Author Topic: Uttarakhand Kranti Dal-उत्तराखंड क्रांति दल के पतन का मूल्याकन  (Read 33365 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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उत्तराखंड क्रांति दल में अभी काशी सिह ऐरी, डॉक्टर नारायण सिंह जन्थवाल और दिवाकर भट्ट को छोड़कर, कोई भी शीर्ष नेता नहीं है!

मैंने कई मंचो में सुना है दिवाकर भट्ट ने सत्ता के लालसा में उत्तराखंड क्रांति दल के नीतियों से समझौता किया!

इसी प्रकार के आरोप काशी सिंह ऐरी जी पर भी है!

क्या आप इस पर सहमत है ?


सुधीर चतुर्वेदी

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1984  मे बी.जे.पी. के भी मात्र दो सांसद हुआ करते थे उसके बाद देखो  बी.जे.पी. आज rastriya पार्टी है और तीन बार केंद्र मे सरकार चला चुकी है | पहली १३ दिन के लिये दूसरी १३ महने की और तीसरी ५ साल के लिये | बस इंतजार करो ठीक उसी तरह u .k .d भी बढेगी आज मिलकर सत्ता मे है आने वाले टाइम मे अपने बल पर होगी ..............   कयोंकि जनता बदलाव चाहती है |

Charu Tiwari

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ललित भाई, लंबे समय बाद आपसे बातचीत हो रही है। आपके गुस्से को मैं बहुत अच्छी तरह समझ सकता हूं। वह इसलिये कि आपके परिवार का इस पार्टी को बनाने में महत्वपूर्ण योगदान रहा। मैं चाहता तो था कि बिना पार्टी के पतन की बात करते हुये पहले पार्टी की पृष्ठभूमि पर बात करूं लेकिन अब यह भी जरूरी समझ रहा हूं कि बीच-बीच में आप जैसे लोगों के गुस्से में शामिल हो जाउं। जैसा मेहता जी ने लिखा है कि पार्टी मे तीन शीर्ष नेता हैं। ऐसा नहीं है। पार्टी में हमेशा एक ही नेता रहे काशी सिंह ऐरी। जिनके पास समझ थी, जिनके पास आगे चलने की शक्ति थी, जिनका भारी जनाधार था। दिवाकर जैसे लोग अराजक राजनीति की पौंध रहे हैं। ये वे लोग थे जो अपने को फील्ड मार्शल कहते थे कभी एक चूहा भी नहीं मारा। अकल से पैदल और आंदोलन के दुश्मन, जिन्होंने दो बार पार्टी तोड़ी और कभी शिव सेना के साथ तो कभी कांग्रेस के लिये दलाली करते रहे। हां एक समय था जब पहाड़ के गांधी इन्द्रमणि बडोनी, काशी सिंह ऐरी और विपिन त्रिपाठी की त्रिमूर्ति ने इस पार्टी को एक मुकाम तक पहुंचाया। लेकिन सच यह भी है कि इन्होंने कभी एक बड़ा संगठन खड़ा करने की दिशा में काम नहीं किया। पूरे तीस साल चले एक जन आंदोलन को इन्होंने 1994 में भाजपा और कांग्रेस जैसी पहाड़ विरोधी पार्टियों के हाथ में दे दिया। संयुक्त संघर्ष समिति बनाकर सभी लोगों का आंदोलन में घुसने का मौका दिया। यही कारण है कि दिवाकर भट्ट जैसे ोग आज सत्ता की दलाली में लग गये हैं। यदि कांग्रेस की सरकार होती तो तब भी दिवाकर मंत्राी होते। इस चरित्र को समझने की जरूरत है।
   खैर, दिवाकर भट्ट की बात तो खमखां में ही आ गयी। वे न तीन में और न तेरह में। मैं इस पतन का सबसे ज्यादा जिम्मेदार काशी सिंह ऐरी को मानता हूं। जिस व्यक्ति को लोग प्रदेश का मुख्यमंत्राी देखना चाहते थे वह भाजपा सरकार की कृपा से एक निगम का चौकीदार बन गया। इससे बड़ी त्रासदी उक्रांद की दूसरी नहीं है। काशी सिह ऐरी पुरू के हाथी हैं जिन्होंने अपनी सेना को खुद रौंदा। ऐरी के अगल-बगल में बैठने वाले तमाम दलाल किस्म के लोग हैं जो ठेका, परमिट और छोटे-बडे कामों के लिये उन्हें इस्तेमाल करते हैं। यहां कार्यकर्ताओं और विचारवान लोगों की कोई हैसियत नहीं है। पार्टी में इस समय जिन पदाधिकारियों की फौज है उन्हें पार्टी कार्यकर्ता तक नहीं जानते। ऐरी की गाड़ी चलाने वाले और उनके लिये सूरती बनाने बाले वाले पार्टी के महामंत्री जैसे पदों पर विराजमान हैं। यह पार्टी के पतन के मुख्य कारणों में से एक है। जहां तक डा. नारायण सिंह जंतवाल का सवाल है, उक्रांद का दुर्भाग्य है कि अजगर की तरह पड़े रहने वाले लोगों को पार्टी का अध्यक्ष बनाया जाता है। ही बात यह है कि उक्रांद में आज उसके मूल कार्यकर्ता नहीं हैं। वे इन नेताओं के पाप में भी भागीदार नहीं हैं। इसलिये बजाए उक्रांद पर चर्चा करने के हम उक्रांद के उस कैडर को एकत्रित करने का प्रयास करें जिन्हें इन बेशर्मो ने चौराहे पर ला खड़ा किया है। मैं बांकी बातें फिर करूंगा फिलहाल अपने अनुभव से बता सकता हूं कि आने वाले दिनों में उक्रांद का कोई भविष्य नहीं है। पुरू के हाथियों से सजी सेना कभी युद्ध नहीं जीतती। उक्रांद की सबसे बड़ी त्रासदी है उसके सपनों का मर जाना।

KAILASH PANDEY/THET PAHADI

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There are lot of other things also what we want to hear from Charu Da........

कैलाश भाई मैंने उत्तराखंड क्रान्ति दल के इतिहास के बारे में कहा है अभी इस बात पर नहीं आया हूं कि वह इतने पतित क्यों हुये कि भाजपा के साथ चले गये। इस बात पर भी आउंगा। जैसा कि मैंने पहले भी लिखा है कि उक्रांद के पतन को एक झटके में नहीं समझा जा सकता है। इसे समझने के लिये हमें उसके तमाम उन कारणों और हकीकत को भी समझना पड़ेगा जिसके लिये इसके नेता जिम्मेदार हैं। मैं सिर्फ उक्रांद के बारे में इस बहस मे शामिल नहीं होउंगा बल्कि आंदोलन के उन तमाम कड़वे सच भी आपके सामने रखूंगा जिससे आप चौंकेगे भी और सोचेंगे भी। मैं यह भी बताउंगा कि जब हम लोग मुलायम सिंह यादब के हल्ला बोल का मुकाबला कर रहे थे तब छदम आंदोलनकारी बनकर कौन लोग आंदोलन को तोड़ रहे थे, मैं यह भी बताउंगा कि पहाड़ के गीत-संगीत को विश्व भर में फैलाने का दावा करने वाले एक बड़े संस्कृतकर्मी जिसकी पहाड़ के लोग पूजा करते हैं उन्होंने मुफरनगर कंाड के समय ही प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव से कैसे सम्मान लिया था। और भी लोगों को बेनकाब करेंगे। जहां तक मेरा उक्रांद के साथ संबंध है मैं न तो मौजूदा उक्रांद का प्रवक्ता हूं और न समर्थक। मैने वर्ष 1979 में जब उक्रांद बना था तो उसके बाद इसके पहले अध्यक्ष डा. डीडी पंत, जसवन्त सिंह बिष्ट और विपिन त्रिपाठी को उस समय देखा जब मैं कक्षा नवीं में पढ़ता था। वे राज्य आंदोलन की शुरूआत में निकले थे। उसके बाद मैंने वर्ष 1985 में पार्टी के कार्यक्रमों में भाग लेना शुरू किया। 30 अगस्त 1988 को गढ़वाल विश्वविद्याय के श्रीनगर परिसर में उत्तराखंड स्टूडेंट फेडरेशन का मैं संस्थापक सदस्य रहा। हमारे संयोजक डा. नारायण सिंह जंतवाल थे, जो उस समय छात्र राजनीति के शिखर पर थे। खैर बांकी बात फिर करूंगा। आपके सवालों का विस्तृत जबाव भी दिया जायेगा जो इसलिये जरूरी है क्योंकि किसी विचारधारा या व्यक्ति का विरोध बिना उसे समझे नहीं किया जाना चाहिये। उससे समाज का नुकसान होता है। मैं जब से उक्रांद के कुछ पगलाये सत्तालोलुप लोगों ने भाजपा का दामन थामा है तब से मैं उनका उतना ही विरोधी हूं जितना आप। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उक्रांद का मतलब दिवाकर जैसे नासमझ और काशी सिंह ऐरी जैसे घृतराष्ट बन गये लोग हैं। यह तब भी एक विचार था और आज भी है। गांवों में उक्रांद का एक कैडर आज भी चुप बैठा है। आप इन नये आये गुर्गों को उत्तराखंड क्रान्ति दल न समझें और न ही इनसे पार्टी का मूल्यांकन करे। बांकी बातें फिर.........................


हुक्का बू

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आज उक्रांद का नाम सुनकर हत्थे से उखड़ जाने और भाजपा को सही विकल्प बनाने वालों को सूचना दे दूं कि आपकी भाजापानीत विकासोन्नमुखी सरकार ने उत्तराखण्ड PCS  के अधीनस्थ (एलाइड) पदों का विज्ञापन कुछ दिनों पहले लोक सेवा आयोग के माध्यम से विज्ञापित करवा दिया था।
जिसका उक्रांद के कार्यकर्ताओं ने विरोध किया, पुतले फूंके, सी०एम० आवास घेरा, जहां फार्म बिक रहे थे, वहां पर विरोध-प्रदर्शन और आंशिक तोड़-फोड़ भी की, जिसके फलस्वरुप सरकार ने यह विज्ञप्ति वापस ले ली है और अधीनस्थ चयन बोर्ड बनाने की प्रक्रिया हेतु समिति गठित कर दी है।

अंततः वही हुआ जो होता आया है भाजपा की गुणी और समझदार सरकार ने पद विज्ञापित कर दिये, उक्रांद ने जिसका विरोध किया, विरोध को आम आदमी का सर्मथन मिलते देख भाजपा का आनुषंगिक संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद भी मैदान में आ गया और आज NSUI भी मैदान में है। कैसी विडम्बना है.............।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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i think UKD needs Hanuman who Ji who can sail the boat of UKD.

The old layer of UKD has totally astrayed from the goal.


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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अन्तः में संशिप्त में कहना चाहूँगा :

 १)  उत्तराखंड क्रांति दल में काफी बुद्धिजीवी लोग है जिनका की आपसी इगो के कारण पार्टी का यह हाल है !

२)   जैसा की पार्टी में अधिकतक तर लोग क्रांति कारी प्रवृति के लोग है शायद राजनीतिक ज्ञान का आभाव.

३)   सब को एक साथ ले जाने की भावना में कमी! yaani team work  nahi है

KAILASH PANDEY/THET PAHADI

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Lagta hai ye topic mere liye kewal bahas ban kar hee rah gayi...kyonki jab sikhane kaa time aaya to topic hee band ho gaya..... :(

There are lot of other things also what we want to hear from Charu Da........

कैलाश भाई मैंने उत्तराखंड क्रान्ति दल के इतिहास के बारे में कहा है अभी इस बात पर नहीं आया हूं कि वह इतने पतित क्यों हुये कि भाजपा के साथ चले गये। इस बात पर भी आउंगा। जैसा कि मैंने पहले भी लिखा है कि उक्रांद के पतन को एक झटके में नहीं समझा जा सकता है। इसे समझने के लिये हमें उसके तमाम उन कारणों और हकीकत को भी समझना पड़ेगा जिसके लिये इसके नेता जिम्मेदार हैं। मैं सिर्फ उक्रांद के बारे में इस बहस मे शामिल नहीं होउंगा बल्कि आंदोलन के उन तमाम कड़वे सच भी आपके सामने रखूंगा जिससे आप चौंकेगे भी और सोचेंगे भी। मैं यह भी बताउंगा कि जब हम लोग मुलायम सिंह यादब के हल्ला बोल का मुकाबला कर रहे थे तब छदम आंदोलनकारी बनकर कौन लोग आंदोलन को तोड़ रहे थे, मैं यह भी बताउंगा कि पहाड़ के गीत-संगीत को विश्व भर में फैलाने का दावा करने वाले एक बड़े संस्कृतकर्मी जिसकी पहाड़ के लोग पूजा करते हैं उन्होंने मुफरनगर कंाड के समय ही प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव से कैसे सम्मान लिया था। और भी लोगों को बेनकाब करेंगे। जहां तक मेरा उक्रांद के साथ संबंध है मैं न तो मौजूदा उक्रांद का प्रवक्ता हूं और न समर्थक। मैने वर्ष 1979 में जब उक्रांद बना था तो उसके बाद इसके पहले अध्यक्ष डा. डीडी पंत, जसवन्त सिंह बिष्ट और विपिन त्रिपाठी को उस समय देखा जब मैं कक्षा नवीं में पढ़ता था। वे राज्य आंदोलन की शुरूआत में निकले थे। उसके बाद मैंने वर्ष 1985 में पार्टी के कार्यक्रमों में भाग लेना शुरू किया। 30 अगस्त 1988 को गढ़वाल विश्वविद्याय के श्रीनगर परिसर में उत्तराखंड स्टूडेंट फेडरेशन का मैं संस्थापक सदस्य रहा। हमारे संयोजक डा. नारायण सिंह जंतवाल थे, जो उस समय छात्र राजनीति के शिखर पर थे। खैर बांकी बात फिर करूंगा। आपके सवालों का विस्तृत जबाव भी दिया जायेगा जो इसलिये जरूरी है क्योंकि किसी विचारधारा या व्यक्ति का विरोध बिना उसे समझे नहीं किया जाना चाहिये। उससे समाज का नुकसान होता है। मैं जब से उक्रांद के कुछ पगलाये सत्तालोलुप लोगों ने भाजपा का दामन थामा है तब से मैं उनका उतना ही विरोधी हूं जितना आप। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उक्रांद का मतलब दिवाकर जैसे नासमझ और काशी सिंह ऐरी जैसे घृतराष्ट बन गये लोग हैं। यह तब भी एक विचार था और आज भी है। गांवों में उक्रांद का एक कैडर आज भी चुप बैठा है। आप इन नये आये गुर्गों को उत्तराखंड क्रान्ति दल न समझें और न ही इनसे पार्टी का मूल्यांकन करे। बांकी बातें फिर.........................


kundan singh kulyal

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उत्तराखंड क्रांति दल आज जहाँ पर खड़ी हैं उसके लिए उत्तराखंड की किस्मत जिम्मेदार हैं... उत्तराखंड की किस्मत अच्छी होती तो सायद य़ू के डी का हल इतना बुरा न होता न ही हमारे राज्य का हर फैसला दिल्ली मैं बैठे नेता करते........
जहाँ बात हैं य़ू के डी के पतन का इसके लिए इसके नेता तो जिम्मेदार हैं ही पहाड़ी जनता सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं आज के पहाड़ी अपने पुरजों जैसे सीधे साधे इमानदार मायालु नहीं रहे आज के हमारे पहाड़ी लोग शराबी,जुवारी और मतलबी बन गए हैं
छोटे से छोटा नेता अपने को मंत्री समझाता हैं स्कूल का चौकीदार अपने को प्रिंसिपल समझाता हैं डी एम का चपरासी अपने को डी एम समझाता हैं किसी भी दफ्तर मैं जाओ उस दफ्तर का छोटे से छोटा कर्मचारी अपने को उस दफ्तर का बॉस समझाता हैं जिसको सरकारी नोकरी मिल जाती है वही अपने को सरकार समझाने लगता हैं मेरे अनुभव के हिसाब से आज का पहाड़ी मानुस सबसे ज्यादा अपने पहाड़ियों से काटता हैं एक पहाड़ी कभी भी दुसरे पहाड़ी के बारे मैं भला करने की नहीं सोच सकता हैं जिसके पास थोड़ा पैसा हो जाता हैं ओ पहाड़ मैं नहीं रहना चाहता हैं जब हल्द्वानी देहरादून हरिद्वार टनकपुर कोटद्वार या फिर रुद्रपुर जाकर बस जाता हैं तो फिर ओ अपने को पहाड़ी हु कहने मैं भी शर्म महसूस करता हैं जब पहाड़ी लोग ही पहाड़ को अपना नहीं संझते हैं तो उस पहाड़ की क्षेत्रीय दल को अपना कैसे मानगे हकीकत तो यही हैं जो हमारा हितैसी हैं हम उसके हितैसी नहीं हैं य़ू के डी को छोड़कर कोई भी पार्टी हमारे पहाड़ का भला कभी नहीं चाहंगी
  वैसे अभी भी बहुत सरे लोग लोग हैं जो अपने पहाड़ी होने पर गर्व महशूस करते हैं जरूरत हैं सबको एकमात्र क्षेत्रीय पार्टी य़ू के डी का साथ देने की तभी हमारे पहाड़ी राज्य के किस्मत का फैसला पहाड़ मैं ही होगा न की देहरादून या दिल्ली से......
                                                                                                      जय उत्तराखंड जय भारत

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Daju. thanx for your views.

I think reason behind downfall of UKD is due to ego problem and lock of unity. The major reason its backbone leader like Tripathi etc passed away when party really required their leadership.

उत्तराखंड क्रांति दल आज जहाँ पर खड़ी हैं उसके लिए उत्तराखंड की किस्मत जिम्मेदार हैं... उत्तराखंड की किस्मत अच्छी होती तो सायद य़ू के डी का हल इतना बुरा न होता न ही हमारे राज्य का हर फैसला दिल्ली मैं बैठे नेता करते........
जहाँ बात हैं य़ू के डी के पतन का इसके लिए इसके नेता तो जिम्मेदार हैं ही पहाड़ी जनता सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं आज के पहाड़ी अपने पुरजों जैसे सीधे साधे इमानदार मायालु नहीं रहे आज के हमारे पहाड़ी लोग शराबी,जुवारी और मतलबी बन गए हैं
छोटे से छोटा नेता अपने को मंत्री समझाता हैं स्कूल का चौकीदार अपने को प्रिंसिपल समझाता हैं डी एम का चपरासी अपने को डी एम समझाता हैं किसी भी दफ्तर मैं जाओ उस दफ्तर का छोटे से छोटा कर्मचारी अपने को उस दफ्तर का बॉस समझाता हैं जिसको सरकारी नोकरी मिल जाती है वही अपने को सरकार समझाने लगता हैं मेरे अनुभव के हिसाब से आज का पहाड़ी मानुस सबसे ज्यादा अपने पहाड़ियों से काटता हैं एक पहाड़ी कभी भी दुसरे पहाड़ी के बारे मैं भला करने की नहीं सोच सकता हैं जिसके पास थोड़ा पैसा हो जाता हैं ओ पहाड़ मैं नहीं रहना चाहता हैं जब हल्द्वानी देहरादून हरिद्वार टनकपुर कोटद्वार या फिर रुद्रपुर जाकर बस जाता हैं तो फिर ओ अपने को पहाड़ी हु कहने मैं भी शर्म महसूस करता हैं जब पहाड़ी लोग ही पहाड़ को अपना नहीं संझते हैं तो उस पहाड़ की क्षेत्रीय दल को अपना कैसे मानगे हकीकत तो यही हैं जो हमारा हितैसी हैं हम उसके हितैसी नहीं हैं य़ू के डी को छोड़कर कोई भी पार्टी हमारे पहाड़ का भला कभी नहीं चाहंगी
  वैसे अभी भी बहुत सरे लोग लोग हैं जो अपने पहाड़ी होने पर गर्व महशूस करते हैं जरूरत हैं सबको एकमात्र क्षेत्रीय पार्टी य़ू के डी का साथ देने की तभी हमारे पहाड़ी राज्य के किस्मत का फैसला पहाड़ मैं ही होगा न की देहरादून या दिल्ली से......
                                                                                                      जय उत्तराखंड जय भारत

 

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