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History Of Uttarakahnd Cinema - उत्तराखंड के फिल्मो का इतिहास

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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:


After these stunning start, Uttarakhandi Cinema could not progress at the desired level. There is no Cinema Hall in various District of Uttarakhand even as of now.


--- Quote from: Anubhav / अनुभव उपाध्याय on July 30, 2008, 04:22:12 PM ---Source: http://cinema.prayaga.org/jagwal/

jagwal

Jagwal premiered on May 4th, 1983 at Mavalankar Hall in Delhi. Almost ten years in the making, the film inaugurated Uttarakhandi regional cinema and opened the doors for other budding filmmakers of the era. Stillshots and film reviews have been compiled below from Parashar Gaur’s personal archives.



--- End quote ---

Mukul:
yeh bahut important information hai..
es information kai iya thanks....

Bhishma Kukreti:
 गढ़वाली एनिमेसन फ़िल्में

            (गढ़वाली-कुमाउनी  फिल्म विकास पर  विचार विमर्श )
 
                                      भीष्म कुकरेती

    एनिमेसन मूविंग फिल्मों का इतिहास नया नही है
   आधिकारिक तौर पर सन 1917  में बनी अर्जींटिनियाइ कुरेनी क्रिस्टिआणि निर्देशित  फीचर फिल्म 'अल पोस्टल '  प्रथम एनिमेटेड फिल्म है.
 जहाँ तक एनिमेटेड गढ़वाली फिल्मों   का  प्रश्न है इस पार ना के बराबर ही काम हुआ  है I
गूगल सर्च से पता चलता है कि गढवाली की प्रथम एनिमेटेड फिल्म पंचायत (1913)  है .  यह चार  मिनट की एनिमेटेड फिल्म  है
ऐसा लगता है कि यह फिल्म या तो डब्ड फिल्म है या ऐसे ही बना दी गयी है. इसके पात्र अमिताभ बच्चन , शाहरुख़ खान , सलमान खान , सन्नी देवल आदि हिंदी के अभिनेता हैं और आवाज भी इन्ही  जैसे है. वातावरण और मनुष्य भी मैदानी हैं. भाषा छोड़ कहीं से भी यह फिल्म गढ़वाली नही लगती है.
 आधिकारिक तौर पर असली गढवाली वातावरण और संस्कृति  वाली गढ़वाली एनिमेटेड फिल्म ' एक था गढवाल' (2013)  है. ' एक था गढवाल' दो मिनट की गढवाली फिल्म है और गाँव में  पलायन की मार झेलती एक बूढी बोडी-काकी  की कहानी  है . फिल्म काव्यात्मक शैली या गीतेय शैली में बनाई गयी है. एनिमेटर या एनिमेसन रचनाकार भूपेन्द्र कठैत ने  अपनी कल्पनाशक्ति और तकनीकी ज्ञान का परिचय इस फिल्म में दिया है. फिल्म अंत में एक कविता की कुछ पंक्तियों से खत्म होती हैं-
बांजी पुंगड़ी उजड्याँ कूड़
अपण परायुं को रन्त ना रैबार
ऊ माँ को झर झर  सरीर
आर आंखुं मा आस
क्वी त आलो कभी
त होली इगास
 संगीत व कला से गढवाल के बिम्ब बरबस दर्शक के मन में आ जाते हैं . अंत में गढवाल में रह रही महिला के प्रतीक्षारत आँखें आपको भी ढूंढती है और पूछती है कि आप कहाँ हैं क्यों नही इगास मनाने गाँव आते हो.
बमराड़ी (बणगढ़, पौड़ी  गढ़वाल ) के भूपेन्द्र कठैत प्रशंसा के अधिकारी हैं जिन्होंने गढवाली एनिमेसन फिल्मों को एक कलायुक्त रचना बनाने की भली कोशिस की . भूपेन्द्र कठैत को कोटि कोटि साधुवाद !
 
 Copyright@ Bhishma Kukreti 25/7/2013

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
from :urmil negi
मित्रों "घरजवैं" की अपार सफलता के तुरंत बाद जो दूसरी फिल्म आई थी वो थी "कौथीग", जो उत्तरखंडी फिल्मों के इतिहास में एक मील का पत्थर है. इसी फिल्म के लिये मुझे राष्ट्रीय स्तर पर सर्वश्रेषठ अभिनेत्री का कलाश्री अवार्ड भी मिला था।
मित्रों इसी फिल्म का खलनायक सुरतुलाला " बलदेव राणा " अपने अभिनय की अमिट छाप छोड्कर घर घर में मशहूर हो गया था . उस फिल्म में मैने रामदेई का किरदार निभाया था जो मेरे दिल के अत्यंत करीब है, लेकिन अफसोस उस फिल्म में "सुरतुलाला" और "रामदेई" का कोई दृश्य साथ में नहीं था जिसका मलाल हम दोनों को था , लेकिन नियति ने एक फिल्म का बनना तय कर रखा था " सुबेरो घाम", जिसमें आप कई दृश्यों में हमें साथ - साथ देख पायेंगे. उन्ही दृश्यों की एक तस्वीर आपके साथ share कर रही हूँ
Watch trailor on https://www.youtube.com/watch?v=yk4ewX9u03A
— with Mahipal Negi

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:


देवभूमि में बे-लगाम मद्यपान की बेड़ियो में जकड़े पुरुषों पर एक माँ की ममता का जोड़दार तमाचा .... फिल्म - "सुबेरौ घाम "

समीक्षक : राकेश पुंडीर -मुंबई

१९५७ में महबूब खान की एक फिल्म आयी थी "मदर इडिया " जिसने भारत के गॉवो की लगान प्रथा को प्रखर तरीके से पेश किया गया था आज भी उस फिल्म को हिंदी सिने जगत का माइल स्टोन का ख़िताब प्राप्त है। कुछ इसी प्रकार आज देवभूमि की सबसे बड़ी सामाजिक समस्या मदिरापान है। तीज त्यौहार हो , जन्म हो या मरण, खेल या कौथिग हो , फेल हो पास हो , चपड़ासी हो या साब हो चारो तरफ मदिरा का बोलबाला है इस कारण कई माताओ की कोख सुनी हो चुकी है कई सुहाग उजड़ जाते हैं और कई गृहस्थियाँ बर्बाद हो जाती हैं। कभी कभी बड़ी कोफ़्त होती है की क्या हम उस धरती के ही निवासी है जिसे संपूण भारत में देवभूमि के नाम से जाना जाता है। आज हम किस दशा में हैं और किस दिशा की और जा रहे है। सूर्य अस्त और पहाड़ मस्त , आज यह उक्ति भारत में सिर्फ उत्तराखंड के लिए ही प्रयुक्त की जा रही है।

निर्मात्री उर्मि नेगी ने इस फिल्म में एक माँ की ममता, स्नेह और मर्म को इस बाकाल समस्या से जोड़कर बहुत प्रबल और प्रखर तरीके से उजागर किया है कहानी के ताने बाने को इतने सुंदर ढंग से पिरोया गया है की सवा दो घंटे की फिल्म में कही भी नहीं लगता कि कुछ स्लिप हो गया हो। एक के बाद एक घटनाओ को इसकदर शानदार परिकल्पनात्मक ढंग से अलंकृत किया गया है की अलग अलग रंग होने के बाबजूद भी कहानी एकसूत्र में बंधी नजर आती है। चाहे पांडव वार्ता के नाटकीय दृश्य में अभ्युमन्यु का चक्रव्यूह में फंसकर बध का दृश्य हो या नायिका का अपने पुत्र को गॉव से दूर बारात में भेजने का दृश्य हो। गॉव में दारू जैसी भीषण समस्या से लड़ते नायक का खलनायक की सटीक चालो में फंस जाना कुछ ऐसे सीन हैं जिन्हे हिर्दयस्पर्शी ढंग से फिल्माना कुशल पटकथा और कुशल निर्देशन का कमाल ही कहा जा सकता है , साथ ही समाज को सन्देश देती इस फिल्म में पहाड़ की परम्पराओ के अनछुए पहलुओ को बहुत ही बारीकी से प्रस्तुत किया गया है .

कहानी में नायिका के विवाह के १६ वर्षो बाद माँ भगवति की कृपा से पुत्र प्राप्त होता है नायक फ़ौज से सुवेदार पद से रिटायर हो गाॉवं आता है दोनों आधेड अपने सात -आठ वर्षीय पुत्र के उज्ज्वल भविष्य की कल्पना करते हुव बड़े लाड प्यार से उसका लालन पालन करते हैं परन्तु अचानक ही घटनाये ऐसा मोड़ ले लेती हैं जिसकी कल्पना मात्र की जा सकती हैं। (पूरी कहानी तो फिल्म देखने पर ही पता चलेगी)

कहते है की चावल जितने पुराने हो बनने पर उतने ही चटकदार और स्वादिष्ट होते है। यह लोकोक्ति इस फिल्म के कलाकारों पर सटीक बैठती है लगभग तीन दशक पूर्व के इन सभी कलाकारों का श्रेष्ठ अभिनय ही फिल्म की जान है। उर्मि नेगी ने नायिका प्रधान फिल्म में माँ के ममत्व व् मर्म को इतना बेहतरीन ढंग से अभिनीत किया की हॉल में महिलाओ की सिसकियाँ सुनाई पड़ती हैं । यदि अन्हे इस फिल्म के लिए किसी प्रबुध्द दर्शक ने "मदर उत्तराखंड " कहा तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं . नायक बलराज नेगी ने एक बार फिर से घरजवैं फिल्म की याद दिल दी उनकी शानदार अदायगी और दमदार आवाज आज और भी बेहतरीन लगती है। खलनायक के रोल में बलदेव राणा का आज भी उत्तराखंड फिल्म इडस्ट्री कोई सानी नहीं. इस फिल्म में उन पर हास्य खलनायकी का नया प्रयोग किया गया है इस कसौटी पर भी वे खरे उतरे हैं और एकबार फिर दशर्को पर अपनी अभिनय क्षमता की अमिट छाप छोड़ी है। घाना नन्द भाई कॉमेडी के महारथी हैं इस फिल्म में भी उन्हेंने अपनी हास्य भूमिका के साथ भरपूर न्याय किया . मीर रंजन नेगी जी के लिए फिल्म में ज्यादा स्कोप नहीं था और शायद संवाद अदायगी का उनका पहला मौका था जिसे उन्होंने सन्तोषपूर्ण निभाया ।
फिल्म की एक विशेषता यह है की सभी मुख्य और सह कलाकरो ने संवाद अदायगी बिलकुल शुध्द ठेठ गढ़वाली भाषा में की। जिसे दर्शको ने बहुत पसंद किया . वस्त्र सज्जा का विशेष ध्यान रखा गया है पत्रो को ठेठ पहाड़ी पोषक में देख अपनेपन का एहसास दिलाता है .
गीत संगीत नरेद्र सिह नेगी जी का है उनके दवरा गया एक कर्णप्रय गीत " करली नजर तेरी मारिगे " बहुत ही लाजबाब है जो प्रथम बार सुनने में ही हिरदय में घर कर जाता है। अनुराधा जी की कर्णप्रिय आवाज सदैव की तरह सदाबहार और शानदार है .

उच्चस्तर का छायांकन (फोटोग्राफी) फिल्म की विशेषता है कुछ दृश्यों को देख लगता है की हम हिमालय की गॉद में बैठ फिल्म देख रहे हैं . छायाकार विनोद विस्वाश उत्तम छायांकन हेतु साधुवाद के पात्र हैं

फिल्म का निर्देशन चक्रचाल और बँटवारु जैसी सुपरहिट फिल्मों के निर्देशक नरेश खन्ना जी ने दिया है जो हिंदी सिरयलो के निर्देशक भी है यह उनके निर्देशन का ही कमाल है की कुछ सीन दर्शको को भवुक कर जाते हैं और दर्शक दीर्धा बैठे कुछ दर्शक आँखों में आई नम बदली को हटाने का प्रयास करते दिखयी दिए।

कथा - पटकथा और सवाद उर्मि नेगी द्वार लिखा गया है इसमें कोई शक नही की जब ये तीन गुण एक ही व्यक्ति के पास हो तो फिल्म की गुणवत्ता में वृद्धि होना स्वबाविक है वे वास्तव में साधुवाद की पत्र है की कई वर्षो के पश्चात कोई उत्तराखंडी फिल्म निर्माण हुई जिसे एक बार फिर से देखने की इच्छा जागृत हो रही है।

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