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Do you feel that the Capital of Uttarakhand should be shifted Gairsain ?

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26 (19%)
Yes But at later stage
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5 (3.6%)

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Voting closed: March 21, 2024, 12:04:57 PM

Author Topic: Should Gairsain Be Capital? - क्या उत्तराखंड की राजधानी गैरसैण होनी चाहिए?  (Read 351337 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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from   anuj sharma <decentanu2000@yahoo.com>

Gairsain Distance from Various Districts of Uttarakhand

Distance from various districts is no criteria for deciding the capital. if we apply this criteria then capital of india should be somewhere in madhya predesh instead of delhi. we should concentrate on  how our state can progress and developed rather than thinking about where should be the capital and what should be its name(uttarakhand/uttaranchal). Let the politicians and bureaucrats decide from where they can do good administration. we all should put our best for progress of this beautiful state and stay away from aimless politics of location of capital.
regards
anuj sharma

--- On Tue, 4/5/11, M S Mehta <msmehta@merapahad.com> wrote:



एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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From Sudarshan Rawat

हम उत्तराखण्ड राज्य के आन्दोलनकारियों और शहीदों की भावना के अनुरुप गैरसैंण (चन्द्र नगर) को उत्तराखण्ड की स्थायी राजधानी के रुप में देखना चाहते हैं। गैरसैंण हमारे लिये मात्र प्रस्तावित राजधानी ही नहीं है, यह हमारे शहीदों का सपना है,गैरसैंण हमारे उत्तराखण्ड के लोगों के लिये मात्र जगह नही है, गैरसैंण हमारे आन्दोलनकारियों का सपना है, हमारी भावना है, एक विचार है, एक सपना है. क्योंकि जब उत्तराखण्ड आन्दोलन हुआ था तो हमारे आन्दोलनकारियों ने सोच-विचार कर गैरसैंण को अपने प्रस्तावित राज्य की राजधानी घोषित कर दिया था,जो पूरे राज्य की जनता में सर्वमान्य भी हुआ. पहाड की राजधानी यदि पहाड में नहीं होगी तो इससे दुर्भाग्यपूर्ण बात और क्या हो सकती है. जो नीति नियंता है, उन्हें पहाड की जानकारी नही हो़गी और वे पहाड की विषम भौगोलिक परिस्थितियों से परिचित ही नहीं होंगे, तो वे पहाड के लिये क्या नीति बना सकते हैं? हम सरकार से मांग करते हैं ही कि शीघ्र ही गैरसैंण को राजधानी घोषित करे।
ना भाबर, ना सैंण, राजधानी सिर्फ गैरसैंण
 
उत्तराखंड क्रांति दल के थिंक टैंक स्व० विपिन चन्द्र त्रिपाठी ने गैरसैण ही क्यों का तर्क देते हुए कहा था कि..
प्रस्तावित राजधानी स्थल गैरसैण, पाण्डुवाखाल से दीवालीखाल तक २५ किमी० लम्बाई एवं दूधातोली से नारायणबगड के ऊपर की चोटी तक २० कि०मी० की चौडाई क्षेत्र में फैला है जिसमें लगभग ३ हजार एकड यानि ६० हजार नाली वृक्षविहीन नजूल व बेनाप भूमि स्थित है। इसके अतिरिक्त भमराडीसैंण, नागचूलाखाल, पाण्डुवाखाल, रीठिया स्टेट सरीखे चारों ओर फैले खुबसूरत मैदान, बुग्याल स्थित हैं। यह पूरा क्षेत्र छोटी-बडी नौ पहाडियों व उनके बीच स्थित घाटियों में फैला है। अतः मध्य हिमालयी राज्यों में सर्वाधिक खूबसूरत राजधानी बनेगी। गैरसैण में राजधानी बनने से इसके चारों ओर के ५००० गांवों के विकास में भी इसका सीधा लाभ मिलेगा।

भूगर्भीय संरचना की दृश्टि से रियेक्टर स्केल पैमाने पर यह उत्तराखण्ड के अन्य जोनों से सबसे कम खतरे पर है। चारों ओर खूबसूरत वनाच्छादित क्षेत्र हैं। राजधानी निर्माण में पर्यावरण का ०.५ प्रतिषत से क्षति नहीं होगी।

स्व० विपिन चन्द्र त्रिपाठी ने लिखा है कि यदि राजधानी के चयन में तनिक भी भूल की गयी या राजनैतिक स्वार्थो के दबाव में गलत निर्णय लिया गया तो भविश्य में इसके गंभीर परिणाम होगे। १९७९ में उत्तराखण्ड क्रांति दल की स्थापना ही राज्य प्राप्ति हेतु हुई थी। अपनी स्थापना से यह दल एकमात्र क्षेत्रीय दल के रुप में उत्तराखण्ड राज्य के लिए संघर्श करता रहा है। उक्रांद के प्रयासों से तत्कालीन उत्तर प्रदेष सरकार ने उत्तराखण्ड राज्य निर्माण की संभावनाओं हेतु वर्श १९९२ में ६ सदस्यीय कैबिनेट समिति कौषिक समिति का गठन किया। उक्त सरकारी समिति ने अल्मोडा, पौडी, काशीपुर, लखनऊ में बैठकें कर उत्तराखण्ड के सांसदों, विधायकों, जिला पंचायत अध्यक्षों, ब्लाक प्रमुखों, बुद्धिजीवियों एवं आम जनता की राय, अभिमत, उत्तराखण्ड राज्य निर्माण एवं राजधानी के संदर्भ में लिया था तथा प्रस्तावित राज्य की राजधानी हेतु जनमत संग्रह करवाया था। कौशिक समिति द्वारा करवाये गये जनमत संग्रह में ६७ प्रतिषत से अधिक जनता ने गैरसैण- चन्द्रनगर जनपद चमोली को राजधानी के रुप में स्वीकार किया। बाद में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल श्री मोतीलाल बोरा द्वारा गठित एक्सपर्ट कमेटी ने भी अपने व्यापक सर्वेक्षण के बाद गैरसैण क्षेत्र को राजधानी हेतु सर्वाधिक उपयुक्त पाया।

स्व० श्री विपिन चन्द्र त्रिपाठी ने दस्तावेज में लिखा है कि गैरसैण (चमोली) को राजधानी के रुप में चयनित करने हेतु उत्तराखण्ड की ७५ प्रतिषत से अधिक जनता ने अपनी सहमति दी है। उत्तराखण्ड में कार्यरत किसी भी राजनैतिक दल ने गैरसैण का विरोध नहीं किया है। पेशावर काण्ड के महानायक उत्तराखण्ड की  धरती के सपूत वीर चन्द्र सिंह गढवाली का निरंतर यही प्रयास रहा कि दूधातोली से लेकर गैरसैंण के मध्य भावी उत्तराखण्ड राज्य की राजधानी स्थापित की जाय। जीवन के अन्तिम क्षणों में भी उस वीर सेनानी की यही अन्तिम इच्छा थी।

गैरसैण समूचे उत्तराखण्ड का केन्द्र बिन्दु है। उत्तराखण्ड के अन्तिम छोर से लेकर धारचूला, मुनस्यारी विकास खण्डों की अन्तिम सीमा से गैरसैण की दूरी लगभग बराबर है। कुमाऊ कमिष्नरी नैनीताल एवं गढवाल कमिष्नरी मुख्यालय पौडी से गैरसैण की दूरी समान है। उत्तराखण्ड के १३ जनपदों के जिला मुख्यालयों से गैरसैण तक बस द्वारा आसानी से ६ से १० घण्टों में सीधे गैरसैण पहुंचा जा सकता है।

यहीं नहीं कर्णप्रयाग से रामनगर तक तथा रानीखेत तक मोटर मार्ग का चौडीकरण करने के पश्चात यह दूरी और कम समय में पूरी की जा सकती है। जनपद पिथौरागढ के धारचूला, मुनस्यारी से प्रस्तावित गरूड- धौणाई- तडागताल मोटर मार्ग के पूर्ण हो जाने पर इस क्षेत्र से गैरसैण की दूरी लगभग १०० किमी० कम हो जायेगी। हरिद्वार -कोटद्वार- रामनगर बीच के प्रस्तावित मोटर मार्ग के बन जाने से उत्तरकाशी, टिहरी व देहरादून जनपदों से भी गैरसैंण की दूरी ८० से १०० कि०मी० कम हो जायेगी। उत्तरकाशी, टिहरी से वाया श्रीनगर, रुद्रप्रयाग होते हुए गैरसैण की दूरी मात्र ८ से १० घण्टों में आसानी से तय की जाती है। पौडी कमिष्नरी मुख्यालय से गैरसैण की दूरी अभी मात्र ६ से ७ घण्टे की है। यदि पौडी से मराडीसैण-धौरसैण का निर्माण कर दिया जाए तो यह दूरी और कम हो जायेगी।

गैरसैण हरिद्वार-बद्रीनाथ मोटर मार्ग पर कर्णप्रयाग से मात्र ४६ किमी० की दूरी पर पक्के मोटर मार्ग से जुडा है। पिथौरागढ जनपद से वाया थल-बागेश्वर, गरूड-ग्वालदम होते हुए सिमली से गैरसैण पक्के मोटर मार्ग से जुडा है। अल्मोडा-सोमेश्वर-द्वाराहाट होते हुए गैरसैण पक्के मोटर मार्ग से सम्बद्ध है। रूद्रपुर-हल्द्वानी- रानीखेत-द्वाराहाट-चौखुटिया होते हुए गैरसैण सीधे मोटर मार्ग से जुडा है। काशीपुर-रामनगर-भतरौंजखान भिकियासैण होते हुए वाया चौखुटिया गैरसैण तक पक्के मोटर मार्ग से सम्बद्ध है। इस तरह गैरसैण चारों ओर से मोटर मार्गो से जुडा है।

गैरसैण -चन्द्रनगर- में राजधानी निर्माण पर आने वाला वित्तीय भार

उत्तराखड की जनता की जनभावनाओं का सम्मान करते हुए यदि गैरसैण में राजधानी का निर्माण किया जाता है तो वित्तीय भार इस प्रकार होगा।

१- विधानसभा निर्माण- २५ करोड,
२- सचिवालय निर्माण- २० करोड,
३-मुख्यमंत्री व मंत्रियों के आवास-५ करोड
५ करोड ४-७१ विधायकों के आवास- १०.६५ करोड,
५-प्रमुख सचिव, सचिव, अपर सचिव, संयुक्त सचिव, उपसचिव कुल १५० सचिव’ २२.५० करोड,
६- सरकारी स्टाफ क्वाटर्स- ५० करोड,
७- राज्यपाल भवन- ध्यान रहे कि गैरसैण से ८ से १० किमी० की हवाई दूरी पर नैनीताल में राज्यपाल भवन स्थित है- १ करोड,
८- विभिन्न विभागों के विभागाध्यक्षों के आवास- १५ करोड,
९- विभागाध्यक्षों का स्टाफ- १० करोड,
१०- पुलिस विभाग- २१ करोड,
११- राजधानी में बाजार व्यवस्था- १० करोड,
१२- हैलीपैड व्यवस्था- ०.५० करोड,
१३- १० हजार आबादी पर पावर हाऊस- २५ करोड,
१४- पिंडर नदी, नयार, रामगंगा किसी एक से पम्पिंग पेयजल योजना- (नोट:- वर्तमान में गैरसैण के चारों ओर पर्याप्त पानी उपलब्ध है- ५० करोड,

१५- भूमि व्यवस्था- ३० करोड, (नोट:- गैरसैण के चारों ओर  स्थित ९ पहाड़ियों के मध्य ३००० तीन हजार एकड से अधिक नजूल व भारत सरकार की वृक्ष विहीन भूमि है, १००० एकड से अधिक भूमि पूर्व चाय बागानों व स्टेटों की है, भमराडी सैण से नागचूलाखाल, रीठिया स्टेट से दिवालीखाल व गैरसैण से पाण्डुवाखाल तक कृषकों की सहमति से ५०० एकड भूमि क्रय की जा सकती है।

१६- यातायात व्यवस्था:- गैरसैण से कर्णप्रयाग ५० किमी०- १० करोड, गैरसैण से रानीखेत- ८० किमी०- १६ करोड, गैरसैण से ग्वालदम-गरूड- १०० किमी०- २० करोड, गैरसैण से रामनगर १२० किमी०- २४ करोड, रामनगर-कोटद्वार- ३५ करोड, राजधानी क्षेत्र में २०० किमी० नई सडकों का निर्माण- ७० करोड
१७- राजधानी क्षेत्र में राजकीय महाविद्यालयों व अन्य शिक्षा संस्थानों की स्थापना- १० करोड
१८- पर्यटक आवास गृहों, विश्राम भवनों, परिवहन व्यवस्था हेतु बस स्टेशनों, पार्को, खेल मैदानों आदि की व्यवस्था हेतु- २५ करोड,
१९- राजधानी, सचिवालय व अन्य कार्योलयों की साज सज्जा व फर्नीचर आदि हेतु व्यय- २५ करोड

इस तरह उत्तराखंड क्रांति दल के थिंक टैंक, उत्तराखंड आन्दोलनकारी श्री विपिन चन्द्र त्रिपाठी ने कुल पांच सौ पचास करोड पैसठ लाख अनुमानित व्यय का खाका खींच कर एक आदर्श व सुविधा सम्पन्न राजधानी का सपना देखा था।


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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राजधानी निर्माण के लिए मिले 2500 करोड़ रुपए जिस तरीके से बहा दिए गए, उसने उत्तराखंड में नौकरशाहों
 
राज्य बनने के साथ ही नौकरशाहों को भ्रष्टाचार का जो चस्का लगा उसने उन्हें पैसाखोर बनाकर छोड़ दिया। राजधानी निर्माण के लिए मिले 2500 करोड़ रुपए जिस तरीके से बहा दिए गए, उसने उत्तराखंड में नौकरशाहों की कार्य संस्कृति को भ्रष्टाचार में तब्दील कर दिया जो आज भी जारी है
भले ही राज्य को बने दस साल हो गए हों, लेकिन उत्तराखंड के आम नागरिक के मन में आज भी 2002 में विधानसभा के पहले ही सत्र में हुए अग्निकांड की यादें ताजा हैं। इस अग्निकांड से एक दिन पहले विधानसभा सत्र की बेंच बैठने मात्र से ही टूट गई थी।4 जून 2002 को पूरे देश के इतिहास में यह पहली घटना थी जब विधानसभा भवन के अंदर कोई बेंच बैठने मात्र से ही टूट जाए। जब विधानसभा सत्र में घटिया सामग्री के विषय में चर्चा हुई तो एक और संयोग देखिए कि उसी रात विधानसभा की लॉबी में भीषण आग लग गई। इससे उत्तराखंड के आम जनमानस के मन में यह संदेह उत्पन्न होना लाजिमी था कि कहीं न कहीं बेंच टूटने और उसके बाद हुए अग्निकांड में आपस में कोई रिश्ता जरूर है। लोगों में जब चर्चाएं होने लगी कि राजधानी निर्माण के समय हुए निर्माण कार्य और साज-सज्जा की खरीद में क्या-क्या अनियमितताएं हुई होंगी। उत्तराखंड की विधानसभा में भी इसकी गूंज सुनाई दी। मजबूरन विधानसभा ने राजधानी गठन के दौरान हुए निर्माण कार्यों, सामग्री की खरीद-फरोख्त और विधानसभा लॉबी में हुए अग्निकांड की जांच करने के लिए नौ सदस्यों की समिति बनायी गयी। इस समिति का गठन 27 जून 2002 को किया गया। इस समिति को 60 दिन के अंदर अपनी जांच पूरी कर आगामी सत्र में अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत करना था। इस समिति ने 25 विभागों के 61 अधिकारी-कर्मचारियों से पूछताछ की। इस दौरान समिति की 43 बैठकें हुई और नतीजा यह है कि यह जांच रिपोर्ट आज तक विधानसभा सत्रा में प्रस्तुत नहीं की जा सकी है।
विधानसभा लॉबी के अग्निकांड का रहस्य
विधानसभा अग्निकांड में जांच समिति ने बड़ी सफाई से सभी संभावित दोषियों को थोड़ा-बहुत छींटाकसी करते हुए क्लीनचिट दी है। इस दौरान जांच समिति ने पाया कि विधानसभा के विद्युतीकरण का काम ग्रामीण अभियंत्रण सेवा विभाग द्वारा कराया गया था, जबकि जांच में यह तथ्य निकलकर आया कि इस विभाग के पास न तो बिजली के काम करने वाली कोई यूनिट थी, न कोई कर्मचारी थे और न ही कोई इस तरह का पुराना अनुभव ही था। इसके बावजूद ग्रामीण अभियंत्रण सेवा विभाग को विद्युत संबंधी कार्य दिया जाना बिल्कुल गलत था। इस पूरी जांच रिपोर्ट में सभी विशेषज्ञों ने यह पाया कि आग शॉर्ट सर्किट से नहीं लगी थी, बल्कि इसे जानबूझकर लगाया गया था। इसके बावजूद आग लगाने वाले व्यक्ति की कोई खोज-खबर नहीं की गई। जांच समिति का गोल-मोल नतीजा यह निकला कि आग संभवतः जली हुई बीड़ी या सिगरेट की चिंगारी से लगी होगी।
राजधानी निर्माण का पैसा पड़ा है बेकार
उत्तर प्रदेश शासन ने नए राज्य उत्तराखंड की राजधानी गठन के लिए 2655.42104 लाख रुपए की वित्तीय स्वीकृतियां दी थी। इस धन को उत्तराखंड के विभिन्न विभागों में बांट दिया गया था। ताकि राजधानी निर्माण से संबंधित आवश्यक खरीद-फरोख्त का काम तेजी से हो सके लेकिन अधिकारियों ने इस धन का जमकर दुरुपयोग किया और जमकर कमीशन बनाया। शीघ्र काम होने का बहाना बनाकर खरीद-फरोख्त के लिए टेंडर निकाले जाने की भी प्रक्रिया नहीं अपनायी गई। इसके बावजूद भी जब कोई चहेता नहीं मिला तो बचा हुआ धन लैप्स कर दिया। इसका एक प्रमुख उदाहरण यह है कि उत्तर प्रदेश शासन ने राजधानी निर्माण के कार्यों के लिए लोक निर्माण विभाग को 668.47 लाख रुपए की स्वीकृति दी थी लेकिन इसके विरुद्ध उसने सिर्फ आधा ही धन खर्च किया और 308 लाख की धनराशि लैप्स हो गई। इसके बाद उत्तराखंड शासन को अलग से लोक निर्माण विभाग को 317.30 लाख रुपए राजधानी निर्माण संबंधी कार्यों के लिए देना पड़ा। इसी तरह ग्रामीण अभियंत्रण सेवा विभाग को भी उत्तराखंड शासन ने विधानसभा भवन के निर्माण हेतु 23 दिसंबर 2000 को 171.84 लाख रुपए स्वीकृत किए थे लेकिन आरईएस देहरादून ने अगस्त 2003 को बताया कि वह पूरी धनराशि ही लैप्स हो गई थी। इसी प्रकार इन सभी सरकारी विभागों ने कुल मिलाकर 654 लाख रुपए लैप्स करा दिए। बाद में यह कार्य उत्तराखंड को अपने धन से कराना पड़ा लेकिन वित्त विभाग ने उत्तर प्रदेश शासन से लैप्स हुई धनराशि को प्राप्त करने के लिए कोई प्रयत्न नहीं किया। तत्कालीन वित्त सचिव का कहना है कि स्वीकृत धन को खर्च करने की तिथि 8 नवंबर 2000 थी जबकि देहरादून को अस्थाई राजधानी बनाए जाने की जानकारी भारत सरकार ने यूपी सरकार को कुल एक माह पहले 5 अक्टूबर 2000 को दी थी। इतने कम समय में कोई भी संस्था निर्माण कार्य पूरा नहीं करा सकती थी।
औने-पौने हुआ खर्च
राज्य गठन के दौरान साज-सज्जा के क्रय, भवनों की मरम्मत, निर्माण आदि के लिए उपलब्ध करायी गई धनराशियों में से रुपए 663.23 लाख की धनराशि अवशेष है और रुपए 17.51 लाख की धनराशि साज-सज्जा पर खर्च करने के बजाय ऐसी मदों पर खर्च की गई जिसको सामान्य बजट से खर्च किया जाना चाहिए था। इन अवशेष राशियों की मानीटरिंग इसलिए नहीं की गई कि यह कार्य उत्तर प्रदेश सरकार का था। अवशेष धनराशियां उत्तरांचल राज्य के कार्यालयों, संस्थाओं के पास पड़ी हैं। उत्तर प्रदेश शासन ने न्यूनतम आधार पर धनराशियां उपलब्ध करायी और विभागों, संस्थाओं में उपयुक्त सामंजस्य के अभाव में इनको खर्च नहीं किया जा सका। जो धन खर्च किया गया उसमें भी जमकर मनमानी की गई। नेतागणों के लिए कम कीमत और घटिया गुणवत्ता का सामान खरीदा गया जबकि नौकरशाहों के लिए उससे दुगुनी कीमत के और ज्यादा संख्या में सामानों की खरीद की गई। उदाहरण के लिए यदि एक मंत्री के आवास के लिए दो सोफासेट 30 हजार की कीमत वाले खरीदे तो मुख्य सचिव के लिए तीन सोफासेट 60 हजार की कीमत वाले खरीदे गए। यदि मंत्री के लिए एक वूलन कारपेट 14 हजार की कीमत वाली खरीदी गई तो मुख्य सचिव के लिए 4 वूलन कारपेट 60 हजार की दर से खरीदी गई। मंत्री जी के लिए यदि 5 हजार रुपए की कीमत वाली 20 कुर्सियां खरीदी गई तो मुख्य सचिव के आवास के लिए 12 हजार की कीमत वाली 30 कुर्सियां खरीदी गई। लोक निर्माण विभाग ने साज-सज्जा के अव्यवहारिक आगणन बनाए। माननीय मंत्रियों से अधिक मुख्य सचिव की गरिमा का ध्यान रखा।उत्तर प्रदेश शासन के पत्र के अनुसार जिन कार्यों की लागत 2 लाख रुपए से अधिक है वह कार्य मेजर वर्क्स की श्रेणी में आते हैं। उ.प्र. में ऐसे मेजर वर्क्स के लिए निविदाएं मंगाने का कार्य समाचार पत्रों में प्रचार-प्रसार के माध्यम से किया जाता है। चूंकि देहरादून को अस्थायी राजधानी बनाए जाने की जानकारी भारत सरकार ने उ.प्र. सरकार को 5 अक्टूबर 2000 को दी तथा 9 नवंबर 2000 को उत्तरांचल राज्य का गठन हुआ। मूलभूत ढांचे को बहुत कम समय में बनाना था। संभवतः इस स्थिति को मद्देनजर रखते हुए मुख्य अभियंता (गढ़वाल क्षेत्र) लोक निर्माण विभाग पौड़ी ने पत्र के माध्यम से अधीक्षण अभियंता 24वां वृत्त लोनिवि को आदेश दिए कि नवसृजित राज्य के कार्यों हेतु विशेष परिस्थिति में रुपए 10 लाख तक की निविदाओं के लिए समाचार पत्रों में प्रकाशन संबंधी आदेश शिथिल कर दिए जाते हैं परंतु यह आदेश कब तक लागू रहेगा, यह नहीं बताया गया। कुछ कार्यों को कराने के लिए समाचार पत्रों में दरें प्राप्त करने के लिए विज्ञापन देकर निविदाएं मांगने के लिए पर्याप्त समय था परंतु ऐसा नहीं किया गया तथा कार्यों को ठेकेदारों से चयन के आधार पर या स्थानीय ठेकेदारों से कोटेशन मंगाकर करवाया गया। समाचार पत्रों में निविदा प्रकाशन हेतु कम से कम एक माह का समय देना पड़ता है। संभवतः इसलिए राजधानी संबंधित अधिक कार्य तथा इसके सापेक्ष अल्प अवधि के परिप्रेक्ष्य में तत्कालीन मुख्य अभियंता द्वारा यह शिथिलीकरण किया गया होगा। एसके गुप्ता प्रभारी मुख्य अभियंता ने साक्ष्य के दौरान 30 मई 2003 को बताया कि यह आदेश राजधानी कार्य तक ही सीमित थे।मुख्य अभियंता गढ़वाल क्षेत्र द्वारा राज्य गठन के दौरान रुपए 10 लाख तक की निविदाओं के लिए समाचार पत्रों में प्रकाशन संबंधी आदेश 6 अक्टूबर 2000 को प्राथमिकता के आधार पर कराए जाने वाले कार्यों के लिए ही सीमित रखना चाहिए था परंतु यह आदेश कब तक लागू रहेगा, इस बारे में कुछ नहीं बताया गया।
सवालों के घेरे में गढ़वाल मंडल विकास निगम
आवासों की साज-सज्जा का काम गढ़वाल मंडल विकास निगम के जिम्मे था। इसमें निगम ने जमकर मनमानी की। जांच समिति ने आवासों की साज-सज्जा के लिए एक जैसे मानक न अपनाने का स्पष्टीकरण मांगा तो निगम ने यह कह कर पल्ला झाड़ लिया कि मानकों से संबंधित कोई शासनादेश ही उनके संज्ञान में नहीं था। उ.प्र. शासन ने राज्य गठन के दौरान साज-सज्जा आदि मदों में निगम को 769 लाख रुपए की वित्तीय स्वीकृतियां दी थी लेकिन निगम ने काम करने के बजाय यह पैसा बैंक में रखकर 25 लाख रुपए ब्याज के रूप में कमाए और बाद में 706 लाख रुपए में से अधिकांश काम लोनिवि और अन्य विभागों को सीधे बांट दिया। उस पर भी 11 प्रतिशत की मांग करने लगा। जिसे वित्त विभाग ने नकार दिया। इस प्रकार निगम ने विभिन्न आवासों, कार्यालयों में समुचित सामग्री उपलब्ध नहीं करवायी तथा अभी भी उसके पास 90 लाख रुपए बचे हुए हैं। मिनी सचिवालय के निर्माण और साज-सज्जा में भी जमकर मनमानी की गई। निगम ने मिनी सचिवालय की साज-सज्जा का काम देहरादून के पीडब्ल्यूडी के मुख्य अभियंता स्तर-1 को 10 लाख रुपए में सौंपा था। जिसमें से लोक निर्माण विभाग ने मात्र 3.1 लाख रुपए खर्च किए। शेष पैसा उसने निगम को वापस नहीं किया। यह अभी भी अवशेष के रूप में लोक निर्माण विभाग के पास ही है। निगम ने लोक निर्माण विभाग क्रय समिति की लिस्ट के अतिरिक्त भी खरीद की। निगम ने अधिकारियों के लिए अनावश्यक रूप से बहुत महंगे टेबिल व क्रिडेन्जा खरीदा। मुख्य सचिव के आवास को सुसज्जित करने के लिए वास्तविक कीमत से परे जाकर अधिक खर्च किया साथ ही इसके विवरण में कई मदों की कीमत नहीं दिखायी। निगम ने मंत्राीगणों के लिए खरीदी जाने वाली सामग्री में भी भेदभाव बरता। मंत्रियों के लिए जो भी सामग्री खरीदी गई, उसमें अलग-अलग मंत्रियों के लिए खरीदी गई सामग्री की कीमतों में भारी अंतर था। इसके अतिरिक्त मनमानी करते हुए निगम ने अन्य कार्यालयों के लिए भी महंगी सामग्री खरीदी। निगम ने जो भी सामान खरीदे उनकी गुणवत्ता भी घटिया स्तर की थी। इतना ही नहीं निगम ने जिन आवासों एवं कार्यालयों में सामग्री भेजी वहां प्राप्तकर्ताओं के नाम को भी अस्पष्ट रखा। साथ ही निगम के पास यह जवाब भी नहीं है कि उसने किस आवास और कार्यालय को क्या-क्या सामग्री दी। निगम ने राज्य गठन के दौरान तत्कालीन मुख्यमंत्री के निजी आवास की साज-सज्जा की धनराशि को भी गोपनीय रखा। कम्प्यूटरों, टाइप मशीनों, फैक्स मशीनों, मोबाइल फोन, कार्डलैस, फर्नीचर की खरीदों पर भी बड़ी मात्र में घोटाला हुआ। निगम ने इन सारी सामग्री की खरीदें उन फर्मों से की, जिसकी कोई विश्वसनीयता नहीं है। निगम ने व्यापार कर में छूट के लिए फार्म-3 डी नहीं दिया। इसके परिणाम में निगम को 56 हजार का अधिक व्यापार कर देना पड़ा। इसके इतर निगम को उपलब्ध करायी गई धनराशि को निगम को स्वयं खर्च करना था और सामग्री खरीदकर अन्य विभागों को उपलब्ध करानी थी पर निगम ने धनराशि विभागों को ही दे दी। इस प्रक्रिया में विभाग ने बगैर बिल के ही भुगतान भी कर दिया। निगम को केवल साज-सज्जा का काम ही दिया गया था पर मानकों और निर्देशों को ताक पर रखकर निगम ने वन विश्राम भवन और वन एनेक्सी भवन की मरम्मत पर निविदाएं न मंगवाकर कार्यों को विभाजित करके वर्क ऑर्डरों के माध्यम से लाखों खर्च कर दिए। शपथ ग्रहण समारोह पर भी निगम ने स्वीकृत धनराशि के अतिरिक्त अनावश्यक रूप से 7.53 लाख रुपए अधिक खर्च कर दिए।
ऐसे रफा-दफा हुई जांच
विधानसभा अग्निकांड के संबंध में ऊर्जा मंत्री को अग्निकांड से पहले ही विधानसभा में कराए गए विद्युत कार्यों की शिकायत संबंधी एक गुमनाम पत्रा भी प्राप्त हुआ था। इस पत्र पर जांच बिठाई गई लेकिन अफसरों ने इसे भी दबा दिया। जब राजधानी निर्माण और अग्निकांड में हुई धांधलियों की चर्चा चौराहों पर होने लगी तो उत्तरांचल शासन को जांच बिठानी पड़ी। इस जांच कमेटी में आरएस टोलिया (तत्कालीन सचिव एवं आयुक्त वन एवं ग्राम्य विकास तथा प्रभारी राज्य गठन) के साथ ही केशव देसिराजू (तत्कालीन सचिव सिंचाई एवं ऊर्जा) शामिल थे, लेकिन इन अफसरों ने किसी को भी जांच में दोषी नहीं बताया तथा समय की कमी का हवाला देते हुए सभी तरह की अनियमितताओं और घपले-घोटालों को एक तरीके से क्लीन चिट दे दी। राज्य गठन के दौरान किए गए कार्यों के लिए उत्तराखंड के 25 सरकारी विभागों को कार्यदायी संस्था बनाया गया था। उपरोक्त दोनों जांच अधिकारी इनमें से आधा दर्जन विभागों के मुखिया थे। अतः इनके द्वारा करायी गई जांच में इन विभागों को क्लीन चिट मिलना संदेहजनक लगता है। राज्य गठन के दस साल बाद भी करोड़ों रुपए के इन घोटालों की जांच के लिए सिर्फ 2002 से 2003 तक 43 बैठकें आयोजित की गई और सर्वदलीय जांच समिति ने 61 वरिष्ठ अधिकारियों  को जांच के दायरे में लिया। इस जांच की आंच किसी अधिकारी, कर्मचारी के दामन को छू तक न सकी। किसी भी घोटाले को लेकर किसी के खिलाफ कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई आज तक नहीं हो सकी है।
http://parvatjan.com/2011/04/%

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I have jsut had a word with Harak Singh Rawat, Leader of Opposition, in UK and wanted to know his vivews on the capital issue.

His views were totally mixed on this crucial issue. It seems that none of the party is serious on this issue..

shame shame !



 


हलिया

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 News : (PYARA UTTARAKHAND), a Hindi Weekly.



हलिया

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उत्तराखण्ड में भी एक ‘अन्ना हजारे” चाहिये.

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From: K.S. RAWAT
Sent: Thursday, April 07, 2011 11:32 AM
To: paurigarhwal@yahoogroups.com
Subject: RE: [PGGroup] Distance vs Time ? Uttarakhand development towards what and for whom????

 

Development towards what and for whom? is the moot question, in the present scenario when the pristine environment and the harmony that characterized the way of life of its people is being destroyed.
 
The question that arises is that of accountability. Whose interests are the government is protecting? Powerful interest groups like the hotel and mining industries are buying land from people. People are getting alienated from their environment, from resources like water, forest and land on which they have the first right. The intrinsic value and strength of the region is now being viewed as booty and plundered in the name of development.
 
One poetry speaks of the struggle for 'Jal Jangal Jameen'. In such development, villages are becoming empty. We are losing everything local, our means of self-employment, our rural wisdom, local seeds and the village culture. 

These are the genuine voices from the ground. What they are essentially saying is that yes development is required but in a way that is people-friendly, one that does not alienate its own from the land and resources they have inherited, managed and conserved for themselves and for posterity. There will be countless other ways, which could lead to development sans destruction.

Thanks & Regards,
 
K.S.RAWAT

To: PauriGarhwal@yahoogroups.com
CC: kumaoni-garhwali@yahoogroups.com
From: amankh0127@indiatimes.com
Date: Wed, 6 Apr 2011 22:49:30 +0530
Subject: [PGGroup] Distance vs Time ?

 
Dear Mehtaji,

I appreciate the projection given by you related to comparative distance between Gairsain and Dehradoon from different parts of Uttarakhand. I am not intend to raise finger on the figure given by you however I feel that important part in comparative statement is missing which is time factor. Every group member would like to know how much time does it takes to reach Gairsain or Dehradoon from different part of Uttarakhand.
I am just giving an illustration to reach Dehradun from Tehri, may take around 3 hours and same day one may be back after accomplishing task . In the case of Hardwar it’s a matter of one hour only whereas Gairsain would take a complete day and similar is the case of other district too.

It shall be appropriate if conclusion is drawn after considering infrastructure facilities , transportation , time, resources, ordeal public may face likewise factors too.,
Regards
RK Semwal

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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From   Ashok Pande (NetAfford Technologies)
My Salaam to you Sir - Shri KS Rawatji to be a sane voice wishing to speak through wisdom, which appears to be almost absent in this forum.
You are absolutely right  Development without destruction of environment is what is required. It reminds me of  a few sayings, we  displayed on the Tree Guards in some of my NGO's Plantation Drives- "Because we don't think about future generations, they will never forget us."
 "We never know the worth of water till the well is dry"
"Don't blow it - good planets are hard to find."
"We do not inherit the earth from our ancestors, we borrow it from our children."
"In India today you can murder land for private profit.  You can leave the corpse for all to see, and nobody calls the cops"
 
 
I can't add any further to what you have said and wish more  power to you, so that our brothers realise what we actually need is Development hand in hand with  prevention of damage to our environment. Promote Businesses which don’t destroy our environment. We need to put in our minds together for this. Amen!
 
 
Regds

Ashok Pande

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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   from   dhirendra pratap <dhirendrapratap100@yahoo.co.in

Respected Mehta ji,
 This is an irony,you are asking those people,who have got no role in deciding the capital of Uttarakhand.We were on the forfront of the Uttarakhand formation movement and we never thought that destiny will take us to that turn where friend like you may be asking that where should and would be our capital?You must have gone through the proceedings of Uttarakhand Assembly where none other then the son of legendary leader Mr.Vipin Tripathi's son raised this important issue.Fortunately Garhwal M.P Hon.Sh.Satpal ji Maharaj is also vigrous;ly campaignng for atleast one session of the Assembly in Gairsen but others have bacome silent spectators and even Sh.Diwaker Bhatt is no more interested in this vital issue.It is my considered view that the time has come now when Gairsen supporters should come on one platform and start a united struggle for making this dream capital of Uttarakhandi martyrs.I am ready to sacrifise everything on this issue as it is directly
related to the alround development of 16500 villages of our state.
Regards.
Yours Sincerely,
Dhirendra Praytap President,Uttatakhand Sanyukt Sanghrash Samiti
Mobile:9891068431/09411583434

--- On Tue, 5/4/11, Mahipal Singh Mehta <fbmessage+kr4marr2kqqa@facebookmail.com> wrote:

 

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