From : Chandra Shekhar Kargeti.
बारह साल बीते, नहीं मिली राजधानी (संपादित)
मूल लेखक : हरीश चन्द्र चंदोला
यह कैसा राज्य है जिसका काम-काज बारह साल से अस्थायी, कोने में पड़ी राजधानी से चल रहा है और जिसे पता ही नहीं कि कब, कहाँ उसकी राजधानी बनेगी ? इन बारह सालों में उत्तराखंड में छ: मुख्यमंत्री, जिनमें से एक ने भी स्थायी राजधानी के बारे में लोगों से बातचीत नहीं की। सभी यह विषय टालते रहे।
इसकी अस्थायी राजधानी देहरादून देश की राजधानी दिल्ली तथा अन्य भागों से रेल, हवाई जहाज तथा सड़कों से अच्छी तरह जुड़ी है, किन्तु अपने राज्य से यह केवल एक बहुत ही बदहाल तथाकथित राजमार्ग, जो आए दिन कहीं न कहीं बंद रहता है, से जुड़ा है। राजधानी का अपने राज्य से बहुत कम संपर्क है। संपर्क ही नहीं, लोगों तथा सरकार के बीच संवाद भी कम है। यहाँ के लोगों ने अपने एक पर्वतीय राज्य की लड़ाई लड़ी और जीती थी। किन्तु संवाद न होने से यहां जनता की सबसे मुख्य तथा बडी मांग पर सरकार लगातार चुप्पी साधे रहती है। लोग कह रहे हैं: “पहाड़ की राजधानी पहाड़ में हो“, लेकिन देहरादून इतनी दूर है कि वहाँ तक यह आवाज शायद नहीं पहुंच पाती।
देहरादून सुरसा के मुँह जैसा है। जो कुछ धन स्थायी राजधानी तथा विकास के लिए आता है, वह सब देहरादून के मुँह में चला जाता है। लाखों-करोड़ों रुपए देहरादून में विधानसभा, सचिवालय, राज भवन, अनेक प्रकार के कार्यालय, संस्थाएं, सड़कें, संचार साधन इत्यादि स्थापित करने में लगा दिये। इनको बनाने में वहाँ के ठेकेदार मालामाल हो गए और अभी भी हो रहे हैं। लेकिन वहाँ खर्च हुआ पैसा पहाड़ों मे नहीं आया। वहाँ ठेकेदार ही नहीं मज़दूर और लगभग सभी प्रकार के काम करनेवाले पहाड़ से बाहर के लोग हैं। पहाड़ों में बेरोजगारी बढ़ रही है, जिसे कम करने में देहरादून में किया गये काम का सहयोग नहीं मिला। इतना सारा धन आने पर देहरादून अन्य बडे शहरों का प्रतिरूप बन रहा है। वहाँ शापिंग माल, शेयर, आभूषण तथा अंतर्राष्ट्रीय सेवाएं बेचने वालों की दूकानें खुल रही हैं और तरह-तरह के स्कूल तथा कालेज भी, जो हवाई जहाजों में परिचारिकाओं तक का काम सिखाते हैं, और जिनका पहाड़ की साक्षरता से कोई सम्बन्ध नहीं है। देहरादून एक द्वीप बन गया है, अपनी चारों ओर की भूमि से कट कर। कितना भी धन देहरादून में खर्च किया जाये, उसका कोई भी प्रभाव पहाड़ों पर नहीं पड़ने वाला है। यह ऐसा ही होगा जैसे वह धन अमेरिका, योरोप या अंतरिक्ष में खर्च किया गया हो। इस सब के बावजूद उत्तराखंड में कोई पार्टी नहीं है जिसे खुल कर यह कहने का साहस हो कि प्रदेश राजधानी अब देहरादून में ही रहेगी और उसे वहीं रहने दो, क्योंकि ऐसा कहना लोगों की आशाओं के विपरीत होगा।
आरंभ से ही मंत्री तथा नौकरशाह राजधानी को देहरादून में ही रखना चाहते थे। वहाँ सब सुविधाएं उपलब्ध थीं। देहरादून में मंत्री, राजनीतिज्ञ तथा नौकरशाह क्या कर रहे हैं, उसका पहाड़ के लोगों को पता नहीं चल पाता। देहरादून सैकड़ों किलोमीटर की दूरी पर ही नहीं है, पहाड़ के लोगों से भावना से भी कटा है। दो-चार लाईन की खबरें जब अखबारों में छप जाती हैं तब कहीं सरकार के कामों के बारे में कुछ मालूम होता है। यहाँ पढे़ जाने वाले अखबार भी सभी देहरादून में बनते, छपते हैं। उनकी नीति है कि सरकार के काम के बारे में जितनी कम खबर दो उतना अच्छा है। उनका मुख्य काम है, सरकार की सराहना कर उसे खुश रखो। उनको सरकार साल भर में करोड़ों रुपए के विज्ञापन देती है, जो उनकी आमदनी का एक मुख्य साधन हो गए हैं। सरकारी नीतियों की विवेचना-आलोचना करने से फायदे के बजाय नुकसान हो सकता है, इसलिए यही अच्छा है कि नीतियों का ज़िक्र ही नहीं करो !
भावना के रूप में लोग पहाड़ की राजधानी के लिए गैरसैंण को ही उपयुक्त मानते हैं। उसका अर्थ केवल गैरसैंण कस्बा ही नहीं है, बल्कि चमोली के कर्णप्रयाग से अल्मोड़ा के चौखुटिया तक का सारा क्षेत्र है। यदि इस क्षेत्र में राजधानी बनती तो इन नौ सालों में इस राज्य की दशा ही बदल जाती। वहाँ जाने वाला एकमात्र राजमार्ग्, जिस पर बुरी हालत के कारण, बहुत धीमी गति से वाहन चल पाते हैं और जिस पर हर साल बीसियों हादसे होते हैं, अच्छी स्थिति में होता। उस पर पड़ने वाले नगर और गांवों का विकास होता। संचार साधन उत्तम बनते। अभी मोबाइल फोन से बात करने कुछ जगहों पर लोगों को पेड़ों पर चढ़ना पड़ता है, ताकि संचार टावरों से संपर्क हो सके। जो करोड़ों के ठेके देहरादून में राज्य सरकार साधनों के लिए देती है, वह पहाड़ के लोगों को मिलते और वह धन पहाड़ में समाता और काम आता। देहरादून में खर्च किया धन सब बाहर चला जाता है। उसमें से कुछ भी पहाड़ नहीं आता। पहाड़ में राजधानी बनती तो बहुत काम खुलता और यहाँ के लोगों की बेकारी दूर होती।
मंत्री तथा अधिकारी यदि पहाड़ के किसी नगर में होते तो पहाड़ के लोगों को उनसे मिलने में आसानी होती। अभी तो पता भी नहीं लगता है कि मंत्री देहरादून में हैं या दिल्ली में ! राजधानी यदि पहाड़ के केन्द्र में होती तो मंत्री तथा अधिकारियों का राज्य से बाहर जाना इतना आसान न होता। यहाँ रहने से पहाड़ की समस्याएं जानने, सुनने वह अधिक समय देते।
राजधानी कहाँ हो, यह तय करने एक कमीशन बैठाया गया था, जो सात-आठ साल वेतन लेने के बाद कह गया कि देहरादून ही राजधानी के लिए सबसे उपयुक्त है। उसका एक भी तर्क सही नहीं था। उसने पहाड़ के लोगों की भावना की सरासर अनदेखी की थी। अब लोगों को राजधानी के सवाल पर विभाजित किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि कई स्थान, जैसे टिहरी, उत्तरकाशी, कोटद्वार, पौड़ी, देहरादून राजधानी से निकट हैं। लेकिन वह कई स्थानों, जैसे मुन्स्यारी, से लगभग तीन दिन के रास्ते पर है। गैरसैण केन्द्र में पड़ता है और पहाड़ में कहीं से भी एक दिन से अधिक की दूरी पर नहीं है। राजधानी वहाँ बनने पर लोगों को वहाँं पहुँचने के लिए बहुत से मार्गों का विकास होता, जिससे वह और भी निकट हो जाता।
देहरादून में पहाड़ के लोगों का कोई वर्चस्व नहीं है। वहाँ कुछ पहाड़ के लोग उच्च नौकरियों से अवकाश पा अवश्य बस गए हैं, लेकिन सरकार में उनकी कोई भागीदारी नहीं है। वहां व्यापार, राजनीति, ठेकेदारी, सरकार का कामकाज अधिकतर गैर-पहाड़ी लोगों के हाथों में है। ऊपर से कुछ पहाड के मंत्री अवश्य हैं, जिनका काम है सरकारी धन बांटना-किस विभाग और क्षेत्र को कितना देना।
इस बँटवारे में भ्रष्टाचार पनपता है। नगरपालिकाओं, निकायों, विकास खंडों, यहाँ तक कि ग्राम पंचायतों को यहीं से पैसा आबंटित होता है। किसी भी नगरपालिका से पूछ लीजिए कि उसे सरकारी पैसा पाने कितना प्रतिशत आबंटन करनेवाले विभाग को देना पड़ता है। जो बता सकेंगे, वे बताएँगे कि लगभग 10 प्रतिशत देहरादून में देना पडता है । यही सड़क, पानी इत्यादि विभागों के लोग बतलाएँगे । बजट का एक भाग आबंटित करने वाला विभाग सीधे-सीधे ले लेता है । यदि यह आबंटन देहरादून के बजाय पहाड़ों में होता तो संभव था कि खानेवाले इतना पैसा नहीं माँगते । जो अधिकारी उस मिले धन को औरों को देते हैं, उनका भी हिस्सा होता है । इसीलिए प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने तब कहा था, और उनके उत्तराधिकारी अब कह रहे हैं कि यदि सरकार एक रुपया देती है तो लोगों के पास उसमें से केवल दस पैसा पहुँचता है! इसमें कोई बदलाव नहीं आया। यहाँ भ्रष्टाचार विरोधी सेनानी, पूर्व मुख्यमंत्री कहते थे कि क्या कोई आपके घर आकर घूस माँगता है ? जी नहीं । लेकिन जो धन सरकार कार्यों के लिए देती है, वह भी तो लोगों के पास से ही तो आता है। मंत्री तथा अफसरों के घरों से तो नहीं। जो देते हैं, वे उसमें से अवश्य कुछ खा लेते हैं। हाँ, घर आकर नहीं माँगते । लेकिन उनके पास किसी कारण पहुँचो तो देखो !