञानिक दोहन हुआ तो पहाड़ तो क्या मैदान भी रहने लायक नहीं बचेंगे । इससे आपदाओं का सिलसिला लगातार बढ़ेगा । छोटे-छोटे नदी स्त्रोत पहाड़ के लिए वरदान साबित होते हैं, लेकिन अभी तक उनका कोई विधिवत विवरण नहीं मिलता । मानवजनित आपदाएं पर्वतीय गांवों को ध्वंस करने के लिए तैयार खड़ी हैं, पर सवाल है कि क्या सरकारी व्यवस्था इससे मुकाबला करने के लिए तैयार है ?
     
     प्राकृतिक आपदाओं की बजाय मानवकृत आपदाओं को अवश्य रोका जा सकता है और इसी से प्रकृति में भी संतुलन आ सकता है। पहाड़ से डरे हुए गांवों में भयानक भूस्खलन, तेज जलप्रवाह, अतिवृष्टि एक बड़ी समस्या है, जिनका समाधान समय रहते खोजना ही होगा। यह खुद में एक बहुत बड़ा चिह्न है, जो हजारों लोगों का ऐसा सवाल है, जिसका उत्तर अगर नहीं तलाशा गया तो ये गांव दहशत के साये में जीने के लिए मजबूर होते रहेंगे। उलझे हुए सवालों और डर के दहशत में जीते हुए पर्वतीय क्षेत्रों के गांव संवेदनशील अवश्य घोषित किए गए हैं, पर उन्हें बचाए और बनाए रखने की संवेदनाएं कब जन्म लेंगी।
     
     
     (आभार:डॉ. अतुल शर्मा)

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    चन्द्रशेखर करगेती

    सामूहिक निर्णय लेने की ताकत पर मुस्कराता गांव बख्तावरपुरा


    दिल्ली झुंझनू मार्ग पर, झुंझनू (राजस्थान) से करीब 20 किलोमीटर पहले पड़ने वाला एक गांव, यहां की साफ सफाई, चमचमाती हुई सड़क, बरबस ही यहां से गुजरने वालों का ध्यान अपनी ओर खींचती है । रास्ते में एक बोर्ड लगा है जिस पर लिखा है `मुस्कराईए कि आप राजस्थान के गौरव बख्तावरपुरा गांव से गुजर रहे हैं´।

    रुककर गांववालों से बात करते हैं तो पता चलता है कि इस गांव में आज पानी की एक बून्द भी सड़क पर या नाली में व्यर्थ नहीं बहती । हर घर से निकलने वाले पानी की एक एक बून्द ज़मीन में रिचार्ज कर दी जाती है । इसके लिए लगभग हर दो-तीन घरों के सामने सड़क के नीचे पानी को ज़मीन में रिचार्ज करने वाली सोख्ता कुईंया बना दी हैं। गांव में कई बड़े कुएं बने हैं जहां बारिश के पानी की एक-एक बून्द इकट्ठा की जाती है। ग्राम सरपंच महेन्द्र कटेवा बताते हैं कि गांव की ज़रूरतों के लिए हर रोज़ साढ़े चार लाख लीटर पानी ज़मीन से निकाला जाता है लेकिन इसमें से करीब 95 फीसदी वापस उसी दिन रिचार्ज कर दिया जाता है। पानी की कमी से जूझ रहे राजस्थान के गांवों के लिए यह एक बड़ी घटना है। करीब 10 साल पहले तक यहां गांव के अन्दर की सड़कों पर ही नहीं मुख्य सड़क पर भी घरों से निकलने वाला पानी भरा रहता था और हर वक्त कीचड़ बना रहता था ।

    सरपंच महेन्द्र कटेवा और कुछ अन्य लोगों ने मिलकर अपने घर का पानी ज़मीन में रिचार्ज करना शुरू किया । इसके लिए घर के सामने, सड़क के नीचे 30 फीट गहरी और तीन फीट चौड़ी कुईं बना कर उसके ऊपर से बन्द कर दिया गया । इसमें उन्हें तो सफलता मिली लेकिन गांव के बाकी लोगों ने इसमें ज़रा भी दिलचस्पी नहीं दिखाई । और चार पांच घरों का पानी रुकने से कीचड़ की स्थिति पर कोई फर्क पड़ने वाला नहीं था । तब सरपंच ने ग्राम सभा की बैठक में इस मुद्दे पर चर्चा की । इसके फायदे सुनकर गांव के कुछ और लोगों ने भी मिलकर अपने घरों के सामने ऐसे ही सोख्ता पिट बनवा लिए । इससे सरपंच को लगा कि जो बात गांववालों को अलग-अलग नहीं समझाई जा सकती वह एक साथ बैठक में समझाई जा सकती है । इसके बाद तो गांव में हर महीने करीब-करीब दो ग्राम सभाएं होने लगीं । कानूनन राजस्थान में हर महीने की 5 व 20 तारीख को पंचायत सदस्यों की बैठक होनी ज़रूरी है । लेकिन ये बैठकें अगर कहीं होती भी हैं तो पंचायत सदस्यों के ही लिए हैं । परन्तु बख्तावरपुरा में इसमें गांव के लोगों को बुलाया जाने लगा । और धीरे-धीरे गांव में हर महीने दो बैठकें होने लगीं जहां गांव वाले एक निश्चित तारीख को अपनी बात रख सकते हैं, पूछ सकते हैं ।

    इन बैठकों से गांव के विकास का रास्ता निकला । धीरे-धीरे पूरा गांव न सिर्फ कीचड़मुक्त हो गया है बल्कि लोग साफ सफाई भी रखने लगे हैं। इसका फायदा यह हुआ है कि गांव में अब मच्छर नहीं हैं। मच्छर न होने से बीमारियां कम हो गई हैं। कटेवा बताते हैं कि `इन बैठकों में लिए गए फैसलों को लोग अपने धर्म की तरह मानते हैं। अगर निर्णय सामुहिक नहीं होते तो यह काम होता ही नहीं। और अगर होता कोई कर भी लेता तो फेल हो जाता। आज पूरे वाटर रिचार्ज सिस्टम में कहीं कोई गड़बड़ी आती है तो गांव का हर व्यक्ति यह सोच रखता है। और वो आकर मुझे बताता है। कि आज फला उस नाली में गड़बड़ी हो गई थी। वो कचरा आ गया था। तो हमने दो आदमी को भेज दिया और नाली ठीक चल रही है।´
    साफ सफाई के रूप में मिली सफलता ने गांव वालों को अपने गांव से जोड़ दिया...

    इसके बाद गांव में होने वाले हर छोटे बड़े काम में गांव के लोग अपनी राय रखते हैं और उनकी बात मानी भी जाती है। इसका एक उदाहारण गांव में मेन रोड पर बना बस स्टैण्ड है। इसमें पंखे लगे हैं, पीने के पानी की व्यवस्था है, इस बस स्टैण्ड का मुद्दा ही नहीं डिज़ाइन तक भी गांव के लोगों की बैठक में तय हुआ है। सरकारी की योजना में इसके रंग रोगन के लिए चूना-पुताई के पैसे आते हैं लेकिन गांव वालों ने तय किया कि इसे हम अच्छे पेंट से रंग कराएंगे। इस पर अधिकारियों को आपत्ति हुई तो गांव वालों ने उनकी एक न चलने दी और आज इस बस स्टैण्ड की सुन्दरता भी लोगों यहां से गुजरते लोगों को अहसास कराती है कि वे किसी खास गांव से गुजर रहे हैं।

    इसी सड़क पर रात को रोशनी के लिए सोलर लाईट्स लगाई गई हैं। महेन्द्र सिंह कटेवा का कहना है कि `ये सोलर लाईट्स गांव वालों ने ही स्थान तय करके लगवाई हैं और आज इनकी बैटरियों, बल्बों की रक्षा के लिए खुद गांव वाले आते जाते सतर्क रहते हैं। अगर ये बिना ग्राम सभा में बातचीत के लगा दी गईं होतीं तो इनका नामो निशान भी यहां नहीं होता और इसका एक मन्त्र है सरपंच का यह मानना कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता । ग्राम सभा की बैठकों में लोगों की बात सुनी जाती है और उस पर अमल होता है। इसका फायदा यह हुआ है कि गांव के विकास के लिए किए जाने वाले हर काम को लोग अपना काम मानते हैं ।

    (आभार: ग्राम स्वराज)

     

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