चन्द्रशेखर करगेतीआपदा से घिरे पर्वतीय गांवों का दर्द......
पहाड़ में जब बारिश आती है तो वह कहर बनकर बरसती है। इसका एक बड़ा कारण है पेड़ों का अंधाधुंध कटान और जलविद्युत परियोजनाएं तथा निर्माण कार्यों में विस्फोटकों एवं मशीनों का अंधाधुंध प्रयोग जिसने पहाड़ों को जर्जर कर दिया है। आज पूरे उत्तराखण्ड में लगभग ३५० से अधिक गांव ऐसे हैं, जो विस्थापन की बाट जोह रहे हैं, क्योंकि यहां कभी भी पहाड़ टूटकर धंस सकते हैं। ऊपर का मलवा मौत बनकर गांव को कब्रगाह बना सकता है । यह क्षेत्र मध्य हिमालय का है । उन तमाम लोगों के गांव संवेदनशील घोषित किए गए, जहां ऐसी आपदा से खतरा है । प्राकृतिक और मानवकृत आपदाओं के द्वार पर खड़े नागरिकों के सामने पहाड़ जैसी समस्याएं हैं।
इस वर्ष में अब तक हुई घटनाओं और पिछले वर्ष हुए भीषण विनाश और अतिवृष्टि व भूस्खलन की तबाही का जिक्र आते ही सबका मन कांप जाता है । इससे न केवल लोग बेघर हो जाते हैं, बल्कि कुछ को अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है । सीढ़ीदार खेत मलवे में बदल जाते हैं । भूस्खलन और बादल फटने की घटनाओं से हर वर्ष लाखों की जानमाल का नुकसान होता है । इस वर्ष भी कुछ ऐसा ही बहुत कुछ हो चुका है और होना बाकी है । आपदा प्रबंधन विभाग सरकारी आंकड़े इकट्ठे करता है तथा सौ एक गांवों को संवेदनशील घोषित किया जाता है जो बाद में बढ़ती जाती है। यह सिलसिला वर्ष-प्रतिवर्ष चलता रहता है। केदार घाटी हो, गौंडार रांसी व हर्सिल हो या मुनस्यारी या धारचुला ।
उत्तराखंड ही नहीं, बल्कि कश्मीर से लेकर सिक्किम तक इस तरह की प्राकृतिक आपदाओं की आंखों देखी दर्दनाक कहानी आए दिन सुनने को मिलती रहती है । इस वर्ष भी मानसून की वर्षा से लोग कांप उठे। तीन सौ से भी ज्यादा गांव के हजारों लोग पुनर्विस्थापन की बाट जोहते-जोहते थक गए, लेकिन वे जाएं भी तो कहां जाएं। पूरे पहाड़ में जमीन खिसक रही है । अनियोजित और अवैज्ञानिक विकास थोपने की बात कही जा रही है । पुनर्विस्थापन की नीति नहीं है । पुनर्विस्थापन नीति पूरे हिमालयी क्षेत्र के लिए तैयार होनी है, लेकिन हर जगह की परिस्थितियां अलग-अलग हैं । जलविद्युत परियोजनाओं से कोई इनकार नही करता, लेकिन सुरंग बांधों और निजी कंपनियों के मुनाफे से त्रस्त लोग अपने लिए रहने लायक जमीन भी तलाश नहीं कर पा रहे हैं । इसका एक जीता जागता उदाहरण है चाई गांव जो जलविद्युत परियोजनाओं के कारण धंस रहा है । लोग आवाज उठाते हैं तो उसका असर व्यवस्था पर नहीं होता । चुनावी रणनीतियों में व्यस्त राजनैतिक दलों के एजेंडे में ये गांव कतई नहीं है, जो तबाही से पहले एक बड़ी आपदा के मुहाने पर खड़े हैं ।
सवाल है कि आखिर कहां विस्थापित होंगे ये सब और इतनी जमीन कहां हैं ? इसके लिए कोई नीति भी नहीं है । यह सब गायब है और अनियंत्रित मौसम के दबावों के दंश झेलते तमाम पर्वतीय गांव एक अघोषित आतंक से त्रस्त हैं । बरसात-आंधी उनकी नींदें उड़ा देती है । हिमालयी राज्यों की यह समस्या नारों, गोष्ठियों और आंकड़ेबाजियों में उलझकर रह जाती है । राजनीतिक हस्तक्षेप मात्र इतना होता है कि राज्य सरकार केंद्र से आपदा प्रबंधन के लिए राशि मांगती है और केंद्र सरकार जो देती हैं उसे राज्य सरकारें आधे से भी कम बताती हैं । हालांकि सच्चाई यही है कि आपदा प्रबंधन के लिए आया हुआ पैसा आपदा प्रबंधन के लिए अब तक खर्च नहीं हो पाया है । पिछली बार उत्तराखंड में सरकार ने 21 हजार करोड़ रुपये की मांग की थी जबकि केंद्र ने 500 करोड़ रुपये ही दिया। इसके बावजूद भी राज्य सरकार इस राशि को खर्च नहीं कर सकी। सवाल इस बार के मानसून का भी है जिसकी जनित समस्यांये मुंह बाये खड़ी है। मुख्यमंत्री ने उत्तरकाशी आपदा पर केन्द्र से 900 करोड़ रुपये मांगे और मिला केवल 150 करोड़ ?
सन् 1962 के बाद से ही आपदा प्रबधंन का कोई बंदोबस्त भी नहीं हो पाया है । मानसून में इन गांवों का क्या होगा यह हिमालयी राज्यों के लिए यह सवाल हर बार खड़ा होता है ? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि हमारे हुक्मरान और नौकरशाही दिल दहलाने वाली आपदाओं से भी कोई सीख लेने अथवा सार्थक प्रयास का फिलहाल अभाव ही है । क्या पहाड़ को खोखला कर दिया जाएगा ? वास्तविक स्थितियां और जमीनी स्तर पर उसके लिए किए जा रहे प्रयासों की सच्चाई बार-बार असफलता के मुहाने पर खड़ी हो जाती है ।
सच्चाई से दूर घबराए हुए लोगों पर मौसम की बदलती परिस्थितियों के बाद पूरा हिमालयी क्षेत्र चिंताग्रस्त दिख रहा है। यह बातें भी उठ रही हैं कि आपदा प्रबंधन के लिए मांगे गए करोड़ों रुपये तो मांग लिए गए, लेकिन पुनर्विस्थापन की नीति अभी तक बनी ही नहीं । पिछली व इस बार की भयावह परिस्थिति से गुजरे उत्तरकाशी और रुद्रप्रयाग तथा बागेश्वर, चमोली के तीन दर्जन से अधिक गांव आज भी घरों से बाहर रहते हैं । यह जीवन से जुड़ा हुआ सवाल है और प्रकृति के साथ छेड़छाड़ का घृणित खेल जारी है ।
इससे बड़ी बात क्या हो सकती है कि अब तक कोई हिमालयी नीति नहीं बनी है ! हिमालय की स्थितियां कई दृष्टियों से अलग-अलग होते हुए भी आपदा के दर्द को सामूहिक रूप से भोगने को मजबूर हैं । इसके लिए एक ठोस रणनीति की जरूरत है । अगर ये नही हुआ तो राहत का ग्राफ गिरता जाएगा और तबाहियों का ग्राफ बढ़ता जाएगा । पहाड़ में बड़े बांधों की परिकल्पना जहां नए शहरों को स्थापित करने में सहायक है, वहीं यह विस्थापन का दंश भी देता है ।
आखिर यह कैसा विकास है, जो गांवों को सुरक्षित नहीं कर पा रहा है ? एयरकंडीशन में बैठकर जो नीतियां बनती हैं उनसे केवल और केवल असंतुलन की खाई ही गहरी होती है । विशेषज्ञों की राय भी इन गांवों को आपदा से बचा नहीं पा रही है, क्योंकि व्यवस्था और आस्था के बीच बिगड़ता मौसम का मिजाज जो खड़ा हो गया है । पर्यावरण में भीषण बदलाव को अगर जल्द महसूस नहीं किया गया और सही दिशा में जमीनी कार्य शुरू नहीं हुआ तो निश्चित रूप से इन आपदाओं को रोका नहीं जा सकेगा। कोसी, अलकनंदा, भागीरथी, भिलंगना, गंगा-यमुना,सरयू, काली, धोलीगंगा, महाकाली,झेलम, चिनाव आदि सभी नदियों को अविरल बहते रहने की दिशा में सार्थक प्रयास किए जाने जरूरी हैं । अगर इन नदियों के अतिरिक्त भी अन्य नदियों का अवैज्ञानिक दोहन हुआ तो पहाड़ तो क्या मैदान भी रहने लायक नहीं बचेंगे । इससे आपदाओं का सिलसिला लगातार बढ़ेगा । छोटे-छोटे नदी स्त्रोत पहाड़ के लिए वरदान साबित होते हैं, लेकिन अभी तक उनका कोई विधिवत विवरण नहीं मिलता । मानवजनित आपदाएं पर्वतीय गांवों को ध्वंस करने के लिए तैयार खड़ी हैं, पर सवाल है कि क्या सरकारी व्यवस्था इससे मुकाबला करने के लिए तैयार है ?
प्राकृतिक आपदाओं की बजाय मानवकृत आपदाओं को अवश्य रोका जा सकता है और इसी से प्रकृति में भी संतुलन आ सकता है। पहाड़ से डरे हुए गांवों में भयानक भूस्खलन, तेज जलप्रवाह, अतिवृष्टि एक बड़ी समस्या है, जिनका समाधान समय रहते खोजना ही होगा। यह खुद में एक बहुत बड़ा चिह्न है, जो हजारों लोगों का ऐसा सवाल है, जिसका उत्तर अगर नहीं तलाशा गया तो ये गांव दहशत के साये में जीने के लिए मजबूर होते रहेंगे। उलझे हुए सवालों और डर के दहशत में जीते हुए पर्वतीय क्षेत्रों के गांव संवेदनशील अवश्य घोषित किए गए हैं, पर उन्हें बचाए और बनाए रखने की संवेदनाएं कब जन्म लेंगी।
(आभार:डॉ. अतुल शर्मा)