४००० करोड़ रुपये के वर्तमान कर्ज और १६ हजार करोड़ के कर्जे में पैदा हुये इस राज्य में दो राजधानी बनाना कतई उचित नहीं है। वैसे भी दो राजधानियों वाला कान्सेप्ट अंग्रेजीयत का ही परिचायक है, जो गरीब देशों में हुकूमत कर रहे अपने अफसरों को ऐशो आराम मुहैय्या कराना ज्यादा उचित समझता था, बजाय जनता की समस्याओं के। लोकतंत्र में कभी भी इसे उचित नहीं कहा जा सकता कि कुछ भद्रजन गर्मी होते ही पहाड़ में चढें और सर्दी में नीचे ऊतर आये। जनता को सुविधा देने के लिये लोकतंत्र में शासन और प्रशासन होता है, अपनी सुविधा बढाने के लिये नहीं।
जहां तक राजधानी का प्रश्न है, वह जनभावना के अनुरुप, इस राज्य की परिस्थिति के अनुरुप, इस राज्य के लिये अपनी जान कुर्बान होने वाले लोगों के सपने के अनुरुप गैरसैंण में ही होनी चाहिये।
इस समय इस मुद्दे को भटकाने का नहीं, इस मुद्दे को प्रबलता देने का है, मेरा निवेदन है, विनम्र निवेदन है कि इस मुद्दे को राजनीतिक चश्मे को उतार कर अपनी अर्ताआत्मा और उन शहीदों की कुर्बानी, मुजफ्फरनगर की जलालत, आन्दोलन की भावना के नजरिये से देखना चाहिये, क्या आज हम सुख-सुविधाओं की चाह में इतने अहसान फरामोश हो गये हैं, कि इन सब चीजों का हमारे लिये कोई मोल नहीं रहा? आज जब बैठे-बिठाये हमें राज्य मिल गया, (क्योंकि संघर्ष करने वालों की स्थिति किसी से छिपी नहीं है।) आज जब हमें राज्य मिल गया तो हम हवाई जहाज, रेल देख रहे हैं। उत्तर प्रदेश में क्या हाल थे, याद नहीं है क्या?
एक चेतावनी भी है, इस मुद्दे को भरमाने वालों के लिये कि जिस तरह यहां के राजनीतिक दलों ने बेशर्मी भरी राजनीति राज्य आन्दोलन के समय की थी, वैसा ही कुछ ये अब भी कर रहे हैं। लेकिन कुछ पागल, बेवकूफ और सिरफिरों (राज्य आन्दोलन को भरमाने वालों की नजर से) की इस बेवकूफी भरी मांग और संघर्ष का प्रतिफल है ,उत्तराखण्ड। जिसमें यह लोग खींसें निपोरकर अब विधायक बनने के लिये, लालबत्ती पाने के लिये यहां तक कि मुख्यमंत्री बनने के लिये मारा-मारी कर रहे हैं और सब यह बताने को अक्सर कोशिश करते हैं कि हम भी क्रान्तिकारी थे, हमने भी आन्दोलन में शिरकत किया था।
यही सब गैरसैंण के लिये भी होगा, आखिरकार राजधानी जायेगी वहीं और इसे भरमाने वाले, झक मारकर, खिसियाकर अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने बेशर्मों की तरह गैरसैंण ही आयेंगे, यह मेरा वादा है।