चिपको आन्दोलन के कारण ही सरकारें चेतीं, जब विकास के नाम पर सरकारों ने वनों का अंधाधुंध दोहन करना शुरु किया तो सबसे पहले उत्तराखण्ड की जनता ने ही नारा दिया कि "जागिग्यां हम, बिजिग्यां हम, अब नि चललि चोरों कि, घोर अपणा, बन अपणा, अब नि चललि औरों कि" "माटु हमरु, पाणि हमरु, हमरा ही छिन यो बौन बि, पितरों ने लगायूं बन, हमु ने त बचूंण बि"
पहाड़ के वनों और पानी का जब सरकारों ने दोहन शुरु किया और इसकी आड़ में ठेकेदारों ने स्वार्थ प्राप्ति शुरु की तो गौर्दा ने "वृक्षन को विलाप" कविता लिखकर लोगों को जागृत किया इसी की बानगी है कि गिर्दा ने जनगीत लिखा आज हिमाला तुमन कें धत्यूंछौ, जागो-जागो हे मेरा लाल, नि करण दियौ हमरि नीलामि, नि करण दियों हमरो हलाल
पहले तो यह कहा जाता था और सोचा भी जाता था कि १७ विधानसभा सीटों वाले उत्तराखण्ड की उ०प्र० सरकार उपेक्षा करती है और केन्द्र के सामने पैरवी नहीं करती है। लेकिन आज राज्य बन जाने के १० साल बाद हम कहां पर हैं, यह एक यक्ष प्रश्न है। केन्द्र सरकार एक गजट नोटिफिकेशन कर हमारे हक-हकूक खत्म कर देती है, रिजर्व पार्कों और बायोस्फियरों के नाम पर पूरा उत्तराखण्ड रिजर्व कर दिया गया है। सरकारों को पर्यावरण संरक्षण की चिन्ता तो जरुर सालती है, लेकिन उत्तराखण्ड की जनता जो पाषाण काल से ही यहां का हिस्सा रही है, उसके संरक्षण और उसके अधिकारों की उसे कोई चिन्ता ही नहीं है। उत्तरकाशी, चमोली, पिथौरागढ़, चकराता, रामनगर, कालागढ़ आदि क्षेत्रों में इन अव्यवहारिक कानूनों के कारण आज हम एक बिजली का पोल नहीं लगा सकते।
सरकारों को यह भी बताना जरुरी है कि पहाड़ के लोगों ने इतने कठिन भू-भाग, जो अधिकांशतः बर्फ से ढंका रहता था, जो जमीन पथरीली थी, वहां पर अपने परिवार के खाने भर की खेती की जमीन रखकर बाकी हिस्से पर जंगल लगा दिया था। अपने कठोर परिश्रम से उन्होंने इन जंगलों की नींव रखी, इन जंगलों को अपने बच्चों की तरह पाला-पोसा और हमारे कई पीढियों ने इन जंगलों को अपना हिस्सा समझकर इसकी देखभाल की। आज अचानक एक कानून आया और उसने हमारे सदियों के रिश्ते में एक दीवार खड़ी कर दी और एक पतरौल इसकी निगरानी के लिये बिठा दिया।
केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय को यह भी जानना जरुरी है कि जिस जंगल पर मानवीय हस्तक्षेप घटाने के लिये वे धारा १४४ लगाने की बात कर रहे हैं, असल में वह जंगल उत्तराखण्डियों की एक पीढी ने लगाया था और हमारी कई पीढियों ने उसकी देखभाल की। इसके लिये न तो सरकारों में उन्हें कोई प्रोत्साहन दिया था, न किसी एन०जी०ओ० ने फंडिंग।