Author Topic: Uttarakhand Kranti Dal-उत्तराखंड क्रांति दल के पतन का मूल्याकन  (Read 37611 times)

Lalit Mohan Pandey

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UKD Capital Gairsain shift karne ki bat karte hai.. or apna party headquarter Dehradoon mai bana rakha hai.
UKD ko apna headquarter Dehradoon se Gairsain shift karna chahiye, isase janta mai sahi sandesh jayega.. or capital shift ko le ke party ki seriousness bhi pata chalegi .Although ye jaruri nahi ki kisi party ka Headquarter, Sate capital mai hi ho.. per ek example set karne ke liye ye ek achha kadam hoga.  इससे लोगु मै पार्टी एक बार फिर चर्चा मै आयेगी, और एक क्षेत्रीय पार्टी होने का एहसास होगा, Lekin kya aesa ho payega.. kya UKD ke leader Dehradoon se door hone ke liye raji ho payenge...

KAILASH PANDEY/THET PAHADI

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hahahahahahaha...... kya baat kah di apne Dajyu maja aa gaya.....

ISHI KO KAHTE HAIN RAJNEETI.....

Tabhi kah raha tha ki Uttarakhand ki janta bewkuf nahi hai....

UKD Capital Gairsain shift karne ki bat karte hai.. or apna party headquarter Dehradoon mai bana rakha hai.

सुधीर चतुर्वेदी

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SOUTH KAY JAYADATAR STATE MAY LOCAL PARTY HAI AUR VAHA KA VIKASH DEKHO ............... YAHA SAY KAI GUNA JAYADA HAI ................... TO FIR YAHA KOYO NAHI

Charu Tiwari

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साथियों! जय उत्तराखण्ड। असल में इस विषय का शीर्षक होना था राज्य के हित में क्षेत्रीय राजनीतिक ताकतों की भूमिका और मौजूदा दौर में उनकी प्रासंगिकता। यह इसलिये भी जरूरी था कि जिन लोगों को उत्तराखंड की राजनीतिक यात्रा की जानकारी नहीं थी वे इस बहस को उलझाते नहीं। उक्रांद पर बहस उतनी महत्वपूर्ण नहीं है जितनी क्षेत्राीय ताकतों को एकजुट करने की मुहिम। इसलिये इस एक दल विशेष नहीं बल्कि पूरे पहाड़ के राजनीतिक बदलाव के रूप में देखे जाने की जरूरत है। जब हम इस पर बहस करते तो फिर उत्तराखंड क्रान्ति दल, उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी, उत्तराखंड लोकवाहिनी, उत्तराखंड पार्टी, उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी, उत्तराखंड जन विकास पार्टी, उत्तराखंड महिला मंच, किसी समय की आईपीएफ, सीपीआई, सीपीएम, माले और अन्य दबाव गु्रपों के योगदान और इस आंदोलन बनाने-बिगाड़ने वालों के चेहरों से भी नकाब उठते। उक्रांद ने राज्य के सवाल को अपने समय से न केवल प्रमुखता से उठाया बल्कि वह इसका ध्वजवाहक भी रहा है। ऐसे समय में जब राज्य की बात करने वालों को पागल कहा जाता था। जब आज के सत्तासीन इस मांग को देशद्रोही बता रहे थे। जब देश के सबसे बड़े राष्टभक्त अटलबिहारी वाजपेयी इसे राष्टदोही मांग बता रहे थे, तब राज्य की मांग को लेकर उक्रांद ने एक ऐसा राजनीतिक मंच बनाया जिसने इन लफाजों को इस बात को मानने के लिये मजबूर किया कि राज्य की प्रासंगकिता है, पहाड़ को अब अधिक दिन तक लुटने नहीं दिया जायेगा। भाजपा-कांग्रेस और कुछ खोल में छुपे अन्य लोगों ने डेढ दशक तक इस आंदोलन को तोड़ने की साजिशें की। वर्ष 1989 में उक्रांद को लोगों ने नोट के साथ वोट दिये। पहली बार जनता के पैसे से जनता के लोगों ने चुनाव लड़ा। इस आंधी से बौखलायें राजनीतिक दलों ने पैसे और संसाधनों से जो तांडव किया वह कभी ईमानदारी से यदि इतिहास लिखा जायेगा तो सामने आयेगा। उस चुनाव में उत्तर प्रदेश की विधानसभा में पहाड़ की 19 में से 11 सीटों पर उक्राद दूसरे स्थान पर रहा जबकि रानीखेत और डीडीहाट की सीेटे उन्होंने जीती। लोकसभा चुनाव में अल्मोड़ा से काशी सिंह ऐरी मात्र सात हजार और टिहरी से इन्द्रमणि बडोनी मात्र ग्यारह हजार मतों से हारे।
   इससे पहले 1980 में रानीखेत सीट से जसबंत सिंह बिष्ट जी इस नारे के साथ पहली बार उत्तर प्रदेश की विधानसभा में पहुंचे- ‘‘टूटी चप्पल फाटी कोट, जसुका कं दिया वोट।’’ यह जनता की आवाज थी, जो उक्रांद के पक्ष और बेहतर उत्तराखंड के सपने को बनाने का समर्थन था। वर्ष 1984 में डीडीहाट से युवा काशी सिंह ऐरी उत्तर प्रदेश की विधानसभा में पहुंचे जहां उन्होंने जनहित के सवालों की झड़ी लगा दी। उन्होंने एक बार में 76 सवाल कर उत्तर प्रदेश की विधानसभा के संविधान को बदल दिया। बाद में नियम बनाना पड़ा कि एक सदस्य एक बार में सात ही सवाल कर सकता है। अलग राज्य की एकसूत्रीय मांग को लेकर अमर शहीद श्रीदेव सुमन के शहादत दिवस 25 जुलाई 1979 को मसूरी में इस दल की स्थापना हुयी। अस्सी का पूरा दशक उत्तराखंड में राजनीतिक चेतना वाहक रहा जिसकी अगुआई उक्राद ने की। आंदोलनों के नये स्वर उभरे। कुमांउ और गढ़वाल कमिश्नरियों का घेराव, 24, 36, 48 और 72 घंटे के बंद और चक्का जाम ने एक नई ताकत आंदोलन को दी। वर्ष 1987 में दिल्ली में दो लाख लोगों की बोट क्लब पर विशाल रैली, वन अधिनियम के खिलाफ आंदोलन, जेल भरो आंदोलन के अलावा वर्ष 1994 में उत्तराखंड राज्य आंदोलन की निर्णायक लड़ाई में पार्टी की महत्वपूर्ण भूमिका रही। यदि इस आंदोलन को चलाने के लिये पहाड़ के गांधी इन्द्रमणि का नेतृत्व नहीं मिला होता तो राज्य एक सपना ही रहता। यह एक संक्षिप्त पृष्ठभूमि उक्रांद की है। इसलिये यह सवाल उठना भी लाजमी है कि संघर्षों से निकली एक पार्टी भाजपा जैसी पहाड़ विरोधी पार्टी की गोद में कैसे बैठ गयी। सच यह है कि उक्रांद का कैडर अभी भी अपनी प्रतिबद्धताओं के लिये खड़ा है। उसके पुराने लोग आज सत्ता में शामिल उक्रांद के साथ नहीं है। उक्रांद के अध्याय को सत्ता में जाने से शुरू नहीं किया जा सकता। इसके पतन की कहानी तो आखिरी कड़ी के रूप में दो लाइन में सिमट जायेगी, लेकिन इस आलोक में हम पूरे आंदोलन और उसमें उक्रांद की भूमिका की पड़ताल करेंगे। इसलिये पहले इस दल को जानना और इसके तीस साल की यात्रा पर हम नजर डालेंगे और उन तमाम दलों के बारे में भी बात करेंगे जो इस बीच अपनी तरह से राज्य के सवालों को उठाते रहे हैं। कुल मिलाकर यह बहस अब क्षेत्राीय ताकतों की जरूरत पर केन्द्रित होनी चाहिये। शेष अगली पोस्ट में। जय उत्तराखंड।

हलिया

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 अरे महाराज! हम लोगों ने जो बडी‌ गलती की मेरे हिसाब से, 2002 में जब पहले चुनाव का शंख बजा तो उसी समय उक्रांद को पूरी ताकत के साथ बागडोर सौंप देनी थी।  एक तो उक्रांद ने जो मेहनत पहाड़ के लिये की उसका इनाम उसे मिल जाता और जनता को इनके राजकाज का मूल्यांकन करने का मौका मिलता और सबसे बडी‌ बात बडी‌-2 बातें करने वाली बडी-2 पर्टियौं को जनता का और उक्रांद का डर रहता।  लेकिन ऐसा हुआ नहीं तो क्या हुवा कि ये बडी-2 पार्टियां ये सोचने लग गयी कि हमारे बिना उत्तराखण्ड की जनता का गुजारा नहीं हो सकता और इन्होंने आपस में बात-चीत कर ली कि एक बार तुम तो दूसरी बार हम। मिल कर करेंगे बेडागरक – क्यौं भाई जी ठीक ठैरा न.......

KAILASH PANDEY/THET PAHADI

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Chaaru Da Pranam,
 
Apne UKD dwara kiye kaaryo se hame rubaru karwaya uske liye ham apka tahe DIL se dhanyawaad adda karte hain....
 
Lekin dada ek taraf to aap BJP ko pahad virodhi sangthan kah rahe hain aur UKD ko pahad ka hitkaari sangthan.....Lekin sachai Uttrakhand ki janta dekh hee rahi hai ki dono ek hee thaali ke chatte-batte hain...
 
Aap to UKD ke kaafi close logo me se hain to iske piche apko kya karan lagte hain??
 
apko nahi lagta ki UKD ab kewal pahad ke logo ko murkh banakar sirf aur sirf Rajneeti karna chati hai........

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Well said Charu Da,

Public of Uttarakhand also wish to come a third party in the state to see the fast development. But i think UKD should work hard to gain public faith back.

साथियों! जय उत्तराखण्ड। असल में इस विषय का शीर्षक होना था राज्य के हित में क्षेत्रीय राजनीतिक ताकतों की भूमिका और मौजूदा दौर में उनकी प्रासंगिकता। यह इसलिये भी जरूरी था कि जिन लोगों को उत्तराखंड की राजनीतिक यात्रा की जानकारी नहीं थी वे इस बहस को उलझाते नहीं। उक्रांद पर बहस उतनी महत्वपूर्ण नहीं है जितनी क्षेत्राीय ताकतों को एकजुट करने की मुहिम। इसलिये इस एक दल विशेष नहीं बल्कि पूरे पहाड़ के राजनीतिक बदलाव के रूप में देखे जाने की जरूरत है। जब हम इस पर बहस करते तो फिर उत्तराखंड क्रान्ति दल, उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी, उत्तराखंड लोकवाहिनी, उत्तराखंड पार्टी, उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी, उत्तराखंड जन विकास पार्टी, उत्तराखंड महिला मंच, किसी समय की आईपीएफ, सीपीआई, सीपीएम, माले और अन्य दबाव गु्रपों के योगदान और इस आंदोलन बनाने-बिगाड़ने वालों के चेहरों से भी नकाब उठते। उक्रांद ने राज्य के सवाल को अपने समय से न केवल प्रमुखता से उठाया बल्कि वह इसका ध्वजवाहक भी रहा है। ऐसे समय में जब राज्य की बात करने वालों को पागल कहा जाता था। जब आज के सत्तासीन इस मांग को देशद्रोही बता रहे थे। जब देश के सबसे बड़े राष्टभक्त अटलबिहारी वाजपेयी इसे राष्टदोही मांग बता रहे थे, तब राज्य की मांग को लेकर उक्रांद ने एक ऐसा राजनीतिक मंच बनाया जिसने इन लफाजों को इस बात को मानने के लिये मजबूर किया कि राज्य की प्रासंगकिता है, पहाड़ को अब अधिक दिन तक लुटने नहीं दिया जायेगा। भाजपा-कांग्रेस और कुछ खोल में छुपे अन्य लोगों ने डेढ दशक तक इस आंदोलन को तोड़ने की साजिशें की। वर्ष 1989 में उक्रांद को लोगों ने नोट के साथ वोट दिये। पहली बार जनता के पैसे से जनता के लोगों ने चुनाव लड़ा। इस आंधी से बौखलायें राजनीतिक दलों ने पैसे और संसाधनों से जो तांडव किया वह कभी ईमानदारी से यदि इतिहास लिखा जायेगा तो सामने आयेगा। उस चुनाव में उत्तर प्रदेश की विधानसभा में पहाड़ की 19 में से 11 सीटों पर उक्राद दूसरे स्थान पर रहा जबकि रानीखेत और डीडीहाट की सीेटे उन्होंने जीती। लोकसभा चुनाव में अल्मोड़ा से काशी सिंह ऐरी मात्र सात हजार और टिहरी से इन्द्रमणि बडोनी मात्र ग्यारह हजार मतों से हारे।
   इससे पहले 1980 में रानीखेत सीट से जसबंत सिंह बिष्ट जी इस नारे के साथ पहली बार उत्तर प्रदेश की विधानसभा में पहुंचे- ‘‘टूटी चप्पल फाटी कोट, जसुका कं दिया वोट।’’ यह जनता की आवाज थी, जो उक्रांद के पक्ष और बेहतर उत्तराखंड के सपने को बनाने का समर्थन था। वर्ष 1984 में डीडीहाट से युवा काशी सिंह ऐरी उत्तर प्रदेश की विधानसभा में पहुंचे जहां उन्होंने जनहित के सवालों की झड़ी लगा दी। उन्होंने एक बार में 76 सवाल कर उत्तर प्रदेश की विधानसभा के संविधान को बदल दिया। बाद में नियम बनाना पड़ा कि एक सदस्य एक बार में सात ही सवाल कर सकता है। अलग राज्य की एकसूत्रीय मांग को लेकर अमर शहीद श्रीदेव सुमन के शहादत दिवस 25 जुलाई 1979 को मसूरी में इस दल की स्थापना हुयी। अस्सी का पूरा दशक उत्तराखंड में राजनीतिक चेतना वाहक रहा जिसकी अगुआई उक्राद ने की। आंदोलनों के नये स्वर उभरे। कुमांउ और गढ़वाल कमिश्नरियों का घेराव, 24, 36, 48 और 72 घंटे के बंद और चक्का जाम ने एक नई ताकत आंदोलन को दी। वर्ष 1987 में दिल्ली में दो लाख लोगों की बोट क्लब पर विशाल रैली, वन अधिनियम के खिलाफ आंदोलन, जेल भरो आंदोलन के अलावा वर्ष 1994 में उत्तराखंड राज्य आंदोलन की निर्णायक लड़ाई में पार्टी की महत्वपूर्ण भूमिका रही। यदि इस आंदोलन को चलाने के लिये पहाड़ के गांधी इन्द्रमणि का नेतृत्व नहीं मिला होता तो राज्य एक सपना ही रहता। यह एक संक्षिप्त पृष्ठभूमि उक्रांद की है। इसलिये यह सवाल उठना भी लाजमी है कि संघर्षों से निकली एक पार्टी भाजपा जैसी पहाड़ विरोधी पार्टी की गोद में कैसे बैठ गयी। सच यह है कि उक्रांद का कैडर अभी भी अपनी प्रतिबद्धताओं के लिये खड़ा है। उसके पुराने लोग आज सत्ता में शामिल उक्रांद के साथ नहीं है। उक्रांद के अध्याय को सत्ता में जाने से शुरू नहीं किया जा सकता। इसके पतन की कहानी तो आखिरी कड़ी के रूप में दो लाइन में सिमट जायेगी, लेकिन इस आलोक में हम पूरे आंदोलन और उसमें उक्रांद की भूमिका की पड़ताल करेंगे। इसलिये पहले इस दल को जानना और इसके तीस साल की यात्रा पर हम नजर डालेंगे और उन तमाम दलों के बारे में भी बात करेंगे जो इस बीच अपनी तरह से राज्य के सवालों को उठाते रहे हैं। कुल मिलाकर यह बहस अब क्षेत्राीय ताकतों की जरूरत पर केन्द्रित होनी चाहिये। शेष अगली पोस्ट में। जय उत्तराखंड।

Charu Tiwari

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कैलाश भाई मैंने उत्तराखंड क्रान्ति दल के इतिहास के बारे में कहा है अभी इस बात पर नहीं आया हूं कि वह इतने पतित क्यों हुये कि भाजपा के साथ चले गये। इस बात पर भी आउंगा। जैसा कि मैंने पहले भी लिखा है कि उक्रांद के पतन को एक झटके में नहीं समझा जा सकता है। इसे समझने के लिये हमें उसके तमाम उन कारणों और हकीकत को भी समझना पड़ेगा जिसके लिये इसके नेता जिम्मेदार हैं। मैं सिर्फ उक्रांद के बारे में इस बहस मे शामिल नहीं होउंगा बल्कि आंदोलन के उन तमाम कड़वे सच भी आपके सामने रखूंगा जिससे आप चौंकेगे भी और सोचेंगे भी। मैं यह भी बताउंगा कि जब हम लोग मुलायम सिंह यादब के हल्ला बोल का मुकाबला कर रहे थे तब छदम आंदोलनकारी बनकर कौन लोग आंदोलन को तोड़ रहे थे, मैं यह भी बताउंगा कि पहाड़ के गीत-संगीत को विश्व भर में फैलाने का दावा करने वाले एक बड़े संस्कृतकर्मी जिसकी पहाड़ के लोग पूजा करते हैं उन्होंने मुफरनगर कंाड के समय ही प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव से कैसे सम्मान लिया था। और भी लोगों को बेनकाब करेंगे। जहां तक मेरा उक्रांद के साथ संबंध है मैं न तो मौजूदा उक्रांद का प्रवक्ता हूं और न समर्थक। मैने वर्ष 1979 में जब उक्रांद बना था तो उसके बाद इसके पहले अध्यक्ष डा. डीडी पंत, जसवन्त सिंह बिष्ट और विपिन त्रिपाठी को उस समय देखा जब मैं कक्षा नवीं में पढ़ता था। वे राज्य आंदोलन की शुरूआत में निकले थे। उसके बाद मैंने वर्ष 1985 में पार्टी के कार्यक्रमों में भाग लेना शुरू किया। 30 अगस्त 1988 को गढ़वाल विश्वविद्याय के श्रीनगर परिसर में उत्तराखंड स्टूडेंट फेडरेशन का मैं संस्थापक सदस्य रहा। हमारे संयोजक डा. नारायण सिंह जंतवाल थे, जो उस समय छात्र राजनीति के शिखर पर थे। खैर बांकी बात फिर करूंगा। आपके सवालों का विस्तृत जबाव भी दिया जायेगा जो इसलिये जरूरी है क्योंकि किसी विचारधारा या व्यक्ति का विरोध बिना उसे समझे नहीं किया जाना चाहिये। उससे समाज का नुकसान होता है। मैं जब से उक्रांद के कुछ पगलाये सत्तालोलुप लोगों ने भाजपा का दामन थामा है तब से मैं उनका उतना ही विरोधी हूं जितना आप। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उक्रांद का मतलब दिवाकर जैसे नासमझ और काशी सिंह ऐरी जैसे घृतराष्ट बन गये लोग हैं। यह तब भी एक विचार था और आज भी है। गांवों में उक्रांद का एक कैडर आज भी चुप बैठा है। आप इन नये आये गुर्गों को उत्तराखंड क्रान्ति दल न समझें और न ही इनसे पार्टी का मूल्यांकन करे। बांकी बातें फिर.........................

KAILASH PANDEY/THET PAHADI

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Wow daju tab to bahut maja aayega aur mere jaise nasamajh logo ko kaafi kuch sikhane kaa mauka bhi meelega apse....

कैलाश भाई मैंने उत्तराखंड क्रान्ति दल के इतिहास के बारे में कहा है अभी इस बात पर नहीं आया हूं कि वह इतने पतित क्यों हुये कि भाजपा के साथ चले गये। इस बात पर भी आउंगा। जैसा कि मैंने पहले भी लिखा है कि उक्रांद के पतन को एक झटके में नहीं समझा जा सकता है। इसे समझने के लिये हमें उसके तमाम उन कारणों और हकीकत को भी समझना पड़ेगा जिसके लिये इसके नेता जिम्मेदार हैं। मैं सिर्फ उक्रांद के बारे में इस बहस मे शामिल नहीं होउंगा बल्कि आंदोलन के उन तमाम कड़वे सच भी आपके सामने रखूंगा जिससे आप चौंकेगे भी और सोचेंगे भी। मैं यह भी बताउंगा कि जब हम लोग मुलायम सिंह यादब के हल्ला बोल का मुकाबला कर रहे थे तब छदम आंदोलनकारी बनकर कौन लोग आंदोलन को तोड़ रहे थे, मैं यह भी बताउंगा कि पहाड़ के गीत-संगीत को विश्व भर में फैलाने का दावा करने वाले एक बड़े संस्कृतकर्मी जिसकी पहाड़ के लोग पूजा करते हैं उन्होंने मुफरनगर कंाड के समय ही प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव से कैसे सम्मान लिया था। और भी लोगों को बेनकाब करेंगे। जहां तक मेरा उक्रांद के साथ संबंध है मैं न तो मौजूदा उक्रांद का प्रवक्ता हूं और न समर्थक। मैने वर्ष 1979 में जब उक्रांद बना था तो उसके बाद इसके पहले अध्यक्ष डा. डीडी पंत, जसवन्त सिंह बिष्ट और विपिन त्रिपाठी को उस समय देखा जब मैं कक्षा नवीं में पढ़ता था। वे राज्य आंदोलन की शुरूआत में निकले थे। उसके बाद मैंने वर्ष 1985 में पार्टी के कार्यक्रमों में भाग लेना शुरू किया। 30 अगस्त 1988 को गढ़वाल विश्वविद्याय के श्रीनगर परिसर में उत्तराखंड स्टूडेंट फेडरेशन का मैं संस्थापक सदस्य रहा। हमारे संयोजक डा. नारायण सिंह जंतवाल थे, जो उस समय छात्र राजनीति के शिखर पर थे। खैर बांकी बात फिर करूंगा। आपके सवालों का विस्तृत जबाव भी दिया जायेगा जो इसलिये जरूरी है क्योंकि किसी विचारधारा या व्यक्ति का विरोध बिना उसे समझे नहीं किया जाना चाहिये। उससे समाज का नुकसान होता है। मैं जब से उक्रांद के कुछ पगलाये सत्तालोलुप लोगों ने भाजपा का दामन थामा है तब से मैं उनका उतना ही विरोधी हूं जितना आप। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उक्रांद का मतलब दिवाकर जैसे नासमझ और काशी सिंह ऐरी जैसे घृतराष्ट बन गये लोग हैं। यह तब भी एक विचार था और आज भी है। गांवों में उक्रांद का एक कैडर आज भी चुप बैठा है। आप इन नये आये गुर्गों को उत्तराखंड क्रान्ति दल न समझें और न ही इनसे पार्टी का मूल्यांकन करे। बांकी बातें फिर.........................

Lalit Mohan Pandey

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चारू दा, मुझे भी आपकी पोस्ट्स का बेसब्री से इंतजार रहेगा, क्युकी बचपन से मैंने भी इस पार्टी के क्रिया कलाप अपने घर मै होते देखे है और 25 साल की उम्र तक मै इसका कट्टर समर्थक रहा हु, हा पार्टी के बारे मै तो इतनी समझ कभी नहीं रही मुझे, लेकिन अंध भक्तु की तरह काशी सिंह एरी को पूजा करते थे. बस ये लगता था की की जिस दिन उत्तराखंड राज्य बन जायेगा, काशी सिंह एरी CM बन जायेगा और राम राज आ जायेगा उत्तराखंड मै. 
मै इस बारे मै आपसे पहले भी चर्चा करना चाहता था, अगर आपको याद होगा तो एक बार B. K. DUTT COLONY मै हुए  FUNCTION के बाद मै इसी मकसद से आपको अपने घर बुला के ले गया था. लेकिन समयाभाव के वजह से पूरी बात नहीं हो पाई.  दाज्यू मै आपसे ये भी जानना चाहूँगा की सिर्फ 10 सालू मै ऐसा क्या बदल गया की जिस पार्टी के नेता सिर्फ उत्तराखंड और उत्तराखंड के हित की बात करते थे .. वो आज बीजेपी द्वारा उठाए गए हर उत्तराखंड विरोधी कदम मै उसका साथ दे रहे है .  जिन पार्टी के नेताऊ को मंच तक जी जरुरत नहीं होती थी -- मुझे अच्छी तरह याद है आन्दोलन के दिनु जब माननीय इन्द्रमणि बडोनी जी कनालीछीना आये थे.. local पर्शासन ने हमें उनके स्वागत के लिए कही पे टेबल तक नहीं लगाने दियी थी, हम सब काफी दुखी थी.. लेकिन जब बडोनी जी पहुचे तो उनके लिए ये कोए बात ही नहीं थी.. वही रोड के किनारे मिटटी मै बैठ गए तो हमें संबोधित karne लगे -- आज isi पार्टी के नेताऊ को AC car ka,  Lal batti ka lalach इतने neeche gira dega ये समझ से pare है.  अगर lalach करना ही है तो fir CM PAD का KARO NA, एक बार fir से usi samarpan से janta से jud के तो dekhe ये.. ये ही janta agle १० सालू मै fir से unhe सर aankhu मै baitha legi और satta  दे degi, लेकिन जिस tarike से आज पार्टी chal रही है मुझे तो नहीं लगता है agle election मै तो chod do, agle 100 सालू मै भी ये कभी satta पे आ payenge. (दाज्यू मै ये चर्चा आपसे isliye भी करना चाहता था की ..मेरे anadar एक kunda है, एक gussa है, इस बात को ले के की jinke peeche मैंने अपनी लाइफ के कुछ important साल barbad kar diye -- जब मुझे अपने career के  बारे  मै  sochna chahiye tha tab mai inke peeche bhag raha था-- aaj wahi log itna neeche gir gaye hai).   

कैलाश भाई मैंने उत्तराखंड क्रान्ति दल के इतिहास के बारे में कहा है अभी इस बात पर नहीं आया हूं कि वह इतने पतित क्यों हुये कि भाजपा के साथ चले गये। इस बात पर भी आउंगा। जैसा कि मैंने पहले भी लिखा है कि उक्रांद के पतन को एक झटके में नहीं समझा जा सकता है। इसे समझने के लिये हमें उसके तमाम उन कारणों और हकीकत को भी समझना पड़ेगा जिसके लिये इसके नेता जिम्मेदार हैं। मैं सिर्फ उक्रांद के बारे में इस बहस मे शामिल नहीं होउंगा बल्कि आंदोलन के उन तमाम कड़वे सच भी आपके सामने रखूंगा जिससे आप चौंकेगे भी और सोचेंगे भी। मैं यह भी बताउंगा कि जब हम लोग मुलायम सिंह यादब के हल्ला बोल का मुकाबला कर रहे थे तब छदम आंदोलनकारी बनकर कौन लोग आंदोलन को तोड़ रहे थे, मैं यह भी बताउंगा कि पहाड़ के गीत-संगीत को विश्व भर में फैलाने का दावा करने वाले एक बड़े संस्कृतकर्मी जिसकी पहाड़ के लोग पूजा करते हैं उन्होंने मुफरनगर कंाड के समय ही प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव से कैसे सम्मान लिया था। और भी लोगों को बेनकाब करेंगे। जहां तक मेरा उक्रांद के साथ संबंध है मैं न तो मौजूदा उक्रांद का प्रवक्ता हूं और न समर्थक। मैने वर्ष 1979 में जब उक्रांद बना था तो उसके बाद इसके पहले अध्यक्ष डा. डीडी पंत, जसवन्त सिंह बिष्ट और विपिन त्रिपाठी को उस समय देखा जब मैं कक्षा नवीं में पढ़ता था। वे राज्य आंदोलन की शुरूआत में निकले थे। उसके बाद मैंने वर्ष 1985 में पार्टी के कार्यक्रमों में भाग लेना शुरू किया। 30 अगस्त 1988 को गढ़वाल विश्वविद्याय के श्रीनगर परिसर में उत्तराखंड स्टूडेंट फेडरेशन का मैं संस्थापक सदस्य रहा। हमारे संयोजक डा. नारायण सिंह जंतवाल थे, जो उस समय छात्र राजनीति के शिखर पर थे। खैर बांकी बात फिर करूंगा। आपके सवालों का विस्तृत जबाव भी दिया जायेगा जो इसलिये जरूरी है क्योंकि किसी विचारधारा या व्यक्ति का विरोध बिना उसे समझे नहीं किया जाना चाहिये। उससे समाज का नुकसान होता है। मैं जब से उक्रांद के कुछ पगलाये सत्तालोलुप लोगों ने भाजपा का दामन थामा है तब से मैं उनका उतना ही विरोधी हूं जितना आप। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उक्रांद का मतलब दिवाकर जैसे नासमझ और काशी सिंह ऐरी जैसे घृतराष्ट बन गये लोग हैं। यह तब भी एक विचार था और आज भी है। गांवों में उक्रांद का एक कैडर आज भी चुप बैठा है। आप इन नये आये गुर्गों को उत्तराखंड क्रान्ति दल न समझें और न ही इनसे पार्टी का मूल्यांकन करे। बांकी बातें फिर.........................


 

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