Author Topic: How To Stop Migration From Uttarakhand? - उत्तराखंड से विस्थापन कैसे रोके?  (Read 79139 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Go through this study report,

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  क्यों छोड़ रहे हैं लोग सुंदर गांव              गोपेश्वर, जागरण कार्यालय: पहाड़ों से लगातार हो रहे पलायन और यहां की जीवनशैली पर अध्ययन करने के लिए  दक्षिण एशिया के देशों के वैज्ञानिकों का कहना है कि उत्तराखंड के पहाड़ न सिर्फ स्वर्ग है, बल्कि यहा उपलब्ध प्राकृतिक संशाधन रोजगार देने में भी सक्षम हैं। इसके बावजूद भी यहां के लोग पहाड़ छोड़कर पलायन कर रहे हैं यह उनकी समझ से भी परे है। 
 दक्षिण एशिया के आठ देशों का दल इन दिनों चमोली जिला भ्रमण पर है। दल चमोली के गांवों में भ्रमण कर ग्रामीण परिवेश, रोजगार के साधन व संभावनाओं का अध्ययन कर रहा दल सामाजिक संगठनों से भी मुलाकात रहा है। इतना ही नहीं विदेशी छात्रों का दल पर्यावरण, सामाजिक व आर्थिक मुद्दों पर भी अध्ययन कर रहा है।  फोल्का हाईस्कूल स्वीडन में स्नातक स्तर की पढ़ाई के दौरान प्रोफेसर अन्दस की अगुआई में भारत आया दल इन दिनों चमोली के गांवों की जीवन शैली व संस्कृति के साथ-साथ शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, आजीविका, पर्यावरण और सामाजिक आर्थिक गतिविधियों का गहनता से अध्ययन कर रहा है। जिले में सात दिवसीय भ्रमण के लिए पहुंचे दल को न सिर्फ यहां की सुन्दरता बल्कि अतिथि देवो भव: की परम्परा ने काफी प्रभावित किया है। दल की सदस्य सारा का कहना है कि उत्तराखंड की वादियां स्वर्ग के समान हैं। गांवों की संस्कृति व परम्परा से प्रभावित सारा का कहना है कि विकट भौगोलिक परिस्थिमियों में भी जीवंत शैली पहाड़ों की सुन्दरता को चार चांद लगाती हैं। उन्होंने प्राकृतिक संशाधन आधारित रोजगार की अपार संभावना होने के बाद भी सुंदर गांवों से हो रहे पलायन को दुर्भाग्यपूर्ण बताया। विदेशी छात्र-छात्राओं के दल में सान्द्रा, अन्ना, कौरिन, मैडिलियन, सैमुअल समेत दो छात्र व आठ छात्राएं शामिल हैं। चमोली में दल को भ्रमण करने में सहयोग कर रहे जीत सनवाल व हेमा भट्ट ने बताया कि आठ सदस्यीय यह दल दक्षिण एशिया भारत समेत बांग्लादेश व नेपाल का भी भ्रमण करेगा।
   
http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_7534431.html

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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अब उन गांवों में भूत तक नहीं रहते रोजगार की उम्मीद के साथ बनाए गए राज्य उत्तराखंड में पलायन कम होने की बजाय बढ़ा है। पलायन के इसी दर्द को बयां कर रही है वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत की यह रिपोर्ट
 श्रीनगर गढ़वाल के निकट चलणस्यूं पट्टी के सुजगांव में रह रहा अन्तिम निवासी एक वृद्ध पिछले दिनों चल बसा और उसकी मौत के साथ ही यह गांव जनसंख्या विहीन हो गया। उस वृद्ध ने अपने उस जन्म स्थल को छोड़ कर अपने बेटों के साथ मैदान में जाने से इंकार कर दिया था। सुजगांव के बाद पौड़ी गढ़वाल की इसी पट्टी के किमगड़ी गांव के 2 आखिरी बासिन्दे भी आखिरकार हार कर पुरखों की इस माटी को छोड़ कर देश, यानि कि मैदान में चले गये।
 आबादी के पलायन की यह कहानी अकेले सुजगांव या किमगड़ी की नहीं है। ताजा आंकड़ों के अनुसार अकेले पौड़ी गढ़वाल में सन् 2005 तक 313 गांव खाली हो चुके थे। इनमें से सबसे अधिक आबादी विहीन 48 गांव अकेले कोट ब्लाक के थे। अगर आपको पहाड़ के पलायन की पीड़ा महसूस करनी हो तो आप कोटद्वार पौड़ी मार्ग पर स्थित सतपुली में रुककर उसके आसपास के खण्डहरों में उगी झाड़ियों में छिपे गांवों को देख सकते हैं। मजेदार बात तो यह है कि जिन गांवों में अब कोई नहीं रहता वहां सरकार की सारी विकास योजनाएं चल रही हैं और सरकारी विकासकर्मियों के दौरे भी उन गांवों में जारी हैं। पहले गांवों में लोग भूत से बहुत डरते थे लेकिन अब जब डरने वाले ही नहीं रहे तो भूत भी किसे डराने के लिये रुकेंगे?
 उत्तराखण्ड विधानसभा के अध्यक्ष हरबंश कपूर जब गत वर्ष पौड़ी गढ़वाल के द्वारीखाल ब्लाक के दिखेत गांव में रात गुजारने पहुंचे तो उन्होंने खण्डहर बने मकानों पर लगे तालों को देख कर राज्य के पहाड़ी इलाकों में बड़े पैमाने पर हो रहे पलायन का दर्द महसूस किया। उसके बाद कपूर हरसम्भव मंच पर पहाड़ की इस वेदना को उजागर करते रहे। एक दशक पहले तक दिखेत की आबादी लगभग 600 थी जो कि अब घटकर 80 रह गयी है। इसी लैंसडौन तहसील में 22 गांवों के निर्जन होने की सूचना है। कुछ गांवों में तो खण्डहरों पर मशरूम उगाये जाने लगे हैं। उत्तराखण्ड विधानसभा के पिछले एक सत्रा में सरकार की ओर से सन् 2001 की जनगणना के हवाले से बताया गया कि 13 जिलों की वर्ष 1991 और 2001 की जनगणना की तुलना में 160 गांव गैर आबाद पाये गये। इनमें सर्वाधिक 60 गांव टिहरी और फि‍र 58 गांव अल्मोड़ा जिले में गैर आबाद पाये गये। उत्तरकाशी के 6, ऊधमसिंहनगर 15, रुद्रप्रयाग 5, पौड़ी और नैनीताल में एक-एक गांव जनसंख्या विहीन पाया गया। लेकिन ताजा आंकड़े तो और भी चौंकाने वाले हैं। इन गांवों के जिन खेतों में कभी झंगोरा, मंडुवा और धान आदि की बारहनाजा फसलें लहलहाती थीं, वे खेत बंजर हो गये और उन खेतों में पेड़ उगने से जंगल मकानों तक आ गये। दिखेत जैसे सैकड़ों गांवों में जहां अब भी 20-25 प्रतिशत आबादी रह गयी है वहां मानवभक्षियों का आतंक इतना है कि शाम ढलने से पहले ही लोग खिड़की दरवाजे बन्द कर घरों में कैद हो जाते हैं और कभी जीवन के उल्लास से लबालब इन गांवों में सांझ ढलते ही मरघट सी खामोशी पसर जाती है। बन्दरों, सुअरों, बाघों और भालुओं के उत्पात से जो मजबूर लोग वहां अब भी टिके हुए थे वे भी अपने गांव छोड़ने को मजबूर हो गये हैं। इस तरह के गरीब देहरादून, हल्द्वानी या हरिद्वार में जमीन खरीदकर मकान तो नहीं बना सकते मगर वे इन शहरों को मलिन बस्तियों बस्तियों में सिर छिपाने और उन बस्तियों की आबादी बढ़ाने में अवश्य ही योगदान कर रहे हैं। इस पलायन का सीधा असर आप देहरादून की सड़कों और तंग गलियों में रेंगती जिन्दगी पर देख सकते हैं। हैरानी की बात तो यह है कि प्रदेश के राजस्व मंत्री जो कि एक जमाने में उत्तराखण्ड आन्दोलन के स्वयंभू फील्ड मार्शल होते थे, का कहना है कि कोई गांव खाली नहीं हुआ है। दिवाकर भट्ट चाहे जो भी डींगें हांकें मगर सन् 2011 की जनगणना के आंकड़ों में वास्तव में पहाड़ की भयावह तस्वीर सामने आने वाली है। इतने बड़े पैमाने पर हो रहे पलायन से विकास के दावों की पोल तो खुल ही रही है, मगर सबसे चिन्ताजनक समस्या देश की सुरक्षा के लिये खड़ी हो गयी है।
 उत्तराखण्ड से लगी लगभग 600 किलोमीटर लम्बी चीन और नेपाल की अन्तर्राष्ट्रीय सीमा है। अगर यही हाल रहा तो फौज भी इस निर्जन क्षेत्र में बन्दर और भालुओं के सहारे इतने बड़े भूभाग की रक्षा नहीं कर पाएगी। नयी जनगणना के आंकड़ों के लिये अभी दो साल इन्तजार करना पड़ेगा। लेकिन पिछली ही जनगणना को भी लें तो पिथौरागढ़ जिले में तिब्बत से लगी अन्तर्राष्ट्रीय सीमा से जुड़ी ब्यांस, दारमा और चौंदास घाटियों में 1991 और 2001 के बीच बड़े पैमाने पर पलायन दर्ज हुआ है। ब्यांस घाटी में उक्त अवधि में आबादी 1161 से घटकर 1018 रह गयी है। दारमा घाटी में भी जनसंख्या 1541 से घटकर 1210 रह गयी है। इन घाटियों के नाबी, रौंगकौंग, गुंजी, गर्ब्यांग, बूंदी, सीपू, मार्छा, तिदांग, गो मे, दांतू मे, दुग्तू, बोन मे, बालिंग, चल मे, नांग्लिंग मे और सेला जैसे सीमान्त गांव खाली हो गये हैं। ये गांव उत्तराखण्ड के दो पूर्व मुख्य सचिवों और दर्जनों आइ.ए.एस. तथा आइ.पी.एस. अपफसरों के पैतृक गांव हैं जहां वे अब खुद ही नहीं जाते। पिथौरागढ़ की ही तरह सीमान्त जिला चमोली की नीती-माणा घाटियों की भी यही कहानी है। 1991 में सीमान्त गांव माणा में 199 परिवार थे जो कि 2001 तक 188 ही रह गये। देश के इस अन्तिम गांव की जनसंख्या 1991 में 942 थी जो 2001 तक 594 रह गयी। 1991 की जनगणना की तुलना में 2001 में नीती घाटी के नीती गांव में जनसंख्या 123 से 98, गमसाली में 208 से 147, बम्पा में 97 से 74, मलारी में 554 से 434, जेलम में 409 से 315, जुम्मा में  214 से 98 और गरपक में जनसंख्या 49 से घट कर 33 रह गयी।
 हाल ही में मैं जब अपनी बहन के पास चमोली के नन्दप्रयाग गया तो मैने पहाड़ों में दाल में छौंक के लिये इस्तेमाल होने वाली, खुशबूदार बूटी फरण और चोरा देने को कहा तो बहन का कहना था कि जब उबदेशी (नीती माणा जैसे हिमालयी क्षेत्रों के मूल निवासी भोटिया) वापस नहीं जा रहे हैं तो फरण और चोरा कहां से आयेगा।मेरे जैसे लोग जो भी पढ़-लिख कर आजीविका के लिये नीचे आया वह वापस नहीं गया। जो लोग ठेकेदारी या अन्य साधनों से धन अर्जित कर रहे हैं वे सीधे देहरादून या अन्य मैदानी इलाकों में बस रहे हैं। अब एक नया ट्रेंड यह देखने को मिल रहा है कि जो फौजी फेमिली क्वार्टर मिलने पर अपने बीबी बच्चे साथ ले जाता है और आवास के आवंटन की अवधि समाप्त होने या उसकी यूनिट के सीमा पर चले जाने पर अब उसका परिवार गांव जाने के बजाय यहीं मैदानी और शहरी इलाकों में किराये के मकानों पर रहने लगा है। मैं स्वयं 35 साल पहले पढ़ने देहरादून आया तो फि‍र यहीं का हो गया। मेरे बच्चों के लिये मेरी ब्वे और बुबा का गांव सांकरी अब केवल डैड का गांव रह गया। जाहिर है कि अब पहाड़ी गांवों से जवानी, शिक्षा और सम्पन्नता भी पलायन कर रही है और लोग सैकड़ों सालों की अपने पुरखों की बिरासत इन गांवों के लिये अपने पीछे गरीबी, बुढ़ापा, मजबूरी और मुफलिसी या फि‍र बन्दर और बाघ जैसे जानवर छोड़ रहे हैं। सैकड़ों गांवों की हालत ऐसी है कि अगर कोई बुजुर्ग मर जाता है तो उसे शमशान तक ले जाने के लिये चार कन्धे नहीं मिल रहे हैं। पहाड़ों में अब तक महिलाएं शवयात्रा पर नहीं जाती थीं लेकिन अब शव ढोने के लिये जवान महिलाएं भी नहीं रह जायेंगी। सन् 2001 की जनगणना में ही प्रदेश के 2566282 मकानों में से 222677 मकान वीरान पड़े थे। इनमें से भी खण्डहरों की संख्या 54418 थी। उत्तराखण्ड के पहाड़ों के वर्तमान बासिन्दों के आयुद्धजीवी पूर्वज कभी किसी आक्रांता का आधिपत्य स्वीकार करने के बजाय पहाड़ों की इन सुरक्षित चोटियों और घाटियों में आकर बसते रहे। उन्नीसवीं सदी के अन्त तक इन पहाड़ों में निजी भूमि की हदबन्दी न होने के कारण झूम खेती के जरिये खूब अनाज पैदा होता रहा। यहां का अनाज तिब्बत और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मैदानों तक आता रहा। लेकिन धीरे-धीरे उन्हीं खेतों पर बार-बार हल जोतने से भूक्षरण होता रहा और खेत भी भाइयों में बंटवारे के कारण सिकुड़ते तथा बिखरते रहे। आज नतीजा यह है कि लोग सालभर शरीर तोड़ मेहनत करने के बाद भी दो तीन महीनों की राशन उन खेतों से नहीं पैदा कर सकते। उसके उफपर भी जीवन की कठिनाइयों का बोझ और शहरों की चकाचौंध की प्रवासियों में झलक ने लोगों को पहाड़ छोड़ने को मजबूर कर दिया।
 अलग उत्तराखंड राज्य की जब मांग उठी तो उसका एक मुद्दा पहाड़ों से पलायन का भी था। आन्दोलन की एक सोच यह भी थी कि बिल्कुल ऐसी ही परिस्थितियों वाले पहाड़ी राज्य हिमाचल में ऐसा पलायन नहीं है और लोग वहां अपने खेतों से पफलोत्पान जैसे उपायों से सोना उगला रहे हैं लेकिन उत्तराखण्ड में कुर्सी की हवश ने राज्य आन्दोलन के सारे मुद्दे निगल लिये। इन दस सालों में 5 मुख्यमंत्री बनने का और क्या मतलब आप निकाल सकते हैं। पहाड़ से बढ़ रहे पलायन का मतलब है कि वहां विकास नहीं हो रहा है। वहां जिन्दगी अब भी बहुत ही दुष्कर है। लेकिन प्रदेश के हुक्मरान दावे कर रहे हैं कि राज्य की विकास दर 2 से बढ़ कर 9 प्रतिशत हो गयी। प्रतिव्यक्ति आय 14 हजार से उछलकर 40 हजार पार कर गयी। सरकार के ही यह दावे प्रदेश के असन्तुलित विकास की पुष्टि करते हैं। जब सरकारों के लिये इस तरह उत्तराखण्ड के मायने देहरादून, हरिद्वार और उफधमसिंहनगर रह जायेंगे तो आम आदमी भी उसी उत्तराखण्ड में आ कर रहने लगेंगे। पहाड़ के लगभग 40 प्रतिशत गांवों में अभी विकास की गाड़ी पैदल ही चल रही है जबकि 5 प्रतिशत गांवों ने अभी बिजली के पोल तक नहीं देखे। 264 गांवों के मासूम बच्चों के लिये प्राइमरी स्कूल अब भी 5 कि.मी.से दूर हैं। मिडिल स्कूल 2429 गांवों के लिये इतनी ही दूर हैं। पहाड़ों में एक कि.मी. की पैदल दूरी मैदान की तुलना में कई गुना अधिक होती है। पहाड़ों में 8711 गांवों के लिये प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र में इलाज की सुविधा, 2037 पक्की सड़क यानी कि मोटर रोड, 2649 के लिये बस स्टाप, 3466 गांवों के लिये डाकघर तथा 7839 गांवों के लिये बैंक सुविधा 5 किलोमीटर से दूर है। ऐसी स्थिति में कोई इन गांवों में रहे भी तो कैसे?
http://parvatjan.com/

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Go through this poem which talks about the issue of migration. A old man calls his son back home and describe the situation.

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फोन
 (अनिल कुमार शैलानी)
 
घार ऐजा बेटा महेन्द्रा
बांज प्वड़ग्या जमन फरि
छुईं लगाणक बि प्वड़णा छिन पैसा
घार ऐजा बेटा महेन्द्रा
रूप्यूक नि क्वी सार
इक्वलि आणि छीं बार बार
चिठ्ठी पत्रीक नीच सार
फोन ह्वेगि घार घार
अफमा नीच लाल पैसा
घार ऐजा बेटा महेन्द्रा
पुंगड़ियू°क नीच क्वी सार
खाण पीणक बि बुरा हाल
उनि दुइयों बुढेंदा हाल
नि रैग्या गौमा आर सार
अपड़ा बेटा खाली खीसा
घार ऐजा बेटा महेन्द्रा।

Himalayan Warrior /पहाड़ी योद्धा

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It is sad migration has become just double even after formation of new state.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Types of Mirgation from Uttarakhand Hill State
« Reply #144 on: May 30, 2011, 06:26:47 AM »
 
Friends, ..
 
We have had recently a meeting with our Team in which many distinguished and journalist were present.
 
The migration issue of Uttarakhand was discussed. First time types migration was discussed
 
  -  Migration within Pahad (for education)
 
  -  Migration for Employment
 
   - Talent migration
 
   - Migration of Gods - It came to light that even people have eastablished their "Isht Dev Temple" in plain areas thereby it was considered migration of God & Goddess also.
 
I am sure you will agree the facts of above these types of migration.
 
Unfortunately even after formation of 10 yrs of Uttarakhand State, none of the Govt could be able to stop migration from Pahad.
 
 

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Migration on rise in Uttarakhand, Haridwar district worst affected
« Reply #145 on: July 26, 2011, 08:29:05 AM »
Go through the news below: 
 
 Migration on rise in Uttarakhand, Haridwar district worst affected
 
Dehradun: In the era of globalization, Uttarakhand is seeing a high rate of migration from rural areas to the urban centres as villagers are moving out to grab better job opportunities and improve their lifestyles.
It is said that a literate person can help himself and the society in which he lives. But, due to lack of employment prospects and dearth of basic amenities, the youth, especially the literate ones, is moving out of his village in search of better prospects.
The question arises as to why the India which lived in the villages is fast opting for metros and urban cities?
Call it restraints on their part or the system’s failure; people are forced to move out of their ancestral homes due to the lack of facilities back home. Basic facilities like education, health and medicine are not available to them. They are even unable to obtain sufficient amount of food for their families.
Hence, they leave their villages in search of better employment opportunities.
Affirming the trend of migration from villages to big cities, the 2010 Census estimates show that in Haridwar district alone, while the total number of literates rose to 7 lakh from 5 lakh in one decade, the migration rate also swelled to 7 percent.
Similarly is the case in Udhamsingh district where 3 percent people have already left their home when the literacy rate has increased by 2.5 percent.
The Migration figures have also gone up in villages of Dehradun, Nainital and Paudi. In Uttarakhand, at least 5 percent people have left their state and moved to other cities.
According to former Chief Secretary and financial expert Indu Kumar Pandey, “Migration is directly related to employment and when there are no growth facilities in their own regions then they will certainly move to other cities. Hence, there is a need to develop employment prospects in the region by boosting tourism.”
District                  Literacy rate              Migrations
Udhamsingh         10.35                            31430
Haridwar               11.55                            83099
Paudi                      5.54                             33156
Almoda                   08                                16467
Dehradun             6.24                             30000
 
 
http://post.jagran.com/migration-on-rise-in-uttarakhand-haridwar-district-worst-affected-1311651542

Himalayan Warrior /पहाड़ी योद्धा

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I deffer with this news. The migration from hills is much more what has been indicated from here.

Migration from plain areas distrct of UK is less compared to hills.


Mahi Mehta

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I think for Govt.. This is not an issue.

Politicians only need 5 yrs fixed chair and thereafter carry out full swing corruption.

Statics shows that migration has become double in Uttarakhand .. This credit goes to Govt only.


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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If employment is generated and fast development is done, then only the migration can be mitigated from Uttarakhand.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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पहाड़ों से लगातार हो रहे पलायन से गांव के गांव बंजर हो रहे हैं, जो चिंता की बात है। पहाड़ को बचाने के लिए मजबूत नीतियां बनाकर समाज व सरकार को संगठित प्रयास करने होंगे।
 
 शिक्षा, स्वास्थ्य व बेरोजगारी जैसी बुनियादी समस्याओं के चलते पहाड़ों से लगातार पलायन हो रहा है। राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण उत्तराखंड जैसे राज्य में पलायन के चलते गांव के गांव खाली होना, उत्तराखंड सरकार ही नहीं, केंद्र के लिए भी चिंता का मुद्दा होना चाहिए।
 
 पलायन के चलते खाली हो रहे पहाड़ों को भविष्य से लिए दु:खद बताते हुए कहा कि पहाड़ों में जिस तरह बाहरी लोगों का तेजी से प्रवसन हो रहा है, वह दिन दूर नहीं जब ‘पहाड़ी’ पहाड़ में ही अल्पसंख्यक हो जाएगी। यही हालत रहे तो आने वाले दशकों में राज्य का स्वरूप नष्ट हो जाएगा। उत्तराखंड सिर्फ नाम के लिए पहाड़ी राज्य होगा व इसकी स्थिति उत्तर प्रदेश के समान ही हो जाएगी। कारण जनसंख्या के आधार पर होने वाले परिसीमन से पहाड़ से विधानसभा सीटें लगातार घटती जाएंगी व मैदान में यह सीटें बढ़ती रहेंगी।
 साभार दैनिक जागरण


 

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