उत्तराखण्ड की राजधानी-गैरसैंण
January 28 at 9:16am · Dehra Dun ·
गैरसैंण पर धाद और उत्तरजन के संस्थापक और पहाड़ के प्रति समर्पित चेतना के पक्षधर श्री लोकेश नवानी जी की कविता एक लड़ाई और लड़े।
एक लड़ाई और लड़ें। एक चढ़ाई और चढ़ें।।
गैरसैंण के लिए चलें। गैरसैंण के लिए बढ़ें।।
हमने बहस खड़ी की थी, हमने लड़ी लड़ाई थी
हमने जुल्मों को झेला, लाठी-गोली खाई थी।
हमने झंडे थामे थे, हमने हाथ उठाए थे
इस मिट्ट इस धरती के, गीत हमीं ने गाए थे।
जिन सपनों की खातिर हम, एक संग थे हुए खड़े
उठो, चलो फिर कूच करो, एक लड़ाई और लड़ें। एक चढ़ाई और चढ़ें।।
हमने सपने देखे थे, हमने सपने बोए थे
जीवन के कुछ सुंदर पल, हमने भी तो खोए थे।
हमने खुद को झोंका था, हमनें कसमें खाईं थी
सपने जिंदा रक्खेंगे, असली यही लड़ाई थी।
जो आवाम का मकसद था, उस मंजिल की ओर बढ़ें।
उठो चलो फिर कूच करो, एक लड़ाई और लड़ें। एक चढ़ाई और चढें।
पर्वत जंगल पानी के, बहती हुई जवानी के
हर घाटी हर चोटी, किस्से और कहानी के।
इस धरती के बच्चों के, इस धरती की बहनों के
ख्वाबों को लग जाएं पर, गांवों के खलिहानों के।
इस धरती की हर बेटी, अपने सपने आप गढ़े।
उठो चलो फिर कूच करो, एक लड़ाई और लड़ें। एक चढ़ाई और चढें।
जो गरीब की चिन्ता है, सरोकार जो जन-जन के
प्रश्न आम लोगों है, सपने वे उत्तरजन के।
रचना का है समय यही, शुरुआत इस पाली की
नींव रखें समरस्ता की, जन-जन की खुशहाली की।
इस माटी के सपनों को, एक बार फिर और पढ़ें।
उठो चलो फिर कूच करो, एक लड़ाई और लड़ें। एक चढ़ाई और चढे।