Author Topic: How To Save Forests? - कैसे बचाई जा सकती है वनसम्पदा?  (Read 50433 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Pankaj Da,

News is similiar from other part of the state. Govt seems to be helpless to control the fire as the fire has spread in very large scale in the forest.


पौड़ी गढ़वाल। गढ़वाल वन प्रभाग के जंगलों में लगी भीषण आग के बाद हालिया बारिश ने विभागीय अधिकारियों को सुकून पहुंचाया है, किंतु आकडे़ बताते हैं कि इस दौरान दावानल की चपेट में आकर करीब 239 हेक्टेअर वन जल कर स्वाहा हो गए। इस दावानल से कई क्षेत्रों में रोपे गए पेड़-पौधे भी आग की भेंट चढ़ गए। हालाकि विभाग बसंत ऋतु में इन पेड़-पौधों के पुनर्जीवित होने का दावा कर अपना पल्ला झाड़ रहा है।

वनों की सुरक्षा एवं विकास के नाम पर हर वर्ष लाखों रुपये पानी की तरह बहाने के बावजूद भी अपेक्षित परिणाम धरातल पर नहीं उतर पा रहे है। आलम यह है कि प्रतिवर्ष 14 फरवरी से घोषित फायर सीजन के दौरान वन धू-धू कर जलने शुरू हो जाते हैं, जिसमें लाखों की वन सम्पदा जलकर स्वाहा हो जाती है। इस वर्ष भी फायर सीजन के दौरान वनों के जलने का सिलसिला शुरू हो गया था किंतु इस दौरान हुई बारिश ने विभागीय अधिकारियों की राहत पहुंचाई। गढ़वाल वन-प्रभाग की पैठाणी, पोखड़ा, दमदेवल एवं नागदेव रेंज के वन दावानल की चपेट में आकर धू-धू कर जलते रहे, हालांकि विभाग आग पर काबू पाने का दावा करता रहा। किंतु आंकड़ों पर यदि गौर करें तो इस फायर सीजन के दौरान लगी आग में करीब 239 हेक्टेअर वन दावानल की चपेट आए, जबकि नागदेव रेंज के खिर्सू बीट के वनों में लगभग दो हेक्टेअर वन में आग लगी, जिससे यहां रोपे गए बांज प्रजाति के करीब 300 पौधे जलकर नष्ट हो गए। इस बाबत गढ़वाल सर्किल के वन संरक्षक जेएस सुहाग ने बताया कि दावानल की चपेट में आकर नष्ट हुए पेड़-पौधे बसंत ऋतु में पुनर्जीवित हो जाएंगे। अलबत्ता हालिया बारिश के बाद वन विभाग के पदाधिकारियों ने राहत की सांस ली हो, किन्तु दावानल की घटनाएं यह इंगित कर रही है कि फायर सीजन में बढ़ती आग की घटनाओं पर यदि शीघ्र अंकुश लगाने की दिशा में कोई ठोस कार्यवाही अमल में नहीं लाई गई तो वन आग की भेंट चढ़ते ही रहेगे जो कि पर्यावरण असंतुलन के साथ-साथ मानव स्वास्थ्य के लिए भी घातक साबित हो सकता है।


हेम पन्त

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दावानल
« Reply #31 on: June 11, 2008, 04:01:36 PM »
इस साल पहाडो में जंगलों में भीषण आग लगी जिससे अमूल्य वनसम्पदा का भारी नुकसान हुआ.... 

 


पंकज सिंह महर

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देहरादून, जागरण संवाददाता: चिपको आंदोलन को अपनी कोख से जन्म देने वाले उत्तराखंड में जनता की धार्मिक आस्था वनों को बचाने में मददगार साबित हो रही है। यह बात यूं ही नहीं कही जा रही, बल्कि गोविंद बल्लभ पंत हिमालयी पर्यावरण एवं विकास संस्थान के शोध ने जनता के इस अमूल्य योगदान पर प्रामाणिकता की मुहर लगाई है। तमाम वैज्ञानिक अनुसंधानों और सरकारी योजनाओं के बावजूद हिमालय के पर्यावरण और जैव विविधता का संरक्षण योजनाकारों के लिए टेढ़ी खीर रहा है। ग्लोबल वार्मिग के चलते मौसम में बदलाव जारी है। इसका हिमालय के पारिस्थिकी तंत्र पर बहुत बुरा असर पड़ रहा है। गोविंद बल्लभ पंत हिमालयी पर्यावरण एवं विकास संस्थान के पर्यावरण विज्ञानी पीपी ध्यानी बताते हैं कि अब तक जो भी योजनाएं बनी हैं, उनमें स्थानीय जनता और उसकी मान्यताओं को बहुत स्थान नहीं दिया गया। जनता की धार्मिक आस्था और वैज्ञानिक तथ्यों को साथ-साथ लेकर चलने का विचार लेकर गोविंद बल्लभ पंत हिमालयी पर्यावरण एवं विकास संस्थान ने सितंबर, 1993 से दिसंबर, 2004 तक चमोली जिले के बदरीनाथ में बदरी वन संरक्षण कार्यक्रम चलाया। बदरी वन, बदरीनाथ के पवित्र वन हैं, जिनका बहुत धार्मिक महत्व है। कुछ समय से इन्हें लगातार नुकसान पहुंच रहा था। कार्यक्रम के तहत धार्मिक संस्कारों के साथ पौधों का बीजारोपण और पौधरोपण किया गया। पौधरोपण कार्यक्रमों में स्थानीय जनता को भी साथ लिया गया और उन्हें धार्मिक मूल्यों-मान्यताओं के जरिये वृक्षों की रक्षा के प्रति जागरूक किया गया। तीर्थ यात्रियों को भी बदरी वन के बारे में जागरूक किया गया। स्थानीय जनता की संस्कारगत धार्मिक चेतना की बदौलत पिछले दस साल में खत्म होता बदरी वन पुनर्जीवित हो गया। इसी तरह कुमाऊं मंडल के चंपावत जिले की लोहाघाट तहसील के कोलीढैक गांव में दिसंबर, 2004 से मई, 2007 तक संस्थान की ओर से एक वन संरक्षण कार्यक्रम चलाया गया। पवित्र वन कार्यक्रम नामक इस कार्यक्रम के तहत वहां ककिल्का वन विकसित हो गया है। पर्यावरण विज्ञानी पीपी ध्यानी का कहना है कि दोनों वन संरक्षण कार्यक्रम देश के लिए नजीर हैं। विज्ञान और धार्मिक मूल्य-मान्यताओं को अगर साथ लेकर चला जाए तो पर्यावरण संरक्षण अभियान को नया मुकाम हासिल हो सकता है।
 

पंकज सिंह महर

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..तो मुश्किल होगा जंगलों को बचानादिनेश कुकरेती, देहरादून उत्तराखंड के जंगलों में बार-बार लगने वाली आग से सबक लेते हुए प्रदेश सरकार और वन महकमे द्वारा चीड़ को हतोत्साहित करने का फैसला लिया गया है। तर्क यह है कि चीड़ (पाइनस रॉक्सबरघी) पर्वतीय वनों की जैव विविधता के लिए खतरनाक बन गया है और इसके पेड़ों से वनभूमि के अम्लीय हो जाने की बात भी सामने आई है। लेकिन, विभाग के एक अन्य शोध ने उसके इस फैसले और चीड़ को लेकर गढ़े गए तर्को पर सवाल खड़े कर दिए हैं। शोध कहता है कि चीड़ न हो तो अग्निकाल में जंगल के जंगल राख के ढेर में तब्दील हो जाएं। अभी तक यह धारणा चली आ रही थी कि वनों में चीड़ का प्रसार जैव विविधता के लिए खतरा साबित हो रहा है। चीड़ के जंगलों में जहां अन्य वनस्पतियां नहीं उग पातीं, वहीं इसका सूखा पिरूल खेतों में दीमक को निमंत्रण देता है। यही पिरूल वनों में आग लगने का प्रमुख कारण भी बनता है, जिससे वन्य जीवों का अस्तित्व खतरे में है। यह भी माना जाता है कि चीड़ जमीन से नमी भी कम कर देता है, जिससे उसकी बढ़ती तादाद पर्वतीय क्षेत्र में जल संकट को बढ़ा सकती है। प्रदेश के वन एवं पर्यावरण मंत्री बंशीधर भगत का कहना है चीड़ के नकारात्मक पक्ष को देखते हुए विभाग द्वारा इसे हतोत्साहित करने का निर्णय लिया गया। प्रदेश के चीफ वाइल्ड लाइफ वार्डन श्रीकांत चंदोला भी चीड़ के बदले चौड़े पत्ते वाले पेड़ लगाने पर जोर देते हैं। स्वयं मुख्यमंत्री ने भी इस मसले को गंभीरता से लिया है। लेकिन, सूबे में विभाग के अंतर्गत वन वर्धनिक द्वारा किए गए शोध ने इस धारणा को ही बदल दिया है कि चीड़ जैव विविधता के लिए खतरा है। शोध के निष्कर्षो ने चीड़ के बारे में प्रचलित मान्यताओं को महज भ्रम करार दिया है। शोध के अनुसार प्राथमिक कालोनाइजर चीड़ धूप से सूखकर बंजर हो रही धरती को पुन: वनीकरण योग्य तो बनाता ही है, भूक्षरण रोकने में भी अहम योगदान करता है। चीड़ के पेड़ का हर भाग किसी न किसी रूप में उपयोगी है। शोध में यह भी खुलासा हुआ है कि गर्मियों से ठीक पहले गिरने के कारण चीड़ का पिरूल वर्षाकाल में पानी को संग्रहीत करने में स्पंज की भूमिका निभाता है। इसी तरह दावानल की स्थिति में पहले खुद जलकर आग को ऊपर की ओर धकेलता है, जिससे नीचे की घास की जड़ें और भूमि में मौजूद बीज बच जाते हैं। अब वन महकमा असमंजस की स्थिति में है कि चीड़ को हतोत्साहित किया जाए या प्रोत्साहित।
 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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The way land-sliding is taking place in Uttarakhand. it is obvarious that deforstation in on high rate there. There is urgent need to empashis on afforstation through various programmes.


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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वृक्षों के अंधाधुंध कटान ने बढ़ाया जल संकटAug 06, 11:33 pm

श्रीनगर (पौड़ी गढ़वाल)। प्रादेशिक शिल्पकार कल्याण समिति द्वारा श्रीकोट गंगानाली के राजकीय पूर्व माध्यमिक विद्यालय परिसर और समीपवर्ती क्षेत्र में विभिन्न प्रजाति के फलदार और छायादार वृक्षों के 100 पौधों का रोपण किया गया।

इस अवसर पर आयोजित कार्यक्रम में वक्ताओं ने शिल्पकार कल्याण समिति की इस पहल का स्वागत करते हुए कहा कि पर्यावरण को लेकर हर व्यक्ति को जागरूक होना जरूरी है। पर्यावरण संरक्षण और संव‌र्द्धन आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है। वक्ताओं ने कहा कि पेड़ों के अंधाधुंध कटान ने जल संकट बढ़ा दिया है। श्रीकोट गंगानाली क्षेत्र तेजी से एक बड़े शहर का रूप लेता जा रहा है। अभी से यहां के पर्यावरण संरक्षण और संव‌र्द्धन के लिए युद्धस्तर पर प्रयास और कार्य किया जाना चाहिए। विद्यालय प्रधानाचार्य ने आयोजकों का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि हर सामाजिक संस्था को वृक्षारोपण अभियान चलाना चाहिए। कार्यक्रम में हयात सिंह झिंक्वाण, बीएल भारती, हरीश चंद्र आर्य, एसएल भारद्वाज, एसएल खरे ने भी विचार व्यक्त किए।

इस अवसर पर ग्राम प्रधान श्रीकोट हयात सिंह झिंक्वाण, दिनेश चंद्र, बुद्धिबल्लभ चमोली, सिद्धि लाल, समिति के संरक्षक एसएल भारद्वाज, महासचिव हरीश चंद्र आर्य, भागचंद शाह, उपाध्यक्ष एसएल खरे, कोषाध्यक्ष बीएल भारती और रघुवीर प्रसाद, रमेश खरे सहित क्षेत्र के अन्य गणमान्य नागरिकों, विद्यालय के प्रधानाचार्य ने प्रमुख रूप से पौधों का रोपण किया।

पंकज सिंह महर

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देहरादून, जागरण संवाददाता: देश के सर्वाधिक वन घनत्व वाले उत्तराखंड में हर साल हजारों हेक्टेयर जंगल आग की भेंट चढ़ जाने से बहुमूल्य वन संपदा स्वाह हो जाती है और वन महकमा चंद हजार या लाख रुपयों में क्षति का आकलन कर जिम्मेदारी से मुक्त हो जाता है। लेकिन, देखा जाए तो दावाग्नि से होने वाली यह क्षति महज राजस्व की ही नहीं होती। आग में वन्य जीव-जंतुओं के साथ ही ऐसी दुर्लभ प्रजाति की वनस्पति भी खाक हो जाती है, जिसकी कीमत नहीं आंकी जा सकती है। लेकिन, लगता नहीं है कि कभी वन महकमे ने दावाग्नि की गंभीरता समझने की कोशिश की होगी। फायर सीजन शुरू होते ही उत्तराखंड के जंगलों में आग का भड़कना अब सामान्य बात हो गई है और आग भी ऐसी कि यदि समय रहते बादल न बरसें तो सब-कुछ स्वाह हो जाए। हालांकि, इस वर्ष समय पर मानसून आने से बादल बरसने लगे थे, जिससे जंगल तबाह होने से बच गए। इसके बावजूद वन विभाग के रिकार्ड में 1595.35 हेक्टेयर जंगल आग की भेंट चढे। यह आंकड़ा पिछले वर्ष के मुकाबले 1032.91 हेक्टेयर अधिक है। इससे स्पष्ट है कि पूर्व की अपेक्षा इस वर्ष तीन गुना अधिक वन आग की भेंट चढ़ गए। यह स्थिति निश्चित रूप से चिंताजनक है। उत्तराखंड वन सांख्यिकी के पिछले सात सालों के आंकड़े टटोलें तो इस अवधि में 20266.79 हेक्टेयर वनक्षेत्र दावाग्नि में स्वाह हो गया। वन महकमे की नजर में यह क्षति महज 49.73 लाख रुपये की है। इस दैवीय आपदा में कितने वन्य जीव काल-कवलित हुए, बहुमूल्य वन संपदा का प्रतिशत क्या रहा, इसका कोई ब्योरा विभाग उपलब्ध नहीं कराता।
 

dinesh_ua

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1- one tree per child.
2- actionable procedures in case of fire
3- prevention of corruption at both, forest dept & social level.
4- federated housing projects
5- green houses
6- tangible rewards for restoration work.
7- group migration to township areas.
8- relaunch of biogas, waste recycling projects.
9- affordable gas promotion
10-solar power projects and maintenance

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Thanx Dinesh JI,

These are really good steps.

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Anubhav / अनुभव उपाध्याय

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Thanks for the suggestions hope to see you more on the forum.

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