क्या यही है हमारे सपनों का उत्तराखंड, उत्तराँचल ?
हमारे कई बरसों के त्याग और बलिदान देने के बाद हमने 9 नवम्बर 2000 मैं हमने अपना पिर्थक राज्य पाया है 1 जनवरी २००७ को हमने !स्थानीय लोगों की भावनाओं को ध्यान मैं रखे हुए,
उत्तराखंड का नाम उलट पलट कर उत्तराँचल रख दिया !आज जबकि उत्तराखंड एक अलग राज्य बन गया है जिसका हमे बरसों से सपना देखा था,आज उत्तराँचल को अलग राज्य बने हुए नौ साल होने जा रहे हैं लेकिन विकास के नाम पर तो अभी भी उत्तंचल एक राज्य नहीं लगता है !
अलग राज्य का सपना हमने देखा था की पहाडों का और पहाडों मैं राणे वाले लोगों का विकास हो लेकिन अभी तक इन नौ सालों मैं विकास के नाम पर विनास ही ज्यादा नजर आ रहा है,
पहाडों मैं रहने वाले लोग आज भी विकास के लिए तरस रहे हैं और विकास नामक उस लालटेन के उजाले का इन्तजार कर रहे हैं जिसको पाने के लिए हमने एक सुन्दर सा प्यारा सा सपने देखा था की हमारा भी एक घर हो
इन पहाडों मैं रहने वाले बच्चे आज उन रास्तों के किनारे बैठ कर सपने देखते हैं कि:-कब आएगा ओ दिन जिस दिन हम इन्नी रास्तोंकि जगह पर सड़कें देखेंगे और कब हम उन सडको पर पैदल चले कि वजाय बसों मैं स्कूल जायेंगे ,
क्या ये इन बच्चों का सपना सपना ही रहेगा या ये बचे भी एक दिन इन पहाडी रास्तों पर पैदल चलने कि वजाय स्कूल कि बसों मैं सफ़र करेंगे!उत्तरांचल राज्य गठन होने के बाद सहरों कस्बों और कुछ हद याक गावों के स्कूल और शिछा के माद्यम मैं कुछ हद तक विकास हुवा है,
पर्वतीय भागों मैं आजकल अछे स्कूल खुल गए हैं लेकिन आज भी उन पहाडों मैं जीवन ब्यतीत करने वाला एक गरीब आदमी अपने बच्चों को उन पब्लिक स्कूलों मैं नहीं पड़ा सकता है,उत्तराँचल के पहाड़ी छेत्रों के विद्यार्थी अपने घरों से ४- ५ किलोमीटर राज पैदल जाते हैं और ये उनका रोज का आना जाना होता है !
क्योंकि गरीब पहाड़ी परिआरों के पास और कोई चारा भी नहीं है वे अपने बचों को पब्लिक स्कूलों मैं पढ़ा सकें , यही कारण है कि पहाडों मैं रहने वाले बचों को हमेशा ४-या ५-किलोमीटर दूर जाना पड़ता है पड़ने के लिए ,प्रदेश कि राज्य सरकार का अर्थ एवं संख्या विभाग का आंकड़ों के अनुसार उत्तराँचल मैं आज भी गरीबी रेखा से नीचे जीवन ब्यतीत करने वाले परिवारों कि संख्या लगभग ७ लाख तक पहुच गयी है!
आपको सायद याद होगाजब उत्तराँचल राज्य का गठन हुवा था तो उस समय उत्तराँचल मैं ३ लाख ७५ हजार गर्रेब परिवार थे जो कि अब बड़कर दुगुनी हो गयी है ,
अब तो लगत है कि ये उत्तराँचल अलग राज्य का सपना,देखना ही उन गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों को ह भारी पड़ा है, आज भी देवभूमि मैं कुछ ऐसे गाँव हैं जहाँ के लोगों को एक लोटा पानी भी अन्सीब नहीं होता और बिजली तो दूर कि बात है इन गांवों मैं जीवन ब्यापन करने वाले लोंगों आज भी कोसों दूर जाना पड़ता है सिर्फ एक बंठा पाणी के लिए और उजाले के नाम पर तो भगवान् ही मालिक है!
और उत्तरांचली कि सरकार के आंकडे बताते हैं कि उनहोंने तो बहुत ही भंयंकर विकास किया है उत्तराँचल मैं लेकिन ये सब कागजी बातें है जो कि अगर कागज़ नामक चश्में को पहनकर पडा जाय तो ही अछि लगती हैं , आज भी मुझे याद जब मैं १२ वीं कच्छा मैं पड़ता था तो,
उस समय मुझे एक कागज़ कि जरूरत थी उस कागज़ का नाम थ (मूल निवास प्रमाण पत्र) लेकिन इसको बनाने के लिए मैंने कितने धक्के खाए थे वो मैं ही जानता हूँ और वो प्रधान जी जानते होगें जिन्होंने मुझे प्रधान कि मोहर लगाने के लिए, आज कल आजकल करके खूब घुमाया उनका मतलब था कि वही रिस्पत खाना !
आज भी अगर आपको, किसी प्रमाण पत्र पर जिलाधिकारी कि मोहर लगवानी हो तो , आपको उसके बाबू को रिस्पत देनी पड़ेगी और वो है एक अंग्रेजी दारु कि बोतल और ५००० रूपये नगद देने पड़ते हैं