फिल्म समीक्षा
'राजूला' - लीक से हटकर नया प्रयोग
समीक्षक - डा. राजेश्वर उनियाल
[justify]निर्माता प्रियंका चंदोला व रमा उप्रेती, निर्देशक श्री नितिन तिवारी तथा श्री मनोज चंदोला व श्री मुकेश खुगशाल जी की टीम ने उत्तराखण्डी फिल्म निर्माण के क्षेत्र में लीक से हटकर काम किया है एवं एक संदेश भी दिया है कि अगर हम चाहें तो साफ-सुथरी और अच्छी फिल्म भी बना सकते हैं । इस हेतु हम उनकी प्रशंसा करते हैं । इसी के साथ बहुत समय बाद उत्ताराखण्डे की ऐसी कोई फिल्मी बनी है, जो कि समीक्षा करने के योग्य है- इस हेतु भी निर्माता-निर्देशक बधाई के पात्र हैं । परन्तु जिस प्रकार से बिना मालूशाही के राजूला शब्द अधूरा लगता है, ठीक उसी तरह से हिमाद्री प्रोडक्शन की राजूला फिल्म, अधूरी कहानी के साथ प्रदर्शित की गई अधूरी फिल्म् लगती है । अच्छी पटकथा के अभाव में हम एक अच्छीख फिल्म देखने से वंचित रह गए हैं । राजूला मालूशाही उत्तराखण्ड के लोक-जीवन की ठीक वैसी ही प्रेम कहानी है, जैसा कि पंजाब के लिए लैला-मजनू, हीर-रांझा या सोहिणी-महिवाल है । राजूला नाम सुनते ही हर उत्तराखण्डी के मन में प्रेम-रण की अनेकों लोक कथाओं व गाथाओं की अनुभूति होने लगती है । परन्तु इस राजूला फिल्म को देखकर दर्शकों को अंत तक पता नहीं चलता है कि आखिर निर्माता-निर्देशक दिखाना क्या चाहते हैं । फिल्मल का नायक रवि राजूला पर फिल्म बनाने हेतु उत्तराखण्ड आता है । वह हर उस स्थान पर जाना चाहता है जहां राजूला मालूशाही का प्यार पनपा था । इसी दौरान उसकी मुलाकात एक लड़की से हो जाती है, जिनकी प्रेमकथा राजूला-मालूशाही की प्रेमगाथा को ओवरटेक कर जाती है । इसी के साथ जागर दिखाने के बहाने नायक के मां-बाप की बासी कहानी भी परोसी गई है । लेकिन पुरातात्विक विषयों पर डाक्यु्मेंटरी फिल्म बनाने और किसी लोकगाथा या ऐतिहासिक प्रेम-प्रसंग पर फिल्म बनाने में जो अंतर होता है, वह अंतर इस फिल्म के निर्माता-निर्देशक शायद समझ नहीं पाए । फिल्मे में तीन कहानियों का एक साथ और समान रूप से चलने के कारण यह पता ही नहीं चल रहा था कि मुख्य कहानी कौन सी है । अब फिल्म का शीर्षक यदि राजूला है तो स्वाभाविक है कि मुख्य कहानी राजूला-मालुशाही की ही होनी चाहिए थी, जो कि इस फिल्म में गौंण सी हो गई है । अगर इस फिल्म में गाने नहीं होते तो इसे डाक्यूमेंटरी फिल्म ही कहा जाता । फिल्मि में कई जानकारियां संवाद की जगह कामेंटरी के माध्य म से दी गई है, जैसे कि नाटकों में सूत्रधार होते हैं । अच्छाध होता कि पटकथाकार इन जानकारियों को अपने पात्रों से बुलवाता । तकनीकी पक्ष से फिल्म अच्छी है । पहाडों के सुंदर दृश्य सुंदरता के साथ दिखाए गए हैं । करण शर्मा ने नायक की भूमिका अच्छीर तरह निभाई पर वह मालूशाही में उतना प्रभाव नहीं छोड पाए । इसी तरह अच्छाम होता कि नायिकाएं भी दो होती, एक कहानी की अभिनेत्री और दूसरी राजुला । गीत-संगीत साधारण हैं, परन्तु जैसा कि आम उत्तराखण्डी फिल्मों में होता है कि जो निर्माता-निर्देशक होते हैं, अधिकतर लेखक, गीतकार व कई बार तो गायक व कलाकार तक भी वही होते हैं । उन्हें लगता है कि जब खर्चा हम कर रहे हैं, समय हम लगा रहे हैं तो गीत, संगीत, कहानी व अभिनय औरों से क्यों कराएं । हम हैं ना । हम नहीं तो हमारे परिवारजन, मित्रगण बस, ज्यादा दूर क्यों जाएं । यह फिल्म भी इसी गरिमा के साथ प्रदर्शित की गई लगती है । अगर निर्माता निर्देशक इस मोह-संवरण से बचते तो हमें अच्छे गीत व सटीक कहानी तथा पटकथा के साथ एक अच्छीे फिल्मप देखने को अवश्य मिलती । नए-नए प्रयोग करना अच्छी बात ही नहीं, बल्कि साहस की भी बात होती हैं । साहित्य में, गीत में, संगीत में व कहानी में नित नए प्रयोग होते रहते हैं । राजूला भी एक तरह से नए प्रयोग की फिल्म है । यह उत्तराखण्ड की पहली डिजिटल फिल्म है, जिसे कि पीवीआर में प्रदर्शित किया गया है । इस हेतु निर्माता-निर्देशक अवश्य ही बधाई के पात्र हैं । परंतु नए प्रयोग करते समय फिल्म निर्माताओं को यह जरूर देखना चाहिए कि वह इस फिल्म को किस वर्ग के लिए बना रहे हैं । अगर यह फिल्म राजूला पर ही केन्द्रित होती तो निश्चित रूप में यह राष्ट्रीय स्तर पर धमाल मचा सकती थी, पर राजूला नाम को भुनाते हुए एक साधारण प्रेम कहानी पर आधारित यह फिल्म केवल जागर, सुश्री मोना भट्ट की मधुर आवाज एवं श्री हेमंत पाण्डेय जी के किरदार के सहारे कितनी चल पाएगी एवं उनकी मेहनत कितना रंग लाती है, कहना मुश्किल है । फिल्मों में अवार्ड पाना और दर्शकों के बीच हिट होने में बहुत अंतर होता है। शायद इस बात को निर्माता-निर्देशक समझ नहीं पाए । हां, फिल्म हिन्दी में होने के कारण हो सकता है कि गैर उत्तराखण्डी और विशेषकर नए विषयों पर फिल्म बनाने वाले मुंबइया निर्माताओं को यह फिल्म अच्छी लगे और कल कहीं कोई राजूला मालूशाही पर भव्य फिल्म बना दे, तो उसका श्रेय निश्चित रूप से इस टीम को भी जाएगा । फिर भी मैं इतना अवश्यन कहूंगा कि जितनी मेहनत इस टीम ने फिल्मो के प्रमोशन व प्रचार-प्रसार में किया, अगर उसकी एक तिहाई मेहनत भी इसको बनाने से पहले इसकी कहानी पर की गई होती तो उत्तराखण्ड के दर्शकों को एक अच्छी फिल्म देखने को अवश्य मिलती । फिर भी पहाडों से दूर बसे पहाड़ीजन अगर जागर को अच्छी तरह से देखना चाहते हों तो राजूला अवश्य देखें ।
समीक्षक - डा. राजेश्वर उनियाल, मुंबई
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