विकास की क्या गजब कहानी गढ़ी जा रही है, इसकी बानगी देखने के लिये आप उत्तराखण्ड आ सकते हैं।
* पर्वतीय क्षेत्रों में उद्योग शून्य ही हैं, पर्वतीय ग्रामीण अंचलों में बिजली की आवश्यकता रात के समय उजाला करने और बच्चों को पढ़ाई करने के लिये ही चाहिये। लेकिन यह विडम्बना है कि हवाई दावों के बाद उत्तराखण्ड के सुदूर गांवों में आज भी रात में बिजली नहीं आती है और बिजली अगर गलती से आ भी गई तो इतनी डिम है कि उससे उजाला भी सही से नहीं हो पाता। हां बिजली इतनी जरुर आती है कि आप विद्यार्थी को यह बता सकते हैं कि देखो बल्ब में जो जल रहा है, वह टंगस्टन का तार है।
* सड़को पर डामरीकरण हो रहा है, लेकिन उसकी क्वालिटी और क्वांटिटी क्या है? डामर के नाम पर बस सड़कें काली कर दी जाती हैं, मुश्किल से १ इंच डामर भी नहीं किया जा रहा है।
* पानी के सूखे नल मीना नातिनी ने दिखा ही दिये हैं। इसके साथ ही ६०-६० हजार में लगे हैण्डपम्प भी सफेद हाथी ही साबित हुये हैं। उत्तराखण्ड राज्य की मांग का जो दर्द था, वह यह था कि मैदानी राज्य के परिप्रेक्ष्य में जारी की जा रही नीतियां हमारे लिये निष्प्रयोज्य ही होती थी। लेकिन वाह रे उत्तराखण्ड के हुक्मरान, इन्होंने फिर वही दोहराया और उत्तराखण्ड में भी हैण्ड पम्प लगवा दिये, जो १-२ साल हांफ-हांफ कर चुप्प हो गये।
* पहाड़ों की सड़को की हालत यह है कि उस पर पैदल चलना भी दूभर है, जो सड़क बरसात में टूट गई थी, वह अभी तक नहीं बन पाई है, कई जगह तो सड़क पर खुद ही अस्थाई सड़क बनाकर अपनी गाड़ी पार करवानी पड़ती है।
बहुत कुछ है......कहो तो क्या कहो, करो तो क्या करो, क्योंकि जो कर सकता है,......वह कुछ और ही कर रहा है।