लोक साहित्य की अवहेलना विनास लाती है
भीष्म कुकरेती
तीन चार दिन पहले उत्तराखंड ने भूस्खलन , बाढ़ त्रासदी झेली। टीवी चैनलों और इंटरनेट सोसल मीडिया ने इस खबर को हर भारतीयों तक पंहुचाया और कंहीं ना कंही हिमालय पर्यावरण सुरक्षा पर लोगों को सोचने को मजबूर कर ही दिया।
जो मेरी उम्र के हैं और जिनका जन्म पहाड़ों में हुआ है उन्हें पता है कि भळक (पानी के साथ मिट्टी का उफान ) केवल कुछ मिनटों का होता है और इतने समय में सारा खेल खत्म हो जाता है।
नदियों में अथवा गाड -गदनो में अचानक बाढ़ आना , भूस्खलन होना पहाड़ों के लिए नये नही हैं और ना ही ऐसी विनाशकारी घटनाएँ रुकेंगी। भूतकाल में इससे भी बड़ी विनाशकारी दुर्घटनाएं उत्तराखंड में होती आयी हैं किन्तु इतना सर्वनाश कभी नही हुआ या हमारे पास रिकौर्ड उपलब्ध नही हैं।
बिटिश शासन पहले प्रकृति जनित विनाश को रोकने के लिए या सहायता हेतु कोई सरकारी तन्त्र नही हुआ करता था . आखिर हमारा पुरातन समाज कैसे इन विघटनो व प्राकृतिक विपदाओं को रोक सकने में सक्षम था?
वास्तव में समाज में एक प्रभावकारी तन्त्र था जो इन दुर्घटनाओं को रोक सकने में सक्षम था और वह तन्त्र था लोक साहित्य पर आधारित रहना और लोक साहित्य के हर दम रचना करना व उस साहित्य को दूसरी पीढ़ी तक पंहुचाना।
लोक साहित्य केवल नाच गान तक सीमित नही होता है अपितु वह अपने गाँव का इतिहास, पर्यावरण, भूगर्भ शास्त्र व भूगोल की विशेषताओं के ज्ञान को सूचित करने व सरक्षित करने का भी होता था।
पहले प्रत्येक गाँव में एक ज्ञान बांटा जाता था कि इस गाँव में किस प्रकार के मकान बनने चाहिए व कहाँ मकान बिलकुल नही बनने चाहिए। पहले लोक साहित्य के जरिये प्रत्येक गांववासी को ज्ञान होता था कि मकान बनाने से पहले पहाड़ (पथरीला भाग ) की स्थिति क्या होनी चाहिए और बारिश,ठंड, पाला , बर्फ से बचने के लिए मकान की वास्तु क्या होना चाहिए। केदारनाथ में विनाश हुआ किन्तु केदारनाथ मन्दिर अभी भी खड़ा है तो इसका अर्थ है कि जब केदार मन्दिर बना होगा तो पता किया गया होगा कि पानी और भळक आने की स्थिति में भी मन्दिर को हानि नही होगी। बद्रीनाथ के पास माणा व बामण गाँव प्राचीन काल से हैं किन्तु केदारनाथ पहाड़ी पर गाँव ना होना हमे आगाह करता है कि वह पहाड़ जनसंख्या का बोझ सहन करने में असक्षम्य है।
हमारे पुरखे अपने लोक साहित्य की पूजा करते थे और उस पर मनन करते थे व क्रियावनित भी करते थे. मै अपने गाँव का उदाहरण दूँ तो ज्ञात होता है कि हमारे पुरखे अपने लोक साहित्य की इज्जत करते थे. लोक विश्वास था कि गाँव की जनसंख्या नही बढनी चाहिए। मेरा गाँव सात आठ सौ साल पुराना है और इतिहास गवाह है कि यहाँ से हर पचीस -पचास साल में परिवार पलायन कर दुसरे गाँव वसाते थे और भूमि पर अनावश्यक जनसंख्या का बोझ कम करते जाते थे. फिर बहुत सी जगहों को अशुभ नाम दिया जाता था कि वहां कोई मकान न बने। मैंने इतिहास व भूगोल , वनस्पति शास्त्र की दृष्टि से पाया तो इन अशुभ जगहों पर भळक आता था या भळक आने की संभावनाएं अभी भी हैं। धरती को मकान के लिए शुभ या अशुभ बतलाने में ख़ास वनस्पति होने का भी हाथ होता था। यदि किसी धरती में तूंग, किनगोड़ा या सुरै प्रचुर मात्रा में पैदा होते थे तो उस धरती को मकान के लिए अशुभ माना जाता था। बहुत सी जगहों पर विशेष घास का जमना उस जगह के शुभ या अशुभ होने का संकेत देता था. शुभ या अशुभ का अर्थ होता था कि जगह भौगोलिक व भूगर्भीय हिसाब से मकान बनाने के लायक है कि नहीं?
गाड गदन के पास मकान या गौसाला या अनाज भंडार गृह बनाना हो तो गाड गदन के बहाव व गाड गदन या नदी के स्यूँसाट (पानी की आवाज ) सम्बन्धी लोककथनों का सहारा लिया जाता था। वास्तव में गाड -गदन -नदी के पानी की आवाज या स्यूँसाट उस स्थान की भौगोलिक व भूगर्भीय स्तिथि का पूरा विवरण देता है।
गाय पालन को भेड़ -बकरी -घोड़े-भैंस पालन से अति उत्तम माना जाता था और यह लोक कथन भी हमारे पुरखों का समुचित लोक ज्ञान का परिचायक है। हमारे क्षेत्र में एक पुरानी कहावत चलती थी ," तै गाँव मा ढिबर-बखर बिंडी छन तख बेटी नि दीण, जरूर तै गाँ मा लखडु कमी रालि'. यह कहावत या कथन भेड़- बकरियों की संख्या और लकड़ी लायक पेड़ों के मध्य एक रिश्ता बयान करता था।
आज सडकें बनाने पर जोर दिया जा रहा है जो सही भी है। पहाड़ी क्षेत्रों में गुरबट याने पगडंडी कहाँ खोदी जाय के लिए भी स्थानीय लोक कथन होते थे और जहां उपरी भाग से मिट्टी या पत्थर गिरने का भय होता था उस रास्ते गुरबट नही बनते थे।
आज विकास एक आवश्यकता है किंतु पहाड़ों के विकास में पहाड़ी संस्कृति, पहाड़ी लोक साहित्य , स्थानीय लोक साहित्य, स्थानीय लोक कथनों को भी याद रखना उससे भी अधिक आवश्यक है। नदी किनारे मकान दुकान बनाने के लिए प्रकृति के नियमों की अवहेलना को विकास नही कहा जा सकता है।
पहाड़ों में प्रत्येक युग में नई तकनीक को अपनाया जाता रहा है किंतुं हमारे पुरखे प्रत्येक तकनीक को स्थानीय आवश्यकता के हिसाब से ढाल कर आयातित तकनीक में आवश्यक परिवर्तिन करते जाते थे। अब पहाड़ों में नई तकनीक को पहाड़ों के हिसाब से बदलने का रिवाज सर्वथा समाप्त हो गया है। जापानी ढंग से बद्रीनाथ में धान लगाये जायेंगे या लोहे के वेस्टर्न हलों से पहाड़ी खेतों में हल चलाया जाएगा तो इन नई तकनीकों से तकलीफ होनी ही है। मोटर सडक बनाने के लिए पहाड़ो का कटान जरूरी है किंतु कटान यदि बम फोड़ कर किया जाएगा तो वह नई तकनीक हानिकारक ही होगी।
आज आवश्यकता है स्थानीय लोक कथ्यों और लोक कथनों को सामने रखा जाय और फिर विकास किया जाय। यदि हम 'सरगा दिदा पाणि दे पाणि दे' लोक गीत की जगह 'रेन रेन गो अवे' लोक गीत को महत्व देंगे तो केदार घाटी जैसा विनास ही हर साल देखने को मिलेगा। साल -शीसम और बांज काटने के लिए अलग अलग तरह की दरातियों की आवश्यकता पडती ही है। यदि बांज और शीशम के पेड़ों का कटान एक ही तकनीक से होगा तो बंजण (बांज का वन ) को तो नुकसान पंहुचेगा ही।
आज आवश्यकता नई तकनीक को स्थानीय भूगोल -वनस्पति -भूगर्भ अनुसार (लोक हिसाब से ) अनुकूलित करने का है जिससे केदार घाटी जैसा विनास देखने को न मिले।
Copyright @ Bhishma Kukreti 22/06/2013