नौ जिलों में सिर्फ चार माह खाने भर खेती!Aug 06, 12:21 am
देहरादून। उत्ताराखंड के 13 में से नौ पर्वतीय जिलों में 'जय किसान' का नारा संकट में है। हरित क्रांति का दशकों पुराना सपना यहां अंकुरित ही नहीं हुआ। इन जिलों में खाद्य सुरक्षा अब तक हासिल नहीं की जा सकी है और हकीकत यही है कि चावल-गेहूं की पैदावार चार महीने के खाने पर ही हो पाती है।
कृषि विभाग के अनुसार, राज्य के चार मैदानी जिलों को छोड़कर नौ जिलों में चावल पैदा होने वाले 1,42,588 हेक्टेयर खेतों में 97,227 हेक्टेयर तथा गेहूं पैदा होने वाले 1,45,773 हेक्टेयर खेतों में 1,02,953 हेक्टेयर असिंचित हैं। मैदान के मुकाबले पहाड़ में गेहूं की उपज एक-तिहाई कम और चावल की उपज करीब आधी ही होती है। अब इन नौ जिलों के सिंचित व असिंचित खेतों में सौ फीसदी खेती हो, तब 1.9 लाख टन चावल और सवा दो लाख टन गेहूं पैदा हो सकता है। इन जिलों की आबादी वर्ष 2001 की जनगणना में 37,61,496 थी। आबादी वृद्धि दर दो फीसदी ही मानी जाए तो इन जिलों की जनसंख्या में 15 फीसदी वृद्धि हो चुकी है। 'फूड हैबिट' का राष्ट्रीय मानक 85 फीसदी आबादी को व्यस्क मानने व प्रति दिन हर व्यस्क के 0.455 ग्राम अनाज खाने का है। इस मानक से नौ जिलों की 37,61,496 जनसंख्या को साल भर खाने के लिए 6,24,690 लाख टन गेहूं-चावल चाहिए। जबकि नौ जिलों में गेहूं-चावल दोनों के उत्पादन आकलन करीब चार लाख टन का है। इस हिसाब से भी इन जिलों की आबादी के लिए करीब आठ माह भोजन के लिए ही चावल-गेहूं हो सकता है। यह आदर्श स्थिति तब होगी, जब सौ फीसदी खेत में चावल-गेहूं की खेती हो और एक खेत में एक वर्ष में दोनों फसल हों। मगर वास्तव में पहाड़ में ऐसा है नहीं। अमूमन एक ही फसल होती है और बड़े पैमाने पर खेत परती रह जाते हैं। कृषि विभाग भी मानता है कि हर साल करीब एक लाख हेक्टेयर खेत परती रह जाते हैं। इस तरह देखें तो पर्वतीय जिलों में चावल-गेहूं चार-पांच महीने से अधिक खाने भर पैदा नहीं होता। सिर्फ 14 फीसदी खेत सिंचित हैं। राष्ट्रीय जोत के औसत डेढ़ हेक्टेयर क्षेत्र के मुकाबले इन जिलों में अधिसंख्य जोत आधा हेक्टेयर के हैं। आज भी सिंचाई के परंपरागत साधनों हौज, गुल, हाइड्रम का ही इस्तेमाल होता है। खेत बिखरे हुए व ऊंचे-नीचे हैं। चकबंदी नहीं है। खेतों पर जंगली जानवरों का आक्रमण बना रहता है। खेती से आय लागत के मुकाबले काफी कम है। गांवों से आबादी का शहरों की ओर पलायन हो रहा है। यह सब पर्वतीय जिलों में खेती के लगातार घटने की वजहें हैं।