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चाय की खेती की असीम संभावनायें हैं उत्तराखंड में गिरीश नेगीउत्तराखंड में चाय की खेती का प्रथम संदर्भ विशप हेबर ने सन् 1824 में अपनी कुमाऊँ यात्रा में दिया है। सरकारी वानस्पतिक उद्यान सहारनपुर के अधीक्षक डॉ. रामले उत्तराखंड में चाय की खेती हो सकने से पूर्णतया सहमत थे। इस आशय की रिपोर्ट 1827 में उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी को भेजी और जब गवर्नर लॉर्ड विलियम बैंटिक सहारनपुर आये तो उन्हें भी इस क्षेत्र में चाय उद्योग के विकास हेतु सुझाव दिया। बैंटिक ने 1834 में एक कमेटी का गठन किया, जिसका कार्य चाय के पौंधे प्राप्त करना, बागान लगाने योग्य भूमि ढूँढना तथा चीनी चाय विशेषज्ञों की मदद करना था। 1835 में कलकत्ता से 2,000 पौंधों की पहली खेप उत्तराखंड पहुँची, जिससे अल्मोड़ा के पास लक्ष्मेश्वर तथा भीमताल के पास भरतपुर में नर्सरी स्थापित की गई। आगे चलकर हवालबाग, देहरादून तथा अन्य स्थानों पर भी नर्सरी स्थापित की गई। उसी समय यहाँ चाय बनाने की छोटी इकाइयाँ भी स्थापित की गई। 1837-38 में यहाँ के बागानों की चाय उपभोग हेतु तैयार हो गई। कलकत्ता कॉमर्स चौम्बर ने भी यहाँ चाय को बहुत अच्छा बाजार भाव प्राप्त करने वाली बताया। 1880 तक मल्ला कत्यूर (506 एकड़), कौसानी (390 एकड़) तथा देहरादून टी कंपनी (1200) एकड़ जैसे बड़े बागान विकसित हो चुके थे। चौकोड़ी तथा बेरीनाग बागानों का क्षेत्रफल भी करीब 300 एकड़ था। 1940-65 तक बेरीनाग में चाय उत्पादन चरम पर था और मात्र अकेली यह फैक्ट्री 500 से अधिक लोगों को रोजगार मुहैया करा रही थी।
इस सबके बावजूद चाय उद्योग उजड़ता ही चला गया। निर्यात की समस्या, यातायात के साधनों की कमी, स्थानीय स्तर पर बाजार की अनुपलब्धता, राजनैतिक परिवर्तन, स्वतंत्रता प्राप्ति के कारण आसानी से रोजगार के अवसर प्राप्त होने से मजदूरों की समस्या खड़ी होना, स्थानीय स्तर पर चाय फैक्ट्री का न होना, तकनीकी शिक्षा का अभाव, परंपरागत कृषि पर बल, भारत में चाय का कम प्रचलन होना (चाय के अधिकांश उपभोक्ता भी अंग्रेज ही थे) एवं तत्कालीन बागान मालिकों द्वारा चाय बागानों की समुचित देखरेख न होने के साथ ही मालिकों द्वारा चाय बागानों का कुप्रबंधन आदि कुछ ऐसे कारण रहे जिनके रहते यह उद्योग लगभग बंदी के कगार पर पहुँच गया। जहाँ 1880 में 10,937 एकड़ क्षेत्रफल में फैले कुल 63 चाय बागान (जिनमें से 27 प्रमुख टी स्टेट्स थीं) थे, 1911 में मात्र 2,102 एकड़ में फैले कुल 20 चाय बागान ही रह गये। उत्पादन भी 1897 में 17,10,000 पौंड से घटकर 1908 में 1,05,000 पौंड रह गया। मशहूर बेरीनाग टी कम्पनी में 1949 तक भी 59,000 पौंड चाय बनती थी जो कि 1975 में मात्र 9,000 पौंड रह गई। अब बेरीनाग टी कंपनी ध्वस्त हो चुकी है एवं चौकोड़ी बागान में चाय के पुराने पौंधों से ही थोड़ी मात्रा में चाय का उत्पादन होता है। उधर आसाम एवं पश्चिम बंगाल में चाय उद्योग विकसित होते गये। शायद वहाँ उत्तराखंड जैसी समस्यायें नहीं रहीं होंगी। अंग्रेजों ने अपना ध्यान उसी क्षेत्र में लगाया और इस उद्योग का उत्तरोतर विकास होता ही चला गया। कलकत्ता में चाय का अन्तर्राष्ट्रीय बाजार होना भी एक निर्णायक कारण रहा होगा।
हाल के वर्षों में उ.प्र. और अब उत्तराखंड सरकार ने पुनः इस दिशा में सोचा। वर्ष 1993 से कुमाऊँ मंडल विकास निगम एवं गढ़वाल मंडल विकास निगम को संभावित क्षेत्रों में चाय बागानों के विकास का दायित्य सौंपा गया। अब तक दोनों मंडलों में 246 हैक्टे. से अधिक भूमि में चाय बागान विकसित किये जा चुके हैं तथा चयनित क्षेत्रों में चाय पौंधों का रोपण कार्य जारी है। नैनीताल, चम्पावत, अल्मोड़ा, बागेश्वर, पिथौरागढ़, चमोली, रुद्रप्रयाग, टिहरी, उत्तरकाशी एवं देहरादून आदि जिलों में चाय बागानों के विकास हेतु 6650 हैक्टे. भूमि का चयन किया गया। उपलब्ध जानकारी एवं हमारे सर्वेक्षण से ज्ञात हुआ कि कुमाऊँ मंडल के अंतर्गत वर्ष 1995 से मार्च 2003 तक 181.77 है. भूमि पर चाय बागान विकसित किये जा चुके हैं। उक्त चाय बागानों के विकास हेतु लगभग 50 से अधिक ग्रामों के 150 से अधिक काश्तकारों एवं पाँच वन पंचायतों से भूमि लीज पर ली गई है। उक्त विकसित बागानों से वर्ष 2001-2002 तक कुल 1921.89 कु. हरी पत्ती का उत्पादन किया गया। करीब 150 से अधिक काश्तकार एवं 5 वन पंचायतें सीधे तौर पर उक्त परियोजना से लाभान्वित हुए। जनपद चमोली में वर्ष 1996 से 2003 तक 92 है. भूमि चाय बागानों के विकास हेतु अधिग्रहीत की गई। वर्ष 2003 तक 64 है. भूमि में चाय बागान विकसित किये जा चुके हैं। उक्त भूमि का 50 प्रतिशत से अधिक भाग वन पंचायतों एवं उत्तराखंड सरकार की भूमि है। चमोली जनपद के 12 विभिन्न स्थानों पर 214 छोटे-बड़े काश्तकारों एवं 12 वन पंचायतों तथा उत्तराखंड सरकार की भूमि अधिग्रहित की गई है। मई 2003 तक विकसित इन बागानों से कुल 94.72 कु. चाय की हरी पत्ती उत्पादित की गई। इन आंकड़ों से प्रतीत होता है कि यदि यह परियोजना जन भागीदारी के साथ आगे बढ़ी तो इसके अच्छे परिणाम होंगे। रोजगार सृजन के साथ यह भूमि कटाव की रोकथाम में भी सहायक सिद्ध होगी।
इस उद्योग हेतु ब्रिटिश काल में रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों का प्रयोग नहीं होता था। मगर अब उत्पादकता बढ़ाने हेतु अमोनियम सल्फेट, सिंगल सुपर फॉस्फेट, म्यूरेट ऑफ पोटाश आदि का तथा पौंधों को कीटजनित एवं विषाणुजनित रोगों से बचाने हेतु इन्डोसल्फान, कैलीथीन, फायटोलॉन, थायोडान आदि का प्रयोग हो रहा है। आसपास के जल स्रोतों पर इसके संभावित प्रभावों का अध्ययन करना आवश्यक है। इस क्षेत्र में कृषि भूमि में प्रयुक्त होने वाले रासायनिक उर्वरकों का जल की गुणवत्ता पर पड़ रहे प्रभाव पर अभी पर्याप्त जानकारी उपलब्ध नहीं है। एक अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि रोगाणुओं को मारने हेतु प्रयुक्त सल्फर, क्लोरीन एवं फॉस्फेट आधारित रसायनिकों के कम अपघटन हो सकने वाले पदार्थों में बदल जाने के बाद फसल में जो अवशेष रह जाते हैं वह मानव उपयोग करने पर कभी-कभी खतरा पैदा करते हैं एवं जल, वायु एवं मृदा प्रदूषण भी करते हैं। इस क्षेत्र में जल गुणवत्ता पर किये गये कुछ प्रारम्भिक अध्ययनों में जल प्रदूषण अभी निम्न स्तर का पाया गया है। फिर भी शहरी आबादी के आसपास जल प्रदूषण में वृद्धि हुई है। इन अध्ययनों में नाइट्रेट की पेयजल में मात्रा 3-46 मिग्रा./लीटर, क्लोराइड (3-66 मिग्रा./लीटर), सल्फेट (2-46 मिग्रा./लीटर) एवं कुल हार्डनैस 30-140 मिग्रा/लीटर पाई गयी है। जल स्रोतों के उद्गम क्षेत्र में चट्टानों की प्रकृति का भी जल की गुणवत्ता पर स्पष्ट प्रभाव देखने को मिले हैं। नाइट्रोजन युक्त अवयव (अमोनियम लवण, नाइट्राइट एवं नाइट्रेट) मुख्यतया प्रोटीनयुक्त पदार्थों के अपघटन से एवं कृषि भूमि से बहने वाले जल में पाये जाते हैं। कृषि भूमि में प्रयुक्त होने वाले गोबर की खाद का भी इन क्षेत्रों में निकलने वाले जल स्रोतों की गुणवत्ता पर प्रभाव पाया गया है। ग्रीष्म ऋतु के दौरान जल में घुलनशील ऑक्सीजन की न्यून मात्रा एवं कार्बोनेट की उच्च सान्द्रता को पेयजल हेतु अनुपयुक्त पाया गया है।
प्रस्तुत अध्ययन हेतु परिणाम कौसानी क्षेत्र के अन्र्तगत सौड़धार (चाय बागान रोपण का वर्ष 1994-95), कौसानी मेन डिवीजन (रोपण का वर्ष 1997-98) व जौवड़ा (रोपण का वर्ष 1997-98) चाय बागानों के जल स्रोतों के जल का परीक्षण किया गया। जल गुणवत्ता के आंकड़ों से विदित होता है कि गुणवत्ता हेतु आवश्यक मुख्य आयनों की सान्द्रता वर्षा ऋतु में एक चाय बागान से दूसरे चाय बागान से भिन्न है। सौड़धार चाय बागान में लगभग सभी (फास्फेट के अलावा) तत्वों की सान्द्रता मेन डिविजन एवं जौवड़ा चाय बागान के अंतर्गत अन्य तत्वों की सान्द्रता से ज्यादा थी। जौवड़ा चाय बागान में क्लोराइड की सान्द्रता अप्रत्याशित रूप से अधिक पाई गई। तीनों चाय बागानों के अन्तर्गत जल स्रोत का पी.एच. चाय बागान के बाहर के जल स्रोत से अधिक पाया गया। इस अध्ययन से ज्ञात होता है कि चाय बागानों की भूमि के भूगर्भीय रासायनिक प्रकृति का जल की गुणवत्ता पर मुख्यतः असर हुआ। अतः पर्यावरणीय दृष्टि से इस उद्योग का आंकलन अत्यन्त आवश्यक है। पर्वतीय जलागमों में बढ़ रही आबादी, शहरीकरण, नगरों से निकलने वाले कूड़े-कचरे एवं मल-मूत्र के निस्तारण एवं शुद्धिकरण की समुचित व्यवस्था न होने से यहाँ के घनी आबादी वाले क्षेत्रों में जल प्रदूषण की समस्यायें धीरे-धीरे उत्पन्न हो रही हैं। पुनः नकदी कृषि फसलों एवं पौंधों के व्यावसायिक रोपण में प्रयुक्त होने वाले रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों के उपयोग पर भी हमें सावधानी रखनी होगी।
(source Nainital samachar)