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Should there be an exclusive TV Channel for Uttarakhand

There should be a Whole time channel
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There should be aPart time channel
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There should be no channel for Uttarakhand
0 (0%)
Existing channels should give more time to Uttarakhand
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Author Topic: Uttarakhand Film Industry - कब बनेगी उत्तराखंड की फ़िल्म इंडस्ट्री एव टीवी चैनल  (Read 79652 times)

R.K.Verma

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Friends ! The first Indian film Raja Harish Chand, produced by Father of Indian Cinema -Dada Saheb Phalke was released on 3rd May 1913. We are entering the 100th year, a few days after. On this occasion I convey my regards to all veterans of Indian cinema and request you all to come forward for development of cinema in Uttarakhand. I will again request you all to  unite and put a strong pressure over the present government. -Dr.R.K.Verma

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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I endorse Dr R K Verma's views that Uttarkahand Music fraternity people should unite and fight for a regional film industry. At present UK's music Industry is passing through a tough patch as the revenues are very low. The future of many artiest is at stake. 

Friends ! The first Indian film Raja Harish Chand, produced by Father of Indian Cinema -Dada Saheb Phalke was released on 3rd May 1913. We are entering the 100th year, a few days after. On this occasion I convey my regards to all veterans of Indian cinema and request you all to come forward for development of cinema in Uttarakhand. I will again request you all to  unite and put a strong pressure over the present government. -Dr.R.K.Verma

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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This is a gud news.. but uttarakhand need a regional film industry.



एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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 फिल्म उद्योग की नाकामी को सरकार जिम्मेदार U            फिल्म उद्योग की नाकामी को सरकार जिम्मेदार
   जागरण संवाददाता, ऋषिकेश :
 विवाह बंधन में बंधने के बाद छोटे पर्दे के मशहूर कलाकार सूरज थापर व दिप्ती ध्यानी इन दिनों तीर्थनगरी की सैर पर हैं। शिवपुरी में बीच कैंपिंग का लुत्फ ले रहे नवदंपति ने उत्तराखंड में फिल्मों के लिए अपार संभावनाएं बताई। उन्होंने कहा कि उत्तराखंड में फिल्म उद्योग की नाकामी के लिए राज्य की सरकारें जिम्मेदार हैं।
 पिछले सप्ताह ही छोटे पर्दे के कलाकार सूरज थापर व दिप्ती ध्यानी विवाह बंधन में बंधे हैं। तीर्थनगरी की सैर पर निकले नवदंपति ने रविवार को शिवपुरी में बीच कैंप में गुनगुनी धूप का आनंद लिया और गंगा में राफ्टिंग का लुत्फ उठाया। उल्लेखनीय है कि अभिनेत्री दिप्ती ध्यानी देवप्रयाग के राणाकोट गांव की मूल निवासी है और यहां शिवपुरी में उनकी करीबी रिश्तेदार किरन भट्ट टोडरिया अपनी राफ्टिंग कंपनी संचालित करती हैं। शिवपुरी बीच कैंप पर पत्रकारों से मुलाकात के दौरान सूरज थापर व दिप्ती ध्यानी ने अपने अनुभव साझा किए। दिप्ती ने बताया कि वह उत्तराखंड में ही रहकर अपना कैरियर बनाना चाहती थी। दो गढ़वाली फिल्मों में भी मुख्य भूमिका उन्होंने निभाई। मगर, उत्तराखंड में जब आगे बढ़ने की कोई राह न मिली तो मायानगरी का रुख करना पड़ा। थोड़ी मेहनत के बाद धर्मवीर और चंद्रगुप्त जैसे लोकप्रिय धारावाहिक में काम करने का मौका मिल गया। उन्होंने कहा कि उत्तराखंड में सरकारी स्तर पर फिल्म उद्योग तथा प्रदेश की समृद्ध संस्कृति के उत्थान के लिए कोई प्रयास नहीं किए गए। उत्तराखंड में फिल्म और धारावाहिकों के लिए तमाम विषय वस्तु हैं। मगर, उन्हें गंभीरता से नहीं लिया गया। चाणक्य, ससुराल गेंदा फूल, चंद्रगुप्त मौर्य सहित दर्जनों धारावाहिकों में अभिनय कर चुके सूरज थापर ने उत्तराखंड की खूबसूरती की प्रशंसा करते हुए कहा कि जितनी खूबसूरत यहां की वादियां हैं उतनी ही खूबसूरत यहां के लोग भी हैं। उन्होंने बताया कि भविष्य में यहां काम करने और उत्तराखंड की खुबसूरत वादियों को पर्दे पर उतारने का मन है।
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 'चंद्रगुप्त मौर्य' बनी मिलन की कड़ी
ऋषिकेश: एक दूजे के हो चुके छोटे पर्दे के स्टार सूरज व दिप्ती ने अपने मिलने के अनुभव भी मीडिया से साझा किए। दिप्ती ने बताया कि धारावाहिक 'चंद्रगुप्त मौर्य' की शूटिंग के दौरान वह एक-दूसरे के करीब आए थे। धारावाहिक में वह चंद्रगुप्त मौर्य की मां का किरदार निभा रही थी और सूरज थापर धारावाहिक में चंद्रगुप्त मौर्य का दुश्मन था। धारावाहिक में सूरज थापर ही दिप्ती ध्यानी को पहाड़ी से फेंक कर मार डालता है। दिप्ती ने बताया कि शूटिंग के दौरान उसकी तबियत बिगड़ गई थी। कई दिनों तक बेड रेस्ट पर रही और इस दौरान सूरज ने उनका काफी साथ दिया। तभी उन्होंने जीवन भर के लिए एक-दूजे का साथ निभाने का निर्णय लिया

(Dainik jagran)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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उत्तराखंड फिल्म असोसिएसन                                                                                      भीष्म कुकरेती          सन १९ ८ ३ में प्रथम जग्वाळ फिल्म  प्रदर्शित होने के बाद गढ़वाली -कुमाउनी फ़िल्में बनने का सिलसिला शुरू हुआ। फिर फिल्मों के रचनाधर्मियों को संगठित कर काम करने की भी आवश्यकता महसूस हुयी। इसी आवश्यकता पूर्ति हेतु सन २००१ में देहरादून में उत्तराखंड फिल्म असोसिएसन की नींव पड़ी जिसके अध्यक्ष श्री एस . पी . एस नेगी को बनाया गया. श्री एस . पी . एस नेगी ही वर्तमान अध्यक्ष हैं। इस संगठन में निर्माता, निर्देशक, लेखक कलाकार, गीतकार, स्म्गीत्कार, सम्पादक व अन्य तक्नीसियन हैं।    उत्तराखंड फिल्म असोसिएसन  देहरादून के कई उद्दयेश हैं सर्वप्रथम उद्देश्य उत्तराखंड फिल्म उद्यम का सुचारू रूप से विकसित करना हैफिल्म विकास सम्बन्धी सृजान्त्म्क कार्यों को सम्पादन करना फिल्म उद्यम विकास को संबल देने हेतु सृजान्त्म्क कार्यों का सम्पादन  अन्तराष्ट्रीय व राष्ट्रीय फिल्म-कर्मियों व रंगकर्मियों की संगोष्ठी करना जिससे आवश्यक सुचना व ज्ञान का प्रभाव हो सके और उत्तराखंडी फिल्म उद्यम की बातें अन्तराष्ट्रीय मंचो पर हो सके उत्तराखंड फिल्म असोसिएसन यह बात जानता है कि क्षेत्रीय फ़िल्में उत्तराखंड पर्यटन को विकसित करने में सहायक होंगी और इसी मुड़े को मद्दे नजर रख असोसिएसन राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय फिल्म निर्माताओं-निर्देशकों  के साथ सूचना आदान प्रदान कर उन्हें  उत्तराखंड में फिल्म निर्माण के लिए प्रेरित करता है .  राष्ट्रीय अथवा अन्तराष्ट्रीय फिल्मो की शूटिंग उत्तराखंड में होने से स्थानीय कलाकारों व तकनिसियनो को काम ही नही मिलता अपितु नई तकनीक का भी ज्ञान व अनुभव मिलता है।     उत्तराखंड फिल्म असोसिएसन   उत्कृष्ट कार्य करने के लिए निर्देशकों, कलाकारों, लेखकों, संगीतकारों  व तकनीसियनो को समय समय पर सम्मान करता है और उन्हें प्रेरित भी करता है।  उत्तराखंड फिल्म असोसिएसन   अपना सांस्कृतिक दल देस विदेस भेजता है जिससे सांस्कृतिक व तकनीकी ज्ञान का आदान प्रदान किया जा सके व उत्तराखंड संस्कृति का प्रचार प्रसार भी किया जा सके।  उत्तराखंड फिल्म असोसिएसन  समय समय पर असहाय व अस्वस्थ फिल्म रचनाधर्मियों व तकनीसियनो की सहायता भी करता है। समय समय पर उत्तराखंड फिल्म असोसिएसन   उत्तराखंड फिल्मों की समस्यायों से सरकार व अधिकारियों को अवगत कराता रहा है।  उत्तराखंड फिल्म असोसिएसन  वर्तमान पधाधिकारी -श्री हेमंत कोचर- संरक्षक श्री बलराज नेगी संयोजक व संरक्षक  श्री एस . पी . एस नेगी - अध्यक्ष श्री गोविन्द राणा -उपाध्यक्ष  श्री राजेन्द्र सिंह रावत -महासचिव श्री मदन डुकलाण -कोषाध्यक्ष श्री मणि भारती -सांस्कृतिक सचिव श्री हेमंत बुटोला -सह सांस्कृतिक सचिव श्री जॆ. एस. थापा -प्रचार -प्रसार सचिव   [ यह लेख उत्तराखंड फिल्म असोसिएसन  के कोषाध्यक्ष श्री मदन डुकलाण से बातचीत पर आधारित है)  Copyright@ Bhishma Kukreti 1/3/2012 
 

Bhishma Kukreti

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उत्तराखंड फिल्म असोसियेसन द्वारा उत्तराखंड फिल्म नीति पर कुछ सुझाव



                                   प्रस्तुति -भीष्म कुकरेती



[ उत्तराखंड फिल्म निर्माण लाभकारी व्यापार कभी नही माना गया। अधिसंख्य निर्माताओं ने भाषा एवं संस्कृति  भक्त बन कुमाउनी या गढवाली फ़िल्में बनाईं और यही  अभी तक  यह उद्यम का रूप नही ले सका है। जब तक उत्तराखंडी फिल्म निर्माण उद्यम का आकार नही लेता अथवा उत्तराखंड सरकार  इसे उद्योग का दर्जा नही देती  उत्तराखंडी फिल्म में ना ही तेजी आयेगी ना ही असली व्यवसायी इसमें लागत लगायेंगे। उत्तराखंड फिल्म असोसियेसन , देहरादून ने सरकार को कुछ सुझाव दिए हैं और वे सुझाव इस प्रकार हैं }

१- उत्तराखंड में फिल्म नगरी नही फिल्म कौम्प्लेक्ष बनना चाहिए

२- फिल्म कौम्प्लेक्ष में पंच सितारा होटल के स्टैण्डर्ड के दस से बारह कमरों के आवासीय  सुविधा हों। इसके अतिरिक्त कुछ कमरे ग्न्रल स्टाफ के लिए हों।

३- भोजन व्यवस्था इस तरह हो कि अन्तराष्ट्रीय स्टार के निर्माताओं को यहाँ ठहरने में दिक्कत ना हो

४-कुछ ऐसी दुकाने हों जो फिल्म निर्माण के लिए कैमरा, लाइटिंग मशीनें , जनरेटर  आदि अन्य सभी मशीने किराए पर दे सकें व साथ में तकनीसियन भी सुलभ हों।

५- यहाँ एडिटिंग, रिरिकौर्डिंग आदि लैब, ध्वनी रिकॉर्डिंग आदि की सुविधा  हों

६ रॉ स्टोक या कच्चा मॉल की सुविधा हो

                           कुमाउनी व गढवाली फिल्मों हेतु वित्तीय सहायता 

१- क्षेत्रीय भाषाई फिल्मो को नकद व अन्य जैसे कर माफी जैसी सहायता मिले

२- हिंदी व अन्य भाषाई फिल्मों के उत्तराखंड में फिल्माकन को प्रोत्साहन दिया जाय   

३- सरकारी हस्त्सक्षेप कम हो।

४- प्रचार प्रसार से हिंदी व अन्य भाषाई फिल्मों के उत्तराखंड में फिल्माकन के लिए निर्माताओं को न्योता भेजा  जाय

५- क्षेत्रित फिल्मन को पुरस्कृत किया जाय

६- अच्छी  क्षेत्रीय भाषाई फिल्मो को अन्तराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में भेजने के लिए सहायता दी जाय

७- राज्य में इम्पा जैसी संस्था हो जिससे पंजीकरण  यहीं हो

८ फिल्म कारिंदों व र्च्नाध्र्मिताओं हेतु आवासीय कालोनी हो

९- एक ही असोसिएसन को मान्यता हो

१०  मिनी सेंसर बोर्ड देहरादून में हो

१ १ - बैंक फिल्म निर्माताओं को लोन सुविधा उपलब्ध कराए

                            पाइरेसी रुकवाने हेतु कड़े कदम व कड़े नियम बनाये जायं

पायरेसी रोकने के लिए कड़े नियम व कड़े कदम उठाये जायं

फिल्म प्रदर्शन पहाड़ों में कठिन है अत: सरकारी खर्च पर चलते फिरते प्रदर्शन हौल हों

शहरों में सभी सिनेमाग्रहों में एक शो क्षेत्रीय फिल्मो के लिए बंधित हो

 

[  उत्तराखंड फिल्म असोसियेसन के कोषाध्यक्ष श्री मदन डुकलाण से बातचीत पर आधारित )

Bhishma Kukreti

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उत्तराखंड  फिल्म बोर्ड की अति आवश्यकता           



                             प्रस्तुती --भीष्म कुकरेती


    उत्तराखंड से जुड़े कई हस्तियों से बातचीत से एक मुख्य बात निकल कर सामने आयी कि गढवाली व कुमाउँनी भाषाई फिल्मों व एल्बमों का विकास भाषा-संस्कृति  संरक्षण एवं विकास हेतु आवश्यक है। कुमाउंनी व गढ़वाली फ़िल्में हिंदी व  हौलिवुड जैसी नही हो सकतीं हैं किन्तु अपनी अलग पहचान वाली फ़िल्में अवश्य बनायी जा सकती हैं जो गढ़वाली एवं कुमाऊं का प्रतिनिधित्व कर सकें।

  यह एक कतु सत्य है कि उत्तराखंड ऐसा राज्य नही बन सका जिसकी कल्पना गढ़वाली व कुमानियों ने आन्दोलन के समय किया था। उत्ताराखंड एक मिनी उत्तर परदेस बन कर रह गया है। जिस तरह गढवाली -कुमाउनी फिल्म उद्यम के प्रति उत्तर परदेस सरकार उदासीन थी उसी प्रकार उत्तराखंड सरकार भी कुमाउंनी व गढ़वाली फिल्मों के प्रति उदासीन ही है।

        गढ़वाली  -कुमाउनी फिल्मों के रचनाधर्मियों की मांगें हैं की उत्तराखंड में उत्तराखंड फिल्म बोर्ड की स्थापना की जय और गढ़वाली -कुमाउनी फिल्म निर्माण की नीति बनाई जाय जो

१- जो  गढ़वाली -कुमाउनी डौक्युमेंट्री फिल्मों से लेकर अन्तराष्ट्रीय स्तर फीचर फिल्मों को प्रोत्साहन दे।

२- फिल्मों को पर्यटन से जोड़ा जाय

३-  फिल्म प्रोडक्सन पर कोई कॉर्पोरेट टैक्स ना लगे

४- सभी तरह के टैक्सों पर १५० % क्रेडिट मिले

५- एक गढ़वाली- कुमाउंनी फिल्म फंड की स्थापना की जाय जिसमें निवेशकों को १५० % रिबेट मिले

६- सभी सिनेमाग्रहों को संवैधानिक हिसाब से गढ़वाली- कुमाउंनी फिल्म प्रदर्शन का नियम

७ -डयूटी फ्री फिल्म निर्माण हेतु मशीनों को सरकारी संरक्षण व फिल्म निर्माण हेतु मशीनों के व्यापारियों को सरकारी संरक्षण। फिल्म निर्माण की सभी सुविधाएं उत्तराखंड में ही उपलब्ध हों

८  - उत्तराखंड फिल्म इंस्टिटयूट की स्थापना जहां क्षेत्रीय नाटकों व फिल्म  निर्माण की तालीम दी जाय

९- फिल्म निर्माण हेतु कम ब्याज पर फंडिंग का इंतजाम हो

१० - रामा जी राव फिल्म सिटी  की तर्ज पर एक उत्तराखंड फिल्म सिटी का निर्माण

११ - फिल्म वितरण की समस्याओं का निदान किया जाय

१२ - उत्तराखंडी  भाषाई फिल्मों के लिए बाजार खोजे जायं एवं वितरण किया जाय

१३- उत्तराखंडी  भाषाई फिल्म उद्यम में प्राइवेट -पब्लिक सहकारिता के रास्ते खोले जायं

१४ - फिल्म फेस्टिवलों का आयोजन किया जाय

१५ - ग्रामीण दर्शकों के लिए मूविंग सिनेमा प्रदर्शन का इंतजाम हो

 १६ -पायरेसी रोकी जाय

Bhishma Kukreti

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उत्तराखंडी फिल्म अवार्ड्स की आवश्यकता


                                                      भीष्म कुकरेती


सन १९८३ से उत्तराखंडी फिल्मो की शुरुवात हुयी। किन्तु सही माने में यंग उत्तराखंड संस्था , दिल्ली ने सन २०१० से उत्तराखंड सिने अवार्ड द्वारा फिल्मों व फ़िल्मी रचनाकारों को सम्मान देना शुरू किया। यंग उत्तराखंड साइन अवार्ड्स के बाद कुछ एनी संस्थाओं ने भी प्रयास किये किन्तु ये प्रयास छोटे स्तर पर ही किये गये।


उत्तराखंडी फिल्म अवार्ड्स से कई लाभ हैं

 उत्तराखंडी फिल्म अवार्ड्स याने भाषाई आन्दोलन में सहभागिता - अपनी भाषा व संस्कृति की सुरक्षा, प्रसार, क्रमगत विस्तार व सही परिवर्तन सरकार का नही अपितु समाज की जुम्मेवारी है। केवल लिखित साहित्य से ही भाषाई आन्दोलन नही चलता अपितु अन्य माध्यमों की अपना महत्व है। फ़िल्में, म्यूजिक अल्बम व डौक्युमेंट्री फ़िल्में भाषाई आन्दोलन के लिए एक महत्वपूर्ण माध्यम हैं। हिंदी के विकास में फिल्मो/टी.वी. सीरियलों का बह्गुत बड़ा हाथ है। जब फिल्मों , म्यूजिक अलबमों और डौक्युमेंट्री फिल्मों को मान सम्मान मिलता है तो स्वयं ही अवार्ड देने की प्रक्रिया भाषा व संस्कृति की सुरक्षा, प्रसार, क्रमगत विस्तार व सही परिवर्तन में भागीदारी निभाती है।

फिल्म व म्यूजिक अलबम्स युवाओं अपनी भाषा और संस्कृति की और आकर्षित करने का महत्वपूर्ण माध्यम है जब उत्तराखंड साइन अवार्ड जैसे अवार्ड देने वाली संस्थाएं अवार्ड से पहले व बाद में विज्ञापनों या जन सम्पर्क माध्यमों से प्रचार प्रसार करतीं हैं तो स्वयमेव भाषा का प्रश्न लेकर समाज के सामने आ जाते हैं और इस प्रचार प्रसार की प्रक्रिया से भाषाई आन्दोलन को बल मिलता है। उत्तराखंडी समाज जो कुछ अभिनव कारणों से अपनी भाषा व संस्कृति छोड़ने को मजबूर हैं वे फिल्म अवार्डों के जरिये भाषा व संस्कृति से जुड़ने लगते हैं।

 



उत्तराखंडी फिल्म अवार्ड्स याने संस्कृति प्रचार आन्दोलन- फिल्म अवार्ड सामुदायिक स्तर पर संस्कृति संवाहक का काम करता है। फिल्म रचना धर्मी संस्कृति व परम्परा के पोषक होते हैं। जब कोई संस्था जैसे यंग उत्तराखंड सिने अवार्ड देती है तो परोक्ष व अपरोक्ष रूप से फिल्म अवार्ड संस्कृति पोषण में संवाहक का काम करते हैं।

 

उत्तराखंडी फिल्म अवार्ड्स याने संस्कृति व भाषा संरक्षण पर विचार विमर्श : फिल्म अवार्ड देने की प्रक्रिया से समाज में संस्कृति व भाषा संरक्षण पर विचार विमर्श की प्रक्रिया शुरू करवाती है। इस तरह उत्तराखंडी फिल्म अवार्ड्स संस्कृति व भाषा संरक्षण पर विचार की प्रक्रिया हेतु उत्प्रेरण का काम भी करते है।

 

कम्युनिटी फिल्म अवार्ड याने अपने को सम्मान: जब किसी को क्म्म्युनिती फिल्म अवार्ड मिलता है तो समाज में एक संदेस जाता है कि हमे समाज में अपने चितेरों व अपने रचनाधर्मियों को सम्मान देना ही चाहिए।

 

उत्तराखंड फिल्म समालोचना को बढावा; फिल्म उद्योग विकास के लिए फिल्म समालोचना प्रक्रिया एक आवश्यक तत्व है। फिल्म अवार्ड्स से उत्तराखंड फिल्म समालोचना के लिए मार्ग भी प्रसिस्थ होता है.



उत्तराखंडी फिल्म अवार्ड्स याने रचनाधर्मियों में सहज व सकारात्मक प्रतियोगिता: किसी भी क्षेत्र में आतंरिक प्रतियोगिता आवश्यक तत्व है। उत्तराखंडी फिल्म अवार्ड्स से फ़िल्मी रचनाधर्मियों के मध्य एक सकारात्मक व धनात्मक प्रतियोगिता शुरू होती है तो यह सकारत्मक प्रतियोगिता उत्तराखंडी फिल्म उद्यम के लिए ऊर्जा का काम करती है।



उत्तराखंडी फिल्म अवार्ड्स से खर पतवार की छंटनी: फिल्म अवार्ड्स में फिल्मों के धनात्मक पक्षों पर दिए जाते हैं और स्वत: कमजोर पक्षों की आलोचना हो जाती है। अत: फिल्म अवार्ड्स से बेकार की फिल्म बनने पर लगाम लगती है।

 

उत्तराखंडी फिल्म अवार्ड्स से उत्तराखंडी फिल्मो में परिपक्वता: फिल्म अवार्ड्स से उत्तराखंडी फिल्मो में परिपक्वता आने के अवसर बढ़ते हैं।



उत्तराखंडी फिल्म अवार्ड्स याने कलाकारों/रचनाधर्मियों के मध्य कला व तकनीक का आदान प्रदान:फिल्म अवार्ड्स में कलाकार व रचनाधर्मियों को अन्य रचनाकारों की रचनाओं को देखने का अवसर प्राप्त होता है. इस तरह रचनाकारों के मध्य कला व तकनीक का आदान प्रदान भी होता है। एक दूसरे की रचनाधर्मिता की जानकारी से रचनाधर्मियों को नई प्रेरणा व स्फूर्ति मिलती है।



उत्तराखंडी फिल्म अवार्ड्स से कलाकारों व तक्नीसियनो में उत्साह: फिल्म कलाकारों, रचनाधर्मियों व तकनिसियनो में उत्साह होना फिल्म उद्यम विकास हेतु एक आवश्यक तत्व है। फिल्म अवार्ड्स से रचनाधर्मियों का उत्साह बढ़ता है।

 

उत्तराखंडी फिल्म अवार्ड्स से फिल्म उद्योग विकास को बल मिलता है: फिल्म अवार्डों से फिल्म उद्योग को कई तरह के प्रचार प्रसार के अवसर मिलते हैं जिससे कि फिल्म उद्योग विकास को सम्बल मिलता है।



फिल्म अवार्ड्स से सरकार पर दबाब बनाया जा सकता है: उत्तराखंड फिल्म उद्योग एक गम्भीर संक्रमण काल से गुजर रहा है जिसमे सरकारी सहभागिता की अति आवश्यकता है. फिल्म अवार्डों से राज्य सरकार पर सहभागिता हेतु सामाजिक दबाब बनाया जा सकता है।

अत: यह कहा जा सकता है की फिल्म अवार्ड्स उत्तराखंड के भाषाई व संस्कृति आंदोलनों व फिल्म उद्योग प्रगति हेतु एक आवश्यक तत्व है।



Copyright@ Bhishma Kukreti 8/3/2013 


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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सर

आपके विचारो से मै पूरी तरह सहमत हूँ! उत्तराखंड के संगीत से जुड़े हुए लोगो को आगे आना चाहिए
इस लडाई में ?

Bhishma Kukreti

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हिंदी की सड़क छाप फिल्मों की नकल ने गढ़वाली -कुमाउनी फिल्मों को लहूलुहान किया -नरेंद्र सिंह नेगी



                                                प्रस्तुति -भीष्म कुकरेती



 



[गढ़वाली -कुमाउनी फिल्म-वीसीडी ऐलबम उद्यम के बारे में मै कई दिनों से गढ़वाली -कुमाउनी फिल्मकारों से लगातार बात कर रहा हूँ। इसी क्रम में आज हिमालय क्षेत्र के महान गायक, गीतकार, फिल्म-ऐलबम संगीत निर्देशक श्री नरेंद्र सिंह जी से फोन पर गढ़वाली -कुमाउनी उद्यम पर लम्बी बातचीत हुयी। बातचीत गढ़वाली में ही हुयी ]
 




भीष्म कुकरेती - नेगी जी नमस्कार आज पौड़ी में या कहीं और ?

नरेंद्र सिंह नेगी - नमस्कार जी कुकरेती जी। आज मैं  अभी एक समारोह हेतु श्रीनगर आया हूँ। कहिये।
 


भीष्म कुकरेती - नेगी जी ! गढ़वाली -कुमाउनी फिल्म उद्योग पर बातचीत करनी थी। समय हो तो ..

नरेंद्र सिंह नेगी - हाँ कहिये ! वैसे गढ़वाली फिल्मे कुमांउनी फिल्मों के मुकाबले अधिक बनी हैं। जब कि कुमाऊं में अंतर्राष्ट्रीय स्तर के राजनेता, वैज्ञानिक, सैनिक अधिकारी, ,संगीतकार चित्रकार , साहित्यकार, कलाकार हुए हैं किन्तु यह एक बिडम्बना ही है कि कुमाउनी फिल्मे ना तो उस स्तर की बनी और ना ही संख्या की दृष्टि से समुचित फ़िल्में बनीं।



भीष्म कुकरेती - गढ़वाली व कुमांउनी फिल्मो का स्तर कैसा रहा है?

नरेंद्र सिंह नेगी -देखा जाय तो अमूनन स्तर स्तरहीन ही रहा है। हिंदी के कबाडनुमा फिल्मों की नकल रही है गढ़वाली व कुमांउनी फ़िल्में। असल में उत्तराखंडी फिल्म उद्योग में सांस्कृतिक और सामजिक स्तर के  अनुभवी लोग आये ही नही। जब आप क्षेत्रीय फिल्म या ऐलबम बनाते हैं तो  पहली मांग होती है कि वह क्षेत्रीय सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक वस्तुस्थिति को दिखाये। किन्तु शुरू से ही गढ़वाली -कुमांउनी फ़िल्में या तो भावनात्मक दबाब या रचनाकारों का हिंदी फिल्म उद्योग में आने के लिए बनायी गयीं और यही कारण है कि कुमांउनी-गढ़वाली फिल्मों ने वैचारिक  स्तर व कथ्यात्मक स्तर पर कोई विशेष क्या कोई छाप छोड़ी ही नही। असल में हिंदी की सडक छाप फिल्मों की भोंडी नकल ने कुमांउनी -गढ़वाली फिल्मो को लहूलुहान किया।

भीष्म कुकरेती - आप क्यों हिंदी फिल्मो पर जोर दे रहे हैं?

 नरेंद्र सिंह नेगी- कुकरेती जी !  हिंदी फिल्मों में कमोवेश हिंदी भाषा भारतीय है पर कोई भी हिंदी फिल्म हिन्दुस्तान की संस्कृति और समाज का प्रतिनिधित्व नही करती और जब हम डी ग्रेड हिंदी फिल्मों की भोंडी नकल करेंगे तो हमें कबाड़ ही मिलेगा कि नही?


भीष्म कुकरेती -हाँ यह बात तो सत्य है कि अधिसंख्य हिंदी फ़िल्में पलायनवादी याने एक अलग किस्म के समाज को दिखलाती आती रही हैं।

नरेंद्र सिंह नेगी- और जब गढवाली -कुमांउनी रचनाकार एक काल्पनिक समाज की प्रतिनिधि हिंदी फिल्मो की उल -जलूल नकल पर फिल्म बनाएगा तो विचारों के स्तर पर बेकार ही फ़िल्में बनेंगी।आप ही ने एक उदाहरण दिया था की 'कभी सुख कभी दुःख ' फिल्म में गढ़वाली गावों में डाकू घोड़े में चढ़कर डाका डाल  रहे है.. अभी एक गढ़वाली डीवीडी फिल्म रिलीज हुयी  जिसमे गढवाल के गाँव में खलनायक की टीम  दुकानदारों से हफ्ता वसूली कर रही है। अब एक बात बताइये ! गढ़वाल या कुमाऊं के गावों में आज भी शाहूकारी व दुकानदारी के अति विशिष्ठ सामजिक नियम हैं और दुकानदार समाज का उसी तरह का सदस्य है जिस तरह एक लोहार या पंडित। और यदि कोई दुकानदारों से हफ्तावसूली करे तो क्या गाँव वाले हिंदी फिल्मों की तरह चुप बैठ सकते हैं?मैदानी और पहाड़ों में सामाजिक व मानसिक दोहन (एक्सप्लवाइटेसन)  बिलकुल  अलग अलग किस्म के हैं।फिर इस तरह की बेहूदगी गढ़वाली -कुमांउनी फिल्मों में दिखाई जायेगी तो ऐसी फ़िल्में ना तो वैचारिक दृष्टि से ना ही उद्योग की दृष्टि  से दर्शकों को लुभा पाएगी। प्यार के मामले में भी सम्वेदनशीलता की जगह  फूहड़ता ... इश्क को फिल्मों में रूमानियत की जगह अजीब और अनदेखा नाटकीयता से फिल्माया जाता है।


भीष्म कुकरेती - कई लोगों ने मुझसे बात की कि यदि गढवाली -कुमांउनी फिल्मों को पटरी पर लाना है तो उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर की वैचारिक फ़िल्में बनानी पड़ेंगी।

 नरेंद्र सिंह नेगी- जी हाँ मै भी इसी विचार का समर्थक हूँ कि जब तलक कुमांउनी-गढवाली फिल्मों में सत्यजीत रे सरीखे समाज और संस्कृति से जुड़े संवेदनशील रचनाकार नहीं आयेंगे तब तक इसी तरह की हिंदी नुमा क्षेत्रीय भाषाओं में बनेंगी। सत्यजीत रे ने बंगाली फिल्मों को बंगाली बाणी दी। मै एक उदाहरण देना चाहूँगा कि किस तरह हमारे क्षेत्रीय फिल्म रचनाकार  हिंदी फिल्मों के मानसिक गुलाम हैं। मैंने एक गढवाली फिल्म में म्यूजिक व बैक ग्राउंड म्यूजिक दिया। लड़ाई के एक दृश्य में मैंने डौंर-थाली से  डौंड्या नर्सिंग नृत्य संगीत शैली में बैक ग्राउंड म्यूजिक दिया। सारे दिन भर मुंबई के एक स्टूडियो में मैंने यह म्यूजिक रिकॉर्ड किया। पर जब मैंने फिल्म देखी तो वह बैक ग्राउंड म्यूजिक गायब था व हिंदी फिल्मों के स्टौक म्यूजिक का  ढिसूं -ढिसूं म्यूजिक डाला गया था।       


भीष्म कुकरेती - आखिर क्या कारण है कि गढ़वाली-कुमांउनी फ़िल्मी रचनाकार  हिंदी फिल्मों के नकल कर रहे हैं।

 नरेंद्र सिंह नेगी- प्रथम कारण,  तो गढ़वालियों और कुमांउनी फिल्म रचनाकारों व समाज  दोनों को काल्पनिक हिंदी फिल्मों का वातावरण मिलता है तो हर क्षेत्रीय फिल्म रचनाकार इस हिंदी फिल्म के तिलस्म को तोड़ पाने में असमर्थ ही है।







भीष्म कुकरेती -इस समस्या का  निदान ?

 नरेंद्र सिंह नेगी- जब तक कुमांउनी -गढ़वाली फिल्म उद्यम में संस्कृति व समाज को पहचानने वाले सम्वेदनशील कथाकार, पटकथाकार व फिल्म शिल्पी एक साथ नही प्रवेश करेंगे तो विचारों की दृष्टि से गढ़वाली-कुमांउनी फिल्म व ऐल्बम इसी तरह की काल्पनिक ही होंगी। फिल्म कई कलाओं व तकनीक का अनोखा संगम है अत: सम्वेदनशील रचनाकारों की टीम  ही विचारों की दृष्टि से इस खालीपन को दूर कर सकते हैं। 

भीष्म कुकरेती- नेगी जी आजकल गढ़वाली -कुमाउनी फिल्म-ऐलबम उद्योग का क्या हाल है?

 
नरेंद्र सिंह नेगी -कुकरेती जी बहुत ही बुरा हाल है। नई टेक्नौलौजी याने इंटरनेट और डीवीडी से पेन ड्राइव पर डाउन लोडिंग से गढ़वाली -कुमाउनी फिल्म-ऐलबम उद्योग ठप्प ही पड़ गया है।

भीष्म कुकरेती- अच्छा इतना बुरा हाल है?

नरेंद्र सिंह नेगी - अजी ! इतना बुरा हाल है कि कई म्यूजिक कम्पनियों ने म्यूजिक उद्योग बंद कर तम्बाकू -गुटका पौच बेचने का धंधा शुरू कर दिया है

भीष्म कुकरेती - क्या कह रहे हैं आप ?


नरेंद्र सिंह नेगी -हाँ जब क्षेत्रीय म्यूजिक से मुनाफ़ा ही नही होगा तो म्यूजिक कम्पनियां दूसरा धंधा शुरू करेगे ही कि नहीं?

भीष्म कुकरेती -पर कॉपी राईट के नियम तो हैं ?


नरेंद्र सिंह नेगी - भीषम जी ! नियम तो हैं पर न्यायिक प्रक्रिया इतनी जटिल और लम्बी है कि कोई भी उद्योगपति न्यायालयों के झंझटों में नही पड़ना चाहता।

भीष्म कुकरेती - फिर कुछ ना कुछ समाधान तो ढूंढना ही होगा।


नरेंद्र सिंह नेगी - अभी तो फिल्म कर्मियों को नई तकनीक द्वारा असम्वैधानिक तरीकों से नकल का कोई तोड़ नही मिल रहा है

भीष्म कुकरेती - आपका मतलब है अब म्यूजिक कम्पनियां गढ़वाली -कुमाउनी फिल्म -ऐलबम निर्माण कर ही नहीं पाएंगी?


नरेंद्र सिंह नेगी - नही टी सीरीज जैसी बड़ी कम्पनियों के लिए तो अभी भी यह बजार मुनाफ़ा दे सकता है क्योंकि उन्हें वितरण के लिए केवल गढ़वाली -कुमाउनी फिल्म -ऐलबमों पर निर्भर नहीं रहना पड़ता। फिर कुछ छोटी याने आज आयि कल गयी कम्पनियां मर मर कर इस उद्योग को चलाती रहेंगी।

भीष्म कुकरेती -मतलब ब्यापार की दृष्टि से आज का गढ़वाली -कुमाउनी फिल्म -ऐलबम निर्माण घाटे का सौदा है।


नरेंद्र सिंह नेगी - आज की स्थिति से तो यही लगता है।

भीष्म कुकरेती - नेगी जी ! मै सोच रहा था कि नई तकनीक से क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मो को फायदा होगा किन्तु ...


नरेंद्र सिंह नेगी -देखिये इंटरनेट और डाउन लोडिंग तकनीक से क्षेत्रीय भाषाई म्यूजिक या फ़िल्में दूर दूर भारत के शहरों में व विदेशों में बसे प्रवासियों को सुलभ हो गईं । यह एक बहुत फायदा भाषा को हुआ किन्तु इससे फिल्म और म्यूजिक ऐलबम निर्माण तो ठप्प हो गया कि नहीं? जब उत्पादन का निर्माण ही नही होगा तो फिर भविष्य में बिखरे उत्तराखंडियों को कहाँ से फिल्म दर्शन व संगीत उपलब्ध होगा?

भीष्म कुकरेती - मतलब सामजिक जुम्मेवारी  यह है कि उत्तराखंडी लोग स्वयं ही अनुशासित हो कापीराईट का उल्लंघन ना करें और नकली डीवीडी ना खरीदें


नरेंद्र सिंह नेगी - आदर्शात्मक हिसाब से सही है किन्तु ...

भीष्म कुकरेती - इसका अर्थ हुआ कि राज्य सरकार को कुछ करना चाहिए?


नरेंद्र सिंह नेगी -किस सरकार की बात कर रहे हैं आप ? जिस राज्य के एक मुख्यमंत्री संस्कृत को राज भाषा घोषित करें और दूसरे मुख्यमंत्री उर्दू को राजभाषा घोषित करें पर दोनों राष्ट्रीय दलों के मुख्यमंत्रियों को लोक भाषाओं की कतई चिंता ना हो उस राज्य में आप क्षेत्रीय भाषाई फिल्म -ऐल्बम उद्योग की सरकारी सहयोग-प्रोत्साहन की कैसे आशा कर सकते हैं ? हाँ कोई फिल्म अकादमी बने तो ...

भीष्म कुकरेती- तो वहां समाज सरकार पर दबाब क्यों नही बनाता।


नरेंद्र सिंह नेगी -आप सरीखे सम्वेदनशील  लोग इधर उधर बिखरे हैं। मै या अन्य रचनाकार सभाओं में फिल्म उद्योग को सरकारी संरक्षण , प्रोत्साहन की बात अवश्य करते हैं किन्तु हमारी राजनैतिक जमात सोयी नजर आती है।

भीष्म कुकरेती- पर कुछ ना कुछ उपाय तो अवश्य करने होंगे


नरेंद्र सिंह नेगी -हाँ ! फिल्म रचनाकार , कलाकार, समाज व सरकार सभी इस दिशा में एकी सोच से  काम करें तो यह उद्योग बच  सकता है।

भीष्म कुकरेती -जी धन्यवाद।  मुझसे बात करने के लिए   मै आपका आभारी हूँ

 

 

 Copyright@ Bhishma Kukreti 11/3/2013

 

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