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[quote author=आठ साल, दो सरकारें, चार मुख्यमंत्री और ग्यारह बार बढ़ायें गये कार्यकाल के बाद जो फैसला राजधानी चयन आयोग ने दिया वह न केवल हास्यास्पद है बल्कि नीति-नियंताओं के राजनीतिक सोच का परिचायक भी है। लंबी कवायद और करोड़ों रुपये खर्च करने के बाद वहीं हुआ जिसकी सबको आजंका थी। आयोग की संस्तुतियों को मानना हालांकि सरकार के विवेक पर निर्भर करता है लेकिन इस पूरी कवायद में राजनीतिक दलों का जो रवैया रहा उसे पूरा करने में दीक्षित आयोग ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह भी कहा जा सकता है कि भाजपा और कांग्रेस के लिए वह राजधानी के मसले पर ढाल बनी। इस आयोग की सिफारिस पर दोनों की सहमति है। राजधानी चयन आयोग के अधयक्ष वीरेन्द्र दीक्षित ने अपनी जो रिपोर्ट सरकार को सौंपी है वह राज्य के लोगों की जनाकांक्षाओं के खिलाफ है। राजधानी के लिए चार स्थानों के नाम पर विचार कर उसने राजनीतिक दलों के एजेन्ट के रूप में कार्य करने के आरोप पर मुहर भी लगा दी है। रिपोर्ट में गैरसैंण के साथ रामनगर, देहरादून, कालागढ़ और आडीपीएल के नामों पर विचार करने की संस्तुति ने गैरसैंण की मुहिम को कमजोर करने का काम किया है। गैरसैंण को राजधानी बनाकर उसे चन्द्रनगर का नाम देने वाले उत्तराखंड़ क्रान्ति दल के सरकार में शामिल होने और उसी के समय में आयोग के एक और कार्यकाल के बढ़ने से जनता का विज्वास उठ गया था। पिछले दिनों देहरादून में आयोग की सिफारिश के खिलाफ सिर मुडंवाकर प्रदर्जन करने वाले उक्रांद के लिए भी अब यह गले की हड्डी बन गया है। विभिन्न आंदोलनकारी संगठनों की लामबंदी से एक बार फिर इस मुद्दे पर व्यापक आंदोलन की सुगबुगाहट “शुरू हो गयी है। पंचायत चुनाव के शोर के बाद अब सरकार और राजनीतिक दलों के लिए राजधानी का मसला सबसे बड़ी चुनौती होगा।
जब से राजधानी चयन के नाम पर जस्टिस बीरेन्द्र दीक्षित की अधयक्षता में आयोग बना लोगों को इससे बहुत उम्मीदें नहीं थी। फिर भी एक आयोग के काम और उसके फैसले पर सबकी नजरें जरूर थीं। पिछले दिनों जब उसने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी तो वही हुआ जिसकी सबको आजंका थी। गैरसैंण के साथ राजधानी के लिए और नामों पर भी विचार करने की संस्तुति कर आयोग ने राजनीतिक दलों की मुराद पूरी कर दी। आयोग ने अपनी रिपोट्र में बताया है कि राजधानी चयन के लिए जो नोटिफिकेशन जारी किया गया था उसमें विभिन्न वर्गों से सुझाव मोंगे थे। इनमें से आयोग को 268 सुझाव मिले। इनमें 192 व्यक्तिगत, 49 संस्थागत@एनजीओ, 15 संगठनात्मक@पार्टीगत और 12 ग्रुपों के सुझाव थे। इनमें गैरसैंण के पक्ष में 126, देहरादून के पक्ष में 42, रामनगर के पक्ष में 4, आईडीपीएल के पक्ष में 10 थे। कुछ सुझाव अंतिम तारीख के बाद मिले। आयोग ने इन्हें भी “ाामिल कर लिया था। इसके अलावा 11 सुझावों में किसी अन्य के विकल्प के रूप में गैरसैंण भी “ाामिल है। पांच में कुमांऊ-गढ़वाल के केन्द्र स्थल के नाम आये हैं। इन्हें यदि गैरसैंण मान लिया जाये तो यह संख्या 142 पहुंच जायेगी। रामनगर के पक्ष में सिर्Q 4 सुझाव हैं पर अन्य स्थलों पर एक विकल्प रामनगर को भी मानने वाले सुझावों की संख्या 21 है। इस तरह रामनगर के पक्ष में 25 सुझाव मिले हैं। कालागढ़ के पद्वा में 23 सुझाव मिले हैं। कालाढंूगी, हेमपुर, काजीपुर, भीमताल, श्रीनगर, “यामपुर, कोटद्वार आदि पर भी सुझाव आये हैं। राजनीतिक दलों की तरु से आये 15 सुझावों में से 6 गैरसैंण के पक्ष में हैं। दो गढ़वाल और कुमाऊं के मधय बनाने के लिए हैं। देहरादून के पक्ष में दो और कालागढ़ के पक्ष में तीन सुझाव राजनीतिक दलों की ओर से आये हैं। दो सुझावों में किसी स्थल का नाम नहीं हे। यह सरसरी तौर पर इस रिपोर्ट की सिफारिश है।
फिलहाल राजधानी चयन आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौप दी है। बताया गया कि यह रिपोर्ट इतनी संजीदगी से तैयार की गयी कि उसके अंतिम छह पेज स्वयं अधयक्ष बीरेन्द्र दीक्षित ने टाइप किये। इससे यह कहने का प्रयास भी किया गया कि उन्होने इस काम को करने में बड़ी मेहनत की है। आयोग इस आठ साल के कार्यकाल का काम सिर्फ इतना रहा कि कैसे इस रिपोर्ट को जारी करने तक गैरसैंण के मामले को कमजोर किया जायें। एक तरु आयोग किसी न किसी बहाने अपना कार्यकाल बढ़ाता गया वहीं दूसरी ओर सरकारें अस्थाई राजधानी देहरादून को स्थायी राजधानी बनाने के लिए निर्माण कार्य कराती रही। आयोग ने जिस तरह से अपने काम को करना शुरु किया वह हमेजा जनता की भावनाओं के विपरीत लगा। उसने किसी राज्य की जनता से सीधो संवाद की कोजि नहीं की। जिन खतरों को वह प्रचारित करता रहा वह बेहद कमजोर और हल्के रहे। इसी माधयम से उसने उन नामों को उछालना शुरू किया जो भाजपा-कांग्रस जैसी पार्टियों के लिए राजनीतिक लाभ के थे बल्कि इसी बहाने वह पहाड़ और मैदान की भावना को उभारने में लगी रही। यही कारण है इसे विवादित बनाने के लिए अब गैरसैण के साथ इस तरह के नाम आये हैं। इन आठ सालों में दीक्षित आयोग ने अपनी रिपोर्ट में इस क्षेत्र् को भूगर्भीय दृ’िट से खतरनाक साबित करने की कोजिज की। तमाम भूगर्भीय परीक्षणों का हवाला देते हुये वह यह साबित करना चाहती थी कि यह राजधाानी के लिए किसी भी तरह उपयुक्त नहीं है। असल में मधय हिमालय पूरा ही भूगर्भीय दृ’िट से सवेदन’ाील है। देहरादून से लेकर टकनकपुर तक की पूरी पट्टी सबसे खतरनाक जोन में हैं। गैरसैंण में तीन सौ साल से बने मंदिर और डेढ सौ साल पुराने तीन मंजिले मकान भी’ाण भूकंप में नहीं गिरे, राजधाानी बनने मात्र् से यह कैसे खतरनाक हो जायेगा यह समझ से परे है। और यदि येसा है भी तो सरकार को सबसे पहले इस बात पर गंभीरता से धयान देना चाहिए कि गैरसैंण और उसके पास बसे तमाम अबादी के विस्थापन की व्यवस्था करनी चाहिए। राजधाानी तो बाद की बात है। जब विकास के नाम पर लोगों को विस्थापित कर नई टिहरी जैसे “ाहरों को बसाया जा सकता है तो राजधाानी के लिए गैरसैंण को विकसित रिने में सरकारें क्यों परेजान हैं, यह समझ में नहीं आता। उत्तराखंड की सत्र्ह नदियों पर बन रहे 200 से अधिाक विनाजकारी बांधा और उनमें बनने वाली 700 किलोमीटर की सुरंगें विकास का माॅडल बताई जा रही हैं और राज्य के सुदूर ग्रामीण खेत्रों के लिए विकास के विकेन्द्रकरण की सोच के लिए केन्द्र में बनने वाली राजधाानी के लिए कुतर्क पेज कर सरकार और राजनीतिज्ञ जनविरोधाी रास्ता अिख्तयार कर रहे हैं।
सही नियोजन और जनपक्षीय विकास के माॅडल की मांग के साथ “ाुरू हुआ राज्य आंदोलन अपने तीन दजक की संघर्’ा यात्र में विभिन्न पड़ावों से गुजरा। रा’ट्रीय राजनीतिक दलों की घोर उपेक्षा और रा’ट्रद्रोही कही जाने वाली मांग के बीच क्षेत्र्ीय जनता ने राज्य की प्रासंगिता का रास्ता खुद ढंूढा। तीन दजकों के सतत संघर्’ा, 42 लोगों की “ाहादत और लोकतान्त्र्कि व्यवस्था में अपनी मांग के समर्थन में रैली में जा रही महिलाओं के अपमान के बाद राज्य मिला। यह किसी की कृपा और दया पर तो नहीं मिला लेकिन जो लोग कल तक राज्य का विरोधा कर रहे थे वे अब अचानक इस आंदोलन को हाई जैक करने में सQल हो गये। बाद में वही राज्य बनाने का श्रेय भी ले गये। 9 नवंबर 2000 को जब राज्य बना तो वह नये रूप और नये रंग का था। उत्तराखंउ की जगह उत्तरांचल के नाम से राज्य अस्तित्व में आया और भाजपा की अंतरिम सरकार बनी जिसने नाम के अलावा राजधाानी के लिए भी साजिज की। उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधाीज वीरेन्द्र दीक्षित की अधयक्षता में एक सदस्यीय राजधाानी चयन आयोग का गठन कर लोगों की भावना के खिलाQ काम करना “ाुरू कर दिया। आठ साल में वह किसी न किसी बहाने इस पर रोडे अटकाती रही। सरकार की प्राथ्मिकता में राजधाानी का सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं था इसलिए वह इस आयोग का मनमाना कार्यकाल बढ़ाती रही। भाजपा की अंतरिम सरकार ने इसका गठन किया तो कांग्रस ने लगातार इसके कार्यकाल को बढ़ाया। जितनी बार कार्यकाल बढ़ा उतनी बार गैरसैंण के खिलाQ कुतर्क ढंूढ़े गये। इस बीच राजधाानी के सवाल को लेकर लंबे समय से संघर्’ा करने वाले बाबा उत्तराखंड़ी ने अपनी ‘ाहादत दी और एक छात्र् कठैत ने आत्महत्या की। बावजूद इसके इन दोनों सरकारों ने आयोग के माधयम से जनता की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया। आठ साल के बाद दीक्षित आयोग की रिपोर्ट ने राज्य की जनता के साथ ऐसा छलावा किया जो एक नये आंदोलन को जन्म देने के लिए काQी है।
जहां तक राज्य की राजधाानी का सवाल है, यह राज्य आंदोलन के दौरान निर्विवाद रूप से तय थी। गैरसैंण को राजधाानी बनाने का मुद्दा भावनात्मक नहीं बल्कि यह राज्य के विकास की परिकल्पना के अनुरूप था। विकास के विकेन्द्रीकरण की सोच के साथ राज्य के मधय में राजधाानी बनाने का विचार आंदोलन के प्रारंािम दौर में ही आंदोलनकारियों के जेहन में थां। जब आंदोलन तेज हुआ तो राज्य के लिए एक प्रारूप भी जन्म लेने लगा उसमें विभिन्न संगठनों ने अपने-अपने ब्लू प्रिन्ट तैयार किये। कमोवेज सभी ने इस बात पर सहमति व्यक्त की कि पहाड़ी राज्य की राजधाानी पहाड़ में ही होनी चाहए। उस समय इस आंदोलन का घ्वजवाहक क्षेत्रीय राजनीतिक दल उक्रांद ने 1992 में बागेज्वर में अपना ब्लू प्रिन्ट जारी किया। इसमें पहली बार गैरसैंण को राजधाानी के रूप में चुना गया। 24 और 25 जुलाई 1993 में गैरसैंण में भारी जनसैलाब के बीच पेजावर कांड के नायक वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली के नाम पर इसका नामकरण चन्द्रनगर के नाम से कर दिया गया। यहीं से यह राज्य के लोगों के लिए राजधाानी के रूप में जानी जाने लगी। 1994 में तत्कालीन मुलायम सिंह यादव सरकार ने राज्य के औचित्य को लेकर वरि’ठ मंत्री रमाजंकर कौजिक की अधयक्षता में एक समिति का गठन किया गया। इसमें प्रदेज के तीन और मंत्री ‘ाामिल थ। इसके सचिव ततकालीन पर्वतीय विकास सचिव आरएस टोलिया को बनाया गया। कौजिक समिति असल में राज्य का प्रारूप तैयार करने वाली सबसे प्रामाणिक थी। इसने उत्तराखंड के विभिन्न हिस्सों में जाकर विभिन्न मुद्दों पर समाज के विभिनन वर्गों की राय ली। इसमें राजधाानी का सवाल भी था। समिति को 68 प्रतिजत लोगों ने कहा कि राजधाानी चन्द्रनगर गैरसैंण होनी चाहिए। यही वह बिन्दु है जिसे जनता की व्यापक भावना के रूप में समझा जाना चाहिए था। लेकिन दुर्भाग्य से लोकतंत्रत्रिक व्यवस्था की दुहाई देने वाले नीति-नियंताओं ने जनता की बात को कसौटी में कसने के लिए आयोग के हवाले कर दिया जो अपने आप में अलोकतांत्र्कि कदम था।
Qिलहाल राजधाानी चयन आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौप दी है। बताया गया कि यह रिपोर्ट इतनी संजीदगी से तैयार की गयी कि उसके अंतिम छह पेज स्वयं अधयक्ष बीरेन्द्र दीक्षित ने टाइप किये। इससे यह कहने का प्रयास भी किया गया कि उन्होने इस काम को करने में बड़ी मेहनत की है। आयोग इस आठ साल के कार्यकाल का काम सिर्Q इतना रहा कि कैसे इस रिपोर्ट को जारी करने तक गैरसैंण के मामले को कमजोर किया जायें। एक तरु आयोग किसी न किसी बहाने अपना कार्यकाल बढ़ाता गया वहीं दूसरी ओर सरकारें अस्थाई राजधाानी देहरादून को स्थायी राजधाानी बनाने के लिए निर्माण कार्य कराती रही। आयोग ने जिस तरह से अपने काम को करना “ाुरू किया वह हमेजा जनता की भावनाओं के विपरीत लगा। उसने कीाी राज्य की जनता से सीधो संवाद की कोजि नहीं की। जिन खतरों को वह प्रचारित करता रहा वह बेहद कमजोर और हल्के रहे। इसी माधयम से उसने उन नामों को उछालना “ाुरू किया जो भाजपा-कांग्रस जैसी पार्टियों के लिए राजनीतिक लाभ के थे बल्कि इसी बहाने वह पहाड़ और मैदान की भावना को उभारने में लगी रही। यही कारण है इसे विवादित बनाने के लिए अब गैरसैण के साथ इस तरह के नाम आये हैंं। इन आठ सालों में दीक्षित आयोग ने अपनी रिपोर्ट में इस क्षेत्र् को भूगर्भीय दृ’िट से खतरनाक साबित करने की कोजिज की। तमाम भूगर्भीय परीक्षणों का हवाला देते हुये वह यह साबित करना चाहती थी कि यह राजधाानी के लिए किसी भी तरह उपयुक्त नहीं है। असल में मधय हिमालय पूरा ही भूगर्भीय दृ’िट से सवेदन’ाील है। देहरादून से लेकर टकनकपुर तक की पूरी पट्टी सबसे खतरनाक जोन में हैं। गैरसैंण में तीन सौ साल से बने मंदिर और डेढ सौ साल पुराने तीन मंजिले मकान भी’ाण भूकंप में नहीं गिरे, राजधाानी बनने मात्र् से यह कैसे खतरनाक हो जायेगा यह समझ से परे है। और यदि येसा है भी तो सरकार को सबसे पहले इस बात पर गंभीरता से धयान देना चाहिए कि गैरसैंण और उसके पास बसे तमाम अबादी के विस्थापन की व्यवस्था करनी चाहिए। राजधाानी तो बाद की बात है। जब विकास के नाम पर लोगों को विस्थापित कर नई टिहरी जैसे “ाहरों को बसाया जा सकता है तो राजधाानी के लिए गैरसैंण को विकसित रिने में सरकारें क्यों परेजान हैं, यह समझ में नहीं आता। उत्तराखंड की सत्र्ह नदियों पर बन रहे 200 से अधिाक विनाजकारी बांधा और उनमें बनने वाली 700 किलोमीटर की सुरंगें विकास का माॅडल बताई जा रही हैं और राज्य के सुदूर ग्रामीण खेत्रों के लिए विकास के विकेन्द्रकरण की सोच के लिए केन्द्र में बनने वाली राजधाानी के लिए कुतर्क पेज कर सरकार और राजनीतिज्ञ जनविरोधाी रास्ता अिख्तयार कर रहे हैं।
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Now it is ok.
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