हवा बुझाएगी पानी की प्यास
शालिनी जोशी
देहरादून से, बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए
खास मशीनें वातावरण में मौजूद आर्द्रता यानी नमी को खींचकर पानी में बदल देंगी.
हवा से पीने का पानी पैदा किया जाएगा. सुनने में ये भले ही अजीब लगे लेकिन उत्तराखंड में ये अनूठा प्रयोग किया जा रहा है.
पेयजल की समस्या से निपटने के लिए प्रदेश में ऐटमॉसफेयरिक वॉटर जेनेरेटर की खास मशीनें लगाई जा रही हैं जो वातावरण में मौजूद आर्द्रता यानी नमी को खींचकर पानी में बदल देंगी.
अमरीकी तकनीक से बनी ये मशीन एक बड़े कूलर की तरह है और इसमें पानी वैसे ही आता हुआ दिखता है जैसे कि दूध के सार्वजनिक बूथ से.
ये प्रयोग उन जगहों में कामयाब होगा जहां वायुमंडल में आर्द्रता की मात्रा 40 से 70 प्रतिशत होगी. प्रतिदिन इससे 500 से 1000 लीटर पेयजल की आपूर्ति हो पाएगी.
उत्तराखंड का पेयजल विभाग फिलहाल प्रदेश के आठ जगहों में पायलट प्रोजक्ट के तौर पर इस प्रयोग को शुरू कर रहा है.
प्रदेश के पेयजल मंत्री प्रकाश पंत कहते हैं, "हमारे यहां ऊँचाई में बसे इलाकों में पानी की काफ़ी किल्लत है, खासतौर पर गर्मियों में. वहाँ ये प्रयोग आसान और टिकाऊ साबित हो सकता है जहां पाइप लगाकर पानी पंहुचाना काफी मुश्किल और मंहगा है."
वातावरण पर असर
इस प्रयोग को लागू करने के पहले वायुमंडल पर इसके संभावित प्रभावों का समुचित अध्ययन होना चाहिए. जब आप वायुमंडल से नमी निकालेंगे तो हवा का संतुलन बदलेगा. दूसरे जलवाष्प भी एक ग्रीनहाउस गैस है और उसके रेडियेशन में भी क्या बदलाव आएगा ये भी देखना होगा
आनंद शर्मा, मौसम विभाग निदेशक, उत्तराखंड
सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के मुताबिक सरकार का दायित्व है कि वो हर नागरिक को प्रतिदिन तीन लीटर पीने योग्य शुद्ध पानी उपलब्ध कराए.
प्रदेश के जल संस्थान में इस परियोजना के निदेशक पीसी किमोठी का दावा है कि ये प्रयोग उस लक्ष्य को हासिल करने में मददगार होगा.
वे कहते हैं, “हमने जांच कराई है और पहाड़ में अधिकांश जगहों पर इसके लिए आदर्श आर्द्रता मौजूद है .हवा से बनने वाले इस पानी की गुणवत्ता भी मानकों के अनुरूप है और बाज़ार में बिकनेवाले बोतलबंद पानी के समान है.”
लेकिन मौसम विशेषज्ञ इस बात को लेकर आशंकित हैं कि तत्काल राहत देनेवाली ये तकनीक जलवायु तंत्र को बिगाड़ न दे.
उत्तराखंड के मौसम विभाग के निदेशक आनंद शर्मा का कहना है,,“इस प्रयोग को लागू करने के पहले वायुमंडल पर इसके संभावित प्रभावों का समुचित अध्ययन होना चाहिए. जब आप वायुमंडल से नमी निकालेंगे तो हवा का संतुलन बदलेगा. दूसरे जलवाष्प भी एक ग्रीनहाउस गैस है और उसके रेडियेशन में भी क्या बदलाव आएगा ये भी देखना होगा.”
पायलट प्रोजेक्ट
हिमालय के पर्यावरण पर काम कर रहे ग़ैर सरकारी संगठन हेस्को के निदेशक डॉ अनिल जोशी की राय है कि विदेशी तकनीक को आयात करने से बेहतर है कि जल प्रबंधन के स्थानीय और परंपरागत तरीकों पर ध्यान दिया जाना चाहिए.
वे कहते हैं, “इस तरह के प्रयोग स्थाई विकल्प नहीं हो सकते. फिर जिस तरह की व्यवस्था में हम काम करते हैं इसकी निगरानी बहुत ज़रूरी होगी कि ये जेनरेटर कहां लगाए जा रहे हैं .पहाड़ का पर्यावरण बहुत संवेदनशील है. नमी मिट्टी और खेती के लिए भी ज़रूरी है और इससे कोई खिलवाड़ नहीं होना चाहिए.”
सरकार का आश्वासन है कि पर्यावरण के प्रति सतर्कता बरती जाएगी और यदि कोई असंतुलन पाया जाएगा तो पुनर्विचार का विकल्प खुला है.
फिलहाल इस परियोजना का ज़ोर-शोर से प्रचार चल रहा है. पिथौरागढ़ औऱ नैनीताल सहित आठ जगहों में पायलट प्रोजक्ट के तौर पर इसे लागू किया जा रहा है और दावा है कि एक महीने के भीतर लोगों को इस तरह से पानी मिलने लगेगा. बहरहाल पानी की कमी से जूझ रहे पहाड़ में लोगों को इसका इंतज़ार है.
साभार-
बी०बी०सी०