ललित भाई, लंबे समय बाद आपसे बातचीत हो रही है। आपके गुस्से को मैं बहुत अच्छी तरह समझ सकता हूं। वह इसलिये कि आपके परिवार का इस पार्टी को बनाने में महत्वपूर्ण योगदान रहा। मैं चाहता तो था कि बिना पार्टी के पतन की बात करते हुये पहले पार्टी की पृष्ठभूमि पर बात करूं लेकिन अब यह भी जरूरी समझ रहा हूं कि बीच-बीच में आप जैसे लोगों के गुस्से में शामिल हो जाउं। जैसा मेहता जी ने लिखा है कि पार्टी मे तीन शीर्ष नेता हैं। ऐसा नहीं है। पार्टी में हमेशा एक ही नेता रहे काशी सिंह ऐरी। जिनके पास समझ थी, जिनके पास आगे चलने की शक्ति थी, जिनका भारी जनाधार था। दिवाकर जैसे लोग अराजक राजनीति की पौंध रहे हैं। ये वे लोग थे जो अपने को फील्ड मार्शल कहते थे कभी एक चूहा भी नहीं मारा। अकल से पैदल और आंदोलन के दुश्मन, जिन्होंने दो बार पार्टी तोड़ी और कभी शिव सेना के साथ तो कभी कांग्रेस के लिये दलाली करते रहे। हां एक समय था जब पहाड़ के गांधी इन्द्रमणि बडोनी, काशी सिंह ऐरी और विपिन त्रिपाठी की त्रिमूर्ति ने इस पार्टी को एक मुकाम तक पहुंचाया। लेकिन सच यह भी है कि इन्होंने कभी एक बड़ा संगठन खड़ा करने की दिशा में काम नहीं किया। पूरे तीस साल चले एक जन आंदोलन को इन्होंने 1994 में भाजपा और कांग्रेस जैसी पहाड़ विरोधी पार्टियों के हाथ में दे दिया। संयुक्त संघर्ष समिति बनाकर सभी लोगों का आंदोलन में घुसने का मौका दिया। यही कारण है कि दिवाकर भट्ट जैसे ोग आज सत्ता की दलाली में लग गये हैं। यदि कांग्रेस की सरकार होती तो तब भी दिवाकर मंत्राी होते। इस चरित्र को समझने की जरूरत है।
खैर, दिवाकर भट्ट की बात तो खमखां में ही आ गयी। वे न तीन में और न तेरह में। मैं इस पतन का सबसे ज्यादा जिम्मेदार काशी सिंह ऐरी को मानता हूं। जिस व्यक्ति को लोग प्रदेश का मुख्यमंत्राी देखना चाहते थे वह भाजपा सरकार की कृपा से एक निगम का चौकीदार बन गया। इससे बड़ी त्रासदी उक्रांद की दूसरी नहीं है। काशी सिह ऐरी पुरू के हाथी हैं जिन्होंने अपनी सेना को खुद रौंदा। ऐरी के अगल-बगल में बैठने वाले तमाम दलाल किस्म के लोग हैं जो ठेका, परमिट और छोटे-बडे कामों के लिये उन्हें इस्तेमाल करते हैं। यहां कार्यकर्ताओं और विचारवान लोगों की कोई हैसियत नहीं है। पार्टी में इस समय जिन पदाधिकारियों की फौज है उन्हें पार्टी कार्यकर्ता तक नहीं जानते। ऐरी की गाड़ी चलाने वाले और उनके लिये सूरती बनाने बाले वाले पार्टी के महामंत्री जैसे पदों पर विराजमान हैं। यह पार्टी के पतन के मुख्य कारणों में से एक है। जहां तक डा. नारायण सिंह जंतवाल का सवाल है, उक्रांद का दुर्भाग्य है कि अजगर की तरह पड़े रहने वाले लोगों को पार्टी का अध्यक्ष बनाया जाता है। ही बात यह है कि उक्रांद में आज उसके मूल कार्यकर्ता नहीं हैं। वे इन नेताओं के पाप में भी भागीदार नहीं हैं। इसलिये बजाए उक्रांद पर चर्चा करने के हम उक्रांद के उस कैडर को एकत्रित करने का प्रयास करें जिन्हें इन बेशर्मो ने चौराहे पर ला खड़ा किया है। मैं बांकी बातें फिर करूंगा फिलहाल अपने अनुभव से बता सकता हूं कि आने वाले दिनों में उक्रांद का कोई भविष्य नहीं है। पुरू के हाथियों से सजी सेना कभी युद्ध नहीं जीतती। उक्रांद की सबसे बड़ी त्रासदी है उसके सपनों का मर जाना।