"क्योँ सूख गया पहाड़ का पानी"
पहाड़ पर जल संकट निवारण हेतु,
वर्षा जल की बूँद-बूँद बचानी होगी,
पहाड़ की पुरातन जल सरंक्षण पद्धति,
उत्तराखण्ड में फिर से अपनानी होगी.
पहाड़ जल के भंडार थे,
उसकी कदर हमने नहीं जानी,
कर रहे मूर्खता आज भी,
सुखा रहे जल स्रोतों का पानी.
घोर अपशकुन हो गया,
पहाड़ पर पी रहे हैण्ड पम्प का पानी,
हो गई प्रकृति कुपित हम पर,
घोर अनर्थ की है ये निशानी.
बांज, बुरांश के वनों में घुसकर,
चीड़ का वृक्ष कर रहा मनमानी,
जलते जंगल इसके कारण,
सूख जाता जल श्रोतों का पानी.
धरती के आवरण हैं वन,
देते हमको हवा और पानी,
लालची इंसान ने लील दिए,
कर दी कैसी नादानी.
धरती का ताप बढ़ गया,
देखना धीरे धीरे और बढेगा,
हवा पानी विहीन होकर,
क्या मानव का अस्तित्वा रहेगा?
देखा मैंने अपनी आँखों से,
पहाड़ के लोग बस रहे नदी किनारे,
प्रदूषित हो रही हैं नदियाँ,
जाकर देखो उनके किनारे.
पहाड़ पर अगर होता,
खेती के लिए भरपूर पानी,
तनिक सोचो! क्यों भागती,
पहाड़ से प्रवास को जवानी.
पहाड़ पर सब जगह,
कब्ज़ा किये हुए है माफिया और ठेकेदारी,
पहाड़ ही बिमार रहने लगा,
कैसे करेगा पूरी जरूरतें हमारी.
प्रोजेक्ट बने व्यय हुआ,
लेकिन! दुर्लभ हो गया आज पानी,
हे पर्वतवासिओं करो प्रयास,
हो गई जो भी नादानी.
रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "ज़िग्यांसु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित ७.४.२०१०)