Author Topic: How To Save Forests? - कैसे बचाई जा सकती है वनसम्पदा?  (Read 50621 times)

Anubhav / अनुभव उपाध्याय

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Yeh kaafi had tak forest office aur Vanmaafia ki madad se hota hai. Aag lagane ke baad nai ghaas achhi aaegi yeh soch kar bahut gaanv vaale bhi yeh kaam karte hain.

पंकज सिंह महर

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दिनेश कुकरेती, देहरादून चीड़ के पेड़ों से आच्छादित जंगल बरबस आंखों को मोह लेता है लेकिन कुदरत का यही नजारा उत्तराखंड के लिए जी का जंजाल बनता जा रहा है। फायर सीजन में चीड़ की पत्तियां (पिरुल) चिंगारी साबित हो रही हैं। इतना ही नहीं इन जंगलों के फैलाव से आसपास के पानी के स्रोत सूख रहे हंै और चीड़ के साए में दूसरी वनस्पतियां भी फल-फूल नहीं पा रहीं। देर से ही सही वन विभाग की नींद टूटी। अब विशेषज्ञों से सुझाव मांगकर इस पर नियंत्रण की नीति बनाने पर मंथन शुरू हो गया है। कोशिश की जा रही है कि इन वृक्षों के व्यावसायिक पक्ष को बढ़ावा दिया जाए। वैसे तो 53483 वर्ग किमी. क्षेत्रफल वाले इस प्रदेश का 34650.44 वर्ग किमी. हिस्सा वनों से आच्छादित है लेकिन, हालात को देखें तो यह आंकड़ा हकीकत को झुठलाता प्रतीत होता है। आए दिन सैकड़ों हरे-भरे पेड़ विकास की भेंट चढ़ जाते हैं, लेकिन इसकी जानकारी शायद ही आमजन को मिलती होगी। आश्चर्यजनक बात यह है कि मौजूदा वन क्षेत्र में साल, बांज, बुरांस, कैल, शीशम, अतीस जैसी प्रजातियां निरंतर घट रही हैं, जो जमीन में जल स्तर बनाए रखने में मददगार साबित होती हैं जबकि, चीड़ वनों का फैलाव गंभीर संकट की वजह बनता जा रहा है। वर्तमान में वन विभाग के अधिकार वाले कुल वन क्षेत्र के 16.10 फीसदी हिस्से, यानि 393035.81 हेक्टेयर भूभाग में चीड़ के जंगल फैले हैं, जबकि अन्य प्रजातियों का प्रतिशत इससे काफी कम है। सिर्फ बांज 15.08 प्रतिशत और साल 12.82 प्रतिशत ही इसके आसपास ठहरते हैं। हालांकि, चीड़ का वनक्षेत्र भी पिछले वर्ष के मुकाबले 6293 हेक्टेयर घटा है, लेकिन इस पर संतोष नहीं किया जा सकता क्योंकि, चीड़ की खासियत ही यह है कि वह विपरीत परिस्थितियों में भी पनप जाता है, जबकि चीड़ वनों में अन्य वनस्पतियां नहीं पनप पाती हैं। पर्यावरणविदों की चिंता यह है कि यदि इसी तरह चीड़ वनों का विस्तार होता रहा तो भविष्य में न तो नदी घाटियों के गधेरे बच पाएंगे और न नौले, धारे, चाल-खाल ही। इसलिए वन विभाग को सभी पर्वत चोटियों की परिधि में, उसके ऊपरी भाग से नीचे की ओर डेढ़-दो किमी की दूरी तक बांज वृक्षों का सघन रोपण, संव‌र्द्धन एवं चीड़ वृक्षों को क्रमश: कम करने का कार्य युद्धस्तर पर पूरा करना चाहिए। इससे जल भंडारण तो बढ़ेगा ही, गधेरों, नौलों, धारों व नदियों के स्रोत पुनर्जीवित हो सकेंगे। इसके लिए वन विभाग में समयबद्ध लक्ष्यांक निर्धारित किया जाना चाहिए। वन विभाग के उप वन संरक्षक (मुख्यालय) प्रेम कुमार भी मानते हैं कि चीड़ का फैलाव एक गंभीर चुनौती है। वह कहते हैं कि वनों में आग लगने की 75 फीसदी घटनाओं के लिए चीड़ की पत्तियां (पिरुल) जिम्मेदार हैं। इसलिए इसे नियंत्रित करने को विशेषज्ञों से सुझाव मांगे जा रहे हैं। विभाग चीड़ के अधिकाधिक व्यावसायिक उपयोग पर भी ध्यान केंद्रित किए हुए है। साथ ही मिश्रित वनों के प्रसार के भी प्रयास चल रहे हैं।

पंकज सिंह महर

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jagran news Jun 24, 02:45 am

जैंती (अल्मोड़ा): पिछले दो दिनों से डोल के जंगल में लगी भीषण आग के आबादी क्षेत्र में पहुंच जाने से ग्रामीणों में हड़कम्प मचा हुआ है। मीलों लंबे क्षेत्र में लगी आग से जहां करोड़ों की वन संपदा नष्ट हो गयी है। ग्रामीणों के अनुसार जंगल में चल रहे लीसा गढ़ान कार्य से सैकड़ों की संख्या में लीसे के टिन आग की भेंट चढ़ गए है। लोगों की शिकायत पर जिला प्रशासन ने फायर ब्रिगेड तो भिजवाई, लेकिन पहुंच से परे होने के कारण फायर ब्रिगेड कारगर साबित नहीं हो सकी।

पिछले 24 घंटे से सैकड़ों ग्रामीणों द्वारा आग बुझाने की कोशिश के बावजूद आग बुझने के बजाय बढ़ती जा रही है। अल्मोड़ा, नैनीताल, चम्पावत वन प्रभाग की सीमा पर स्थित 750 एकड़ जंगल का 90 प्रतिशत भाग जलकर राख हो जाने से यहां निवास करने वाले वन्य जीव घुरड़, काकड़, बारहसिंगा, बाघ, भालू, राज्य पक्षी मोनाल, तीतर, चकोर सहित सैकड़ों प्रजातियों के वन्य जीवों के नष्ट होने का अंदेशा है।

वन पंचायत सरपंच पान सिंह फत्र्याल का कहना है कि उक्त क्षेत्र में डोल, डामर, क्वेटा, दौ, घोड़िया, बोरागांव सहित दर्जनों गांवों की महिलाएं रोजाना घास, लकड़ी के लिए जाती है। चारों ओर से लगी आग के बीच जनहानि की भी आशंका है। पूर्व सरपंच नारायण सिंह फत्र्याल ने बताया कि आग के पौराणिक विष्णु मंदिर के समीप पहुंचने से इसको क्षति पहुंचने की आशंका है।

पंकज सिंह महर

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jagaran news Jun 24, 02:45 am

अल्मोड़ा: जंगलों में धधकती आग का ही नतीजा है कि जंगली जानवर आबादी में घुसने लगे है। स्थिति यह हो गई है कि नगर से लगे ग्रामीण इलाकों में मवेशीखोर बाघ ने आतंक मचाना शुरू कर दिया है।

मुख्यालय से जुड़े ग्राम सरस्यूं में पिछले 15 दिनों में बाघ ने 7 मवेशी मार दिए है। जिसमें बैल, गाय, बकरी शामिल है। नगर से लगे इस गांव की आबादी से लगे इलाके में बाघ ने गत रात्रि बची सिंह का बैल मार डाला। इसके अतिरिक्त गांव के अन्य ग्रामीणों की बकरियां, गाय व पालतू कुत्ते तो कई मार दिए है। इस बात को लेकर ग्रामीणों में भय व्याप्त है। ग्रामीणों ने वन विभाग व जिला प्रशासन से मवेशीखोर बाघ के आतंक से निजात दिलाने की मांग की है।

इधर सोमेश्वर के गुरुड़ा गांव में उस समय अफरा-तफरी मच गई जब जंगलों में लगी आग से घबराया बाघ गांव में घुस गया। 6 घंटों तक बाघ ने गांव में डेरा जमा दिया। इन 6 घंटों में पूरे गांव के लोग खाना तो छोड़ पानी पीना भी भूल गए। सबसे पहले ग्रामीणों ने प्रात: 8 बजे बाघ को गुरुड़ा गांव के गधेरे में देखा।

पंकज सिंह महर

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रुद्रप्रयाग। आग से राख हो रहे जंगलों को मिश्रित वनों से बचाया जा सकता है। प्रसिद्ध पर्यावरणविद् जगत सिंह जंगली की मिश्रित वनों की पहल एक नई राहत दिखा रही है।

वन संपदा या तो आग में स्वाह हो रही है या फिर भूस्खलन की चपेट में आने से चौपट हो रही है। पर्वतीय क्षेत्र में कई इस तरह की प्रजाति के वृक्ष हैं, जो भूस्खलन से बचाव में कारगर साबित हो सकती हैं। कई प्रजाति के वृक्ष ऐसे भी हैं जो वनों में बढ़ रही आग की घटनाओं को रोकने में सहायक हो सकती हैं। जनपद के कोट जसोली निवासी प्रसिद्ध पर्यावरणविद् जगत सिंह जंगली ने पांच हेक्टेयर क्षेत्र में पिछले तीस वर्षो से मिश्रित वन तैयार किया है। श्री जंगली पहाड़ के लिए मिश्रित वन को सबसे उपयुक्त मानते हैं। उनका कहना है कि मिश्रित वन जल, जंगल के लिए जरूरी है। मिश्रित वन में दो तरह की प्रजातियां हैं, जो उच्च ऊंचाई व कम ऊंचाई पर विकसित किए गए हैं। देवदार, बांझ, बुरांश, काफल, अंयार, उतीस, हेरिंज, सुराई, अंगू, पांगर ऊंचाई पर होते हैं, जबकि कम ऊंचाई पर साल, टीक, सीसम, सिरस, जामुन आदि है। जंगली बताते हैं उनके मिश्रित वनों में साठ से अधिक प्रजाति के वृक्ष हैं। इसके साथ ही वर्ष भर हरी रहने वाली घास काक्सफुट, नेपियर, पाइनलराई, ज्वाइंट स्टार, तेलिया आदि प्रमुख हैं। वह कहते हैं जिस तरह के जंगल उनके द्वारा उगाए गए हैं वह आग से बचाव में ज्यादा कारगर हैं। मिश्रित वन क्षेत्र में आग लगने की आशंका बहुत कम होती है। श्री जंगली के मिश्रित वनों को अब तक संयुक्त राष्ट्र संघ से जुड़ी समितियों समेत प्रदेश के राज्यपाल एवं देश के विभिन्न विश्व विद्यालय के वैज्ञानिक देख चुके हैं। इस तरह के मिश्रित वनों की उपयोगिता बताते हुए जंगली कहते हैं कि मिश्रित वन जैव विविधता को बढ़ाने के साथ ही भूस्खलन व दवाग्नि को रोकने में पूरी तरह सक्षम हैं।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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i saw this news in ETV yesterday. This is really a serious issue. These are man created problems. There was a coverage on River of Kotdwar which is on verge  to disappear like Swarswati River.

At various places minning works are also in progress. I feel it is a failure of Govt also .


रुद्रप्रयाग। आग से राख हो रहे जंगलों को मिश्रित वनों से बचाया जा सकता है। प्रसिद्ध पर्यावरणविद् जगत सिंह जंगली की मिश्रित वनों की पहल एक नई राहत दिखा रही है।

वन संपदा या तो आग में स्वाह हो रही है या फिर भूस्खलन की चपेट में आने से चौपट हो रही है। पर्वतीय क्षेत्र में कई इस तरह की प्रजाति के वृक्ष हैं, जो भूस्खलन से बचाव में कारगर साबित हो सकती हैं। कई प्रजाति के वृक्ष ऐसे भी हैं जो वनों में बढ़ रही आग की घटनाओं को रोकने में सहायक हो सकती हैं। जनपद के कोट जसोली निवासी प्रसिद्ध पर्यावरणविद् जगत सिंह जंगली ने पांच हेक्टेयर क्षेत्र में पिछले तीस वर्षो से मिश्रित वन तैयार किया है। श्री जंगली पहाड़ के लिए मिश्रित वन को सबसे उपयुक्त मानते हैं। उनका कहना है कि मिश्रित वन जल, जंगल के लिए जरूरी है। मिश्रित वन में दो तरह की प्रजातियां हैं, जो उच्च ऊंचाई व कम ऊंचाई पर विकसित किए गए हैं। देवदार, बांझ, बुरांश, काफल, अंयार, उतीस, हेरिंज, सुराई, अंगू, पांगर ऊंचाई पर होते हैं, जबकि कम ऊंचाई पर साल, टीक, सीसम, सिरस, जामुन आदि है। जंगली बताते हैं उनके मिश्रित वनों में साठ से अधिक प्रजाति के वृक्ष हैं। इसके साथ ही वर्ष भर हरी रहने वाली घास काक्सफुट, नेपियर, पाइनलराई, ज्वाइंट स्टार, तेलिया आदि प्रमुख हैं। वह कहते हैं जिस तरह के जंगल उनके द्वारा उगाए गए हैं वह आग से बचाव में ज्यादा कारगर हैं। मिश्रित वन क्षेत्र में आग लगने की आशंका बहुत कम होती है। श्री जंगली के मिश्रित वनों को अब तक संयुक्त राष्ट्र संघ से जुड़ी समितियों समेत प्रदेश के राज्यपाल एवं देश के विभिन्न विश्व विद्यालय के वैज्ञानिक देख चुके हैं। इस तरह के मिश्रित वनों की उपयोगिता बताते हुए जंगली कहते हैं कि मिश्रित वन जैव विविधता को बढ़ाने के साथ ही भूस्खलन व दवाग्नि को रोकने में पूरी तरह सक्षम हैं।


हेम पन्त

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इस तरह के अनुभवी लोगों के साथ विचार विमर्श करते हुए सरकार को जंगलों में लगने वाली आग से बचने के लिये व्यापक तैयारियां करनी चाहिये... जंगलों में लगने वाली आग को बुझाने के लिये योजनाएं बनाने से जरुरी बात है कि जंगलों में आग लगने से रोकने पर विचार होना चाहिये... 

Risky Pathak

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Source : Nabharat Times




एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Best Effort and awareness.



Bharat Dogra and Reshma Bharti

THE protection of forests and rivers is at the heart of protecting the ecology of the Himalayas. But any long-term, sustainable effort must include the concerns of people living near forests and rivers. The welfare of people must be linked to efforts to save forests and rivers. Only deeply motivated people can provide the wide base for social action to protect rivers and forests from the onslaught of exploiters. At the same time, is equally true that only the protection of forests and rivers can provide the foundation for sustainable development of hill-villages, not just from a narrow economic perspective but from a social-cultural viewpoint.

The strength of the Himalayi Paryavaran Shikshaa Sansthaan (HPSS) is that its work is rooted in an understanding of the links between the protection of rivers and forests and the sustainable welfare of the people. Deeply committed to the protection of rivers and forests, the HPSS does not talk of this issue in isolation but relates it to the aspirations of the people for sustainable livelihoods and the welfare of their villages. The HPSS gets enormous strength from the strong feelings of hill women for protecting their villages and livelihoods, which is, in turn, closely related to the protection of rivers and forests.

One of the most important movements for forest protection in the Himalayan region in the post- Chipko phase was the Raksha Sutra Andolan (Protective Thread Movement). While people, particularly women from several villages, near and far, took part in the movement at various stages, the HPSS and its president, Suresh Bhai, played a key role in nurturing and sustaining the movement.

The movement partially draws its symbolism from the famous festival of Raksha Bandhan in which sisters tie protective threads on the arms of their brothers. Similarly, women went to forests where trees faced the threat of being axed, and tied protective threads on their trunks to symbolise their determination to protect them.

This Raksha Sutra Andolan can be traced to 1994 when during the uncertain period of the movement for a separate state, some strong vested interests conspired to cut down a whole lot of trees. The Chipko movement had resulted in government orders which prevented the commercial felling of green trees more than 1000 metres high. However, some exceptions were made for axing dead and dry trees. A few corrupt officials used this exception as a subterfuge to mark even green trees for felling. It was at this stage that activists and villagers got together to prevent such illegal tree felling. HPSS managed to obtain official papers relating to tree-marking (for felling) in various areas, and when groups of people inspected these areas, it became clear that actually green trees were being felled in the name of dry trees.

The Raksha Sutra movement started in Riyala forest of Tehri district, located at a height of about 10,000 feet, in September 1994 when villagers of Khwara, Bheti and Daalgaon with their drums and bugles marched to the forest and women tied sacred threads on trees marked for felling. The Forest Corporation had cleverly given tree felling contracts to influential local villagers including village pradhans so that people would have to confront government authorities and influential local people. Deep inside the forest, however, villagers were able to build up enough pressure so that workers from distant Kashmir stopped the work of felling trees for some time.

However, next year in 1995, around early July, news began reaching activists that tree-felling in Riyala was starting again. A lot of preparation was made to confront the new challenge by holding environment camps in villages like Genvali, Jyundana, Chaili and Sand and by obtaining information on the extent of felling work. On August 10 and August 11 about 300 women tied protection threads on trees and chased away tree-fellers.

 Most of this mobilisation was taking place at a height of around 10,000 feet. Soon these remote forests were reverberating with slogans of forest protection.

Forests survive, the nation survives
Every village thrives

In Chaurangighala area, Jethi Devi of Chaundhyaar village and Mandodri Devi of Dikhoti village climbed on a truck which was taking logs of felled trees and did not allow it to move till a decision was taken to stop the felling of trees.

Subsequent investigations by activists revealed that entirely illegal tree felling was taking place. Efforts were made to prepare detailed, wellresearched reports. These were made available to senior government officials and media and grassroots efforts were intensified to mobilise people for Raksha Sutra. The Himalaya Seva Sangh in Delhi helped the activists to draw wider attention to illegal tree felling. The movement received a boost when several forest officials were suspended due to their involvement in illegal tree felling.

The movement for forest protection emphasised the role of forests in protecting rivers as evident from this key slogan:

If trees are high,
Rivers, glaciers stay pristine

As numerous dam projects including tunnel dam projects were started or announced in this region, it became clear that the future of free-flowing natural rivers would be greatly endangered. In many villages, affected by dam construction, the lives and livelihoods of people started getting devastated as fields and pastures were ruined, cracks appeared in houses, water sources dried up and people began to suffer from many new ailments. The threat of landslides increased. Yet, people were not able to articulate their feelings and demands freely, without fear.

HPSS helped the people overcome their inhibitions and raise genuine issues. As Pratima Rawat of Matli Village says, “It is this organisation which helped us to come out and speak about all that we had been suffering silently for a long time. Now we are more alert about the need to protect and assert our rights.”

The emphasis of HPSS on integrating the protection of rivers with the emerging problems of dam affected people helped its mobilisation effort. Some activists of the Raksha Sutra movement like Basanti Negi of Harsil were increasingly drawn into the river protection movement. Women of dam affected villages also tied sacred threads on trees threatened by construction work.

Alongside, HPSS helped to repair and build about 250 traditional water harvesting structures called chaal. It implemented watershed protection programmes in Jalkur Valley in Tehri district and Bhagirathi Valley in Uttarakashi district.

 Source : www.civilsocietyonline.com/aug09/aug099.asp
 

Devbhoomi,Uttarakhand

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वन अधिनियम: हस्तांतरण की ठोस पैरवी करें अफसर

बड़कोट (उत्तरकाशी)। तहसील अंतर्गत वन अधिनियम के तहत हस्तांतरण के कारण बंद सड़कों के कार्यो को त्वरित गति देने के लिए उपजिलाधिकारी बड़कोट की मध्यस्थता में संबंधित विभागों के अधिकारियों की बैठक में लंबित मामलों को शीघ्र निपटाने का निर्णय लिया है। साथ ही एसडीएम ने लोनिवि के सर्वाधिक बंद पड़ी सड़कों व विभागीय धीमी प्रगति पर रोष जताया।

वन अधिनियम के तहत भूमि हस्तांतरित ने होने के कारण यमुनाघाटी में बड़कोट तहसील अंतर्गत लोक निर्माण विभाग और राष्ट्रीय राजमार्ग की दर्जनों बंद सड़कों के निर्माण कार्यो में गति लाने के उद्देश्य को लेकर एसडीएम डा. मेहरबान सिंह बिष्ट की मध्यस्थता में लोनिवि, राष्ट्रीय राजमार्ग और वन विभाग के आलाधिकारियों की तहसील बड़कोट में हुई बैठक में वन अधिनियम में फंसी लोनिवि बड़कोट के सड़कों के मामलों विभागीय हिलाहवाली के कारण समय से इनके संबंधित प्रस्तावों को प्रस्तुत न करने पर एसडीएम ने नाराजगी जताई।
आंकड़ों के अनुसार लोनिवि बड़कोट के पास वर्तमान में 105 सड़कों के निर्माण कार्य का जिम्मा है। इनमें वन अधिनियम के चलते 54 सड़कों पर कार्य नहीं हो पा रहा है, क्योंकि इसमें विभागीय अधिकारी बेहतर पैरवी नहीं कर पाए हैं। इस वजह दर्जनों प्रस्ताव विभिन्न स्तरों से वापस आये हैं।

http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_5854346.html

 

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