साथियों! जय उत्तराखण्ड। असल में इस विषय का शीर्षक होना था राज्य के हित में क्षेत्रीय राजनीतिक ताकतों की भूमिका और मौजूदा दौर में उनकी प्रासंगिकता। यह इसलिये भी जरूरी था कि जिन लोगों को उत्तराखंड की राजनीतिक यात्रा की जानकारी नहीं थी वे इस बहस को उलझाते नहीं। उक्रांद पर बहस उतनी महत्वपूर्ण नहीं है जितनी क्षेत्राीय ताकतों को एकजुट करने की मुहिम। इसलिये इस एक दल विशेष नहीं बल्कि पूरे पहाड़ के राजनीतिक बदलाव के रूप में देखे जाने की जरूरत है। जब हम इस पर बहस करते तो फिर उत्तराखंड क्रान्ति दल, उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी, उत्तराखंड लोकवाहिनी, उत्तराखंड पार्टी, उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी, उत्तराखंड जन विकास पार्टी, उत्तराखंड महिला मंच, किसी समय की आईपीएफ, सीपीआई, सीपीएम, माले और अन्य दबाव गु्रपों के योगदान और इस आंदोलन बनाने-बिगाड़ने वालों के चेहरों से भी नकाब उठते। उक्रांद ने राज्य के सवाल को अपने समय से न केवल प्रमुखता से उठाया बल्कि वह इसका ध्वजवाहक भी रहा है। ऐसे समय में जब राज्य की बात करने वालों को पागल कहा जाता था। जब आज के सत्तासीन इस मांग को देशद्रोही बता रहे थे। जब देश के सबसे बड़े राष्टभक्त अटलबिहारी वाजपेयी इसे राष्टदोही मांग बता रहे थे, तब राज्य की मांग को लेकर उक्रांद ने एक ऐसा राजनीतिक मंच बनाया जिसने इन लफाजों को इस बात को मानने के लिये मजबूर किया कि राज्य की प्रासंगकिता है, पहाड़ को अब अधिक दिन तक लुटने नहीं दिया जायेगा। भाजपा-कांग्रेस और कुछ खोल में छुपे अन्य लोगों ने डेढ दशक तक इस आंदोलन को तोड़ने की साजिशें की। वर्ष 1989 में उक्रांद को लोगों ने नोट के साथ वोट दिये। पहली बार जनता के पैसे से जनता के लोगों ने चुनाव लड़ा। इस आंधी से बौखलायें राजनीतिक दलों ने पैसे और संसाधनों से जो तांडव किया वह कभी ईमानदारी से यदि इतिहास लिखा जायेगा तो सामने आयेगा। उस चुनाव में उत्तर प्रदेश की विधानसभा में पहाड़ की 19 में से 11 सीटों पर उक्राद दूसरे स्थान पर रहा जबकि रानीखेत और डीडीहाट की सीेटे उन्होंने जीती। लोकसभा चुनाव में अल्मोड़ा से काशी सिंह ऐरी मात्र सात हजार और टिहरी से इन्द्रमणि बडोनी मात्र ग्यारह हजार मतों से हारे।
इससे पहले 1980 में रानीखेत सीट से जसबंत सिंह बिष्ट जी इस नारे के साथ पहली बार उत्तर प्रदेश की विधानसभा में पहुंचे- ‘‘टूटी चप्पल फाटी कोट, जसुका कं दिया वोट।’’ यह जनता की आवाज थी, जो उक्रांद के पक्ष और बेहतर उत्तराखंड के सपने को बनाने का समर्थन था। वर्ष 1984 में डीडीहाट से युवा काशी सिंह ऐरी उत्तर प्रदेश की विधानसभा में पहुंचे जहां उन्होंने जनहित के सवालों की झड़ी लगा दी। उन्होंने एक बार में 76 सवाल कर उत्तर प्रदेश की विधानसभा के संविधान को बदल दिया। बाद में नियम बनाना पड़ा कि एक सदस्य एक बार में सात ही सवाल कर सकता है। अलग राज्य की एकसूत्रीय मांग को लेकर अमर शहीद श्रीदेव सुमन के शहादत दिवस 25 जुलाई 1979 को मसूरी में इस दल की स्थापना हुयी। अस्सी का पूरा दशक उत्तराखंड में राजनीतिक चेतना वाहक रहा जिसकी अगुआई उक्राद ने की। आंदोलनों के नये स्वर उभरे। कुमांउ और गढ़वाल कमिश्नरियों का घेराव, 24, 36, 48 और 72 घंटे के बंद और चक्का जाम ने एक नई ताकत आंदोलन को दी। वर्ष 1987 में दिल्ली में दो लाख लोगों की बोट क्लब पर विशाल रैली, वन अधिनियम के खिलाफ आंदोलन, जेल भरो आंदोलन के अलावा वर्ष 1994 में उत्तराखंड राज्य आंदोलन की निर्णायक लड़ाई में पार्टी की महत्वपूर्ण भूमिका रही। यदि इस आंदोलन को चलाने के लिये पहाड़ के गांधी इन्द्रमणि का नेतृत्व नहीं मिला होता तो राज्य एक सपना ही रहता। यह एक संक्षिप्त पृष्ठभूमि उक्रांद की है। इसलिये यह सवाल उठना भी लाजमी है कि संघर्षों से निकली एक पार्टी भाजपा जैसी पहाड़ विरोधी पार्टी की गोद में कैसे बैठ गयी। सच यह है कि उक्रांद का कैडर अभी भी अपनी प्रतिबद्धताओं के लिये खड़ा है। उसके पुराने लोग आज सत्ता में शामिल उक्रांद के साथ नहीं है। उक्रांद के अध्याय को सत्ता में जाने से शुरू नहीं किया जा सकता। इसके पतन की कहानी तो आखिरी कड़ी के रूप में दो लाइन में सिमट जायेगी, लेकिन इस आलोक में हम पूरे आंदोलन और उसमें उक्रांद की भूमिका की पड़ताल करेंगे। इसलिये पहले इस दल को जानना और इसके तीस साल की यात्रा पर हम नजर डालेंगे और उन तमाम दलों के बारे में भी बात करेंगे जो इस बीच अपनी तरह से राज्य के सवालों को उठाते रहे हैं। कुल मिलाकर यह बहस अब क्षेत्राीय ताकतों की जरूरत पर केन्द्रित होनी चाहिये। शेष अगली पोस्ट में। जय उत्तराखंड।