अब उन गांवों में भूत तक नहीं रहते
रोजगार की उम्मीद के साथ बनाए गए राज्य उत्तराखंड में पलायन कम होने की बजाय बढ़ा है। पलायन के इसी दर्द को बयां कर रही है वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत की यह रिपोर्ट श्रीनगर गढ़वाल के निकट चलणस्यूं पट्टी के सुजगांव में रह रहा अन्तिम निवासी एक वृद्ध पिछले दिनों चल बसा और उसकी मौत के साथ ही यह गांव जनसंख्या विहीन हो गया। उस वृद्ध ने अपने उस जन्म स्थल को छोड़ कर अपने बेटों के साथ मैदान में जाने से इंकार कर दिया था। सुजगांव के बाद पौड़ी गढ़वाल की इसी पट्टी के किमगड़ी गांव के 2 आखिरी बासिन्दे भी आखिरकार हार कर पुरखों की इस माटी को छोड़ कर देश, यानि कि मैदान में चले गये।
आबादी के पलायन की यह कहानी अकेले सुजगांव या किमगड़ी की नहीं है। ताजा आंकड़ों के अनुसार अकेले पौड़ी गढ़वाल में सन् 2005 तक 313 गांव खाली हो चुके थे। इनमें से सबसे अधिक आबादी विहीन 48 गांव अकेले कोट ब्लाक के थे। अगर आपको पहाड़ के पलायन की पीड़ा महसूस करनी हो तो आप कोटद्वार पौड़ी मार्ग पर स्थित सतपुली में रुककर उसके आसपास के खण्डहरों में उगी झाड़ियों में छिपे गांवों को देख सकते हैं। मजेदार बात तो यह है कि जिन गांवों में अब कोई नहीं रहता वहां सरकार की सारी विकास योजनाएं चल रही हैं और सरकारी विकासकर्मियों के दौरे भी उन गांवों में जारी हैं। पहले गांवों में लोग भूत से बहुत डरते थे लेकिन अब जब डरने वाले ही नहीं रहे तो भूत भी किसे डराने के लिये रुकेंगे?
उत्तराखण्ड विधानसभा के अध्यक्ष हरबंश कपूर जब गत वर्ष पौड़ी गढ़वाल के द्वारीखाल ब्लाक के दिखेत गांव में रात गुजारने पहुंचे तो उन्होंने खण्डहर बने मकानों पर लगे तालों को देख कर राज्य के पहाड़ी इलाकों में बड़े पैमाने पर हो रहे पलायन का दर्द महसूस किया। उसके बाद कपूर हरसम्भव मंच पर पहाड़ की इस वेदना को उजागर करते रहे। एक दशक पहले तक दिखेत की आबादी लगभग 600 थी जो कि अब घटकर 80 रह गयी है। इसी लैंसडौन तहसील में 22 गांवों के निर्जन होने की सूचना है। कुछ गांवों में तो खण्डहरों पर मशरूम उगाये जाने लगे हैं। उत्तराखण्ड विधानसभा के पिछले एक सत्रा में सरकार की ओर से सन् 2001 की जनगणना के हवाले से बताया गया कि 13 जिलों की वर्ष 1991 और 2001 की जनगणना की तुलना में 160 गांव गैर आबाद पाये गये। इनमें सर्वाधिक 60 गांव टिहरी और फिर 58 गांव अल्मोड़ा जिले में गैर आबाद पाये गये। उत्तरकाशी के 6, ऊधमसिंहनगर 15, रुद्रप्रयाग 5, पौड़ी और नैनीताल में एक-एक गांव जनसंख्या विहीन पाया गया। लेकिन ताजा आंकड़े तो और भी चौंकाने वाले हैं। इन गांवों के जिन खेतों में कभी झंगोरा, मंडुवा और धान आदि की बारहनाजा फसलें लहलहाती थीं, वे खेत बंजर हो गये और उन खेतों में पेड़ उगने से जंगल मकानों तक आ गये। दिखेत जैसे सैकड़ों गांवों में जहां अब भी 20-25 प्रतिशत आबादी रह गयी है वहां मानवभक्षियों का आतंक इतना है कि शाम ढलने से पहले ही लोग खिड़की दरवाजे बन्द कर घरों में कैद हो जाते हैं और कभी जीवन के उल्लास से लबालब इन गांवों में सांझ ढलते ही मरघट सी खामोशी पसर जाती है। बन्दरों, सुअरों, बाघों और भालुओं के उत्पात से जो मजबूर लोग वहां अब भी टिके हुए थे वे भी अपने गांव छोड़ने को मजबूर हो गये हैं। इस तरह के गरीब देहरादून, हल्द्वानी या हरिद्वार में जमीन खरीदकर मकान तो नहीं बना सकते मगर वे इन शहरों को मलिन बस्तियों बस्तियों में सिर छिपाने और उन बस्तियों की आबादी बढ़ाने में अवश्य ही योगदान कर रहे हैं। इस पलायन का सीधा असर आप देहरादून की सड़कों और तंग गलियों में रेंगती जिन्दगी पर देख सकते हैं। हैरानी की बात तो यह है कि प्रदेश के राजस्व मंत्री जो कि एक जमाने में उत्तराखण्ड आन्दोलन के स्वयंभू फील्ड मार्शल होते थे, का कहना है कि कोई गांव खाली नहीं हुआ है। दिवाकर भट्ट चाहे जो भी डींगें हांकें मगर सन् 2011 की जनगणना के आंकड़ों में वास्तव में पहाड़ की भयावह तस्वीर सामने आने वाली है। इतने बड़े पैमाने पर हो रहे पलायन से विकास के दावों की पोल तो खुल ही रही है, मगर सबसे चिन्ताजनक समस्या देश की सुरक्षा के लिये खड़ी हो गयी है।
उत्तराखण्ड से लगी लगभग 600 किलोमीटर लम्बी चीन और नेपाल की अन्तर्राष्ट्रीय सीमा है। अगर यही हाल रहा तो फौज भी इस निर्जन क्षेत्र में बन्दर और भालुओं के सहारे इतने बड़े भूभाग की रक्षा नहीं कर पाएगी। नयी जनगणना के आंकड़ों के लिये अभी दो साल इन्तजार करना पड़ेगा। लेकिन पिछली ही जनगणना को भी लें तो पिथौरागढ़ जिले में तिब्बत से लगी अन्तर्राष्ट्रीय सीमा से जुड़ी ब्यांस, दारमा और चौंदास घाटियों में 1991 और 2001 के बीच बड़े पैमाने पर पलायन दर्ज हुआ है। ब्यांस घाटी में उक्त अवधि में आबादी 1161 से घटकर 1018 रह गयी है। दारमा घाटी में भी जनसंख्या 1541 से घटकर 1210 रह गयी है। इन घाटियों के नाबी, रौंगकौंग, गुंजी, गर्ब्यांग, बूंदी, सीपू, मार्छा, तिदांग, गो मे, दांतू मे, दुग्तू, बोन मे, बालिंग, चल मे, नांग्लिंग मे और सेला जैसे सीमान्त गांव खाली हो गये हैं। ये गांव उत्तराखण्ड के दो पूर्व मुख्य सचिवों और दर्जनों आइ.ए.एस. तथा आइ.पी.एस. अपफसरों के पैतृक गांव हैं जहां वे अब खुद ही नहीं जाते। पिथौरागढ़ की ही तरह सीमान्त जिला चमोली की नीती-माणा घाटियों की भी यही कहानी है। 1991 में सीमान्त गांव माणा में 199 परिवार थे जो कि 2001 तक 188 ही रह गये। देश के इस अन्तिम गांव की जनसंख्या 1991 में 942 थी जो 2001 तक 594 रह गयी। 1991 की जनगणना की तुलना में 2001 में नीती घाटी के नीती गांव में जनसंख्या 123 से 98, गमसाली में 208 से 147, बम्पा में 97 से 74, मलारी में 554 से 434, जेलम में 409 से 315, जुम्मा में 214 से 98 और गरपक में जनसंख्या 49 से घट कर 33 रह गयी।
हाल ही में मैं जब अपनी बहन के पास चमोली के नन्दप्रयाग गया तो मैने पहाड़ों में दाल में छौंक के लिये इस्तेमाल होने वाली, खुशबूदार बूटी फरण और चोरा देने को कहा तो बहन का कहना था कि जब उबदेशी (नीती माणा जैसे हिमालयी क्षेत्रों के मूल निवासी भोटिया) वापस नहीं जा रहे हैं तो फरण और चोरा कहां से आयेगा।मेरे जैसे लोग जो भी पढ़-लिख कर आजीविका के लिये नीचे आया वह वापस नहीं गया। जो लोग ठेकेदारी या अन्य साधनों से धन अर्जित कर रहे हैं वे सीधे देहरादून या अन्य मैदानी इलाकों में बस रहे हैं। अब एक नया ट्रेंड यह देखने को मिल रहा है कि जो फौजी फेमिली क्वार्टर मिलने पर अपने बीबी बच्चे साथ ले जाता है और आवास के आवंटन की अवधि समाप्त होने या उसकी यूनिट के सीमा पर चले जाने पर अब उसका परिवार गांव जाने के बजाय यहीं मैदानी और शहरी इलाकों में किराये के मकानों पर रहने लगा है। मैं स्वयं 35 साल पहले पढ़ने देहरादून आया तो फिर यहीं का हो गया। मेरे बच्चों के लिये मेरी ब्वे और बुबा का गांव सांकरी अब केवल डैड का गांव रह गया। जाहिर है कि अब पहाड़ी गांवों से जवानी, शिक्षा और सम्पन्नता भी पलायन कर रही है और लोग सैकड़ों सालों की अपने पुरखों की बिरासत इन गांवों के लिये अपने पीछे गरीबी, बुढ़ापा, मजबूरी और मुफलिसी या फिर बन्दर और बाघ जैसे जानवर छोड़ रहे हैं। सैकड़ों गांवों की हालत ऐसी है कि अगर कोई बुजुर्ग मर जाता है तो उसे शमशान तक ले जाने के लिये चार कन्धे नहीं मिल रहे हैं। पहाड़ों में अब तक महिलाएं शवयात्रा पर नहीं जाती थीं लेकिन अब शव ढोने के लिये जवान महिलाएं भी नहीं रह जायेंगी। सन् 2001 की जनगणना में ही प्रदेश के 2566282 मकानों में से 222677 मकान वीरान पड़े थे। इनमें से भी खण्डहरों की संख्या 54418 थी। उत्तराखण्ड के पहाड़ों के वर्तमान बासिन्दों के आयुद्धजीवी पूर्वज कभी किसी आक्रांता का आधिपत्य स्वीकार करने के बजाय पहाड़ों की इन सुरक्षित चोटियों और घाटियों में आकर बसते रहे। उन्नीसवीं सदी के अन्त तक इन पहाड़ों में निजी भूमि की हदबन्दी न होने के कारण झूम खेती के जरिये खूब अनाज पैदा होता रहा। यहां का अनाज तिब्बत और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मैदानों तक आता रहा। लेकिन धीरे-धीरे उन्हीं खेतों पर बार-बार हल जोतने से भूक्षरण होता रहा और खेत भी भाइयों में बंटवारे के कारण सिकुड़ते तथा बिखरते रहे। आज नतीजा यह है कि लोग सालभर शरीर तोड़ मेहनत करने के बाद भी दो तीन महीनों की राशन उन खेतों से नहीं पैदा कर सकते। उसके उफपर भी जीवन की कठिनाइयों का बोझ और शहरों की चकाचौंध की प्रवासियों में झलक ने लोगों को पहाड़ छोड़ने को मजबूर कर दिया।
अलग उत्तराखंड राज्य की जब मांग उठी तो उसका एक मुद्दा पहाड़ों से पलायन का भी था। आन्दोलन की एक सोच यह भी थी कि बिल्कुल ऐसी ही परिस्थितियों वाले पहाड़ी राज्य हिमाचल में ऐसा पलायन नहीं है और लोग वहां अपने खेतों से पफलोत्पान जैसे उपायों से सोना उगला रहे हैं लेकिन उत्तराखण्ड में कुर्सी की हवश ने राज्य आन्दोलन के सारे मुद्दे निगल लिये। इन दस सालों में 5 मुख्यमंत्री बनने का और क्या मतलब आप निकाल सकते हैं। पहाड़ से बढ़ रहे पलायन का मतलब है कि वहां विकास नहीं हो रहा है। वहां जिन्दगी अब भी बहुत ही दुष्कर है। लेकिन प्रदेश के हुक्मरान दावे कर रहे हैं कि राज्य की विकास दर 2 से बढ़ कर 9 प्रतिशत हो गयी। प्रतिव्यक्ति आय 14 हजार से उछलकर 40 हजार पार कर गयी। सरकार के ही यह दावे प्रदेश के असन्तुलित विकास की पुष्टि करते हैं। जब सरकारों के लिये इस तरह उत्तराखण्ड के मायने देहरादून, हरिद्वार और उफधमसिंहनगर रह जायेंगे तो आम आदमी भी उसी उत्तराखण्ड में आ कर रहने लगेंगे। पहाड़ के लगभग 40 प्रतिशत गांवों में अभी विकास की गाड़ी पैदल ही चल रही है जबकि 5 प्रतिशत गांवों ने अभी बिजली के पोल तक नहीं देखे। 264 गांवों के मासूम बच्चों के लिये प्राइमरी स्कूल अब भी 5 कि.मी.से दूर हैं। मिडिल स्कूल 2429 गांवों के लिये इतनी ही दूर हैं। पहाड़ों में एक कि.मी. की पैदल दूरी मैदान की तुलना में कई गुना अधिक होती है। पहाड़ों में 8711 गांवों के लिये प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र में इलाज की सुविधा, 2037 पक्की सड़क यानी कि मोटर रोड, 2649 के लिये बस स्टाप, 3466 गांवों के लिये डाकघर तथा 7839 गांवों के लिये बैंक सुविधा 5 किलोमीटर से दूर है। ऐसी स्थिति में कोई इन गांवों में रहे भी तो कैसे?
http://parvatjan.com/