यह पत्र उत्तराखण्ड के एक शिक्षित बेरोजगार ने अपने पिता को लिखी है-
स्थान-सिडकुल, रुद्रपुर
दिनांक- २७ मई, २००९
आदरणीय पिताजी और ईजा को सादर चरण स्पर्श, भुली को प्यार।
मैं यहां पर कुशल से हूं और आपकी कुशलता की कामना करता हूं। पिताजी इस हफ्ते मैं दिल्ली जा रहा हूं और अब वहीं पर कुछ काम-धंधा तलाश करुंगा, कुछ नहीं भी हुआ तो किसी होटल में बर्तन मांज कर इतना कमा लूंगा कि अपने रहने-खाने के साथ ही भुली के ब्या के लिये भी कुछ जोड़ पाऊंगा।
पिताजी, आज तक मैने हमेशा आपकी बात मानी और आज मैं अपने मन से कुछ करने जा रहा हूं। इसके लिये क्षमा चाहूंगा। जो मैं करने जा रहा हूं, यह सही है या गलत, मुझे नहीं मालूम। लेकिन वक्त के हिसाब से मुझे लग रहा है कि अब ऎसा ही सही है।
आपकी भी क्या गलती, आपने हमेशा अपने ही हिसाब से दुनिया को देखा और चाहा कि दुनिया भी आप जैसी ही सीधी-सादी है। १९७८ में जब मैं पैदा हुआ, आपने बहुत खुशी मनाई होगी, गांव को न्योता होगा और सपना पाला होगा कि कल मेरा बेटा डाक्टर या इंजीनियर बनेगा। लेकिन अफसोस कि पहाड़ में जानकारी और सुविधाओं के अभाव में आपका सपना, सपना ही रह गया है। लेकिन जब मैने होश संभाला, मूजे याद पड़ता है कि चुनाव का टाईम था शायद सन ८६ का, आप जोर-शोर से किसी के चुनाव प्रचार में लगे थे, आपने हमें बताया कि हम उत्तराखण्ड की लड़ाई लड़ रहे हैं। जब हमारा अलग राज्य बनेगा तो हमारा विकास होगा, हमें नौकरी करने दिल्ली, बम्बई या लखनऊ नहीं जाना होगा, ईजा को दो मील से पानी नहीं लाना होगा, आपको कंट्रोल की दुकान में लैन नहीं लगानी होगी, हमारे गांव तक सड़क होगी, जब मैं सैप बनूगा तो गाड़ी से उतर से सीधे घर आऊंगा। बाबू आपने यह भी सपना दिखाया था कि डाक्टर और अस्पताल के न होने से जैसे आमा मर गई थी, वैसा मेरी ईजा के साथ नहीं होगा।
उसके बाद जब मैं इंटर में पढ़ रहा था तो उत्तराखण्ड आन्दोलन हुआ, आप तो पोस्ट मास्टरी को दांव पर लगा कर आन्दोलन में कूद गये और मैं भी आपके दिखाये हुये सपने के नशे में कूद पड़ा, पढ़ाई-लिखाकर छोड़ कर दीवारों में "आज दो-अभी दो, उत्तराखण्ड राज्य दो" के नारे लिखने लगा और ४-५ दोस्तों के साथ बजार बंद कराके नारे लगा रहा था। लम्बे आन्दोलन के बाद उत्तरांचल राज्य बना तो आपने इसके नाम और राजधानी पर मुंह बिचकाते हुये इसे स्वीकार कर लिया। बाबू आपको याद है, १० नवम्बर, २००० को रसोई में आपने ईजा से कहा कि "आब त हमारा हेमुवा की ले चिन्ता खत्म है गै, अपनु राज्य बनी गो, आब कै चिन्ता न्हातिन"। आपके कहने पर मैने आई०टी०आई० भी कर लिया, आपकी दूरगामी सोच थी कि नये राज्य में नये उद्योग लगेंगे और मूझे किसी इंड्रस्ट्री में टेक्नीशियन की आराम वाली नौकरी मिल जायेगी।
खैर दिन बीतते रहे, आपने मुझे प्रोत्साहित भी किया और किसी मंत्री-संतरी से हाथ जोड़-जाड़ कर मूझे सिडकुल में लगा भी दिया। लेकिन बाबू हम तो ठैरे पहाड़ के आई०टी०आई० से पढे़, कई मशीनें तो मैने यहां ही आकर देखी, हां पढा था ही। कई चीजें ऎसी भी हैं, जिसके बारे में हमारे मास्साब ने कभी हमें पढ़ाया ही नहीं और यहां तो पता नहीं कहां-कहां से लोग एडवांस टेक्नोलोजी वाले आ गये हैं, फैक्ट्री का मैनेजर हमें ऎसे देखता और ट्रीट करता है, जैसे हम डोटियाल मजदूर को ट्रीट करते थे।
अब आजकल मंदी की आड़ में हम लोगों की छंटनी हो रही है, मूझे भी बोरिया बिस्तर समेटने को कहां गया है। पहले तो मैने कहा कि हम यहां के मूल निवासी हैं और नौकरी हमारा हक है, सरकार की पालिसी भी है। तो वे कहते हैं कि काय की पालिसी, हम तुम्हारा प्रोविडेंट का पैसा भी नहीं देंगे, जाओ कोर्ट। फिर मैने हाथ-पांव जोड़े तो वे पैसा तो दे देंगे, लेकिन नौकरी तो छोड़नी ही पड़ेगी और उनका कहना है कि अगर यहीं पर नौकरी करनी है तो ठेकेदार के अण्डर करो, कम्पनी तो हटायेगी ही। कम्पनी वाली की भी मजबूरी है और प्रेक्टिकली यह भी उसके लिये ठीक ठैरा कि जब झारखण्ड, बिहार का आदमी ५००० में काम करने को तैयार है और वह भी ठेकेदारी से तो, वो मुझे क्यो ८००० रुपये दें।
अब बाबू, आप तो सीधे-सादे आदमी हुये, आपने दुनिया ज्यादा देखी भी नहीं और आप देखना भी मत, क्योंकि दुनिया हम जैसी नहीं है, बहुत खराब है। आप उन लोगों के बहकावे में भी मत आना, जिन्होंने आपको उत्तराखण्ड का सपना दिखाया और आपने मुझे वह सपना विरासत में दिया। पहाड़ में कुछ नहीं रखा बाबू, मैं रात-दिन काम करुंगा और २-३ साल में कोशिश करुंगा कि आप लोगों को भी दिल्ली ले आऊं, छोटा मकान बनाकर उसमें रह लेंगे। कम से कम मेरी बूढी ईजा को पानी के लिये २ मील नहीं जाना होगा, भुली को स्कूल के लिये ५ मील नहीं जाना होगा और आपकी दवा के लिये ३ मील पैदल चलकर २५ कि०मी० बजार नहीं जाना होगा। ये नेता तो ठगते हैं, उत्तराखण्ड बनने के बाद आप ही बताओ ये नेता हमारे घर कितनी बार आये....एक बार २००२ में फिर २००४ के लोकसभा चुनाव में, फिर २००७ में और अब आ रहे होंगे। इनकी बातों में मत आना बाबू, इन्होने तो देहरादून-हल्द्वानी में अपने घर बना लिये....हमारे लिये ये कुछ नहीं करने वाले। चिट्ठी लम्बी हो गई, कुछ बातें आपको बुरी भी लगेंगी, लेकिन माफ करना, बाबू।
आपका बेटा
रमेश कुमार