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समय बदल रहा है शायद हम लोगों के सोच बदलेगी एसा मेरा मानना है सबसे पहले हम एक हिन्दुस्तानी है फिर उत्तराखंडी या बिहारी ..........बात सही है की सरकार को कुछ आरक्षण देना ( वरयीता )देनी चाहिय उत्तराखंड के लोगों को ... ठेकेदारी प्रथा को बंद करना चाहिय .. .. रही बात बिहारी या नेपाली की ... तो जेसे हम वेसे ही वे और ये बात मानने वाली है की वो हम से ज्यादा मेहनती भी होते है .... अगर हम delhi या नॉएडा या कही और जॉब कर सकते है तो वो लोग क्यों नहीं ........... काफी समय पहले की बात है मै काफी छोटा था अल्मोरा गए थे बस रुकते ही कई नेपाली ...साहब जी .... साहब जी... कहते हुए लोगों से सामान उठाने की विनती करते थे काफी छोटे नेपाली भी उसमे थे लेकिन कोई आवाज लहक हमारे साइड की नहीं थी ....... ऐसा क्यों ......?क्या हमारे यहाँ कोई मजदूरी नहीं करता ........? कोई बर्तन नहीं धोता ...........? बस शर्म ..... शयद यही हो ..... या यही भावाना हो ,,,,,,,,,,, की कोई अपने यहं का देख लेगा ........... तो क्या कहेगा भले ही घर मे खाने के लीय राशन .? बच्चे की स्कूल की फीस न हो .... रात को घर पे चूला ना जले ... लेकिन कोई मतलब नहीं .... एक पेक दारू का जुगाड़ वो कही से कर लेगा मगर मेहनत मजदूरी नहीं करना चाहेगा ............... मकान की चिनाई का काम जानता है लेकिन करना नहीं चाहता ऐसा क्यों ....... क्यों हमें बिहारी से ही अपना मकान बनवाना पड़ता है एक पहाडी क्यों नहीं ठेका लेता है बिहारी बहुत मेहनती होते है ....... और दाम भी कम लेते है ....... हमारे आदमी कहते है भुला इतने मै पड़ता नहीं खाता ....... केसा पड़ता नहीं खाता जब एक बिहारी बिहार से आ कर यहं किराये मै रहता है सब चीज खरीद के खाता है उसको पड़ता खाता है और एक हमारे आदमी जिसका अपना घर है .......... सब कुछ है फिर भी पड़ता नहीं खाता ..........ऐसा क्यों पता नहीं .......... मुझे लगता है की हमें सबसे पहले अपनी सोच बदलनी पड़गी .......... सरकार को भी ठेकेदारी प्रथा ख़तम करनी चाहिय ......रमेश भाई का पत्र तो सही है मगर एक बात सोचने की है की same qualification वाला आदमी जब झारखण्ड, बिहार से यहं काम कर सकता है तो हम क्यों नहीं जब उसे इससे ज्यादा कही और नहीं मिल रहे होंगे तभी तो वो इतने दूर आया है नहीं तो कही और काम करता .......... " झारखण्ड, बिहार का आदमी ५००० में काम करने को तैयार है और वह भी ठेकेदारी से तो, वो मुझे क्यो ८००० रुपये दें। "दूसरी बात रमेश दा जब साल में दो तीन बार घर आओगे तो बचेंगे वही ५००० ..........Quote from: हुक्का बू on April 30, 2009, 02:54:21 PMयह पत्र उत्तराखण्ड के एक शिक्षित बेरोजगार ने अपने पिता को लिखी है-स्थान-सिडकुल, रुद्रपुरदिनांक- २७ मई, २००९आदरणीय पिताजी और ईजा को सादर चरण स्पर्श, भुली को प्यार। मैं यहां पर कुशल से हूं और आपकी कुशलता की कामना करता हूं। पिताजी इस हफ्ते मैं दिल्ली जा रहा हूं और अब वहीं पर कुछ काम-धंधा तलाश करुंगा, कुछ नहीं भी हुआ तो किसी होटल में बर्तन मांज कर इतना कमा लूंगा कि अपने रहने-खाने के साथ ही भुली के ब्या के लिये भी कुछ जोड़ पाऊंगा। पिताजी, आज तक मैने हमेशा आपकी बात मानी और आज मैं अपने मन से कुछ करने जा रहा हूं। इसके लिये क्षमा चाहूंगा। जो मैं करने जा रहा हूं, यह सही है या गलत, मुझे नहीं मालूम। लेकिन वक्त के हिसाब से मुझे लग रहा है कि अब ऎसा ही सही है। आपकी भी क्या गलती, आपने हमेशा अपने ही हिसाब से दुनिया को देखा और चाहा कि दुनिया भी आप जैसी ही सीधी-सादी है। १९७८ में जब मैं पैदा हुआ, आपने बहुत खुशी मनाई होगी, गांव को न्योता होगा और सपना पाला होगा कि कल मेरा बेटा डाक्टर या इंजीनियर बनेगा। लेकिन अफसोस कि पहाड़ में जानकारी और सुविधाओं के अभाव में आपका सपना, सपना ही रह गया है। लेकिन जब मैने होश संभाला, मूजे याद पड़ता है कि चुनाव का टाईम था शायद सन ८६ का, आप जोर-शोर से किसी के चुनाव प्रचार में लगे थे, आपने हमें बताया कि हम उत्तराखण्ड की लड़ाई लड़ रहे हैं। जब हमारा अलग राज्य बनेगा तो हमारा विकास होगा, हमें नौकरी करने दिल्ली, बम्बई या लखनऊ नहीं जाना होगा, ईजा को दो मील से पानी नहीं लाना होगा, आपको कंट्रोल की दुकान में लैन नहीं लगानी होगी, हमारे गांव तक सड़क होगी, जब मैं सैप बनूगा तो गाड़ी से उतर से सीधे घर आऊंगा। बाबू आपने यह भी सपना दिखाया था कि डाक्टर और अस्पताल के न होने से जैसे आमा मर गई थी, वैसा मेरी ईजा के साथ नहीं होगा। उसके बाद जब मैं इंटर में पढ़ रहा था तो उत्तराखण्ड आन्दोलन हुआ, आप तो पोस्ट मास्टरी को दांव पर लगा कर आन्दोलन में कूद गये और मैं भी आपके दिखाये हुये सपने के नशे में कूद पड़ा, पढ़ाई-लिखाकर छोड़ कर दीवारों में "आज दो-अभी दो, उत्तराखण्ड राज्य दो" के नारे लिखने लगा और ४-५ दोस्तों के साथ बजार बंद कराके नारे लगा रहा था। लम्बे आन्दोलन के बाद उत्तरांचल राज्य बना तो आपने इसके नाम और राजधानी पर मुंह बिचकाते हुये इसे स्वीकार कर लिया। बाबू आपको याद है, १० नवम्बर, २००० को रसोई में आपने ईजा से कहा कि "आब त हमारा हेमुवा की ले चिन्ता खत्म है गै, अपनु राज्य बनी गो, आब कै चिन्ता न्हातिन"। आपके कहने पर मैने आई०टी०आई० भी कर लिया, आपकी दूरगामी सोच थी कि नये राज्य में नये उद्योग लगेंगे और मूझे किसी इंड्रस्ट्री में टेक्नीशियन की आराम वाली नौकरी मिल जायेगी। खैर दिन बीतते रहे, आपने मुझे प्रोत्साहित भी किया और किसी मंत्री-संतरी से हाथ जोड़-जाड़ कर मूझे सिडकुल में लगा भी दिया। लेकिन बाबू हम तो ठैरे पहाड़ के आई०टी०आई० से पढे़, कई मशीनें तो मैने यहां ही आकर देखी, हां पढा था ही। कई चीजें ऎसी भी हैं, जिसके बारे में हमारे मास्साब ने कभी हमें पढ़ाया ही नहीं और यहां तो पता नहीं कहां-कहां से लोग एडवांस टेक्नोलोजी वाले आ गये हैं, फैक्ट्री का मैनेजर हमें ऎसे देखता और ट्रीट करता है, जैसे हम डोटियाल मजदूर को ट्रीट करते थे। अब आजकल मंदी की आड़ में हम लोगों की छंटनी हो रही है, मूझे भी बोरिया बिस्तर समेटने को कहां गया है। पहले तो मैने कहा कि हम यहां के मूल निवासी हैं और नौकरी हमारा हक है, सरकार की पालिसी भी है। तो वे कहते हैं कि काय की पालिसी, हम तुम्हारा प्रोविडेंट का पैसा भी नहीं देंगे, जाओ कोर्ट। फिर मैने हाथ-पांव जोड़े तो वे पैसा तो दे देंगे, लेकिन नौकरी तो छोड़नी ही पड़ेगी और उनका कहना है कि अगर यहीं पर नौकरी करनी है तो ठेकेदार के अण्डर करो, कम्पनी तो हटायेगी ही। कम्पनी वाली की भी मजबूरी है और प्रेक्टिकली यह भी उसके लिये ठीक ठैरा कि जब झारखण्ड, बिहार का आदमी ५००० में काम करने को तैयार है और वह भी ठेकेदारी से तो, वो मुझे क्यो ८००० रुपये दें। अब बाबू, आप तो सीधे-सादे आदमी हुये, आपने दुनिया ज्यादा देखी भी नहीं और आप देखना भी मत, क्योंकि दुनिया हम जैसी नहीं है, बहुत खराब है। आप उन लोगों के बहकावे में भी मत आना, जिन्होंने आपको उत्तराखण्ड का सपना दिखाया और आपने मुझे वह सपना विरासत में दिया। पहाड़ में कुछ नहीं रखा बाबू, मैं रात-दिन काम करुंगा और २-३ साल में कोशिश करुंगा कि आप लोगों को भी दिल्ली ले आऊं, छोटा मकान बनाकर उसमें रह लेंगे। कम से कम मेरी बूढी ईजा को पानी के लिये २ मील नहीं जाना होगा, भुली को स्कूल के लिये ५ मील नहीं जाना होगा और आपकी दवा के लिये ३ मील पैदल चलकर २५ कि०मी० बजार नहीं जाना होगा। ये नेता तो ठगते हैं, उत्तराखण्ड बनने के बाद आप ही बताओ ये नेता हमारे घर कितनी बार आये....एक बार २००२ में फिर २००४ के लोकसभा चुनाव में, फिर २००७ में और अब आ रहे होंगे। इनकी बातों में मत आना बाबू, इन्होने तो देहरादून-हल्द्वानी में अपने घर बना लिये....हमारे लिये ये कुछ नहीं करने वाले। चिट्ठी लम्बी हो गई, कुछ बातें आपको बुरी भी लगेंगी, लेकिन माफ करना, बाबू। आपका बेटारमेश कुमार
यह पत्र उत्तराखण्ड के एक शिक्षित बेरोजगार ने अपने पिता को लिखी है-स्थान-सिडकुल, रुद्रपुरदिनांक- २७ मई, २००९आदरणीय पिताजी और ईजा को सादर चरण स्पर्श, भुली को प्यार। मैं यहां पर कुशल से हूं और आपकी कुशलता की कामना करता हूं। पिताजी इस हफ्ते मैं दिल्ली जा रहा हूं और अब वहीं पर कुछ काम-धंधा तलाश करुंगा, कुछ नहीं भी हुआ तो किसी होटल में बर्तन मांज कर इतना कमा लूंगा कि अपने रहने-खाने के साथ ही भुली के ब्या के लिये भी कुछ जोड़ पाऊंगा। पिताजी, आज तक मैने हमेशा आपकी बात मानी और आज मैं अपने मन से कुछ करने जा रहा हूं। इसके लिये क्षमा चाहूंगा। जो मैं करने जा रहा हूं, यह सही है या गलत, मुझे नहीं मालूम। लेकिन वक्त के हिसाब से मुझे लग रहा है कि अब ऎसा ही सही है। आपकी भी क्या गलती, आपने हमेशा अपने ही हिसाब से दुनिया को देखा और चाहा कि दुनिया भी आप जैसी ही सीधी-सादी है। १९७८ में जब मैं पैदा हुआ, आपने बहुत खुशी मनाई होगी, गांव को न्योता होगा और सपना पाला होगा कि कल मेरा बेटा डाक्टर या इंजीनियर बनेगा। लेकिन अफसोस कि पहाड़ में जानकारी और सुविधाओं के अभाव में आपका सपना, सपना ही रह गया है। लेकिन जब मैने होश संभाला, मूजे याद पड़ता है कि चुनाव का टाईम था शायद सन ८६ का, आप जोर-शोर से किसी के चुनाव प्रचार में लगे थे, आपने हमें बताया कि हम उत्तराखण्ड की लड़ाई लड़ रहे हैं। जब हमारा अलग राज्य बनेगा तो हमारा विकास होगा, हमें नौकरी करने दिल्ली, बम्बई या लखनऊ नहीं जाना होगा, ईजा को दो मील से पानी नहीं लाना होगा, आपको कंट्रोल की दुकान में लैन नहीं लगानी होगी, हमारे गांव तक सड़क होगी, जब मैं सैप बनूगा तो गाड़ी से उतर से सीधे घर आऊंगा। बाबू आपने यह भी सपना दिखाया था कि डाक्टर और अस्पताल के न होने से जैसे आमा मर गई थी, वैसा मेरी ईजा के साथ नहीं होगा। उसके बाद जब मैं इंटर में पढ़ रहा था तो उत्तराखण्ड आन्दोलन हुआ, आप तो पोस्ट मास्टरी को दांव पर लगा कर आन्दोलन में कूद गये और मैं भी आपके दिखाये हुये सपने के नशे में कूद पड़ा, पढ़ाई-लिखाकर छोड़ कर दीवारों में "आज दो-अभी दो, उत्तराखण्ड राज्य दो" के नारे लिखने लगा और ४-५ दोस्तों के साथ बजार बंद कराके नारे लगा रहा था। लम्बे आन्दोलन के बाद उत्तरांचल राज्य बना तो आपने इसके नाम और राजधानी पर मुंह बिचकाते हुये इसे स्वीकार कर लिया। बाबू आपको याद है, १० नवम्बर, २००० को रसोई में आपने ईजा से कहा कि "आब त हमारा हेमुवा की ले चिन्ता खत्म है गै, अपनु राज्य बनी गो, आब कै चिन्ता न्हातिन"। आपके कहने पर मैने आई०टी०आई० भी कर लिया, आपकी दूरगामी सोच थी कि नये राज्य में नये उद्योग लगेंगे और मूझे किसी इंड्रस्ट्री में टेक्नीशियन की आराम वाली नौकरी मिल जायेगी। खैर दिन बीतते रहे, आपने मुझे प्रोत्साहित भी किया और किसी मंत्री-संतरी से हाथ जोड़-जाड़ कर मूझे सिडकुल में लगा भी दिया। लेकिन बाबू हम तो ठैरे पहाड़ के आई०टी०आई० से पढे़, कई मशीनें तो मैने यहां ही आकर देखी, हां पढा था ही। कई चीजें ऎसी भी हैं, जिसके बारे में हमारे मास्साब ने कभी हमें पढ़ाया ही नहीं और यहां तो पता नहीं कहां-कहां से लोग एडवांस टेक्नोलोजी वाले आ गये हैं, फैक्ट्री का मैनेजर हमें ऎसे देखता और ट्रीट करता है, जैसे हम डोटियाल मजदूर को ट्रीट करते थे। अब आजकल मंदी की आड़ में हम लोगों की छंटनी हो रही है, मूझे भी बोरिया बिस्तर समेटने को कहां गया है। पहले तो मैने कहा कि हम यहां के मूल निवासी हैं और नौकरी हमारा हक है, सरकार की पालिसी भी है। तो वे कहते हैं कि काय की पालिसी, हम तुम्हारा प्रोविडेंट का पैसा भी नहीं देंगे, जाओ कोर्ट। फिर मैने हाथ-पांव जोड़े तो वे पैसा तो दे देंगे, लेकिन नौकरी तो छोड़नी ही पड़ेगी और उनका कहना है कि अगर यहीं पर नौकरी करनी है तो ठेकेदार के अण्डर करो, कम्पनी तो हटायेगी ही। कम्पनी वाली की भी मजबूरी है और प्रेक्टिकली यह भी उसके लिये ठीक ठैरा कि जब झारखण्ड, बिहार का आदमी ५००० में काम करने को तैयार है और वह भी ठेकेदारी से तो, वो मुझे क्यो ८००० रुपये दें। अब बाबू, आप तो सीधे-सादे आदमी हुये, आपने दुनिया ज्यादा देखी भी नहीं और आप देखना भी मत, क्योंकि दुनिया हम जैसी नहीं है, बहुत खराब है। आप उन लोगों के बहकावे में भी मत आना, जिन्होंने आपको उत्तराखण्ड का सपना दिखाया और आपने मुझे वह सपना विरासत में दिया। पहाड़ में कुछ नहीं रखा बाबू, मैं रात-दिन काम करुंगा और २-३ साल में कोशिश करुंगा कि आप लोगों को भी दिल्ली ले आऊं, छोटा मकान बनाकर उसमें रह लेंगे। कम से कम मेरी बूढी ईजा को पानी के लिये २ मील नहीं जाना होगा, भुली को स्कूल के लिये ५ मील नहीं जाना होगा और आपकी दवा के लिये ३ मील पैदल चलकर २५ कि०मी० बजार नहीं जाना होगा। ये नेता तो ठगते हैं, उत्तराखण्ड बनने के बाद आप ही बताओ ये नेता हमारे घर कितनी बार आये....एक बार २००२ में फिर २००४ के लोकसभा चुनाव में, फिर २००७ में और अब आ रहे होंगे। इनकी बातों में मत आना बाबू, इन्होने तो देहरादून-हल्द्वानी में अपने घर बना लिये....हमारे लिये ये कुछ नहीं करने वाले। चिट्ठी लम्बी हो गई, कुछ बातें आपको बुरी भी लगेंगी, लेकिन माफ करना, बाबू। आपका बेटारमेश कुमार
मेहनत रंग लाती है ................ये एक सची कहानी है वो भी मेरे गाँव की ज्यादा पुरानी नहीं एक गरीब का बच्चा था बहुत गरीब हमारी उम्र का पिताजी भी नहीं थे उसके लोग उसे धुनी --- कहते थे सब के काम आने वाला भोला भला इन्सान ... कभी भी कोई उसे कोई काम के लीय बोल देता था तो मना नहीं करता था खाली नहीं बेठा रहता था कुछ न कुछ काम करता रहता था .........उससे भी गरीब एक दो लोग थे मगर .......... वो नजदीक ही होटलों में जहाँ ५ -१० रूपये में पानी भी भर कर भी ला देता था ........ मतलब कुछ शर्म नहीं ....... " कहते है न जिसने की शर्म उसके फूटे कर्म ....." गाँव के ही केसी भाई ने उसकी मेहनत को देखते हुए गजरोला में बाम किसी मेनेजर के यहं उसके घर पे रकवा दिया वो भी काफी बुडे थे बच्चे शयद अमरीका में थे उनके ... वाहं भी उसने मेहनत और ईमानदारी से काम करके उनका भी दिल जीत लिया जब वो रिटायर हो गए तो उन्होंने कंपनी के गेट पे ही उसको एक ढाबा खुलवा दिया ....... पड़ा लिका भी कम था कुछ थोडा बहुत लिखना जोड़ना भी सीख लिया था उसने मैडम से .... इमानदार तो था है ब्योहार भी उसका बहुत अच्छा था ...कंपनी का स्टाफ भी वही खाने आता था ... उसमे से किसी ने उसे कोई छोटा मोटा कंपनी में रेपैरिन का काम दिला दिया था उसके काम से खुस होकर उसे कुछ बड़ा काम मिल गया कंपनी में ही धीरे धीरे .... वो आज A One ठेकेदार है ............... और खूब पेसा भी कमा लिया गाँव में बहुत अच्छा मकान भी बन लिया है सब कुछ है आज उसके पास .......... घर में डिश , फ्रिज , टीवी , डीवीडी ...... सब कुछ है ...दो बहिनों के शादी कर दी है बड़े भाई के शादी कर दी है अभी उसकी उम्र भी लगबग मेरे बराबर होगी ......... सिर्फ अपनी मेहनत लगन और इमानदारी से ..........मै ये सब कुछ सिर्फ इसलिय लिख रहा हूँ कि ..." कहते है न जिसने की शर्म उसके फूटे कर्म ....." और हमारे पहाड़ के लोगों को भी मेहनत करनी चाहिय .................
इसी से संबंधित है ऎतिहासिक कवि "गौर्दा" की यह पंक्तियां-हमरो कुमाऊं, हम छौ कुमय्यां, हम्री छ सब खेती-बाड़ी!तराई-भाबर बण, बोट, घट, गाड़ हमरा पहाड़-पहाड़ी!यां ई भया, यां ई रुंला, यां ई छुटलिन नाड़ी!पितरकुड़ी छ यां ई हमरी, कां जूंला ये के छाड़ी!यां ई जनम फिरि-फिरि ल्यूंला, यो थाती हमन लाड़ी!!
मेहता जी, बहुत सही बात आपने कही, इस बात का प्रत्यक्ष उदाहरण आप स्वयं हैं, आप दिल्ली गये, आपकी जवानी Company के काम आ रही है, यदि आप अपने proffession से related काम उत्तराखण्ड में कर पाते या यहां की किसी संस्था के लिय कार्य करते तो निश्चित रुप से वह पहाड़ के काम आता, लेकिन मजबूरी है, पेट पालना है और अपनी योग्यता के अनुरुप काम पाना है, तो बाहर तो जाना ही पड़ेगा। यही बात सभी के लिये लागू है। पहाड़ से mostly लोग army मै हैं, उनकी जवानी देश के काम तो आ रही है, लेकिन जब वह रिटायर होकर घर आता है तो बूढा हो कर आता है और अपने गांव, खेत में भी काम नही कर पात्ता। तो जवानी इस मायने में तो और भी कुर्बान है कि वह देश के काम आ रही है। लेकिन जवानी इस मामले में कतई कुरबान नहीं की जा सकती कि बिहार और उ०प्र० से लोग यहां आकर नौकरी करें और हमारे पढे-लिखे भाई दो रोटी की खातिर दिल्ली या मुंबई के किसी ढाबे में बर्तन मले। हमारी सरकार को यह सुनिश्चित कर लेना चाहिये कि कम से कम तृतीय और चतुर्थ श्रेणी का रोजगार उत्तराखण्ड मूल के लोगों के लिये आरक्षित कर दी जांय, अन्यथा इसके गंभीर परिणाम हमारी आने वाली पीढी को परेशान करेंगे और वह हमें कोसेंगे कि हमारे पुरखों ने हमारे लिये कुछ भी नहीं किया।जय उत्तराखण्ड!