अब आते हैं मुद्दे पर-
पहले बात तो यह है कि जिस अवधारणा और संकल्प के साथ उक्रांद का गठन किया गया था, उस पर वह काफी हद तक खरी उतरी। १९७९ से २००० तक इस पार्टी ने काफी अच्छा काम किया, हकीकत की बात तो यह है कि उक्रांद की बढ़ती राजनैतिक ताकत ने ही राष्ट्रीय दलों को इस बात के लिये मजबूर किया कि वे भी उत्तराखण्ड राज्य की मांग करे।
१९८० में जब इस पार्टी का एक विधायक और ८६ में २ विधायक बने तो राष्ट्रीय पार्टियों में हलचल मची कि यह उत्तराखण्ड राज्य की मांग को लेकर दो विधायक बन गये हैं, तो हमें भी मनन करना चाहिये। मुख्य राष्ट्रीय पार्टियों ने अपने-अपने आकाओं को अपनी इस चिन्ता से अवगत कराया तो भाजपा ने इसे पृथकतावादी मांग कहकर यहां के नेताओं को हड़का दिया और कांग्रेस ने हमेशा की तरह न हां कहा न ना कहा, जब समय आयेगा देखेंगे कहकर पुचकार दिया। यही इस पार्टी का चरित्र भी है।
लेकिन उक्रांद का जनाधार लगातार बढ़ता रहा, एक समय ऐसा आया कि १७ विधाऩसभाओं में उक्रांद ने इन सबको कड़ी टक्कर दी और इसके सभी प्रत्याशी दूसरे स्थान पर रहे। यहीं से खलबली मची कि भई, ये तो बहुत ऊपर तक आ गये हैं, लोगों की भावना इनके साथ है। इसके बाद केन्द्र शासित प्रदेश, हिल कौंसिल और उत्तरांचल जैसे छद्म नाम हमारे सामने आये।
उक्रांद की सबसे बड़ी कमी उसकी राजनीतिक अपरिपक्वता रही है। १९९३ के जिस चुनाव में उत्तराखण्ड की जनता ने यह मन बना लिया कि इस बार पूरी सीटों से हम उक्रांद को ही जितायेंगे, इसके नेतृत्व ने एक भावुक निर्णय ले लिया कि जिस व्यवस्था में हमारी बात नहीं सुनी जाती है, हम उस व्यवस्था का अंग नहीं बनेंगे। इन्होंने चुनाव लड़ने से ही इन्कार कर दिया। यह निर्णय गलत था या सही, लेकिन इससे उक्रांद की राजनैतिक अपरिपक्वता झलकी, क्योंकि किसी भी राजनैतिक दल को भावनाओं से ऊपर उठकर राजनीति करनी चाहिये, जो इनके बस का न तब था, न अब है। क्योंकि ये लोग जनवादी है, जनसरोकारों के लिये धरना, प्रदर्शन आदि तो यह कर सकते हैं, लेकिन किसी आन्दोलन को जगाकर या किसी आन्दोलन को हाईजैक कर उसे अपने वोटों में परिवर्तित कर देने की कला इस पार्टी के लोगों को नहीं आती है। उसी की परिणिति यह हुई कि उत्तराखण्ड आन्दोलन में तन-मन-धन लगा देने वाली पार्टी आज हाशिये पर पड़ी है और इस आन्दोलन पर अंतिम समय तक कोई राय न देने वाले लोग इसके तारणहार बने बैठे हैं।
इसका उदाहरण भी दे दूं, जब १९९४ में उत्तराखण्ड आन्दोलन शुरु हुआ तो उक्रांद ने ही इसकी शुरुआत की थी, लेकिन ये लोग हुये सीधे-सरल-भावुक पहाड़ी, इन्होंने कह दिया कि सभी राजनैतिक ताकतों को एक मंच पर आना चाहिये और सर्वदलीय समिति बना दी। जिसमें बड़े-बड़े नेता आ गये और अपने-अपने हिसाब से राजनीति करने लगे, जिसका प्रतिफल क्या हुआ, वह सबने देखा।
मेरा तो अपना यह मानना है कि छोटे राज्यों का हित क्षेत्रीय दलों की सरकार बनने में ही है, क्योंकि इनका अस्तित्व उत्तराखण्ड तक ही सीमित है, इनका रिमोट कंट्रोल उत्तराखण्ड में ही होगा, दिल्ली या नागपुर या कहीं और नहीं।