मैने यह नहीं कहा कि उक्रांद का ही योगदान था, मैने कहा कि उक्रांद के राजनैतिक उत्थान और अपार जन समर्थन ने राष्टीय दलों को उत्तराखण्ड के बारे में सीरियसली सोचने पर मजबूर किया।
जहां तक आपने हिमांचल की बात की तो राज्य गठन के बाद श्री यशवन्त सिंह परमार जी जैसा मुख्यमंत्री उस राज्य को मिला, उन्होंने वहां पर ऐसी नीतियां बनाई कि किसी के कुछ गड़बड़ कर सकने की गुंजाइश ही नहीं बचती है।
मैं इस बात पर जरुर जोर देकर कहना चाहूंगा कि छोटे और उत्तराखण्ड जैसे विकट भौगोलिक परिस्थिति वाले राज्य के हित में यही होगा कि किसी क्षेत्रीय दल की सरकार यहां पर हो। वह उक्रांद ही हो, मैं नहीं कहता, क्यों कि यह अधिकार जनता को है, वह जो निर्णय करेगी, वही होगा।
क्योंकि इस राज्य की अवधारणा पर्वतीय प्रदेश की थी, लेकिन आज १० साल बाद ही वह पहाड़ अपने आप को ठगा सा महसूस करने लगा है। राष्ट्रीय दलों के राष्ट्रीय एजेंडे भी होते हैं, अभी हमारे मुख्यमंत्री जी औद्योगिक पैकेज के लिये कह रहे हैं, लेकिन लोकसभा चुनाव से ऐन पहले जब टाटा ने नैनो के लिये १००० एकड़ जमीन मांगी तो सरकार ने कह दिया कि हमारे पास इतनी जमीन नहीं है, जब जमीन ही नहीं है तो पैकेज क्यों? यह इसलिये हुआ कि गुजरात में लोकसभा की अधिक सीटें है और भाजपा को वहां से इस प्लांट के लगने के बाद अपार जनसमर्थन की आस थी।
ऐसे ही उ०प्र० के साथ परिसम्पत्तियों का ममला हो या कार्मिकों को राष्ट्रीय पार्टियां जब तक रहेंगी, यह मामले टलते रहेंगे, अगर आज सिंचाई की सम्पत्ति उत्तराखण्ड को मिल जाती है तो कल के दिन इनकी विरोधी पार्टी वहां यह प्रचार कर देगी कि फलां पार्टी ने तुम्हारी नहरें रुकवा दी। लेकिन जब क्षेत्रीय पार्टी होगी तो इसके मकसद और मतलब दोनों क्षेत्रीय तक ही निहित होंगे।