मुझे याद है जब आरक्षण आन्दोलन की आग दोबारा धधकी और उत्तराखण्ड को २७ % आरक्षण दिये जाने की मांग को लेकर हमारे छात्र आक्रोशित हो रहे थे, उसी समय उत्तराखण्ड के गांधी स्व० श्री इन्द्रमणि बड़ोनी जी पौड़ी में और श्री काशी सिंह ऎरी जी नैनीताल में २७% आरक्षण और पृथक उत्तराखण्ड राज्य की मांग को लेकर अनशन पर बैठे...धीरे-धीरे यह आन्दोलन अपने चरम पर पहुंच गया और उत्तराखण्ड के हर गांव-गांव से आवाज आने लगी "आज दो, अभी दो, उत्तराखण्ड राज्य दो"। उत्तराखण्ड की जनता का यह स्वतः स्फूर्त आन्दोलन था...हम लोग इस समय इण्टर में पढ़ रहे थे, स्कूल का बस्ता किनारे रखकर हम लोग भी आन्दोलन में कूद पड़े.....हमारे शिक्षक भी अपनी नौकरी दांव पर लगा कर आन्दोलन में शामिल हो गये। गांव की औरतों ने खेती-बाड़ी बंद कर दी, सरकारी कर्मचारी सड़को पर उतर आये.....पूरा उत्तराखण्ड आन्दोलनमय हो गया।
महिलायें, बच्चे, कर्मचारी और आम जनता, सबकी आंखों में एक ही सपना कि हमारा नया राज्य बनेगा....फिर हमें दूसरे राज्य में नौकरी की तलाश में नहीं जाना पड़ेगा, हमारी अपनी ही सरकार होगी, हर घर को बिजली, पानी और सड़क मिलेगी, हर हाथ को काम मिलेगा, सुनहरे उत्तराखण्ड के भविष्य का सपना लिये ये लोग प्रशासन की भद्दी-भद्दी गाली, डंडे खाकर भी आन्दोलनरत रहे, प्रवासी उत्तराखंडियों ने भी अपने-अपने स्तर पर आन्दोलन किये, इस सपने को देखकर कि जब हमारा अपना राज्य होगा तो हम क्यों दूसरे शहरों में बेगाने रहेंगे?
प्रशासनिक दमन चक्र भी चलता रहा, लाठी-डंडे के बाद गोली भी खानी पड़ी, कई घरों के चिराग बुझे, कितनों के सिर से मां-बाप का साया उठा और कितनी ही मांगें उजड़ गई....इस दमन के हम लोग यहां तक शिकार हुये कि शांतिपूर्ण आन्दोलन कर रही महिलाओं के साथ बदतमीजी, अभद्रता और अंत में चौराहे (मुजफ्फर नगर कांड) में हमारी मां बहनों के साथ बलात्कार तक किया गया। दमन की सारी सीमायें पार कर दी गईं, ऎसे दमन का उदाहरण तो हिटलर और मुसोलिनी ने भी नहीं दिया कि विरोध कर रही महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया हो। आन्दोलन बदस्तूर जारी रहा.......लम्बे संघर्ष मे बाद ९ नवम्बर, २००० को जब हमारी आंखें खुली तो हमने अपने सपने को बिखरता हुआ महसूस किया, जब हमें उत्तराखण्ड की बजाय उत्तरांचल और गैरसैंण के बदले देहरादून दिया गया। फिर हमारे सपने रोज ही कुचले जाने लगे.....शराब, खनन माफिया ही हमारे नीति नियंता बनने लगे, बार-बार हमारी ही आंखों के सामने वह हमारे सपने को तोड़ने, धमकाने और कुचलने लगे...और हम लोग विवश होकर अपने सपनों को रोज टूटते और अब दम तोड़ते देखने के आदी होते रहे.....और अब तो हमने सपने देखने ही बंद कर दिये हैं, क्योंकि सपने सच नहीं होते और अगर कोई हमारे सपने को हमारे सामने ही रोज कुचले और हम कुछ न कर पायें तो रोना आता है, धौंकार (आक्रोश...लेकिन कुछ न कर पाने की विवशता) आता है।
हां....! सपना ही था, एक सपना ही था, उत्तराखण्ड राज्य हमारे लिये और हम यह भूल गये कि सपने को कभी पूरे ही नहीं होते हैं, इसलिये मैंने अब सपने देखने बंद कर दिये हैं।