देहरादून। जंगलों को दावाग्नि से बचाने के लिए वन महकमे के दावों की हवा निकलने लगी है। इस वर्ष जैसा मौसम का मिजाज है, उससे तो आने वाले दिनों में वन महकमे की मुश्किलें कम होने के आसार नजर नहीं आ रहे। आलम यह है कि गर्मी की दस्तक के साथ ही पहाड़ में जंगल सुलगने लगे हैं और अगर इंद्रदेव रूठे रहे तो वनाग्नि की रोकथाम के लिए विभाग को नाकों चने चबाने पड़ेंगे।
उत्तराखंड में 34650.444 वर्ग किमी क्षेत्र में जंगल हैं, जिन्हें सुरक्षा के मद्देनजर 13 वृत्त, 44 प्रभाग, 284 रेंज व 1503 बीटों में बांटा गया है। भारी-भरकम विभागीय अमले के बावजूद हर वर्ष फायर सीजन शुरू होते ही सूबे के जंगलों में आग भड़कना आम बात है और इस बार तो हालात ज्यादा चिंताजनक हैं। पूरी सर्दी बिन बरसात गुजर गई और गर्मियों में मौसम साथ देगा, इसकी भी संभावना कम ही है। विभाग भी यह मानता है कि मौसम के साथ न देने से इस मर्तबा चुनौतियां अधिक होंगी। इससे निबटने को विभाग की ओर से पूरी तैयारी का दावा किया गया था। इसके लिए फायर लाइनों का निर्माण व सफाई, फॉरेस्ट फायर ड्रिल, प्रभाग, जिला, ब्लाक व ग्राम स्तर पर समितियों का पुनर्गठन, क्रू-स्टेशनों की स्थापना, आग बुझाने में इस्तेमाल होने वाले उपकरणों की पर्याप्त उपलब्धता, दैनिक श्रमिकों की नियुक्ति के साथ ही संचार तंत्र को दुरुस्त किए जाने के दावे भी किए थे। इन दावों की गर्मी की दस्तक के साथ ही हवा निकलने लगी है। गढ़वाल मंडल के चमोली, जोशीमठ, पौड़ी, लैंसडौन आदि वन प्रभागों के साथ ही कुमाऊं मंडल के कई हिस्सों में तो अभी से जंगलों में दावाग्नि भड़क उठी है। इससे बड़ी तादाद में बहुमूल्य वन संपदा और कितने ही वन्य जीव-जंतु भेंट चढ़ गए होंगे, इसका अंदाजा ही लगाया जा सकता है। हालांकि, वन महकमा इसे सामान्य क्रम का हिस्सा मान रहा है। इस परिदृश्य के बीच इतना तय है आने वाले दिनों में भी मौसम की बेरुखी जारी रही तो दावाग्नि पर अंकुश लगा पाना टेढ़ी खीर होगी। हालांकि, विभाग हमेशा ही यह लकीर पीटता है कि जंगलों को आग से बचाना प्रत्येक व्यक्ति का दायित्व है। लेकिन, यह समझने की कोशिश शायद ही हुई हो कि लोगों पर जिम्मेदारी आयद कर लेने भर से दायित्वों का निर्वहन नहीं होता। इसके लिए विभाग को अपनी कार्यप्रणाली में बदलाव लाना ही होगा।
यह बात सही है कि जंगल को आग से बचाने का काम हर आम आदमी का है, पहले ग्रामीण इस काम को पूरी तन्मयता से और अपनीए जिम्मेदारी समझ कर करते भी थे। लेकिन अब लोग ऎसा क्यों नहीं करते? इसकी तह में सरकार को जाना चाहिये, पहले जंगल पर उस आम आदमी का अधिकार था, तो उसे वह अपना लगता था और उसकी देख-रेख करना वह अपना दायित्व समझता था, मानता था। लेकिन सरकारी तंत्र ने उसे इस जंगल से दूर कर दिया, जंगल और पर्यावरण बचाने के लिये सरकारों ने, नियम-कानूनों ने लोगों को जंगल से बाहर कर दिया, उसका जंगल में जाना, घास लाना, लकड़ी लाना बैन कर दिया, तो लोग भी जंगल से विमुख हो गये.........मैने कई बार लोगों से सुना कि सरकार का जंगल है, वह बुझाये आग, ज्ब हम इसके अन्दर भी नहीं जा सकते, सूखी-गिरी लकड़ी नहीं ला सकते तो हमें क्या, जले-बचे। उस बेचारे की सोच यहां तक डेवलप नहीं हुई है कि जंगल से ईको-सिस्टम को राहत होगी, पर्यावरण, ग्रीन-हाउस गैस....आदि-आदि। उसकी सोच व्यवहारिक हो गई है कि "तू मेरा नहीं तो मैं तेरा क्यो?" सरकार को इस बात को पहले तो खुद समझना होगा और लोगों को भी समझाना होगा कि जंगल की महत्ता घास-चारे-लकड़ी के अलावा भी है और सरकार को जंगलों को आम आदमी के हवाले करना चाहिये, उसे उसका अधिकार देना चाहिये, वन नीति विलेजर्स फ्रेंडली होनी चाहिये।
बिना जन सहभागिता के उत्तराखण्ड जैसे विषम भौगोलिक परिस्थिति वाले राज्य में वनों को नहीं बचाया जा सकता, क्योंकि यहां आग चाहे ऊपरी सिरे से लगे या निचले सिरे से लगेगी पुरे पहाड़ में और इसमें बीच में पानी के खाल भी पहाड़ों पर नहीं होते जो मैदानी क्षेत्रों के वनों में हो सकते है और आग यहां पर आकर रुक जायेगी। एक पतरौल इस जंगल की आग को बुझाने के लिये पर्याप्त नहीं है।