Author Topic: Uttarakhand Kranti Dal-उत्तराखंड क्रांति दल के पतन का मूल्याकन  (Read 32569 times)

KAILASH PANDEY/THET PAHADI

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Hukka Bu Namashkar,

Lagta hai aap UKD ke full supporter hain kyonki apki harkaten bhi kuch-kuch UKD ki karya pranaali ke sath match karti hai.....

Regards


जहां तक उक्रांद के पतन शब्द के इस्तेमाल का सवाल है, यह गलत है। हां ह्रास हुआ है, मेहता जी आप भी क्याप्प बात करते हो, पार्टी का पतन की बात तब कर रहे हो, जब पार्टी पहली बार गठबंधन के साथ सरकार में है, सत्ता में है।  :D :D एक कैबिनेट मंत्री, दो दायित्वधारी और तीन विधायक।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Thanks for constructive views from all the members on this subject.

Well .. I will give detailed views on this on going topic. Before that let me highlight some facts. As I have mentioned earlier that UKD is the only regional party in the state who had given foundation for formation of the state. This is the only party who had brought a revolution for getting the Uttarakhand state.

It was the BJP which got first chance in the state to make an interim Govt in the state but it was unfortunate for the UKD to get mandate in first general election.

We know there have been some setback for UKD as its prominent leader like Vipin Chand Tripti Ji passed away when UKD was strengthening in the state. This could be a turning point for downfall of UKD.

Friend .. I am using downfall word because.  In first election UKD got around 8 or more than that seat and now the strength has come to 4 and there is apprehension in next election, UKD may lose more seats. So this trend shows the downfall.

People wanted to see UKD ruling in the State but now the party is struggling for saving its existence. I think this is downfall..

The leadership should awake still there is time . 


हुक्का बू

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अब आते हैं मुद्दे पर-
पहले बात तो यह है कि जिस अवधारणा और संकल्प के साथ उक्रांद का गठन किया गया था, उस पर वह काफी हद तक खरी उतरी। १९७९ से २००० तक इस पार्टी ने काफी अच्छा काम किया, हकीकत की बात तो यह है कि उक्रांद की बढ़ती राजनैतिक ताकत ने ही राष्ट्रीय दलों को इस बात के लिये मजबूर किया कि वे भी उत्तराखण्ड राज्य की मांग करे।
१९८० में जब इस पार्टी का एक विधायक और ८६ में २ विधायक बने तो राष्ट्रीय पार्टियों में हलचल मची कि यह उत्तराखण्ड राज्य की मांग को लेकर दो विधायक बन गये हैं, तो हमें भी मनन करना चाहिये। मुख्य राष्ट्रीय पार्टियों ने अपने-अपने आकाओं को अपनी इस चिन्ता से अवगत कराया तो भाजपा ने इसे पृथकतावादी मांग कहकर यहां के नेताओं को हड़का दिया और कांग्रेस ने हमेशा की तरह न हां कहा न ना कहा, जब समय आयेगा देखेंगे कहकर पुचकार दिया। यही इस पार्टी का चरित्र भी है।
लेकिन उक्रांद का जनाधार लगातार बढ़ता रहा, एक समय ऐसा आया कि १७ विधाऩसभाओं में उक्रांद ने इन सबको कड़ी टक्कर दी और इसके सभी प्रत्याशी दूसरे स्थान पर रहे। यहीं से खलबली मची कि भई, ये तो बहुत ऊपर तक आ गये हैं, लोगों की भावना इनके साथ है। इसके बाद केन्द्र शासित प्रदेश, हिल कौंसिल और उत्तरांचल जैसे छद्म नाम हमारे सामने आये।

उक्रांद की सबसे बड़ी कमी उसकी राजनीतिक अपरिपक्वता  रही है। १९९३ के जिस चुनाव में उत्तराखण्ड की जनता ने यह मन बना लिया कि इस बार पूरी सीटों से हम उक्रांद को ही जितायेंगे, इसके नेतृत्व ने एक भावुक निर्णय ले लिया कि जिस व्यवस्था में हमारी बात नहीं सुनी जाती है, हम उस व्यवस्था का अंग नहीं बनेंगे। इन्होंने चुनाव लड़ने से ही इन्कार कर दिया। यह निर्णय गलत था या सही, लेकिन इससे उक्रांद की राजनैतिक अपरिपक्वता झलकी, क्योंकि किसी भी राजनैतिक दल को भावनाओं से ऊपर उठकर राजनीति करनी चाहिये, जो इनके बस का न तब था, न अब है। क्योंकि ये लोग जनवादी है, जनसरोकारों के लिये धरना, प्रदर्शन आदि तो यह कर सकते हैं, लेकिन किसी आन्दोलन को जगाकर या किसी आन्दोलन को हाईजैक कर उसे अपने वोटों में परिवर्तित कर देने की कला इस पार्टी के लोगों को नहीं आती है। उसी की परिणिति यह हुई कि उत्तराखण्ड आन्दोलन में तन-मन-धन लगा देने वाली पार्टी आज हाशिये पर पड़ी है और इस आन्दोलन पर अंतिम समय तक कोई राय न देने वाले लोग इसके तारणहार बने बैठे हैं।

इसका उदाहरण भी दे दूं, जब १९९४ में उत्तराखण्ड आन्दोलन शुरु हुआ तो उक्रांद ने ही इसकी शुरुआत की थी, लेकिन ये लोग हुये सीधे-सरल-भावुक पहाड़ी, इन्होंने कह दिया कि सभी राजनैतिक ताकतों को एक मंच पर आना चाहिये और सर्वदलीय समिति बना दी। जिसमें बड़े-बड़े नेता आ गये और अपने-अपने हिसाब से राजनीति करने लगे, जिसका प्रतिफल क्या हुआ, वह सबने देखा।

मेरा तो अपना यह मानना है कि छोटे राज्यों का हित क्षेत्रीय दलों की सरकार बनने में ही है, क्योंकि इनका अस्तित्व उत्तराखण्ड तक ही सीमित है, इनका रिमोट कंट्रोल उत्तराखण्ड में ही होगा, दिल्ली या नागपुर या कहीं और नहीं।

हुक्का बू

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Hukka Bu Namashkar,

Lagta hai aap UKD ke full supporter hain kyonki apki harkaten bhi kuch-kuch UKD ki karya pranaali ke sath match karti hai.....

Regards
नाति,
अब मैं तुम जैसा पढ़ा-लिखा-समझदार तो ठैरा नहीं, मैं तो हुआ गांव का पहाड़ी भुस्स, जो देखा-वही समझा और वही लिख दिया।
मेरी कार्य प्रणाली भी क्या होने वाली हुई, एक अनपढ़-गंवार-गोरु-बाछा हकाने वाले की क्या कार्य प्रणाली हो सकती है.....और कुछ हुई भी तो वह इतनी ही ठैरी कि उत्तराखण्ड में जान बसी ठैरी, दिल में बसा ठैरा,,प्यार हुआ इससे, इसके लिये कुछ भी करने को तैयार रहने वाले ठैरे। नहीं तो क्या जरुरत हुई, चुपचाप मुरुली बजाकर गोर-बाछा हकाते रहता। तुम्हारे बीच में क्यों आता क्वां-क्वां करने।

हेम पन्त

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उत्तराखण्ड में UKD की सरकार बनना तो दूर की कौड़ी लगती है लेकिन जिस तरह कांग्रेस और बीजेपी ने पहाड़ के हितों को दरकिनार करके सरकारें चलायी हैं जनता उक्रांद को इतना समर्थन जरूर दे सकती है कि वो सरकार बनाने में निर्णायक भूमिका निभाये. लेकिन जैसा मैने पहले भी कहा है, इसके लिये उक्रांद के शीर्षनेतृत्व को जागना होगा और सरकार से बाहर आकर जनसंपर्क और संगठन पर ध्यान देना होगा.

हेम पन्त

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वरना राम ही मालिक है

उत्तराखण्ड में UKD की सरकार बनना तो दूर की कौड़ी लगती है लेकिन जिस तरह कांग्रेस और बीजेपी ने पहाड़ के हितों को दरकिनार करके सरकारें चलायी हैं जनता उक्रांद को इतना समर्थन जरूर दे सकती है कि वो सरकार बनाने में निर्णायक भूमिका निभाये. लेकिन जैसा मैने पहले भी कहा है, इसके लिये उक्रांद के शीर्षनेतृत्व को जागना होगा और सरकार से बाहर आकर जनसंपर्क और संगठन पर ध्यान देना होगा.

Mohan Bisht -Thet Pahadi/मोहन बिष्ट-ठेठ पहाडी

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bubu ji namskar..

mai aapki baato se puri tarah sahamt hoon.. aur ek baat abhi mujhe lagti hai... ki jis party mai neta jyada karyakrta kam honge uska yehi haal hoga..

sathiyo UKD chahe kahi bhi rahe per hame uske us karya ko nahi bhulna chahiye... jo usne uttarakhand rajya ke liye kiya.. bhalehi uska rajnitik .. aur seato ka gadit theek na raha ho..

kyon in UKD ke shirsh neto  ne satta ka sapna kho diya hai.. yedi aaj bhi ye log satta aur uttarakhand ke usi development ko dekhe jiske liye inhone andolan kiya tha to jarur phir ye ek baar 2012 mai kuch kar sakte hai per uske liye inko samrthan wapas laina hoga...

aap sabhi ke vicharo ka swagat karte hai..



अब आते हैं मुद्दे पर-
पहले बात तो यह है कि जिस अवधारणा और संकल्प के साथ उक्रांद का गठन किया गया था, उस पर वह काफी हद तक खरी उतरी। १९७९ से २००० तक इस पार्टी ने काफी अच्छा काम किया, हकीकत की बात तो यह है कि उक्रांद की बढ़ती राजनैतिक ताकत ने ही राष्ट्रीय दलों को इस बात के लिये मजबूर किया कि वे भी उत्तराखण्ड राज्य की मांग करे।
१९८० में जब इस पार्टी का एक विधायक और ८६ में २ विधायक बने तो राष्ट्रीय पार्टियों में हलचल मची कि यह उत्तराखण्ड राज्य की मांग को लेकर दो विधायक बन गये हैं, तो हमें भी मनन करना चाहिये। मुख्य राष्ट्रीय पार्टियों ने अपने-अपने आकाओं को अपनी इस चिन्ता से अवगत कराया तो भाजपा ने इसे पृथकतावादी मांग कहकर यहां के नेताओं को हड़का दिया और कांग्रेस ने हमेशा की तरह न हां कहा न ना कहा, जब समय आयेगा देखेंगे कहकर पुचकार दिया। यही इस पार्टी का चरित्र भी है।
लेकिन उक्रांद का जनाधार लगातार बढ़ता रहा, एक समय ऐसा आया कि १७ विधाऩसभाओं में उक्रांद ने इन सबको कड़ी टक्कर दी और इसके सभी प्रत्याशी दूसरे स्थान पर रहे। यहीं से खलबली मची कि भई, ये तो बहुत ऊपर तक आ गये हैं, लोगों की भावना इनके साथ है। इसके बाद केन्द्र शासित प्रदेश, हिल कौंसिल और उत्तरांचल जैसे छद्म नाम हमारे सामने आये।

उक्रांद की सबसे बड़ी कमी उसकी राजनीतिक अपरिपक्वता  रही है। १९९३ के जिस चुनाव में उत्तराखण्ड की जनता ने यह मन बना लिया कि इस बार पूरी सीटों से हम उक्रांद को ही जितायेंगे, इसके नेतृत्व ने एक भावुक निर्णय ले लिया कि जिस व्यवस्था में हमारी बात नहीं सुनी जाती है, हम उस व्यवस्था का अंग नहीं बनेंगे। इन्होंने चुनाव लड़ने से ही इन्कार कर दिया। यह निर्णय गलत था या सही, लेकिन इससे उक्रांद की राजनैतिक अपरिपक्वता झलकी, क्योंकि किसी भी राजनैतिक दल को भावनाओं से ऊपर उठकर राजनीति करनी चाहिये, जो इनके बस का न तब था, न अब है। क्योंकि ये लोग जनवादी है, जनसरोकारों के लिये धरना, प्रदर्शन आदि तो यह कर सकते हैं, लेकिन किसी आन्दोलन को जगाकर या किसी आन्दोलन को हाईजैक कर उसे अपने वोटों में परिवर्तित कर देने की कला इस पार्टी के लोगों को नहीं आती है। उसी की परिणिति यह हुई कि उत्तराखण्ड आन्दोलन में तन-मन-धन लगा देने वाली पार्टी आज हाशिये पर पड़ी है और इस आन्दोलन पर अंतिम समय तक कोई राय न देने वाले लोग इसके तारणहार बने बैठे हैं।

इसका उदाहरण भी दे दूं, जब १९९४ में उत्तराखण्ड आन्दोलन शुरु हुआ तो उक्रांद ने ही इसकी शुरुआत की थी, लेकिन ये लोग हुये सीधे-सरल-भावुक पहाड़ी, इन्होंने कह दिया कि सभी राजनैतिक ताकतों को एक मंच पर आना चाहिये और सर्वदलीय समिति बना दी। जिसमें बड़े-बड़े नेता आ गये और अपने-अपने हिसाब से राजनीति करने लगे, जिसका प्रतिफल क्या हुआ, वह सबने देखा।

मेरा तो अपना यह मानना है कि छोटे राज्यों का हित क्षेत्रीय दलों की सरकार बनने में ही है, क्योंकि इनका अस्तित्व उत्तराखण्ड तक ही सीमित है, इनका रिमोट कंट्रोल उत्तराखण्ड में ही होगा, दिल्ली या नागपुर या कहीं और नहीं।

Mohan Bisht -Thet Pahadi/मोहन बिष्ट-ठेठ पहाडी

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Hem aapne sahi kaha bhai..
sangathan ko sangthit karne mai jara dhyan de to sayed .....



वरना राम ही मालिक है

उत्तराखण्ड में UKD की सरकार बनना तो दूर की कौड़ी लगती है लेकिन जिस तरह कांग्रेस और बीजेपी ने पहाड़ के हितों को दरकिनार करके सरकारें चलायी हैं जनता उक्रांद को इतना समर्थन जरूर दे सकती है कि वो सरकार बनाने में निर्णायक भूमिका निभाये. लेकिन जैसा मैने पहले भी कहा है, इसके लिये उक्रांद के शीर्षनेतृत्व को जागना होगा और सरकार से बाहर आकर जनसंपर्क और संगठन पर ध्यान देना होगा.

dayal pandey/ दयाल पाण्डे

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ठीक कुनैछा हो बुबू राज्य बनाने मैं ही नहीं बुबू लोगो के लिए प्लेटफोर्म भी तैयार किये है जो कल तक तीसरे दर्जे की पत्रकारी करते थे उनको मौका दिया कुर्सी मैं बैठकर, शेरवानी पहनकर, होलिकाप्टर मैं उड़कर डबल कमाने का.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Thanks for details views by Hukka Bubu.. and also illustrating the history and achievement of UKD.

I have also gone through the views of other members but the way Party is losing it mandate, it is obvious UKD is on way to save its dignitary and existence.

You all will agree with this point. I hope so.

It is never too late to mend and party should do the retrospection to do well in next election. 

 

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