दैनिक जागरण के लिये देहरादून से दिनेश कुकरेती, करीब बीस साल बाद अपने गांव जाने का मौका मिला। एक छोटे से कस्बाई बाजार में हमारा बस स्टाप पड़ता है, जहां से करीब तीन मील की उंदार (उतराई) में हमारा गांव है। बस से उतरते ही कुछ देर सुस्ताने के बाद गांव की पगडंडी पकड़ ली। मन में तरह-तरह के खयाल आ रहे थे। सालों बाद गांव को देखने की उत्कंठा भी हिलौरें ले रही थी। खैर, इसी उधेड़बुन में मैं तीन मील का सफर आराम से कट गया। अब गांव नजर आने लगा था। पास ही धारे (जलस्रोत) में बर्तनों की खनक सुनाई दे रही थी। दो बुजुर्ग महिलाएं वहां पानी भर रही थीं। मैं जैसे ही धारे के पास पहुंचा, एक महिला बोली- कै गौंकु छै भुल्ला (किस गांव का है भुला)। वह महिला पहचानने की कोशिश भी कर रही थी। खैर, मैं उन्हें पहचान गया। मेरे ही गांव की बचुली काकी थी वह। परिचय देने पर काकी की आंखें डबडबा गई। अब बिसनी काकी भी मुझे पहचान गई थी। बरसों बाद किसी अपने से मिलने की खुशी क्या होती है, मैंने तब जाना। खैर मैं उनकी सुनते, अपनी सुनाते गांव की ओर डग भरने लगा। साथ ही सोचता भी जा रहा था, झूठ बोलते हैं वो, जो कहते हैं राज्य बनने के बाद पहाड़ की महिलाओं के हालात बदल गए। बीस साल पहले भी बचुली व बिसनी काकी इसी धारे से पानी ले जाती थीं और आज भी। गांव पहुंचा तो लगा जैसे कल ही गांव छोड़ा है। मित्रों यह सिर्फ मेरे गांव की ही तस्वीर नहीं है। पहाड़ के अधिकांश गांव अब भी ऐसे ही हैं। तब गांव में मर्द नजर आ भी जाते थे, लेकिन अब तो कुछ बूढ़े ही रह गए हैं। बस, कुछ बुजुर्ग महिलाएं ही रह गई हैं पहाड़ सरीखी जिंदगी को ढोने के लिए। गरीबी के कारण गांव में रहना मजबूरी है। जो आर्थिक रूप से ठीकठीक लोग थे, उन्होंने कस्बों में घर बना लिए। वहीं छोटा-मोटा कारोबार भी शुरू कर दिया। पर, जिसके पास कुछ नहीं है उसकी तो मजबूरी है इस कूपमंडूक में पड़े रहना। यह ठीक है कि इन विषम हालात में भी पहाड़ की बेटियां विभिन्न क्षेत्रों में सफलता के सोपान गढ़ रही हैं, लेकिन इनकी संख्या है ही कितनी। अंगुलियों में गिने जाने लायक। बीसियों गांवों में अब भी लड़कियां आठवीं-दसवीं से आगे नहीं पढ़ पा रहीं। फिर कैसे तुलना की जा सकती है दून, हल्द्वानी या ऐसे ही चंद शहरों की बेटियों से इन पहाड़ की बेटियों की। उनके लिए क्या नौ नवंबर, क्या पंद्रह अगस्त और क्या छब्बीस जनवरी। सुबह से शाम तक काम ही काम है। आप शहर में बैठे हैं, इसलिए कह सकते हैं कि अपने हक के लिए उन्हें जागना होगा, तभी पहाड़ के हालात बदलेंगे। काश! आप यह जान पाते कि पहाड़ की नारी यदि जाग नहीं रही होती तो पहाड़ कब के दरक चुके होते। यह ठीक है कि पंचायतों में 50 फीसदी भागीदारी मिलने से पहाड़ की फिजां बदली-बदली सी नजर आ रही है, लेकिन यह आधा सच है। पंचायतों में भागीदारी के बावजूद विकास में भागीदार अब भी नारी नहीं है। वह पहले घर में मूकदर्शक थी और अब पंचायतों में। इसीलिए अमूमन होता वही है, जो पति प्रधान चाहते हैं। ठंडे दिमाग से सोचें तो दोषी पति प्रधान भी नहीं हैं। वह तो अपने संस्कारों को ढो रहे हैं। यही वजह हैं कि पंचायतें योजनाएं बनाने का मंच कम और कॉस्मेटिक आइटम की दुकान ज्यादा नजर आती हैं। हम यह नहीं कह रहे कि सब जगह तस्वीर ऐसी ही धुंधली है। कई जगह तो महिला प्रतिनिधियों की सोच ने विकास का नए आयाम दिए हैं। उन्होंने अहसास कराया कि समाज की दशा और दिशा बदलने की कुव्वत उनमें है, लेकिन मित्रों यह भी सच है कि ऐसी पंचायत प्रतिनिधियों की तादाद अंगुलियों में गिने जाने लायक है। असल में महिलाओं के पंचायतों में आ जाने से उनके हालात नहीं सुधरने वाले। इसके लिए तो नीति-नियंताओं को बुनियाद से पहल करनी होगी और बुनियाद तभी मजबूत हो सकती है जब वह शिक्षा, स्वास्थ्य व रोजगार की ईटों पर टिकी हो।