हल्द्वानी: वनों में बढ़ते मानवीय हस्तक्षेप, अवैध शिकार, बदलते मौसम और इन दिनों जंगलों की आग ने वन्य जीवों को संकट में डाल दिया है। वन्य जन्तुओं पर हिमालयी की नमी समाप्त होने का भी असर पड़ा है उनमें हिम तेंदुआ, कस्तूरी मृग, हिमालयी भालू, निचली हिमालयी घाटियों में रहने वाले गुलदार तथा पक्षियों में डफिया, मोनाल तथा पहाड़ी बटेर आदि मुख्य हैं। इसके साथ ही हिमालयी क्षेत्र में तस्करों की नजर वन औषधियों पर भी पड़ी है जो 3 हजार मीटर से लेकर 5 हजार मीटर तक की ऊंचाई पर उगती है और जिनसे परंपरागत दवाएं बनायी जाती है।
हिमालय के मौसम के बिगड़ने की सबसे बड़ी मार हिम तेंदुए पर पड़ी है। वन विभाग की सूचना के अनुसार 1984-85 में गढ़वाल व कुमाऊं के हिमालयी क्षेत्र में हिम बाघों की संख्या छह थी। इसके बाद हिम बाघ दिखना बंद हो गये। 3600 मीटर से 4000 मीटर की ऊंचाई पर पाया जाने वाला मूल रूप से एशियाई प्रजाति का यह बाघ दो फुट लंबा व 50 किलो वजन तक का होता है, भेड़, बकरी, भालू, थार, कस्तूरी व खरगोश इसका भोजन हैं। यूरोपीय देशों में हिमबाघ की खाल से बनने वाले फर के कोटों की कीमत करीब 20 लाख रूपये तक है। इसी कारण इस प्रजाति का आज अतापता नहीं है।
यही हाल कस्तूरी मृग है यह बारहसिंघा व हिरन के मध्य का वन्य पशु है। हिमालयी क्षेत्रों में अकेला अथवा जोड़े में रहने वाला भूरे रंग का यह जानवर 2700 मीटर से अधिक ऊंचाई वाले बुग्यालों व तीव्र ढलानों में पाया जाता है। इसमें पायी जाने वाली सुगंधित कस्तूरी के कारण इसका बेताहशा शिकार किया जा रहा है। जाड़ों में जब ऊपरी क्षेत्रों में बर्फ पड़ती है तब यह निचली घाटियों की और रुख करता है और शिकारियों की चपेट में आ जाता है।
वनों में बढ़ते मानवीय हस्तक्षेप ने तेंदुवे को नरभक्षी बना दिया है। हालत यह है कि तेंदुवे के लायक न तो परंपरागत सघन वन क्षेत्र रह गये हैं और न ही इसके शिकार के वनों में इसके लिए भोजन बचा है। जिस कारण इसकी प्रवृत्ति नरभक्षी रह गई है। इसी कारण भोजन की तलाश में इसे जंगल छोड़ आबादी के बीच आना पड़ रहा हैं जहां यह कभी तो कभी इंसानों को अपना शिकार बना रहा है।
हिमालयी भालू का नाम अब किताबों तक सीमित रह गया है। पित्त व खाल की खातिर शिकारियों द्वारा इस जानवर का शिकार खूब शिकार किया गया है। नेपाल के वनों में विशेष रूप से इसे मारकर, इसके पित्त व खाल को तिब्बत के बाजार में बेचते हैं जहां से यह ताइवान व हांगकांग तक पहुंचता है इस भालू की खाल काठमांडो के तस्कर मार्केट में काफी महंगी बेची जाती है और इसके पित्त की कीमत 3500 रुपये प्रति 10 ग्राम तक है। आज यह हिमालयी भालू लगातार विलुप्त हो रही प्रजातियों की श्रेणी में आ गया है।
यही हाल हिमालय में पाये जाने वाले पक्षियों का भी है इसमें मोनाल उत्तर-पश्चिमी हिमालयी क्षेत्र में रतिया कबन, गढ़वाल में दतिया, सिक्किम में चमडोंज तथा नेपाल में डंफी नाम से जाना जाता है। इसकी सुंदरता कलगी तथा हरे कांसे व गहरे रंग के कारण यह हिन्दुस्तान के सबसे अधिक सजे-संवरे पक्षियों में से एक है। यही पक्षी घौसला नहीं बनाता किसी चट्टान या सूखे पेड़ के छेद में अंडे देता है। कोमल जड़ पदार्थो, कीड़े-मकोड़ों व फलों पत्तियों को अपना भोजन बनाते हैं। मोनाल का मुख्य आकर्षण इसकी पंख सहित खाल है जिसको उतारकर लोग सजावट के लिए प्रयोग करते हैं। इसी कारण इसका शिकार हो रहा है यह दुर्लभ पक्षियों की श्रेणी में आ गया है।
वन्य जीवों के संरक्षण के लिए यदि जल्द ही उचित कदम नहीं उठाये गये तो इनकी कहानियां किताबों में सिमट कर रह जायेंगी और उत्तराखण्ड के साथ ही देश के अन्य हिमालयी राज्यों में भी यह वन्य जन्तु और पशु गायब हो जायेंगे।