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पहाड़ी महिलाओ के दयनीय जीवन के लिए कौन जिम्मेवार ?

Conservative Rules of Society
4 (36.4%)
Geographical Condition
3 (27.3%)
Education
3 (27.3%)
Can't say
1 (9.1%)

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Voting closed: January 15, 2008, 11:42:20 AM

Author Topic: Tough Life of Women In Uttarakhand - पहाड़ की नारी का कष्ट भरा जीवन  (Read 61475 times)

Rajen

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इस में कोई दो राय नहीं कि पहाड की महिलायों का जीवन कष्ट से भरा है.  यह भी सत्य है कि कालांतर में अनेक कष्टकारी कार्यों से पहाड की महिलाओंको मुक्ति मिली है जैसे कि चक्की पीसना, ओखल कूटना इत्यादि. अब ये काम ज्यदातर बिजली/डीजल की चक्की पर होते हैं.  यह एक बडे राहत की बात है अन्यथा ये काम तो पहले किसी गिनती में ही नहीं आते थे क्योंकि अन्य रुटीन कामों के बाद देर रात को महिलाओं को चक्की पीसनी पडती थी और वो भी रोजाना.

हेम पन्त

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Gaon me Gas Cylinder pahuchne ke kaaran ab mahilao ko door jangal se lakdi laane ki mehnat se bhi kuchh had tak raahat mili hai..

Anil Arya / अनिल आर्य

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पहाड़ की नारी का कस्ट भरा जीवन का कारण पहाड़ के नर ही है. पहाड़ी  मर्द अभिमान के शुरूर मै खोये है जबकि दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गयी है. ऐसे लोग अपनी ही लडकियों के साथ भी भेदभाव कर रहे है. उनको लडको से कम शिक्षा का मौका दिया जाता है और उनकी शादी जल्दी कर देते है (बाल विवाह). ऐसा करके पहाड़ की नारी का भविष्य भी कस्ट भरा जीवन ही होगा.   

Rajen

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अनिल जी, मेरे ख्याल से बाल-बिवाह की प्रथा पहाडों में शायद अब नहीं के बराबर है.  हां पढाई के मामले में कह सकते हैं कि शहरों की अपेक्षा दूर दराज के गावों में ऐसा होता है.

Anil Arya / अनिल आर्य

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Rajen जी, अगर हम 18 वर्ष से कम आयु वाली लडकियों की शादी को बाल विवाह मानें तो ये अभी भी है मुख्यतः यह प्रथा दूर दराज के गाओं और उन दम्पतियों मै है जो की पुत्र रत्न की प्राप्ति के लिए 4-5 लडकिया पैदा कर देते है. फिर उनके पास लडकियों की शादी जल्दीबाजी मै के अलावा कोई राश्ता नहीं बचता (आर्थिक स्थिति के कारण). वैसे और भी कई कारण है जो की इस टोपिक मै उल्लेखित है.   

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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I fully agree with this.
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  पहाड़ में महिलाओं के सामने पहाड़ जैसी चुनौतियां : गौड़     Feb 27, 06:55 pm   बताएं              गोपेश्वर, जागरण कार्यालय: पहाड़ में महिलाओं के समक्ष चुनौतियां एवं समाधान विषय पर आयोजित कार्यशाला में ब्लॉक प्रमुख घाट ममता गौड़ ने ग्रामीण महिलाओं की दशा व दिशा में कोई खास परिवर्तन न होने को चिंताजनक बताया है।
जिला सभागार में गढ़वाल विश्वविद्यालय श्रीनगर के राजनीति विज्ञान विभाग की ओर से एक दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया गया। इस अवसर पर ममता गौड़ ने कहा कि पहाड़ में महिलाओं पर परिवार की जिम्मेदारियों के साथ-साथ काम का बोझ भी पहाड़ की भांति हैं। आज भी महिलाएं काम के बोझ से दबी हुई हैं। इतना ही नहीं महिलाओं को उनके अधिकार और कर्तव्य की जानकारी मंचों से तो दी जा रही है लेकिन कई घर व परिवारों में अभी भी महिलाओं की न तो दशा सुधरी है और न ही दिशा। कार्यशाला में जिला पंचायत सदस्य ज्योति राणा ने कहा कि महिलाओं को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होकर सामने आ रही चुनौती व उसका समाधान ढूढ़ने का प्रयास करना चाहिए। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए गोदांबरी देवी ने कहा कि अभी भी गांवों में महिलाओं को वह सम्मान नहीं मिल पा रहा है जो कानून उन्हें देना चाहता है। कार्यशाला में जिला पंचायत सदस्य संगीता भंडारी, अनीता बिष्ट व नगर पालिका सभासद सतेश्वरी देवी आदि ने विचार व्यक्त किए। इस अवसर पर डॉ. राकेश नेगी, डॉ. सुमनलता नेगी, डॉ. सुबोध भंडारी, डॉ. हिमांशु बौड़ाई, डॉ. जगमोहन नेगी, डॉ. दर्शन नेगी आदि उपस्थित रहे।
 
http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_7378124.html

पंकज सिंह महर

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पहाड़ सी ज़िंदगी में महिलाओं का ये हौसला!
प्रवीन कुमार भट्ट

देहरादून। उत्तराखंड सरकार ने इस साल साढ़े अट्ठारह करोड़ के जेंडर बजट का ऐलान किया है। सरकार के मुताबिक यह बजट पिछले साल से चार सौ करोड़ अधिक है। सरकार ने जेंडर बजट महिलाओं की आवश्यकताओं और लैंगिक समानताओं को ध्यान में रखकर तैयार किया है। इस बार के जेंडर बजट के लिए 26 विभागों का चयन किया गया है। महिलाओं के शैक्षिक, सामाजिक, राजनैतिक उन्नयन के लिए अनेक योजनाएं केंद्र सरकार ने भी लागू की हैं। राज्य में महिला पंचायत प्रतिनिधियों के प्रशिक्षण के लिए ही करोड़ों रूपये खर्च किये जा रहे हैं, बावजूद इसके कि इन योजनाओं के परिणामों की कोई गारंटी नहीं है। दूसरी ओर कुछ महिलाएं ऐसी भी हैं जिन्हें न तो किसी जेंडर बजट की आवश्यकता है और न किसी योजना की। इन महिलाओं ने अपने बूते ही आत्मनिर्भरता की मिसाल कायम की है। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के सौ साल पूरे होने पर महिला समाख्या ने राज्य की ऐसी 19 महिलाओं को सम्मानित कर उनका हौसला बढ़ाया।

नैनीताल जिले के सिराफ्यल गांव की हेमा को जब महिला समाख्या के मंच पर सम्मानित किया जा रहा था तो उसकी मुस्कुराहट सब कुछ बयां कर रही थी। अठ्ठारह साल की हेमा का परिचय यह है कि वह आज एक कुशल मैकेनिक है। आम तौर पर पुरूषों के लिए मुफीद समझा जाने वाला यह काम किसी महिला के लिए इतना आसान नहीं था। हेमा के पिता मैकेनिक का काम करते थे, इस पेशे से उसका रिश्ता बस इतना ही था, लेकिन पिता की तबीयत बहुत खराब रहने लगी और उनके साथ दुकान जाकर हेमा टायर जोड़ना, ट्यूब में हवा भरना, गाड़ी के पुर्जों और नटों को कसना सीखने लगी और अब हेमा कुशलता से एक पुरूष मैकेनिक के बराबर काम करती है। हेमा का कहना है कि पिता की दुकान होने के नाते दुकान में आना-जाना तो बहुत आसान था, लेकिन जैसे ही उसने दुकान में काम करना शुरू किया, लोगों ने तरह-तरह की बातें करनी शुरू कर दीं जिनकी परवाह किए बिना वह अपने कार्य में लगी रही जिसके परिणाम स्वरूप वह आज आत्मनिर्भर है।

पौड़ी के बीरोंखाल ब्लाक के डांग गांव की मीरा देवी भी इस पीढ़ी के समाज को रास्ता दिखा रही है। मीरा का विवाह उसके शराबी पिता ने उससे 22 साल बड़े श्याम लाल से कर दिया था। मीरा प्रारंभ से पति को लोहारी के काम में सहायता करती थी, लेकिन 2007 में पति की मृत्यु के बाद मीरा ने लोहारी के काम को मजबूती से संभाल लिया और आज कुल्हाड़ी, कुदाल, दराती बनाने, धार लगाने का काम कुशलता से करती है। मीरा लोहारी के काम से दो बच्चों का पालन पोषण कुशलता से कर रही है। इसी जनपद की गोदांबरी देवी के संघर्ष और आत्मनिर्भरता की कहानी भी मीरा और हेमा जैसी ही है। गोदांबरी का विवाह 11 साल की अल्पायु में ही हो गया था। वर्तमान में गोदांबरी का पति शंकर सिंह, दिल्ली में एक प्राईवेट कंपनी में नौकरी करता है। बहुत कम आय होने के कारण उसके सामने पांच बच्चों वाले परिवार का पालन पोषण मुश्किल था। ऐसे में गोदांबरी ने पहाड़ में सबसे कठिन और पुरूषों के लिए सुरक्षित समझे जाने वाले राज मिस्त्री का काम सीखा। परिस्थितियां विपरित होने के बावजूद उसने हिम्मत नहीं हारी और आज वह घरों की दीवारों, रास्तों और खड़ंजों की चिनाई आसानी से कर लेती है उसने अपनी आजीविका का इसे पेशा बना लिया है।

पौड़ी की मुन्नी देवी अपने पति की मृत्यु के बाद आजीविका चलाने के लिए सफलतापूर्वक पशुओं का व्यापार कर रही है। टिहरी की मकानी देवी ने पति के दूसरा विवाह करने के बाद घर छोड़ दिया और मायके में आकर रहने लगी। यहां उसने परिवार के पुश्तैनी पेशे ढोल दमऊ बजाने को आजीविका का साधन बनाया तो बहुत विरोध हुआ। इसके बाद मकानी देवी ने ढोल बजाना नहीं छोड़ा और आखिर समाज को उनकी जिद के आगे झुकना पड़ा। वर्तमान में मकानी ढोल बजाने का काम कर चार बच्चों का परिवार पाल रही है। चंपावत की ममता ने आटा चक्की खोलकर अपने परिवार को आर्थिक स्वावलंबन की ओर कदम बढ़ाया है तो देहरादून की रजिया बेग देश की पहली महिला है जिन्हें किसी भी राज्य काउंसिल की अध्यक्ष बनने का गौरव मिला है। पांच बहनों और दो भाईयों के बीच पली बढ़ी रजिया का समय भी कठिनाईयों भरा रहा है लेकिन आज वह एक सफल महिला वकील और समाजसेवी हैं। रजिया बेगम भी संभवतः उत्तराखंड राज्य की अकेली ऊर्जा निगम में रजिस्टर्ड बिजली ठेकेदार हैं। दुगड्डा की रजिया के पति का देहांत तब हुआ जब वह केवल 28 साल की थी। इन्होंने भी पति की मृत्यु के बाद उनके काम को नहीं छोड़ा बल्कि सफलता पूर्वक उसे आगे बढ़ा रही हैं। मूल रूप रामगढ़ नैनीताल की देवकी देवी नानकमत्ता में सुनार की दुकान चला रही है। सुनार के काम में उसकी दक्षता का नतीजा है कि दूर-दूर से ग्राहक उसके पास आते हैं।

आंगनबाड़ी सहायिका के रूप में काम कर रही मोहिनी देवी की दास्तान किसी की भी आंखें खोलने के लिए काफी है। रामनगर के नवरदारपुरी गांव की मोहिनी के पिता शराब के आदी थे उनकी इस कमजोरी का फायदा उठाकर दूसरे शराबी भी घर में आते जाते थे। इनमें से एक दूर के रिश्ते का मामा भी था जो मोहिनी के साथ छेड़खानी करने से भी बाज नहीं आता था। एक बार तो स्थिति यह हुई कि घर में कोई न होने पर वह मामा घर में घुस आया और उसने मोहिनी के साथ जबरदस्ती करने की कोशिश की। कामयाब न होने पर वह मारपीट पर उतर आया। मोहिनी ने बचाव में घर में रखी बंदूक निकालकर उस पर गोली चला दी जिससे उसकी मृत्यु हो गई। मोहिनी ने आत्म सर्मपण कर दिया जहां से उसे हल्द्वानी जेल भेज दिया गया। इस दौरान पुलिस ने भी उसे उत्पीड़ित किया। इसी दौरान पुलिस की एक महिला अधिकारी उसके सहयोग के लिए आगे आई। जिसकी मदद से छह महीनों के भीतर ही मोहिनी की जमानत हो गई। चंद्रा नामक उस महिला पुलिस अधिकारी की मदद से मोहिनी ने 10वीं की परीक्षा भी पास की और बरेली के शेखर अस्पताल में सहायिका के रूप में काम करने लगी। इसी दौरान मोहिनी ने 12 वीं की परीक्षा पास की और आंगनबाड़ी सहायिका में काम करना शुरू किया। मोहिनी का कहना है कि महिलाओं के साथ होने वाला भेदभाव और हिंसा अभी भी उसी रूप में जारी है। महिलाएं भले ही नए-नए मुकाम हासिल कर रही हैं लेकिन आज भी उन्हें उतना ही दोयम समझा जाता है।

महिला समाख्या ने अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के सौ साल पूरे होने पर ‘हम हों, हिंसा न हो’ विषय पर दो दिवसीय सेमिनार का आयोजन किया था। महिला होने की सरहदों को पार कर मिसाल कायम करने वाली 19 महिलाओं को सम्मानित किया गया। उत्तराखंड राज्य के विभिन्न जिलों की ये महिलाएं अपने परिवार के साथ ही समाज के लिए भी सक्रिय हैं। सम्मेलन में प्रसिद्ध नारीवादी लेखिका मैत्रेयी पुष्पा, सामाजिक कार्यकर्ता राधा बहन, उमा भट्ट, कमला भट्ट, जया श्रीवास्तव आदि ने महिला हिंसा पर अपने विचार रखे। पूरे प्रदेश से 300 से अधिक महिलाओं ने कार्यक्रम में भाग लिया। अपने अध्यक्षीय संबोधन में मैत्रेयी पुष्पा ने कहा कि हम हों हिंसा न हो ऐसा कैसे हो सकता है? हिंसा होगी और हम भी होंगी। अगर महिला होगी और हिंसा नहीं होगी तो कहना पड़ेगा कि पुरुष व्यवस्था बदल गई। पुष्पा ने कहा कि व्यवस्था बदलने की बहुत सारी कोशिशें हो रही हैं। जैसे-जैसे यह कोशिशें तेज होती हैं वैसे ही हिंसा भी तेज हो जाती है, क्योंकि पुरुष भी इस बदलाव को जल्दी से स्वीकार नहीं कर सकते। सम्मानित महिलाओं की सराहना करते हुए मैत्रेयी ने कहा कि संघर्षों को एक दिन मुकाम जरूर मिलता है, जबकि राधा बहन ने अपने संबोधन में एक ऐसी शिक्षा प्रणाली आवश्यक बताई जो महिलाओं को शिक्षित करने के साथ ही समझदार भी बनाए।

महिला दिवस पर यमकेश्वर की मुन्नी देवी, टिहरी गढ़वाल की मकानी देवी, बाराकोट की ममता जोशी, देहरादून की रजिया बेग, दुगड्डा की रजिया बेगम, नानकमत्ता की देवकी देवी, रामनगर की मोहिनी देवी, नैनीताल की दीपा पलड़िया, टिहरी की संदली देवी, चंपावत की नीमा देवी, उत्तरकाशी की कौशल्या देवी, रामप्यारी और हीरामणी के साथ ही उधमसिंह नगर की दो बहनों शांति और चंद्रा को भी सम्मानित किया गया। इन सब के पीछे कठिन दौर और आत्मनिर्भरता का संघर्ष है।

साभार-

हेम पन्त

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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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